संत हरिदास एकभारतीय संत और कवि थे, और इन्हें निरंजनी संप्रदाय के संस्थापक के रूप में जाना जाता है,इनका काल जीवन काल सोहलवीं शताब्दी के मध्य से सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक माना जाता है, यह अपने समय के बड़े प्रतापी साध संत माने जाते हैं, अपने इस लेख में हम इसी महान आत्मा संत हरिदास के जीवन परिचय के बारे में विस्तार से जानेंगे।
संत हरिदास जी का जन्म स्थान
संत हरिदास जी के जन्म स्थान डीडवाना से पश्चिमोत्तर कापडोद ग्राम माना गया है। यह राजस्थान के नागौर जिले में है। इसकी तहसील डीडवाना में है। डीडवाना से नागौर जाने वाली सड़क पर कोलिया ग्राम आता है। कोलिया से यह ग्राम उत्तर-पूर्व मे है। इस ग्राम में ही महात्मा संत हरिदास जी का जन्म हुआ था। उस समय यह क्षेत्र मांडलिक शासन में था, वैसे यह जोधपुर राज्य के क्षेत्र में था जिसका अपर नाम- “नवकोटि मारवाड़” भी कहा जाता था। मांडलिक शासन से अभिप्राय जागीर क्षेत्र से है। कोलिया मैं उस समय शांखले राजपूतों का अधिकार था। सुना जाता है कि उस समय कोलिया के नीचे बारह गाँव थे, मतलब बारह गांवों की जागीरी कोलिया के अधिपति के अधीन थी। अधिपति थे शांखले राजपूत, कापडोद भी उसी जागीर का गाँव था।
स्वामी हरिदास जी की जाति
महात्मा हरिदास जी की जाति की बाबत भी विशेष मत भिन्नता नहीं है। उनको प्रायः सभी ने शांखला राजपूत माना है और संत हरिदास का पुराना नाम हरिसिंह जी कहा गया है। ऊपर जैसा उल्लेख किया गया है कि कोलिया की जागीर शांखलों की थी। उन्हीं के अधीन अन्य ग्रामों के साथ कापडोद गाँव भी था। जागीर प्रथा में यह रिवाज प्रचलित था कि जागीर के अधिपति का बड़ा पुत्र उस जागीर का अधिपति बनता है, शेष सन्तानें छुटभइयों के रूप में रहते हैं। उनको कुछ भू-भाग जागीर में दे दिया जाता है। इस तरह इन छुटभइयों की परम्परा-वृद्धि में प्राप्त भूभाग के हिस्से होते जाते हैं। अन्त में ऐसी स्थिति भी आ जाती है कि उनके पास या तो बहुत छोटा अंश भूमि का रह जाता है या रहता ही नहीं। ऐसे परिवार उस जागीर के ग्रामों में जहां-तहां निवास कर लेते हैं। सम्भव है इसी तरह की स्थिति के कुछ राजपूत परिवार कापडोद के निवासी थे, उन्हीं में से किन्हीं के पुत्र रूप में हरिसिंह जी ने जन्म लिया था। उनके माता-पिता का नाम क्या था ? इसकी जानकारी का कोई आधार नहीं है। हमें यही मानना है कि कापडोद ग्राम में शांखला राजपूत के घर संत हरिदास जी का जन्म हुआ। जब तक इससे भिन्न कोई पुष्ट प्रमाण प्राप्त न हों, तब तक यही तथ्य समझा जाना चाहिए।
डकैत हरिसिंह से महात्मा संत हरिदास बनने की कहानी
