संत सदना जी का समय पंद्रहवीं शताब्दी के आखरी भाग रहा है। संत सदना जी जाति के कसाई थे। यह यद्यपि जाति के कसाई थे। परंतु जीवहिंसा नहीं करते थे मांस इकट्ठा मोल लेकर फुटकर बेचते थे, तराजू के बाट की जगहशालिग्राम की एक बटिया थी उसी से तोला करते थे चाहे कोई पाव भर ले चाहे पांच सैर। एक दिन एक वैष्णव ने उस बटिया में शालिग्राम के पूरे आकार देखकर उन से मांगा उन्होंने वह शालिग्राम की बटिया वैष्णव कै तुरंत दे दिया। वैष्णव ने उसे घर पर लाकर और पंचामृत से स्नान करा कर सिंहासन पर विराजमान किया ओर उत्तम भोग आगे रखा पर रात को उसे स्वप्न हुआ कि हमें तू हमारे उसी परम भक्त के घर पहुँचा दे जहां तराजू पर बैठ कर हमको पालना झूलने का आनंद आता है। वैष्णव ने संत सदना जी को सब हाल आ सुनाया और शालिग्राम की बटिया लौटा दी। सदना जी ने उसी दिन से वैराग्य ले लिया और उस बटिया को सिर पर रख कर जगन्नाथपुरी को चले गये।
संत सदना जी प्रतीकात्मक चित्रजगन्नाथपुरी के रास्ते में एक स्त्री के मोहित होने ओर इनके साथ भाग निकलने के अभिप्राय से अपने पति का सिर काट डालने और फिर संत सदना जी के इंनकार पर हाकिम के सामने उन पर अपने पति के घात का झूठा दोष लगाने और सदनाजी के उस दोष को स्वीकार कर लेने पर उनके दोनों हाथों के काटे जाने और जगन्नाथजी के सम्मुख होते ही हाथ ज्यों के त्यों आ आने जैसे चमत्कार की कथा भक्तमाल में लिखी है।
संत सदना जी की प्रसिद्ध वाणी
नृप कन्या के कारने, एक भयो भेष धारी।
कामारथी सुवारथी, वा की पैज सवारी॥
तब गुन कहा जगत-गुरा, जो कर्म न नासै।
सिंह सरन कत जाइये, जो जंबुक प्रासै॥
एक बूँद जल कारने, चातक दुख पाव।
प्रान गये सागर मिले, पुनि काम न आवै॥
प्राण जो थाके थिर नहीं, केसे बिरमावों।
बूढ़ि मुए नौका मिले, कहु काहि चढ़ावो॥
मैं नाहीं कछु हों नहीं, कछु आाहि न मोरा।
औसर लज्जा राख लेहु, सदना जन तोरा॥
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