हिन्दू धर्म में परमात्मा के विषय में दो धारणाएं प्रचलित रही हैं- पहली तो यह कि परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है अर्थात वह नाम, रूप और गुण रहित सर्वोच्च चेतना है तथा दूसरी यह है कि परमात्मा सगुण साकार ब्रह्म है। भारत के महानतम दृष्टाओं, संतों और गुरुओं में से एक गुरुनानक देव निराकार ब्रह्म की धारणा के प्रबल समर्थक थे। निराकार ब्रह्म की धारणा में विश्वास रखने वाले लोग यह मानते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञाता है। वह ब्रह्मांड के समस्त चर और अचर प्राणियों में समान रूप से व्याप्त है। वह पापात्मा और धर्मात्मा में समान रूप से निवास करता है। अतः किसी भी प्राणी के प्रति की गयी हिंसा ईश्वर के प्रति किया गया अपराध है, भले ही वह मनुष्य हो, पशु-पक्षी अथवा रेंगने वाला कीड़ा। 19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में पश्चिमी भारत में निराकार ब्रह्म के प्रतिपादक एक महान गुरु संत बूटा सिंह का उदय हुआ। संत बूटा सिंह बहुत सरल पुरुष थे। बाहर से वे कर्मयोग में लिप्त दिखायी पड़ते थे, परंतु भीतर उनकी चेतना ब्रह्म ज्ञान अथवा आत्म-साक्षात्कार के आनंद में रस-विभोर रहती थी।
संत बूटा सिंह का जीवन परिचय
संत बूटा सिह अपनी आजीविका कमाने के लिए अंग्रेजी सेना के सिपाहियों की कलाइयों और उनके शरीर के अन्य अंगों पर शेर, सांप और स्त्रियों आदि के चित्रों का गोदना गोदते थे। यह काम करते हुए वे नौशेरा, लण्डीकोतल, पेशावर तथा अन्य ब्रिटिश छावनियों में घूमते रहते थे। इन सभी स्थानों पर उन्होंने बहुत से मित्र बना लिए थे और वे उनके साथ बैठकर निराकार ब्रह्म की चर्चा करते तथा प्रेम और सहनशीलता की शिक्षा देते थे। वे एक महान समाज-सुधारक भी थे और सामाजिक कुरीतियों पर भी चोट करते थे। कई दशकों तक वे इसी प्रकार कार्य करते रहे। वे अत्यंत नम्र संत थे और उन्हें इस बात का भान तक न था कि वे संत हैं। वे बहुत सादगी से जीवन व्यतीत करते थे। धीरे-धीरे वह स्थिति आयी कि पश्चिमीभारत में उनको दैवी पुरुष, पवित्रात्मा और गुरु मानने वाले लोगों की संख्या काफी बड़ी हो गयी। उनमें से कोई अपने आपको उनका अनुयायी कहता, कोई भक्त और कोई शिष्य।
सन् 1929 में एक दिन उनके एक भक्त काहन सिंह को न जाने क्या सूझी कि वह किसी सात्विक लहर के आवेश में संत बूटा सिंह को अपने कंधों पर बिठाकर रावलपिण्डी की गलियों में यह कहता हुआ घुम गया कि बाबा बूटा सिंह के अनुयायी निरंकारी कहलायेंगे और बाबा संत बूटा सिंह उनके प्रथम गुरु माने जायेंगे।कुछ समय बाद ही बाबा बूटा सिंह के परम भक्त और शिष्य बाबा अवतार सिंह उनको अपने घर ले गये तथा संत बूटा सिंह जीवन भर वहीं रहे। संत बूटा सिंह का देहांत सन 1943 में हुआ।
संत बूटा सिंह के बाद निरंकारी गुरु की आवश्यकता
