संत सूरदास जी एक परमकृष्ण भक्त, कवि और साध शिरोमणि 16 वें शतक में हुए जो 31 बरस तक गुसाईं तुलसीदास जी के समकालीन थे। इनको उद्धवजी का अवतार कहते हैं और यह बाल-साध थे। आठ बरस की अवस्था में अपने माता पिता के साथ मथुरा को गये और फिर वहीं एक साथू के पास रह गये। मथुरा से वह गऊघाट आये जो आगरा और मथुरा के बीच में है, यहां वल्लभाचार्य महाप्रभुु के शिष्य हुए और उनके साथ श्री नाथद्वारा को गये और वहीं रह कर अस्सी बरस की अवस्था में शरीर त्याग किया। बीच बीच में और स्थानों की भी यात्रा करते रहे ओर एक रामत में संत तुलसीदास जी से भेंट हुई और कुछ दिनों तक दोनों का संग रहा। कितने लोग इनको जन्म का अंधा बतलाते हैं परन्तु इनकी कविता की अनेक दृष्टान्तों और वर्णनों से जान पड़ता है कि उनकी आखें पीछे से गई थीं। कहते हें कि एक बार र एक सुन्दरी स्त्री को देख कर वह मोह गये जिस पर उन्हें ऐसी ग्लानि आई कि अपनी आंखों का दोष समझ कर उनको फोड़ डाला। और भी कई कथाएं प्रचलित हैं।संत सूरदास के जीवन चरित्र के बारे ज्यादा कुछ ढूंढने से नहीं मिलता है, लेकिन इनके जीवन परिचय के संबंध हमें जो कुछ प्राप्त हुआ है उसका नीचे वर्णन किया गया है, संत सूरदास जी ने तीन ग्रन्थ रचे हैं— सूरसागर, सूरावली ओर साहित्य-लहरी। कृष्णभक्तों का विश्वास है कि इन्होंने प्रण किया था कि सवा लाख पद लिखेंगे परन्तु केवल 75000 तक बनाये थे कि चोला छूट गया फिर इनके पीछे श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने भक्त के वचन का पालन करने को शेष 50000 बनाकर सवा लाख की संख्या पूरी कर दी, इन पदों में सूरश्याम की छाप है। शरीर त्यागते समय आप ने प्रेम में गदगद हो कर यह पद् कहा था:—-
“रंजन नेन रूप रस साते।
अतिसै चारु चपल अनियारे, पल पिंजरा न समाते।
चलि चलि जात निकट स्रवनन के, उलटि उलटि ताटक फंदाते।
सूरदास अंजन गुन अटके, नातरू अब उड़ि जाते॥”
सूरदास का जीवन परिचय का संक्षिप्त विवरण
संत सूरदास का जीवन परिचय“चौरासी वैष्णवों की वार्ता” से केवल इतना ज्ञात होता है कि वे पहले गऊघाट ( आगरा और मथुरा के बीच ) पर एक साधु या स्वामी के रूप में रहा करते थे और शिष्य किया करते थे। गोवर्धन पर श्रीनाथ जी का मन्दिर बन जाने के बाद एक बार जब वल्लभाचार्य जी गऊघाट पर उतरे तब संत सूरदास उनके दर्शन को आए और उन्हें अपना बनाया एक पद गा कर सुनाया। आचार्य जी ने उन्हें अपना शिष्य किया ओर भागवत की कथाओं को गाने योग्य पदों में करने का आदेश दिया। उनकी सच्ची भक्ति और पद-रचना की निपुणता देख वल्लभाचार्य जी ने उन्हें अपने श्रीनाथ जी के मन्दिर की कीर्तन सेवा सौंपी। इस मन्दिर को पूरनमल खत्री ने गोवर्धन पर्वत पर संवत् 1576 में पूरा बनवा कर खडा किया था। मन्दिर पूरा होने के 11 वष बाद अर्थात् संवत् 1587 में वल्लभाचार्य जी की मृत्यु हुई।
