संत धर्मदास जी महान संत कबीरदास जी के शिष्य थे। वह महान कवि भी थे। वह एक धनी साहुकार थे। जिससे उन्हें धनी धर्मदास के नाम से भी पुकारा जाता था। संत कबीर दास के बाद संत धर्मदास कबीर पंथ सबसे बडे गुरू थे। संत धर्मदास जी जाति के कसौधन बनियेबांधोगढ़ नगर के धनी महाजन थे। उनके जीवन और मृत्यु के समय का उनके मत वालों या किसी ग्रंथ से ठीक ठीक पता नहीं चलता परन्तु इतना पक्का है कि कबीर दास से इनकी अवस्था कम थी और उनके पन्द्रह बीस बरस पीछे चोला छोड़ा। इस हिसाब से उनके जन्म का समय विक्रमी सम्वत् 1475 और 1400 के दर्मियान ओर परमधाम सिधारने का समय सम्वत् 1600 के करीब समझना चाहिए क्योंकि उन्होंने पूरी अवस्था को पहुंच कर शरीर त्याग किया।
संत धर्मदास का जीवन परिचय
संत धर्मदास बाल अवस्था ही से बड़े धर्मात्मा और भगवत भक्त थे परन्तु आदि में पुराने कर्म धर्म और मूर्ति पूजन के बंधुए थे। सैकड़ों पंडितों और पुजारियों ओर साधुओं की उनके यहां सदा भीड़ भाड़ लगी रहती थी और अपना मुख्य समय ठाकुर की मूरत ओर शालिग्राम की पूजन और ब्राह्मणों ओर साधुओं के खिलाने पिलाने और आदर सत्कार और कथा कीर्तन में खर्च करते थे और दूर दूर के तीर्थो’ में दर्शन और यात्रा कर आये थे।
जब संत धर्मदास जी के चेतने का समय आया तब सतगुरु कबीर दास पहिले उनसे मथुरा में मिले और रास्ते में चर्चा मूर्ति पूजन और तीर्थ व्रतके खंडन ओर संतमत के मंडन कि की। कुछ दिन पीछे धर्मदास जी काशी यात्रा को आये तब संत कबीरदास के फिर दर्शन मिले और जो कुछ संशय भर्म धर्मदास जी के मन में बाकी रह गये थे उनको कबीर दास ने पूरी भांति मिटा दिया और इसके पीछे संतमत का उपदेश देकर दया दृष्टि से उनके घट के पट खोल दिये। “अमर सुख निधान” ग्रन्थ में कबीर दास और संत धर्मदास जी को गोष्टी विस्तार के साथ लिखी है, उसकी थोड़ी सी कड़ियां जिनमें धर्मदास जी के कबीर दास का दर्शन पाने और फिर काशी में शरण लेने का वर्णन है नीचे लिखे जाते हैं।
संत धर्मदास जीसंत धर्मदास जी की रचनाएं :—
चौपाई:–
कहें कबीर मैं काया सोधा। जो जस बूझि ताहि तस बोधा।।
अपने घट में कीन्ह विचारा। देखों धर्मदास दरबारा।।
धर्मदास बंधों के वानी। प्रेम प्रीति भक्ती मैं जानी॥
सालिगराम की सेवा करई। दया धरम बहुतै चित घरई॥
साधु भक्त के चरन पखारे। भोजन कराइ अस्तुति अनुसारै॥
भागवत गीता बहुत कहाई। प्रेम भक्ति रस पियै अघाई॥
मनसा वाचा भजै गोपाला। तिलक देह तुलसी की माला॥
द्वारिका जगन्नाथ होइ आये श। गया बनारस गंगा न्हाये॥
बोलत वचन सत सुभ वानी। वृथा कहे कबहूँ ना जानी॥
दोहा:–
राम कृष्न को सूमिरे, तीरथ ब्रत दृढ़ चेट।
मथुरा परसत जब गये, मे कबीर सो भेंट॥
चौपाई:—
जिंद रूप जब धरे सरीरा। धर्मदास मिलि गये कबीरा॥
उदित बदन मुदित सुख चैना। हँस मुसुकाय कहे मुख बैना॥
धर्मदास तुम हो बड़ ज्ञानी। परम भक्त भक्ती मैं जानी॥
तुम सा भक्त न देखों आना। धर्म तुम्हाश कवन स्थाना॥