हरिदासजी का जन्म सम्वत् 1512 में हुआ। वे शांखला गोत्र के क्षत्रिय थे। ग्राम कोलिया उस समय शांखला क्षत्रियों की जागीर का प्रमुख स्थान था। कोलिया से उत्तर-पूर्व दो कोस पर कापड़ोद ग्राम था। यह कापड़ोद ग्राम ही महाराज हरिदास जी की जन्म स्थली है। आज भी यह ग्राम आबाद है। शांखलों के भी कुछ घर अब भी हैं। प्राचीन समय में क्षत्रियों का जीवन भूमि-अधिकार से या लूट-डकैती से चला करता था। हरिसिंह जी का बाल-जीवन अन्य बालकों की तरह ही व्यतीत हुआ। उनके माता-पिता का नाम ज्ञात नहीं हुआ है। वयस्क होने पर उनका विवाह हो गया तथा गृहस्थी के पालन के लिए उन्होने भी डकैती का मार्ग अपनाया। डीडवाना से कोलिया को आने वाले मार्ग में जंगल में एक कुआं था, जिसकी संज्ञा बाद में खोसल्या कुआ नाम से हुई, वही उनके लूटने का प्रमुख स्थान था।
संत हरिदास जी निरंजनीकालक्रम से एक दिन एक महात्मा का उधर आने का संयोग हुआ। हरिसिंह जी ने उनको भी लूटने के विचार से रोका। महात्मा ने उनको समझाया कि मनुष्य-जन्म पाकर यह पाप-कर्म तुम जो कर रहे हो इसका फल कौन भोगेगा ? । हरिसिंह जी ने कहा कि जो लूट के माल से मेरा कुटुम्ब पेट भरता है, वही इस पाप का फल भोगेगा। महात्मा ने कहा-इसकी जांच तो करो। तब हरिसिंह जी ने महात्मा को एक पेड़ से बांध दिया तथा घर आकर कुटुम्बियों से पूछा कि कहो, में जो यह लूट- डकैती करके नर- हत्या से धन लाता हूं, उस पाप के भागीदार कौन होंगे ? कुटुम्बियों ने उत्तर दिया कि “जो हत्या-लूट करेगा, वही उस पाप का भागीदार होगा।
इस उत्तर ने हरिसिंह जी की सहज मानवीय भावना को उद्बेलित किया। वे वापिस लौटते हुए अपने इस कुकर्म पर विचार करने लगे। महात्मा के पास आने तक उनका अन्तर्मन बदल गया। उनको अत्यन्त आत्मग्लानि हुई। महात्मा को खोल, विनयान्वित हो, उनसे क्षमा मांगी तथा अपने कल्याण के लिए मार्गप्रदर्शन की प्रार्थना की।
महात्मा ने आध्यात्मिक-पथ का उपदेश दिया तथाआत्मचिन्तन में लगने का निर्देश कर अन्तर्धान हो गए। श्रुत-परम्परा में इन्हें गोरखनाथ जी कहा जाता है। उक्त उपदेश प्राप्त हुआ उस समय उनकी अवस्था चवालीस वर्ष की थी-स्त्री-पुत्रादि कुटुम्ब भी था। आपने महात्मा से उपदेश प्राप्त करते ही अपने शस्त्रादि उसी “खोसल्य कुए” में डाल वहां से दो-तीन कोस पर पहाड़ी प्रदेश की सबसे बड़ी पहाड़ी ‘तीखी डूंगरी’ की ओर प्रस्थान कर दिया। उस पहाड़ी में पहुंचकर ईश्वर- चिन्तन में लग गए । तीव्र वैराग्य की उत्पत्ति हो गई और वे अनवरत आत्मचिन्तन में लग गये। और एक डकैत हरिसिंह से संत हरिदास बन गए।
संत हरिदास जी की मृत्यु
उनका निरन्तर आत्मचिन्तन पर्याप्त समय तक इस डूंगरी पर चला। जब स्थितप्रज्ञ की स्थिति हो गई व चिन्तन का कार्य स्थायी वृत्ति में सम्यक् स्थान पा गया, तब आप अपनी अनुभूति के अनुसार जन-समुदाय को मार्म-प्रदर्शन के लिए भ्रमण को निकल पड़े। अनेक स्थानों का भ्रमण कर अन्तिम समय के समीप डीडवाना में आये तथा यहीं सम्वत् सौलह सौ की फाल्गुन शुक्ला षष्ठी को वे ब्रह्मलीन हो गए। इस तरह आयु का पूर्वाद्ध सांसारिक जीवन में व्यतीत हुआ और उत्तराद्ध आत्मचिन्तन में लगा। अठयासी वर्ष की आयु का उपभोग कर, संसार को शुभ संदेश प्रदान कर वे अपनी विशुद्ध साधनानुभूति के निचोड़रूपी “अनुभव वाणी” को हमें प्रदान कर गए जिसके आधार से हम भी आज तक सन्मार्ग प्राप्त कर रहे हैं। उनका नश्वर शरीर चला गया, पर उनकी अनुभूति आज भी अक्षुण्ण है।