श्रीनाथ जी के मन्दिर-निर्माण के थोड़ा ही बाद संत सूरदास जी वल्लभ-सम्प्रदाय में आए यह “चौरासी वैष्ण॒वों की वार्ता के इन शब्दों से स्पष्ट हो जाता है–
“औरहु पद गाए तब श्री महाप्रभु जी अपने मन में विचारे जो श्रीनाथ जी के यहां ओर तो सब सेवा को मंडान भयो हे, पर कीर्तन को मंडान नाहीं कियो है, तातें अब सूरदास जी को दीजिए”
अतः संवत् 1580 के आसपास सूरदास जी वल्लभाचार्य के शिष्य हुए होंगे और शिष्य होने के कुछ ही समय बाद उन्हें कीर्तन सेवा मिली होगी। तब से वे बराबर गोवर्धन पर्वत पर ही मन्दिर की सेवा में रहा करते थे, इसका स्पष्ट आभास उनकी ‘सूरसारावली’ के भीतर मौजूद है। भक्त लोग कभी कभी किसी ढंग से अपने को अपने इष्टदेव की कथा के भीतर डाल कर उनके चरणों तक अपने पहुंचने की भावना करते है। इसी भावना के अनुसार तुलसीदास और सूरदास दोनो ने कथा-प्रसंग के भीतर अपने को गुप्त या प्रकट रूप में, राम और कृष्ण के समीप तक पहुंचाया है। जिस स्थल पर ऐसा हुआ है वहीं कवि के निवास स्थान का पूरा संकेत भी है। ‘रामचरित मानस’ के अयोध्या कांड में वह स्थल देखिए जहां प्रयाग से चित्रकूट जाते हुए राम यमुना पार करते हैं ओर भरद्वाज के द्वारा साथ लगाए हुए शिष्यों को विदा करते हैं। राम-सीता तट पर के लोगों से बातचीत कर ही रहे हैं कि:—
तेहि अवसर एक तापस आवा। तेजपुंज लघु वयस सुहावा॥
कवि अलषित-गति वेष विरागी। मन क्रम वचन राम-अनुरागी॥
सजल नयन तन पुलक निज ईष्ट देव पहिचानि।
परेड दंड जिमि धरनितल द्सा न जाइ बखानि॥
यह तापस एकाएक आता है। कब जाता है, कौन है, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। बात यह है कि इस ढंग से कवि ने अपने को ही तापस रूप में राम के पास पहुंचाया है ओर ठीक उसी प्रदेश में जहां के वे निवासी थे अर्थात् राजापुर के पास।
संत सूरदास जीसंत तुलसीदास ने अपने को कुछ अच्छत्र रूप में पहुंचाया है पर संत सूरदास ने प्रकट रूप में। यह तो निर्विवाद है कि वल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेने के उपरान्त संत सूरदास जी गोवर्धन पर श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन किया करते थे। अपने सूरसागर के दशम स्कंध के आरम्भ में सूरदास ने श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए अपने को ढाढ़ी के रूप में नन्द के द्वार पर पहुंचाया है। कृष्ण जन्म के उपरान्त नन्द के घर बराबर आनन्दोत्सव हो रहे हैं। उसी बीच एक ढाढ़ी आ कर कहता है–
नंद जू मेरे मन आनंद भयो, हों गोवर्धन ते आयो।
तुम्हरे पुत्र भयो, मैं सुनि के अति आतुर उठि घायो॥
जब तुम सदनमोहन करि टेरौ, यह सुनि के घर जाऊँ।
हों तो तेरे घर को ढाढ़ी, सूरदास मेरो नाऊँ॥
संत सूरदास का जन्म और मृत्यु काल
वल्लभाचार्य जी के पुत्र गोसाई विठ्ठलनाथ के सामने गोवर्धन पर्वत की तलहटी के पारसोली ग्राम में संत सूरदास की मृत्यु हुई। इसका पता भी उक्त वार्ता से लगता है। गोसाई विठ्ठलनाथ की मृत्यु सं० 1642 में हुईं। इसके कितने पहले सूरदास का परलोक वास हुआ, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। ‘सूरसागर” समाप्त करने पर सूरदास ने जो ‘सूरसागर-सारा-वली’ लिखी है उसमें अपनी अवस्था 67 वर्ष की कही है—
गुरू परसाद होत यह दरसन सरसठ बरस प्रबीन।
तात्पर्य यह कि 67 वर्ष के होने के कुछ पहले वे ‘सूरसागर’ समाप्त कर चुके थे। सूरसागर समाप्त होने के थोड़ा ही समय बाद उन्होंने ‘सारावली’ लिखी होगी। एक और ग्रंथ सूरदास का साहित्य लहरी है, जिसमें अलंकारों और नायिका-भेदों के उदाहरण प्रस्तुत करने वाले कूट पद हैं। इसका रचनाकाल सूर ने इस प्रकार व्यक्त किया है:—-
मुनि सुनि रहन के रस लेख।
दसन गौरीनंद को लिखि सुबल संबत पेख।।
इसके अनुसार संवत् 1607 में ‘साहित्य-लहरी” समाप्त हुईं। यह तो मानना ही पड़ेगा कि साहित्य-क्रीड़ा का यह ग्रंथ सूरसागर से छुट्टी पा कर ही संत सूरदास ने संकलित किया होगा। उसके दो बर्ष पहले यदि ‘सूरसारावली” की रचना हुई तो कह सकते हैं कि संवत् 1605 मे सूरदास जी 67 वर्ष के थे। अब यदि उनकी आयु 80 या 82 वर्ष की मानें तो संत सूरदास का जन्म काल संवत् 1540 के आसपास तथा मृत्यु काल संवत् 1620 के आसपास ही अनुमानित होता है।
संत सूरदास अंधे क्यों हुए और किस कुल के थे
‘साहित्य-लहरी’ के अन्त में एक पद है जिसमे सूरदास जी अपनी वंश परंपरा देते हैं, उस पद के अनुसार संत सूरदास पृथ्वीराज के कवि चन्दबरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट थे। चंदबरदाई कवि के कुल में हरीचंद हुए जिनके सात पुत्रों मे सब से छोटे सूरजदास या सूरदास थे। ( यहां स्पष्ट हो जाता है कि सूरदास का पुराना नाम सूरजदास था) शेष 6 भाई जब मुसलमानों से युद्ध करते हुए मारे गए तब अंधे सूरदास बहुत दिनों तक इधर उधर भटकते रहे। एक दिन वे कुएं में गिर पड़े ओर 6 दिन उसी में पड़े रहे। सातवें दिन कृष्ण भगवान उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें दृष्टि दे कर अपना दर्शन दिया। भगवान ने कहा कि दक्षिण के एक प्रबल ब्राह्मण-कुल द्वारा शत्रुओं का नाश होगा और तू सब विद्याओं में निपुण होगा। इस पर सूरदास ने वर मांगा कि जिन आंखों से मैंने आपका दर्शन किया उनसे अब और कुछ न देखे और सदा आपको भजन करूँ। कुएं से जब भगवान ने बाहर निकाला तब वे ज्यों के त्यों अंधे हो गए और ब्रज में आ कर भजन करने लगे। वहाँ गोसाईं जी ने उन्हें अष्टछाप में लिया। वह पद यह है:—-
प्रथम ही प्रभु यज्ञ ते भे प्रगट अद्भुत रूप।
ब्रह्मराव विचारि ब्रह्मा राखु नाम अनूप॥
पान पय देवी दियो सिव आदि सुर सुख पाय।
कह्यो दुर्गा पुत्र तेरो भयो अति अधिकाय॥