कवन दिसा से तुम चलि आये। जैहौ कहा कहा मन लाये॥
काकी भक्ति करौ चित लाई। सो कित बसै कौन से ठोई॥
पूछत मन में दुख जनि मानो श। करता आदि पुरुष पहिचानों॥
का में माला तिलक के दीन्हे। का मे तीरथ बरत के कीन्हे ॥
का मे सुनत भागवत गीता। चिन्ता मिटी न मन को जीता॥
दोहा:–
जेहि कर्ता से ऊपजे, सो बसै कौने देस।
ताहि चीन्ह परिचय करो, छोड़ सकल भ्रम भेस॥
चौपाई:–
सुनि धर्मदास अचंभो भयऊ। ऐसो वचन काहु ना कहेऊ॥
जिंद रूप इन हीं कै देखा। कहत वचन सुख बहुत विवेका।।
सुनो जिंद मोरे दृढ़ ज्ञाना। वास मोर वंधो अस्थाना॥
बरन कसौधन जाति को वानी। भजौ राम कृष्न सारंग पानी।।
पारब्रह्म सेवौ चित लाई। सीताराम जपौ सुखदाई॥
सेवौ सालिगराम के पाऊँ। अर्द्र-मुखी सच्ची लव लाऊँ॥
सकल भक्त के रहौ अधीना। गुरु सेवा जिन दिच्छा लीन्हा।।
विरथा बचन सुनों ना कहऊँ। प्रेम भक्ति में निस दिन रहऊँ।॥
दोहा:–
मोरे संका कछु नहीं, सेवौ श्रीरघुनाथ।
ध्रू प्रहलाद उबारिया, सो हरि हमरे साथ॥
चौपाई:–
मैं हों जिंद सुतु बचन हमारा। तुम जनि होहु काल के चारा॥
राम नाम सब दुनी पुकारे। राम अगिन जो काठै जारे॥
काहे न सुरति करौ घट माही। चीन्ह चीन्ह बूड़ौ भव माहीं॥
जिन्हें कहत हौ नंद के लाला। सो तो भये सबन के काला॥
छल बल करि वे सब छलि डारे। पांडव जाइ हिवारे गारे॥
पांडव सम को भक्त कहावा। तिनहुँ को काल बली भरमावा॥
दसरथ सुत कहिये श्रीरामा। तिनहूँ चीन्हौ काल अकामा॥
करता राम कस मे मति-हीना। कपट मृगा उनहूँ नहिं चीन्हा॥
दोहा:–
दोउ करता बिरतंत है, कीन्हे जम के काम।
जीव अनेक प्रलय किये, ऐसे कृष्न अरु राम॥
चौपाई:–
धर्मदास है नाम तुम्हारा। काहे न चीन्हौ बचन हमारा।
ज्ञान दृष्टि से चीन्हौ वानी। पाखंड पाहन पाखंड पानी॥
करता पाखंड कबहुं न होई। यह संसय सब दुनी बिगोई॥
सालिगराम है बोलनहारा। देंह सरूप तन साजि हमारा॥
धर्मदास सुनि चीन्हेउ ज्ञाना। हित के बचन सुनत मन माना॥
कोह करता कहिये भगवाना। नाम मोर इन केसे जाना।
इन कर वचन ज्ञान औमाहा। जिंद भेष धारे कोउ आहा॥
थापै सालिगराम न सेवा। तीरथ बरत कौ मेटै मैवा॥
राम कृष्न को मेट बताना। अहै जिंद को कैसो ज्ञाना॥
दोहा:–
धर्मदास मस्टी रहे, बहुत खोज नहिं कीन्ह।
सीधा लै डेरे गये, जिंद उतर नहिं दीन्ह॥
चौपाई:–
इतना गुष्ट बजार में कीन्हा। आप दुकान में डेरा लीन्हा।
धर्मंदास पहुचे निज डेंरा। मन महँ सोच कीन्ह बहुतेरा॥
बारह बरस तीरथ हम कीन्द्रा। द्वारिका जाइ छाप हम लीन्हा॥
श्रीनाथ परसे चित लाईं। रामनाथ दक्खिन होइ आई॥
दव्खिन परस गोदावरि गयेऊ। मेला भरो दरसन तहँ कियेऊ॥
परसि सिवाला औ हरिद्वारा। नीमपार मिस्र पग धारा॥
बद्रीनाथ दुवारे गयेऊ। श्रीबिंद्रावन मथुरा अयैऊ॥
दोहा:–
मकर त्रिवेनी परसेहु, औ कासी अस्थान।
औरो परसे जगन्नाथ, गंगासागर किये अस्नान॥
चौपाई:–
इतने तीर्थ छेत्र हम घाये। यह दुसरे हम मथुरा आये॥
राम नाम निज प्रान अधारा। सो यह जिंद मेटि सब डारा॥
