संत सुंदरदास जी के जन्म से संबंधित एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार पिछले समय में प्रचलन था कि साधू लोग अपना वस्त्र बुनने के लिये जब जरूरत पड़ती थी तो सूत मांग लाया करते थे ऐसे ही एक दिन संत दादू दयाल के प्रेमी शिष्य जग्गा जी आमेर नगर में सूत मांग रहे थे और अपनी उमंग में यह आवाज लगाते थे “दे भाई सूत ले माई पूत”” जब साधू जी एक सोंकिया महाजन के घर के सामने पहुंचे जो संत दादू दयाल का भक्त था तो यह आवाज सुन कर उसकी क्वारी कन्या सती नाम्नरी तमाशा समझकर उनके सामने सूत लाकर बोली “लो बाबा जी सूत” जरग्गाजी ने कहा “लो माई पूत”।
जब यह लौट कर अपने गुरू के स्थान पर आये तो उनके अंतरयामी महात्मा संत दादूदयाल जी ने कहा कि तू ठगा आया क्योंकि इस कन्या के भाग में लड़का नहीं लिखा है सो कहां से आवे सिवाय इसके कि तू जाकर उसके गर्भ में वास करे। जग्गा ज़ी उदास होकर बोले कि जो आज्ञा परंतु चरणों से अलग न रखियेगा। गुरू जी ने ढाढ़सा दी और आज्ञा की कि उस लड़की के माता पिता से कह आओ कि जहां उस कन्या का ब्याह ठहरे वर को जता दें कि जो पुत्र उत्पन्न होगा वह परम भक्त होगा परंतु ग्यारह बरस की अवस्था में वैराग्य ले लेगा। जग्गा जी ने इस आज्ञा का तुरन्त प्रतिपालन किया।
कुछ दिनों में सती का व्याह जयपुर राज्य की पहली राजधानी दौसा नगर में वहां के एक महाजन साह परमानंद “बूसर” गोती खंडेलवाल बनिये के साथ हुआ। कई बरस पीछे जग्गाजी ने शरीर त्याग कर सती जी के गर्भ में वास किया और दिन पुरे होने पर उन के उदर से चैत सुदी नवमी संवत् 1653 विक्रमी को जन्म लिया। राघवदास कृत भक्तमाल में इनके जन्म का हाल यूं लिखा है–
दिवसा है नम्र चोखा बूसर है साहुकार, सुंदर जन्म लियो ताहि घर आह कै।
पुत्र की चाहि पति दई है जनाइ, त्रिया कहो समझाइ स्वामी कह सुख दाइ कै॥
स्वामी मुख कही सुत जनमैगो सही, पै वैराग लेगो वही घर रहे नहीं माह कै।
एकादस बरस में त्याग्यो घर माल सब, वेदांत पुरान सुने वारानसी जाइ कै॥
संत सुंदरदास की जाति
संत सुंदरदास के बूसर बनिया होने का प्रमाण उनके रचे हुए कई ग्रंथों में पाया जाता है। एक बार लाहौर में एक बूसर बनिया इनसे वृथा वाद विवाद करने लगा उसके वर्णन में आप ने लिखा है–
बूसर कहै तू सुन हो ढूसर, वाद विवाद न करना।
यह दुनिया तेरी नहिं मेरी, नाहक क्यों अड़ मरना॥
नामकरण और गुरु-प्राप्ति
संवत् 1659 में जब संत सुंदरदास जी की अवस्था छः वर्ष की थी संत दादू दयाल दौसा में पधारे। पिता ने बालक को उनके चरणों में डाल दिया। दादूदयाल जी उनके सिर पर हाथ रख कर बोले “यह बालक बड़ा ही सुंदर है” कई कहते हैं कि वह ऐसा बोले कि “अरे सुंदर तू आ गया” अर्थात् जग्गा तूने सुन्दर के शरीर में जन्म धारण कर लिया, जो कुछ हो “सुन्दर” नाम आप का तभी से पड़ा और तभी आप दादू दयाल जी के शिष्य हुए। उनका दर्शन पाते ही सुन्दरदास जी की बुद्धि कुछ और ही रंग की हो गई और गुरु भक्ति का अंकुर पौधा सरिस होकर लहलहाने लगा, वह उसी दम गुरू के साथ हो लिये ओर नारायण में दादू दयाल का संवत् 1660 में चोला छूटने तक उनके चरणों में रहे और इतने कम समय में ही गुरु दया ओर पूर्व संस्कार के प्रताप से अपना काम पूरा बना