पारि पायंन सुरन के सुर सहित अस्तुति कीन।
तासु वंस प्रसंस सें भौ चंद चारु नवीन।।
भूप प्रथ्वीराज दीन्हों तिन्हें ज्वाला देस।
तनय ताके चार कीनो प्रथम आप नरेस॥
दूसरे गुनचंद ता सुत सीलचंद सरूप।
वीरचंद प्रताप पूरन भ्यो अदूभुत रूप॥
रंथभौर हमीर भूपति सेंगत खेलत जाय।
तासु वंस अनूप भौ हरिचंद अति विख्याय।।
आगरे रहि गोपचल सें रह्यो ता सुत वीर।
पुत्र जनमे सात ताके महा भट गंभीर॥
कृष्ण्चंद उदारचंद जु रूपचंद सुभाइ।
बुद्धिचंद प्रकाश चौथे चंद से सुखदाइ॥
देवचंद प्रबोध संसृतचंद ताको नाम।
भयो सप्तो नाम सूरजचंद मंद निकाम।।
सो समर करि साहि सेवक गए बिधि के लोक।
रहो सूरजचंद दृग तें हीन भरि वर सोक॥
परो कूप पुकार काहू सुनी ना संसार।
सातए दिन आइ जदुपति कियो आप उधार।।
दियो वष दे कही सिसु सुनु माँग वर जो चाइ।
हों कही प्रभु-भगति चाहत सत्रु-नास सुभाइ॥
दूसरो ना रूप देखों देखि राधा-स्याम।
सुनत करुना-सिंघु भाषी, एक्मस्तु सुदाम॥
प्रबल दच्छिन विग्रकुल् ते सन्चु हेहे नास।
अमित बुद्धि विचारि बिद्यावान माने मास॥
नाम राखे मोर सूरजदास सूर सुस्याम।
भए अंतर्धान बीते पाछली निसि यास॥
मोहि पन सो इहै ब्रज की बसे सुख चित थाप।
थपि गोसाई करी मेरी आठ मदै छाप॥
विप्र है प्रथ’ जागते को भाव पूर निकाम।
सूरः है नंदनंद जू को लियो मोल गुलाम॥
हमारा अनुमान है कि साहित्य-लहरी से यह पद पीछे किसी भाट के द्वारा जोड़ा गया है। यह पंक्ति ही– “प्रबल दच्छिन विप्र कुल तें सत्रु ह्वैहे नास” इसे सूरदास के बहुत पीछे की रचना बता रही है। प्रबल दच्छिन विप्रकृल” से साफ पेशवाओं की ओर संकेत है। इसे खींच कर अध्यात्म-पक्ष की ओर मोड़ने का प्रयत्न व्यर्थ है।
सारांश यह कि हमें संत सूरदास का जो थोड़ा सा जीवन परिचय ‘चौरासी वैष्णवों की वार्ता’ में मिलता है उसी पर संतोष करना पड़ता है यह वार्ता भी यद्यपि वल्लभाचार्य जी के पौत्र गोकुलनाथ जी की लिखी कही जाती है, पर उनकी लिखी नही जान पड़ती। इसमे कई जगह गोकुलनाथ जी के श्रीमुख से कही हुई बाती का बड़े आदर और सम्मान के शब्दों में उल्लेख है और वल्लभाचार्य जी की शिष्या न होने के कारण मीराबाई को बहुत बुरा भला कहा गया है और गालियां तक दी गई हैं। रंग-ढंग से यह वार्ता गोकुलनाथ जी के पीछे उनके किसी गुजराती शिष्य की रचना जान पड़ती है। “भक्तमाल” में सूरदास के सम्बन्ध में केवल एक ही क्षेपक मिलता है:—
उक्ति चोज अनुप्रास वरन-अस्थिति अति भारी।
वचन प्रीति निर्वाह अर्थ अद्भुत तुकधारी॥
प्रतिबिंबित द्वि दृिष्टि, हृदय हरिलीला भासी ।
जनम करम गुण रूप सबै रसना, परकासी॥
विमल बुद्धि गुन और की जो यह गुन श्रवननि धरै।
सूर-कवित सुनि कौन कवि जो नहिं सिर चालन करै॥