हिन्द धर्म में हमेशा से यह माना गया है कि ईश्वरत्व अथवा आत्म साक्षात्कार की प्राप्ति के लिए जीवित गुरु की परम आवश्यकता है, परंतु सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविन्द सिंह जी ने यह घोषणा कर दी थी कि उनके बाद कोई भी मनुष्य सिखों का गुरु नहीं होगा। उन्होंने भारत के विभिन्न संतों और महात्माओं की पवित्र वाणियों का संग्रह करके सिखों के पवित्र धर्म-ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब की रचना की और इस पवित्र धर्म-ग्रंथ को सिखों का ग्यारहवां एवं अंतिम गुरु घोषित कर दिया। निरंकारी सनातन हिन्दू परंपरा के अनुयायी थे और यह मानते थे कि वे जीवित गुरु के मार्गदर्शन के बिना निराकार सर्वोच्च सत्य की खोज संभव नहीं है। निरंकारियों के प्रथम गुरु संत बूटा सिंह के देहांत के बाद निरंकारी संगत ने रावलपिण्डी में बाबा अवतार सिंह को उनका उत्तराधिकारी और निरंकारियों का दूसरा गुरु घोषित कर दिया।
निरंकारियों के दूसरे गुरु बाबा अवतार सिह उच्च कोटि के संत और सिद्ध पुरुष थे। बिना किसी विशेष प्रयास के उनके शिष्यों अर्थात् निरंकारी धर्मावलंबियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। सन 1947 में भारत-विभाजन के बाद बाबा अवतार सिंह को रावलपिण्डी छोड़कर भारत आना पड़ा। वे अपने परिवार और संगत के साथ दिल्ली आ गये और वहां किग्सवे कैम्प के समीप उन्होंने निरंकारी कॉलोनी बसायी। बाबा अवतार सिंह हर साल वैशाखी के अवसर पर देश-विदेश में निरंकारियों का संत-समागम आयोजित करने लगे। निरंकारी मत जब बहुत तेजी से फैलने लगा तो पंजाब के अकाली सिख बाबा अवतार सिंह का विरोध करने लगे। वे बावा अवतार सिंह को गुरु के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते थे, क्योंकि उनके दसवें गुरु का यह आदेश था कि भविष्य में पावन धर्म-ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब के अतिरिक्त सिखों का कोई अन्य गुरु नहीं हो सकता। इस समय तक निरंकारी अपनी संगतों में श्री गुरु ग्रंथ साहिब का पूजा-पाठ और प्रवचन किया करते थे जिससे ऐसा आभास मिलता था कि वे सिख हैं। अकाली सिखों ने इस पर आपत्ति उठायी।
संत बूटा सिंह जीसन् 1952 में निरंकारी मिशन का वैशाखी संत समागम अमृतसर में हुआ। उस समय अकालियों ने यह प्रश्न उठाया कि यदि निरंकारी अपने आपको सिख मानते हों तो वे किसी जीवित गुरु को स्वीकार नहीं कर सकते और यदि वे जीवित गुरु को स्वीकार करते हैं तथा यह मान लेते हैं कि वे सिख नहीं हैं तो उन्हें गुरु ग्रंथ साहिब पर प्रवचन करने का अधिकार नहीं है। बावा अवतार सिंह ने उनका यह तर्क स्वीकार कर लिया और घोषणा कर दी कि निरंकारी आगे से अपने आपको सिख नहीं कहेंगे और भविष्य में निरंकारियों की संगतों और उनके संत-समागमों में गुरु ग्रंथ साहिब का पूजा-पाठ और प्रवचन नहीं होगा।
बावा अवतार सिंह और उनकी धर्मपत्नी दोनों ही काव्य-रचना करते थे। उन दोनों ने अनेक भक्ति गीत लिखे, जिन्हें अवतार वाणी के रूप में प्रकाशित किया गया। अवतार-वाणी में अन्य निरंकारी संतों के भजन भी शामिल किये गये हैं। यही अवतार-वाणी बाद में निरंकारियों का धर्म-ग्रंथ बन गयी।
निरंकारीयों के तीसरे गुरु
बाबा अवतार सिंह एक निःस्वार्थ देव-पुरुष और गुरु थे। उनके
आध्यात्मिक गुरु संत बूटा सिंह ने उन्हें आत्म-साक्षात्कार की विद्या तो सिखायी ही थी, कर्मयोग का पाठ भी पढ़ाया था। बाबा बूटा सिह ने अपने अनयायियों को ग्रहस्थ आश्रम धर्म का पालन करने का आदेश दिया था और सांसारिक उत्तरदायित्वों से भागने तथा संसार छोड़कर साधु बनने की मनाही की थी। उन्होंने स्पष्ट तौर पर-कहा था कि किसी भी निरंकारी धर्म प्रचारक अथवा गुरु की संन्यास लेने की अनुमति नही है। इसी कारण बाबा अवतार सिंह ने भी पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारी स्वीकार की थी। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती बुध्वंती ने10 दिसंबर, 1930 को अपनी कोख से एक दिव्य बालक को जन्म दिया।जिसका नाम रखा गया-गुरबचन सिंह।