लिया। इनको जो बाल साधु और बाल कवि करके लिखा है वह यथार्थ है क्योंकि जब इनके गुरु महाराज परमधाम को सिधारे इनकी अवस्था केवल आठ बरस की थी परंतु उस समय भी इनकी कविता वैसी ही विल्क्षण थी जैसा इनका प्रेम वैराग्य और बुद्धि तीव्र थी। कहते हैं कि दादू जी का परलोक होने पर उनके बड़े बेटे ओर उत्तराधिकारी गरीबदास ने सब साधुओं को बुलाकर उनका बड़ा आदर सत्कार किया परंतु ईर्ष्या वश सुन्दरदास जी का सभा में कुछ अपमान किया, उस समय सुन्दरदास जी ने उनकी शिक्षा के हेतु यह कड़ियां कहीं–
क्या दुनिया असतूत करेगी, क्या दुनिया के रूसे से।
साहिब सेती रहो सुरखरू, आतम बखसे ऊसे से।।
कथा किरपन मूँजी की माया, नाँव न होय नपूंसे से।
कूड़ा बचन जिन्होंने भाष्या, बिल्ली मरे न मूंसे से॥
जन सुंदर अलमस्त दिवाना, शब्द सुनाया घूंसे से।
मानूं तो मुरजाद रहेगी, नहिं मानूँ तो घूंसे से॥
संत सुंदरदास जीसंत सुंदरदास की विद्या उपार्जन और योगाभ्यास
नारायणा से चल कर संत सुंदरदास जी कुछ दिन तक साधु प्रागदास ( दादू दयाल के शिष्य ) के संग डीडवाने में रहे फिर साधु जगजीवन जी के साथ दौसा में अपने माता पिता के घर आ गये और यहां संवत् 1663 तक सतसंग हरि-चर्चा और पठन-पाठन करते रहे फिर उसी बरस में जगजीवन जी के साथ जो संस्कृत के बड़े विद्वान् थे, 11 बरस की अवस्था में काशी चले गये और वहां उन्नीस बरस तक अर्थात् तीस बरस की उम्र तक रह कर संस्कृत विद्या वेदांतादि, दर्शण पुराण, और योग के ग्रंथ पढ़े और उसका साधन भली भांति लग कर किया ओर सब में निपुण हो गये। काशी में वह कई महात्माओं और साधुओं का सतसंग भी करते रहे।
फतहपुर शेखावाटी आगमन
संवत् 1682 में संत सुंदरदास जी काशी से लौटे आपके साथ और भी साधू थे जिनमें से एक फतहपुर शेखावाटी आने वाला था उसी के संग आप वहां आये और अपने प्रिय गुरु भाई प्रागदास जी को वहीं ठहरा हुआ पाकर तथा वहां के साधु-भक्त साहुकारों की प्रार्थना पर वहीं ठहर गये और योगाभ्यास डट कर किया और इसी के साथ सतसंग और कथा कीर्तन करते और कराते रहे और अनेक लोगों को सत्य मार्ग में लगाया। यहां सुन्दरदास जी की कीर्ति बहुत फैली। कुछ दिनों प्रागदास जी के संग डीडवाना में भी दूसरी बार रहे ओर बहुधा दादू दयाल की वाणी के अर्थ का विचार और निर्णय उनके और सागानेर वाले रज्जब जी के साथ करते रहे यहां तक कि उस गूढ़ वाणी के जानने में यह अद्वितीय समझे जाने लगे। इनके ग्रंथों को लोग दादू दयाल की वाणी का प्रदर्शक कहते हैं।
फतहपुर में वहां के नवाबों से भी संत सुन्दरदास जी का पूरा मेल हो गया था मुख्य कर नवाब अलफखां और उनके पुत्र दौलतखां और ताहिरखां के साथ। अलफखां आप भाषा के कवि थे। उनके बनाये हुए कई ग्रंथ अब तक मौजूद हैं। संत सुंदरदास जी की करामातों और चमत्कारों को देख कर ( जिन के दृष्टन्तों को यहां लिखने की आवश्यकता नहीं है ) उनके चित्त में इनकी बड़ी महिमासमा गई थी और उनको “मर्दे खुदा” कहने में संकोच नहीं करते थे।
संत सुंदरदास जी का भ्रमण