इस क्षेपक में सूर के अंधे होने भर का संकेत है, जो परंपरा से प्रसिद्ध चला आता है। जीवन का कोई विशेष प्रामाशिक वृत्तांत न पा कर इधर कुछ लोगों ने सूर के समय के आसपास के किसी ऐतिहासिक लेख में जहा कहीं सूरदास नाम मिला है वही का वृत्तांत प्रसिद्ध सूरदास पर घटाने का प्रयत्न किया है। ऐसे दो उल्लेख लोगों को मिले हैं:—
- पहला “आईना अकबरी” में’ अकबर के दरबार में नौकर गवैयों, बीनकारों आदि कलावंतों की जो फेहरिस्त है उसमें बाबा रामदास और उनके बेटे सूरदास दोनो के नाम दर्ज हैं। उसी ग्रन्थ में यह भी लिखा है कि सब कलावंतों की सात मंडलिया बना दी गई थी। प्रत्येक मंडली सप्ताह में एक बार दरबार में हाजिर हो कर बादशाह का मनोरंजन करती थी। अकबर संवत् 1613 में गद्दी पर बैठा। संत सूरदास संवत् 1580 के आसपास ही वल्लभाचार्य जी के शिष्य हो गए थे और उसके पहले भी विरक्त साधु के रूप में गऊघाट पर रहा करते थे। इस दशा में संवत् 1613 के बहुत बाद वे दरबारी नौकरी करने कैसे पहुंचे ? अतः आईना अकबरी” के सूरदास और सूरसागर के सूरदास एक ही व्यक्ति नहीं ठहरते।
- दूसरा “मुंशियात अबुलफजल” नामक अबुलफजल के पत्रों का एक संग्रह है जिसमे बनारस के किसी संत सूरदास के नाम अबुलफजल का एक पत्र है। बनारस का करोड़ी इन सूरदास के साथ अच्छा बरताव नही करता था इससे उसकी शिकायत लिख कर इन्होंने शाही दरबार में भेजी थी। उसी के उत्तर में अबुल फज़ल का पत्र है। बनारस के ये सूरदास बादशाह से इलाहाबाद में मिलने के लिए इस तरह बुलाए गए हैं। “हज़रत बादशाह इलाहाबाद में तशरीफ लाएँगे। उम्मीद है कि आप भी सिर्फ मुलाजमत से मुशरर्फ हो कर मुरीद हकीकी होंगे और खुदा का शुक्र है, कि हज़रत भी आपको हक-शिनास जान कर दोस्त रखते हैं?। ( फारसी का अनुवाद )
इन शब्दों से ऐसी ध्वनि निकलती है, कि ये कोई ऐसे संत थे जिनके अकबर के ‘दीन-इलाही” में दीक्षित होने की सम्भावना अब्बुलफजल समझता था। सम्भव है कि ये संत कबीरदास के
अनुयायी कोई संत हों। अकबर का दो बार इलाहाबाद जाना
पाया जाता है। एक तो संवत् 1640 में, फिर संवत् 1661 में। पहली यात्रा के समय का लिखा हुआ भी यदि इस पत्र को माने तो भी उस समय संत सुरदास का गोलोकवास हो चुका था। यदि उन्हें तब तक जीवित मानें तो वे 100 वर्ष के ऊपर रहे होगे। मृत्यु के इतने समीप आ कर वे इन सब झमेलों में क्यो पड़ने जायगे, या उनके ‘दीन-इलाही” में दीक्षित होने की आशा कैसे की जायगी?
श्री वल्लभाचार्य जी के बाद उनके पुत्र गोसाई विठ्ठलनाथ जी गद्दी पर बैठे। उस समय तक पुष्टिमार्गी कई कवि बहुत से सुन्दर सुन्दर पदों की रचना कर चुके थे। इससे गोसाई विठ्ठलनाथ जी ने उनमें से आठ सर्वोत्तम कवियों को चुन कर “अष्टछाप” की प्रतिष्ठा की। “अट्टछाप’ के आठ कवि ये हैं:—- सूरदास, कुम्भनदास, परमानन्द दास, कृष्ण॒दास, छीत स्वामी गोविन्द स्वामी, चतुर्भुज दास और नन्दंदास।
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