गुरबचन सिंह अपने पिता बाबा अवतार सिंह के आज्ञाकारी पूत्र तो थे ही, वे उन्हें गुरु के रूप में पिता से अधिक मानते थे और उनकी गुरु भक्ति पुत्र-भक्ति से थी। गुरबचन सिंह का विवाह भारत विभाजन के कुछ पहले 22 अप्रैल 1947 को ही हो गया था। उनकी पत्नी श्रीमती कुलवंत कौर एक समर्पित निरंकारी भक्त भाई साहब मन्ना सिंह जी की पुत्री थीं।
पाकिस्तान से भारत आने के बाद युवा गुरबचन सिंह ने आर्थिक दृष्टि से परिवार का संचालन करने के लिए मोटर के कलपूर्जो का व्यापार शुरू किया। यहां यह बात स्पष्ट रूप से समझने की जरूरत है कि निरंकारी मत के प्रतिपादक और संस्थापक संत बूटा सिंह ने निरंकारी गुरु और निरंकारी प्रचारकों के लिए यह कठोर नियम बनाया था कि उन्हें अपनी आजीविका स्वयं कमानी होगी और उसे किसी भी स्थिति में भक्तों से प्राप्त होने वाले धन अथवा दान का इस्तेमाल अपने लिए नहीं करेंगे। दान के एक एक पैसे का हिसाब रखा जाना चाहिए, उसे केवल निरंकारी मिशन के आदर्शों के प्रचार और विद्यालयों तथा अस्पतालों जैसी सार्वजनिक कल्याण की प्रवृत्तियों पर ही खर्च किया जाना चाहिए।
अतः यह अनिवार्य हो गया था कि निरंकारी बाबा अवतार सिंह के पुत्र गुरबचन सिंह अपनी जीविका कमाने का प्रबंध करें। उन्होंने जालंधर, दिल्ली, मुंबई आदि में अपने व्यावसायिक कार्यालयों की स्थापना की। और उनके व्यापार से बाबा अवतार सिंह के परिवार को अच्छी आय होने लेगी। सन् 1959 बाबा अवतार सिंह ने गुरबचन सिंह को दिल्ली बुला लिया और उन्हें आदेश दिया कि वे निरंकारी मिशन के दिल्ली मुख्यालय में ही रहें। सन् 1962 में एक दिन बाबा अवतार सिह ने निरंकारी संगत के सामने यह घोषणा कर दी कि उन्होंने अपने पुत्र गुरबचन सिंह को तीसरा निरंकारी गुरु नियुक्त कर दिया है। गुरबचन सिंह अब बाबा गुरबचन सिंह हो गये। यह एक अनूठा अनुभव था। गुरु ने अपने शिष्य को अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया और शिष्य को यह स्थिति स्वीकार करनी पड़ी। इसके बाद बाबा अवतार सिंह सात वर्षो तक जीवित रहे। यह पूरा समय बाबा गुरबचन सिह ने देशभर में निरंकारी आदर्शों के प्रचार और निरंकारी संगतों के संगठन पर लगाया।
बाबा गुरबचन सिंह बहुत सत्यनिष्ठ और अहिंसाप्रिय संत थे। उनकी हत्या के अनेक प्रयास हुए, परंतु वे हमेशा शांत बने रहे और उन्होंने अपने शिष्यों को भी शांति बनाये रखने तथा हिंसा का मार्ग न अपनाने का आदेश दिया। वे कहा करते थे कि उन्हें सबसे अधिक कष्ट तब होता है, जब मनुष्य का रक्त गिराया जाता है। उन्होंने जीवनभर सादगी, निरामिषाहार तथा मद्य-निषेध पर बल दिया। उनके जीवन-काल में निरंकारी मिशन ने आशातीत प्रगति की। उन्होंने भारत में एक ऐसे समाज के निर्माण की दिशा में अपनी समची शक्ति लगायी जिसमें सब धर्मों के लोग शांति, सदभाव और परस्पर-सहिष्णता बनाये रखकर सत्य तथा आध्यात्मिक दृष्टि और आध्यात्मिक मूल्यों को साकार करने के लिए कटिबद्ध हों।