महात्मा हरिदास जी के चमत्कार
डूंगरी पर्वत पर वैराग्य और और आत्मज्ञान प्राप्त कर महाराज हरिदासजी डीडवाना में निवास कर कुछ काल के लिए राजस्थान के भ्रमण को निकल पड़े। अपने भ्रमण के दौरान संत हरिदास जी ने अनेक चमत्कार किए और ज्ञान का प्रकाश फैलाया। उनके कुछ चमत्कारों का यहां वर्णन करना उचित होगा।
डीडवाना में भी एक चमत्कारी-घटना घटित हुई थी। महाराज हरिदासजी नगर में किसी के यहां भिक्षा पाने जा रहे थे। रास्ते में एक स्थान पर एक गृहस्थ अपना घर बनवा रहा था। घर की भूमि में एक पीपल का वृक्ष भी था, वेश्य उसके कटवाने का विचार कर रहा था। पीपल के कटने की बात को लेकर कुछ अन्य नागरिक भी एकत्रित हो गए थे। एकत्रित व्यक्तियों में कुछ पीपल को काट देने की राय दे रहे थे, कुछ न काटने की। महाराज संत हरिदास जी ने भी उधर से निकलते यह चर्चा सुनी, उन्होंने भी व्यक्त किया कि पीपल न काटा जाय। वेश्य ने नम्रता से निवेदन किया कि महाराज इसको न काटने से आगे जब इसकी वृद्धि होगी, तब इसके विस्तार तथा मूल (जड़) शाखाओं से, स्थान को क्षति
पहुंचना अनिवार्य है। महाराज ने कहा-इसकी वृद्धि के भय-वश ही इसको काटना चाहते हो तो यह तथा तुम्हारा वंश दोनों ही वृद्धि नहीं करेंगे। ये इसी रूप में रहेंगे, अतः इसको काटना नहीं। महाराज इतना कहकर चले गए। वैश्य दुविधा में उलझ गया, अन्त में पीपल न काटने का ही निश्चय रह । वह पीपल आज तक उसी रूप में अवस्थित है। अब उस स्थान को मन्दिर का रूप प्राप्त हो गया है। आज भी हम उक्त पीपली मन्दिर में जाकर उस पीपली को देख सकते हैं, जो कई सौ वर्षों से उसी रूप में वर्तमान है।
एक खूंखार डाकू से पलट कर महान सिद्ध पुरुष हो गए हैं। उनका तप-तेज भी साधारण नागरिक को आकर्षित करने वाला था। वे जहां जिस ग्राम में ठहरते, वहां सत्संग तथा आध्यात्मिक चर्चा भी अवश्य चलती। वे जन-साधारण में आध्यात्मिक चिन्तन की भावना को जागृत करते रहते थे। धीरे-धीरे चलते-चलते वे नागौर में जा पहुंचे। नागौर उन दिनों एक स्वतन्त्र राज्य था। राष्ट्रकूट (राठौड़) क्षत्रिय वहां राज्य करते थे। नगर के पश्चिम में कुछ दूरी पर एक सुन्दर बावड़ी थी। बावड़ी में मधुर जल का स्रोत भी था। पर बावड़ी पर भूत-निवास की चर्चा फेल जाने से लोगों का आना-जाना नहीं था। नगर से दूर होने तथा जंगल में होने से महाराज को वह स्थान उपयुक्त लगा। उन्होंने बावड़ी पर ही आसन लगा लिया। रात्रि में बावड़ी पर रहने वाले भूत ने विविध चेष्टाएं, महाराज को भयभीत करने की की। पर उनकी दृष्टि से तो सभी तरह की भेद-भावना समाप्त थी, अतः भूत की चेष्टाओं का उन पर क्या प्रभाव होता ? वे आत्मचिन्तन में मस्त थे। भूत ने समझ लिया कि यह कोई साधारण प्राणी नहीं है। अन्यथा मेरे द्वारा की गई वीभत्स चेष्टाओं से प्रभावित हुए बिना रहता नहीं। अन्त में भूत ने महाराज से अपने उद्धार की प्रार्थना की। संत हरिदास जी ने वाणी के प्रारम्भिक ग्रन्थ ‘ब्रह्मस्तुति” का पाठ करने का उपदेश किया, इसी से भूत का अनिष्ट-योनि से छुटकारा हुआ तथा उस बावड़ी के लिए जो एक भीतिभरी भावना फैली हुई थी, उसका भी निवारण हो गया। नागरिक महाराज के पास सत्संग के लिए आने लगे। कुछ दिन तक ज्ञान-चर्चा कर महाराज नागौर से आगे मेड़ते की और प्रस्थान कर गए। नागौर की इस भूत-बावड़ी का बहुत थोड़ा सा ऊपरी भाग आज भी दिखाई पड़ता है। उस ऊपरी अंश को छोड़ शेष पूरी बावड़ी मिट्टी से भर गई है और भूमि के गर्भ में है।
नागौर से चलकर मेड़ते में कुछ काल ठहर आगे अजमेर की ओर महाराज ने प्रस्थान किया। रास्ते में आने वाले ग्रामों में आवास करते हुए सत्संग-ज्ञान-चर्चा से जन-साधारण की मनोभावना में आत्मचिन्तन की प्रवृत्ति को जागृत करते जाते थे। धीरे-धीरे यात्रा करते हुए, पुष्कर होकर कालान्तर में अजमेर पहुंच गए। अजमेर उस समय यवन प्रशासकों के प्रशासन में था। हिन्दू और इस्लाम- धर्मों की दो संस्कृतियों का वह एक तरह से संघर्ष-काल था। शासक के नाते मुसलमानों का प्राधान्य तो था ही, धार्मिक मत भिन्नता भी गहरी थी। हिन्दू-धर्म की प्रतीक-उपासना का एकेश्वरवादी इस्लाम-धर्म में कोई स्थान नहीं था। मूर्ति-पुजा को मुसलमान बुतपरस्ती मानते थे। उनकी मान्यता थी कि खुदा को छोड़ इस तरह पाषाण-मूर्तियों की उपासना ईश्वर से गद्दारी है, इसलिए वे एक तरह से हिन्दुओं को काफिर समझते थे। यह भावना एक तरह से व्याप्त होने के कारण हिन्दू-धर्मी सन्त- महात्माओं के प्रति भी उनका दृष्टिकोण प्रतिगामी रहना स्वाभाविक था।
महाराज अजमेर पहुंचे। शायद उस समय के अजयमेरु (अजमेर) नगर से कुछ बाहर जहां आजकल दौलत बाग है, सामान्य जंगल के क्षेत्र में ठहर गए। धीरे-धीरे नागरिकों को पता लगने पर महाराज के पास पर्याप्त नागरिकों का आवागमन होने लगा। अधिकारियों के पास भी चर्चा हुई। उनको एक हिन्दू-फकीर का इस तरह महत्व बढ़ना शायद अच्छा न लगा होगा। सम्भव है किसी संकेत से या अनायास एक मदोन्मत्त हाथी उधर आ निकला लोगों ने महाराज से आग्रह किया आसन छोड़ने का, पर सन्त जन को भीति किसकी ? उनका हृदय सब प्राणियों की ओर
प्रेममय रहता है। लोग भय से इधर-उधर हो गए, महाराज स्वस्थान पर उसी तरह बैठे रहे। हाथी समीप आया, उसकी मस्ती न मालूम कहां गई ? उसने अपना मस्तक महाराज संत हरिदास जी के चरणों पर रख दिया। महाराज ने उसके मस्तक पर अपना दयाद्र -कर फेर शान्त और सीधे रहने का निर्देश किया। कहते हैं कि उसके पश्चात् उस हाथी ने जो कि पहले बड़ा बदमिजाज था, प्राणियों का हनन करता था–कभी किसी प्राणी पर आक्रमण नहीं किया। हाथी का यह परिवर्तन देख नागरिकों की श्रद्धा महाराज में और बढ़ी तथा उस स्थान पर एक भाटे का हाथी बनाकर रख दिया, अब तक भी वह स्मारक ‘हाथी-भाटे’ के नाम से प्रसिद्ध है। वह स्थान अब नगर में आ गया है तथा निरंजनी संतों के अधिकार में है। ऐसे ही ओर भी अनेक चमत्कार संत हरिदास जी द्वारा किए गए हैं, जिन सबका वर्णन करना यहां उचित नहीं।
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