संत यारी साहब के जीवन का परिचय बहुत खोज करने पर भी कुछ अधिक नहीं मिलता है, सिवाय इसके कि वह जाति के मुसलमान थे औरदिल्ली में अपने गुरू बीरू साहब की सेवा में रहते थे और उनके चोला छोड़ने पर उसी जगह बने रहकर
अपना सतसंग कराने लगे। संत बीरू साहब, संत बाबरी साहब के शिष्य थे और यारी साहब के दादागुरु थे। यारी साहब के बारे में यह भी कहा जाता है कि यह किसी शाही खानदान से थे। दिल्ली में संत यारी साहब की समाधि मौजूद है।
संत यारी साहब का जीवन परिचय हिंदी में
संत यारी साहब के इस संसार में रहने का समय दर्मियान विक्रमी सम्वत् 1725 से लेकर 1780 के बीच का पाया जाता है। महात्मा यारी साहब के प्रसिद्ध संत बुल्ला साहब गुरुमुख शिष्य थे जो संत गुलाल साहब के गुरू और संत भीखा दास साहब के दादागुरू थे, जेसा कि नीचे दी हुई वंशावली से जान पढ़ता है। चार शिष्य उनके और प्रसिद्ध थे– संत केशवदास जी, सूफी शाह, शेखन शाह और हस्त मुहम्मद शाह।
संत वंशावलीसंत यारी साहब की वाणी कहीं नहीं मिलती, जो शब्द-इनके छपे हैं वह बड़ी खोज से थोड़ा थोड़ा करके दिल्ली, गाजीपुर और बलिया के जिलों से मिले हैं। इन महात्मा की बड़ी ऊंची गति ओर प्रचंड भक्ति और शब्द मार्गी होना उनकी बाणी के अंग अंग से झलकता है। सब पद अति कोमल, प्रेम रस में पगे और अंतरी भेद से भरे हुए हैं और जैसा कि उनके शब्दों के संग्रह का नाम “रत्नावली” है, सचमुच हर एक पद उसका एक अनमोल रत्न है। इनकी वाणी पुस्तक रूप में छपी है मंगा कर जरूर पढ़ें।
संत यारी साहब के नाम से कोई पंथ नहीं चला जैसा कि उन्हीं के शुरू घराने में बहुत समय पीछे संत जगजीवन साहब और संत भीखादास साहब और संत पलटू साहब के नाम से पंथ चले हैं। यारी साहब की कुछ रचनाएं नीचे दी जाती है।
संत यारी साहब का जीवन परिचयबिरिहिनी मंदिर दियना बार ॥ टेक ॥
बिन वाती बिन तेल जुगति सो, बिन दीपक उँजियार।
प्रान पिया मेरे गृह आयो, रचि पवि सेज सँवार।।
सुखमन सेज परम तत रहिया, पिय निशुन निरकार।
गावहु री मिलि आनंद मंगल, यारी मिलि के यार।।
हाँ! तो खेलों पिया सँग होरी।
दरस परस पतिवरता पिय की, छबि निरखत भह बोरी॥
सोरह कला सेपूरन देखां, रवि ससि में इक ठोरी।
जब तै दृष्टि परो अभिनासी, लागो रूप ठगौरी॥
रसना रटत रहत निस बासर, नैन लगो यहि ठोरी।
कह यारी भक्की करू हरि की, कोई कहे सो कहौ री।।
रसना राम कहत ते थाको।
पानी कहे कहूँ प्यास बुझत है, प्यास बुझे जदि चाखो।।
पुरुष नाम नारी ज्यों जानै, जानि बुझि नहिं भाखो।
दृष्टी से मुष्टी नहिं. आवै, नाम निरंजन वां को।।
गुरु परताप साधु की संगति, उलटि दृष्टि जब ताको।
यारी कहे सुनो भाई संतो, ब्रज वेधि कियो नाको।।