इस बात पर विश्वास करना बहुत कठिन है कि कोई मनुष्य बाबा गुर॒बचन सिह जैसे संत पुरुष की हत्या कर सकता है, परंतु यह सच हो गया। 24 अप्रैल 1980 को वे नई दिल्ली के निरंकारी भवन अहाते में अपने निवास के सामने ही हत्यारों की गोलियों से आहत होकर धराशायी हो गये। यह एक संकट और संत्रास की घड़ी थी, समूची मानव जाति के लिए हृदय टटोलने की बेला थी-जिस व्यक्ति ने जीवनभर प्राणी मात्र के प्रति प्रेम और करुणा का पाठ पढ़ाया, उसे ही बर्बरतापूर्वक गोलियों से भून दिया गया। उनकी हत्या के समाचार से समूचे राष्ट्र को गहरा आघात लगा तथा राष्ट्र की ओर से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित की।
बाबा हरदेव सिंह बाबा
गुरबचन सिंह की छाती में पहली गोली धंसी ही थी कि उनका कोई
शिष्य चिल्लाया, ”हे भगवान, अब हम क्या करेंगे? बाबा के शरीर से रक्त की धारा बह रही थी, फिर भी उन्होंने उस भक्त को धीरज बंधाते हुए कहा, “चिंता मत करो मेरे बच्चे, मेरे जाने के बाद तुम्हारा मार्गदर्शन भोला करेगा। ” और अगले ही क्षण उन्होंने अपनी पार्थिव काया छोड़ दी। बाबा गुरबचन सिंह ने प्राण त्यागते समय जिस भोला पर यह विश्वास किया था कि वह निरंकारी संगत का मार्गदर्शन करेगा, वह और कोई नहीं, इकलौता पुत्र और परम भक्त हरदेव सिंह था। 27 अप्रैल, 1980 को अब बाबा गुरबचन सिंह के पार्थिव अवशेष विद्युत-शवदाह-गुह में अग्नि की पवित्र लपटों को समर्पित किये जाने के बाद वे निरंकारियों के चौथे आध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हुए और बाबा हरदेव सिंह के नाम से प्रसिद्ध हुए।
निरंकारी आंदोलन के इतिहास में यह महान संकट की घड़ी थी। निरंकारी गुरु की हत्या कर दी गयी थी और नया निरंकारी गुरु आयु की दृष्टि से तो युवा था ही, भुतपूर्व गुरु का पुत्र भी था। बाबा गुरबचन सिंह के प्रति श्रद्धांजलि समर्पित करने तथा उनके स्थान पर नये गुरु का स्वागत करने के लिए एकत्र निरंकारी संगत में भारी उत्तेजना फैली हई थी। विशेषतः युवा निरंकारी अपने गुरु की हत्या का बदला लेने के लिए पागल हो उठे थे और उनके मन में यह आशा थी कि बाबा हरदेव सिह अपने पिता और गुरु बाबा गुरबचन सिंह के रक्त का बदला अवश्य लेंगे, परंतु बाबा हरदेव सिंह बाबा गुरबचन सिंह के सच्चे और योग्य शिष्य सिद्ध हुए।
एक सिद्ध पुरुष की भांति उत्तेजित भीड़ को संबोधित करते हुए उन्होंने शांत-भाव से कहा, ‘ बाबा गुरबचन सिंह जी के साथ मेरा दोहरा संबंध है, वे आध्यात्मिक गुरु थे और पिता भी। उनकी हत्या का बदला लेने की बात सबसे पहले मेरे मन में आनी चाहिए थी, लेकिन उनके निर्देशों और उनकी शिक्षाओं ने मेरे मन में इस प्रकार के संकीर्ण विचार उठने ही नहीं दिये। उनके पवित्र का और दूसरों के प्रति उनकी करुणा ने मुझे आप्लावित कर दिया। पहले सब जो हो रहा है, यह निराकार की लीला है। जो लोग सोचते हैं कि बाबा जी का रक्त बदला लेगा, वे अज्ञानी हैं। वे अज्ञानवश ऐसा सोच रहे हैं कि अब खुलकर खून बहेगा। संतों ने भी कहा है कि निर्दोष रक्त जब धरती पर गिरता है तो उसमें से महान शक्ति उत्पन्न होती है, लेकिन इन दोनों धारणाओं में बहुत अंतर है। महापुरुष रक्तपात नहीं देखना चाहते, वे समुची सृष्टि में शांति और आनंद का साम्राज्य स्थापित करना चाहते हैं। हमें अपने सामने इसी आदर्श को रखना है और अपने मिशन को आगे ले जाना है।