सम्वत 1699 में साधु प्रागदास जी का देहांत हो जाने पर सुन्दरदास जी का चित्त फतहपुर में वैसा नहीं लगता था और वह प्रायः देशाटन को बाहर चले जाया करते थे। उत्तरीयभारत और राजपूताने में बहुत घूमे और जिन-जिन स्थानों में संत दादू दयाल ठहरे थे उनको देखा और जो जो दयाल जी के गुरमुख भक्त थे उनसे मिले। बड़े बड़े तीर्थ स्थान और पंजाब के प्रसिद्ध नगरों में घूमे ओर दिल्ली लाहौर आदि की तो कई बार सैर की। इनकी यात्रा का चरित्र बहुत कुछ है परंतु यहां लिखने का स्थान नहीं। यात्रा ही में स्थान स्थान पर ग्रंथों की रचना की जो बात उन ग्रंथों के पढ़ने से विदित होती हैं।
संत सुंदरदास की ग्रंथ रचना
कह चुके हैं कि सुन्दरदास जी बाल-कवि थे परंतु उनकी वाणी में संसारी कवियों की नाई थोथी जटक और तुकबंदी ओर पोला अलंकार नहीं है वरन् बढ़े बड़े साधु महात्मा की भांति प्रेम बैराग्य गुरुमक्ति और अनुभव ज्ञान में पगी हुई है, चाहे उसे महा काव्य कहो चाहे एक भारी योगाभ्यासी का सत्य निरूपण, चाहे एक साधु-शिरोमणि की वाणी, वह भारत वर्ष के साहित्य भंडार में एक अनमोल रत्न है। श्रृंगार रस के वह बहुत विरुद्ध थे और सुन्दर कवि की, जिसने “सुन्दर श्रृंगार” नामी ग्रंथ सम्वत 1699 में आगरा में रचा था, इनके साथ एकता करना बड़ी भूल है– इस कविता तथा “रस मंजरी” पर उन्होंने कैसा कटाक्ष किया है—
रसिक प्रिया रसमंजरी और श्रंगारहि जान।
चतुराई करि बहुत विधि विषय बनाई आन॥
विषय बनाई आन लगत विषयिन कूं प्यारी।
जागै मदन प्रचंड सराहै नपसिष नारी॥
ज्यूँ रोगी मिष्ठान खाइ रोगहि बिस्तारै।
सुंदर ये गति होइ जोइ “रसिक प्रिया” घारै॥
जैसे कि श्रृंगार रस से सुंदरदास जी को चिढ़ थी वैसी ही मिहीन कटाक्ष ओर हास्य रस से उनको रुचि थी–उनकी कविता में बारीक चुटकियां और कटाक्ष और हँसोड़पन जिसमें वेदांत की गंभीरता ओर रुखापन घुल जाता है उसको देखें । वेदांत मत के सार की सरल भाषा में संक्षेप से सर्व साधारण के उपकारार्थ दरसा देना इसमें संत सुंदरदास जी अद्वितीय थे और इसी से राघवकृत भक्तमाल में इनको शंकराचार्य की पदवी दी है।
संत सुंदरदास जी के प्रमुख ग्रंथ:–
- ज्ञान समुद्र–पाँच उल्लासो में।
- सवैया–34 अंगों में जो सुंदर विलास के नाम से प्रसिद्ध है।
- “सर्वांग योग” ग्रंथ से लेकर “पूर्वी भाषा बरबै” तक 36 ग्रंथ।
- साखी –31 अंगों में।
- पद् (शब्द व भजन)–27 राग रागनियों में।
- चौबोला, गूढ़ार्थ, चित्र काव्य, दशों दिशा के सवैये और फुटकर।
ये ग्रंथ समय समय पर अनेक स्थानों में रह कर अलग अलग प्रसंगवश रचे गये हैं। ज्ञान समुद्र की रचना काशी में सम्वत 1710 में हुई, सवैया प्रायः कुरसाने में रची, अन्य भाषाओं के ग्रंथों की रचना उन्हीं देशों में निवास के समय में हुई है। यह निश्चित है कि सम्वत 1743 के पीछे कोई बड़ा ग्रंथ नहीं रचा गया।
संत सुंदर दास को था बहु भाषा का ज्ञान
संत सुन्दरदास जी संस्कृत के पंडित तो थे ही पर हिंदी के भी पूरे जानकार थे। संस्कृत में कविता की रचना उनकी नापसंद थी क्योंकि उससे सर्व साधारण का उपकार नहीं होता था। वह फारसी, पूरबी, पंजाबी, गुजराती, मारवाड़ी आदि भाषाएं भी जानते थे जिसका प्रमाण उनके ग्रंथ है।
शौचाचार