बावा गुरबचन सिंह के सचिव और परम सात्विक विचार पक्षी जगराम दास सत्यार्थी, जिन्हें निरंकारी संगत के लोग प्रेमपूर्वक शास्त्री जी के नाम से संबोधित करते हैं, इस समूचे संदर्भ को एक उदात्त दृष्टि से देखते हैं, इतिहास पढ़ने पर पता चलता है कि दुनिया में जितना अत्याचार धर्म के नाम पर या धर्म की रक्षा के नाम पर हुआ, उतना और किसी कारण से नहीं हुआ। निरंकारी मिशन को यदि निरंकार-प्रभु ने गुरुदेव हरदेव जैसा मार्गदर्शक न दिया होता तो आज लाखों निरंकारी भी धर्म के नाम पर न जाने क्या कर गुजर चुके होते।
निरंकारी शिक्षाएं
निरंकारी मिशन की शिक्षाओं का सार यह है कि ईश्वर की शरण मे संत और पापी दोनों का समान रूप से प्रवेश है। पापी से यह कहना निर्थक है कि ईश्वर की शरण में आने से पहले वह अपने पाप से मुक्त हो जाये क्योंकि मनुष्य के मन को पवित्र करने और उसकी आत्मा में प्रकाश जगाने का एक ही साधन है कि उसके भीतर परमात्मा की अनुभूति उत्पन्न हो। ईश्वर की शरण में जाकर ही शुद्ध हुआ जा सकता है। ईश्वर की अनुभूति ही आत्मा को शुद्ध कर सकती है।
निरंकारी मत में दीक्षा प्राप्त करने के लिए साधक को पांच प्रतिज्ञाएं लेनी होती हैं:-
- मैं अपने तन, मन, धन को ईश्वर की अमानत समझ है प्रयोग
करूंगा, - मैं जाति-पाति, धर्म अथवा वर्ग आदि किसी प्रकार के बंधन अपने आपको नहीं बांधूंगा,
- मैं किसी भी मनुष्य से उसके खान-पान और पहनावे के कारण घृणा नहीं करूंगा,
- मैं गृहस्थ आश्रम में रहकर ही समाज के सभी कर्तव्यों का पालन करते हुए अपनी जीवन-यात्रा की सफल करूंगा
- मैं सदगुरु की अनुमति के बिना किसी दूसरे को इस सद्ज्ञान की अनुभूति कराने की चेष्टा नहीं करूंगा, जो मुझे मेरे सदगरु से प्राप्त हुआ है।
इसके अलावा निरंकारियों को अपने दैनिक जीवन में तीन स्वर्ण नियमों का पालन करना सिखाया जाता है:-(1) सत्संग, (2) सुमिरन (3) सेवा।
हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—–

एक दिन एक किसान अपने खेत से गन्ने कमर पर लाद कर चला। मार्ग में बालकों की भीड़ उसके साथ
Read more भारतीय संस्कृति के प्राण और विश्व साहित्य के कल्पतरू संत
तुलसीदास इस लोक के सुख और परलोक के दीपक हैं।
Read more पुण्यभूमि आर्यवर्त के सौराष्ट-प्रान्त (गुजरात) में जीर्ण दुर्ग नामक एक अत्यन्त प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकज जूनागढ़ कहते है। भक्त
Read more संत हरिदास एक भारतीय संत और कवि थे, और इन्हें निरंजनी संप्रदाय के संस्थापक के रूप में जाना जाता है,इनका काल
Read more संत सूरदास जी एक परम कृष्ण भक्त, कवि और साध शिरोमणि 16 वें शतक में हुए जो 31 बरस तक गुसाईं
Read more महिला संत सहजोबाई जी राजपूताना के एक प्रतिष्ठित ढूसर कुल की स्त्री थी जो परम भक्त हुई और संत मत के
Read more मीराबाई भक्तिकाल की एक ऐसी संत और कावित्रि हैं, जिनका सबकुछ कृष्ण के लिए समर्पित था। मीरा का कृष्ण प्रेम
Read more बाबा धरनीदास जी जाति के श्रीवास्तव कायस्थ एक बड़े महात्मा थे। इनका जन्म जिला छपरा बिहार राज्य के मांझी नामक गांव
Read more संत यारी साहब के जीवन का परिचय बहुत खोज करने पर भी कुछ अधिक नहीं मिलता है, सिवाय इसके कि
Read more बाबा मलूकदास जी जिला इलाहाबाद के कड़ा नामक गांव में बैसाख वदी 5 सम्वत् 1631 विक्रमी में लाला सुंदरदास खत्री
Read more संत गुलाल साहब जाति के छत्री थे, और संत बुल्ला साहब के गुरूमुख शिष्य, तथा संत जगजीवन साहब के गुरु
Read more संत भीखा दास जिनका घरेलू नाम भीखानंद था जाति के ब्राह्मण चौबे थे। जिला आजमगढ़ के खानपुर बोहना नाम के
Read more संत दरिया साहब मारवाड़ वाले का जन्म मारवाड़ के जैतारण नामक गांव में भादों वदी अष्टमी संवत् 1733 विक्रमी के
Read more परम भक्त सतगुरु संत दरिया साहब जिनकी महिमा जगत प्रसिद्ध है पीरनशाह के बेटे थे। पीरनशाह बड़े प्रतिष्ठित उज्जैन के क्षत्री
Read more महात्मा
संत गरीबदास जी का जन्म मौजा छुड़ानी, तहसील झज्जर, ज़िला रोहतक हरियाणा में वैसाख सुदी पूनो संवत् 1774 वि०
Read more महात्मा संत चरणदास जी का जन्म राजपूताना के मेवात प्रदेश के डेहरा नामी गांव में एक प्रसिद्ध ढूसर कुल में
Read more महात्मा
संत दूलनदास जी के जीवन का प्रमाणिक वृत्तान्त भी कितने ही प्रसिद्ध संतो और भक्तों की भांति नहीं मिलता।
Read more संत
दादू दयाल जी का जन्म फागुन सुदी अष्टमी बृहस्पतिवार विक्रमी सम्वत 1601 को मुताबिक ईसवी सन् 1544 के हुआ
Read more संसार का कुछ ऐसा नियम सदा से चला आया है कि किसी महापुरुष के जीवन समय में बहुत कम लोग
Read more श्री
हंस जी महाराज का जन्म 8 नवंबर, 1900 को पौढ़ी गढ़वाल जिले के तलाई परगने के गाढ़-की-सीढ़ियां गांव में
Read more हम सब लोगों ने यह अनुभव प्राप्त किया है कि श्री चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परंपरा में आध्यात्मिक गुरु किस
Read more मैं एक ऐसी पद्धति लेकर हिमालय से उतरा, जो मनुष्य के मन और हृदय को उन, ऊंचाइयों तक ले जा
Read more मैं देख रहा हूं कि मनुष्य पूर्णतया दिशा-भ्रष्ट हो गया है, वह एक ऐसी नौका की तरह है, जो मझदार
Read more ईश्वर की प्राप्ति गुरु के बिना असंभव है। ज्ञान के प्रकाश से आलोकित गुरु परब्रह्म का अवतार होता है। ऐसे
Read more भारत में राजस्थान की मिट्टी ने केवल वीर योद्धा और महान सम्राट ही उत्पन्न नहीं किये, उसने साधुओं, संतों, सिद्धों और गुरुओं
Read more में सनातन पुरुष हूं। मैं जब यह कहता हूं कि मैं भगवान हूं, तब इसका यह अर्थ नहीं है कि
Read more श्री साईं बाबा की गणना बीसवीं शताब्दी में भारत के अग्रणी गरुओं रहस्यवादी संतों और देव-परुषों में की जाती है।
Read more दुष्टों की कुटिलता जाकर उनकी सत्कर्मों में प्रीति उत्पन्न हो और समस्त जीवों में परस्पर मित्र भाव वृद्धिंगत हो। अखिल
Read more हिन्दू धर्म के रक्षक, भारतवर्ष का स्वाभिमान, अमन शांति के अवतार, कुर्बानी के प्रतीक, सिक्खों के नौवें गुरु साहिब श्री
Read more गुरु हरकिशन जी सिक्खों के दस गुरूओं में से आठवें गुरु है। श्री गुरु हरकिशन जी का जन्म सावन वदी
Read more गुरु अर्जुन देव जी महाराज सिक्खों के पांचवें गुरु है। गुरु अर्जुन देव जी का जन्म 19 बैसाख, वि.सं. 1620
Read more श्री
गुरु रामदास जी सिक्खों के चौथे गुरु थे। श्री गुरू रामदास जी महाराज का जन्म कार्तिक कृष्णा दूज, वि.सं.1591वीरवार
Read more श्री
गुरु अमरदास जी महाराज सिखों के तीसरे गुरु साहिब थे। गुरु अमरदास जी का जन्म अमृतसर जिले के ग्राम
Read more मानव में जब चेतना नहीं रहती तो परिक्रमा करती हुई कोई आवाज जागती है। धरा जब जगमगाने लगती है, तो
Read more