सुन्दरदास जी शौच और सफाई और स्वच्छ चाल व्यवहार को बहुत पसन्द करते थे ओर गंदगी से घिनाते थे, इसी से पंजाब, दक्षिण मारवाड़, फतहपुर [ शेखावाटी तक जहाँ उनका आपका स्थान था ] तथा गुजरात और पूरब के आचार व्यवहार पर बड़ा कटाक्ष किया है तथा अशुद्ध और मलिन व्यवहार की बड़ी हँसी उड़ाई है, गुजरात के लिये “आभड छौत अतीत सौं कीजिये बिलाइ रु कूकर चाटत हॉडी”। मारवाड़ के विषय में “वृच्छून नीर न उत्तम चीर सु देसन में गत देस है मारू”; फतेहपुर की स्त्रियों के मलिन आचार पर “फूहड़ नार फतेहपुर की”; दक्षिण के संबंध में “रॉघत प्याज बिगारत नाज न आवत लाज करै सब भच्छन”; पूरब के प्रदेशों के आचार पर “ब्राह्मण क्षत्रिय वैश रु सूदर चारुहि वरन के मंछ बघारत”, इत्यादि। जो प्रदेश आपको प्रिय थे वे मालवा, उत्तराखंड, तथा कुरसाना थे–उनके संबंध में कहा है “मालवो देस भलो सबही ते”; “जोग करन को भली दिसि उत्तर”; तथा
पूरब पच्छिम उत्तर दच्छिन, देस विदेस फिरे सब जानें।
केतक धोँंस फतेपुर माहिं सु, केतक धोंस रहे डिडवानें॥
केतक धोंस रहे गुजरात हू, उहों हू कछू नहिं आयो है ठानें।
सोच विचार के सुंदर दास जु, याहि तें आनि रहे कुरसाने॥
संत सुंदरदास जी की परलोक यात्रा
सुन्दरदास जी अनुमान संवत 1744 तक फतेहपुर में रहे फिर संवत् 1745 के पीछे देशाटन करते सागानेर को पधारे जो जयपुर से चार कोस दक्खिन को है और जहां दादू दयाल के प्रधान ओर श्रेष्ठ शिष्य रज्जब जी उनके ओर शिष्यों के साथ रहा करते थे जिनसे सुन्दरदास जी का प्रीतिभाव था। यहां वह और भी कई बार आये थे और बहुत समय तक ठहर कर कई ग्रंथ रचे थे। स्वयं रज्जब जी की कविता भी उत्तम और प्रसिद्ध है। इस समय संत सुंदरदास जी यहां रोग ग्रस्त हुए और बीमारी बढ़़ती ही गई परंतु औषधि सिवाय राम नाम के कुछ भी न ली सदा ध्यान में लीन रहते थे अंत को नदी किनारे मिती कार्तिक सुदी 9 बृहस्पतिवार संवत 1746 को शरीर त्याग किया। आपने अंतकाल जो बचन कहे थे वह “अंत समय की साखी” के नाम से विख्यात हैं
मान लिये अंतःकरण जे इंद्रिन के भोग।
सुंदर न्यारों आत्मा, लगो देह को रोग॥
वैद्य हमारे रामजी, ओषधि हू हरि नाम।
सुंदर यहै उपाय अब, सुमिरन आठों जाम॥
सुंदर संशय को नहीं, बड़ी महुच्छुव येह।
आतम परमातम मिल्यो, रहो कि बिनसो देह।।
सात बरस सौ में घटै, इतने दिन की देह।
सुंदर आतम अमर है, देह खेह की खेइ॥
अर्थी के साथ में बड़ा जमघट दादू पंथी साधुओं और सेवकों और संत सुन्दरदास जी के शिष्यों का था। धामाई का बगीचा जहां अब है उससे परे दाह क्रिया की गई। इस स्थान पर एक छोटी गुमठी बनी हुई है जिसमें सफेद पत्थर पर इनके ओर इनके छोटे शिष्य नारायण दास के चरण चिह्न और यह दोहा खुदा है—
संवत सत्रा से छीयाला। कार्तिक सुदी अष्टमी उजाला।
तीजे पहदर भरस्पति वार। सुन्दर मिलिया सुन्दर सार॥
संत सुन्दरदासजी का रूप
सुन्दरदास जी डील डोल में बड़े सुन्दर, गोरे रंग के, तेजस्वी और ऊंचे कद के थे, मस्तक भारी और ललाट (पेशानी) ऊंचा, आंखें सुन्दर चमकदार थीं, वाणी मधुर मनोहारिणी थी ओर न बहुत बोलते थे। खान पान आचार व्यवहार में बड़े ही पक्के संजमी थे। बालकों को देख उनके साथ वार्तालाप से बड़े प्रसन्न होते ओर कभी कभी उनको चुटकुले छंद बना कर सुनाते। ध्यान भजन ओर पाठ में कभी नहीं थकते वृद्ध अवस्था तक ऐसा ही स्वभाव रहा। आप आशु कवि थे अर्थात बिना प्रयास के कविता किया करते थे।
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