कीजे कहा जिंद को भाई। जाति मलेच्छ कथै चतुराई॥
धर्मदास जब नफर बुलावा। घर लिपाय ज्योनार चढ़ावा।
चौका बैठि कीन्ह अस्नाना | छानि छानि जल अदहन दीन्हा॥
अति पवित्र सै करै रसोई। सालिगराम के भोजन होई॥
लकड़ी चिऊंटी उठीं अपारा | कीटिन जीभ भये जरि छारा॥
दोहा:–
धरमदास को दुख भयो, हरि हरि करत पुकार।
जीव अनेक प्रलय भये, अस ज्योनार धिक्कार॥
चौपाई:–
लकड़ी काढ़ि जल माहिं बुझाई। चूल्हा बुझायो बहु जल लाई॥
जो कछु जरे सो जरिंगे भाई। जो बाचे सो लेहु बचाई॥
नफर हाथ जिंद बुलवाई। यह भोजन लै जिंदहि खाई॥
धरमदास तुम बड़े सुजाना। जीव दया काहे नहिं जाना॥
कीन्हा नेम अनेक अचारा। लकड़ी घोई रचै ज्योनारा॥
निरखि निरखि तुम काहे न बीना। नाम तोरि देवतन कहि दीन्हा।।
जौलों जीव दया नहिं आवै। तीरथ भरमि के जनम गँवावै ॥
दसरथ सुत श्रीराम कहाये। तिनहूँँ अपने जिव संताये।
दोहा:–
बैर बालि के हतन को, विष्नु देंह धरि दीन्ह।
जो जो जिव मारे हते, तिन तिन बदला लीन्ह।।
चौपाई
बचन हमार हिये में घरहू। संसय तजि के भोजन करहू ॥
आतम कष्ट कहूँ ना दीजे। रुचे सो प्रेम से भोजन कीजे॥
हरि ना मिलै अन्न के छांड़ै। हरि ना मिले डगर ही मांडे॥
हरि न मिलें घरबार तियागे। हरि न मिलें निसु वासर जागे॥
दया धरम जहै बसे सरीरा। तहां खोजिलै कहे कबीरा॥
सुनि धर्मदास धीर्ज मन कीन्हा। भली सीख जिंद मोदिं दीन्हा॥
इन कै ज्ञान महा रस बानी। मानो बचन अमी रस सानी॥
आन प्रसाद पत्र भरि लीन्हा। काढ़ि परोसि के भोजन दीन्हा॥
दोहा:–
तुम ले जावो जिंद जी, हम करिबै फरहार।
लंघन न करिहौ पीर जी, मानौ वचन तुम्हार॥
चौपाई:–
दै प्रसाद उठि आसन आयेऊ। धर्मदास फरहार मँगायेऊ ॥
सालिगराम को अर्पन कीन्हा। पुनि भोजन आपु ही कीन्हां॥
लिये आचमन अमृत मीठे। आसन करे सुचित होइ बैठे॥
पहर एक हरि चरचा भयेऊ। पुनि निद्रा करने को गयेऊ॥
रेनसिरानी भयो, बिहाना। नफर सहित उठि बाहिर आना॥
धरमदास बंधो चलि आये। बाल गोपाल मनहि सुख पाये ॥
जिंद बचन जब हिरदे आये। अंतर गत बहुते सुख पाये ॥
आवे फिरि तब दरसन पाऊं। पूछूं आदि अंत चित लाऊँ ॥
दोहा:–
सत्त सत्त सब उन कही, जानि परे मोहिं सार।
जिंद नाहिं कोइ पुरुष है, अस बोलै ब्रह्म हमार॥
चौपाई:–
धरमदास मन कीन्ह विचारा। देवँ महोच्छ करों भंडारा॥
सीधा सामग्री बहुत मंगाई। भेष भगत तहँ बहुत बुलाई॥
आये बैरागी ओ ब्रह्मचारी। नागवीर आये दूधाधारी॥
फलाहरी अन्नधारी आये। जोगी जिंद बहु भेष बनाये॥
बहुत आये तपसी सन्यासी। जटा भभूत सुन्न विस्वासी ॥
बाजै ताल मृदंग निसाना। संख नाद धुनि होइ निघाना ||
आव भगत सबहिन को कीन्हा। इच्छा भोजन सब को दीन्हा॥
सब को ज्ञान परख्यो धर्मदासा। लख्यो ज्ञान सब को बिनु सारा॥
कोइ तीरथ कोह मूर्ति बेंधावै। कोइ कलि केवल नाम बढ़ावै॥
कोइ कृष्न गोपालहिं गावै। कोइ दुर्गा सिद्ध सक्ति धियावै।
जोगी अलख अल उच्चरई। जिंद सुमिरै अल्लाह खोदाई॥
सन्यासी राम देव ठहराई। परमहंस अविनासी गाई॥
दोहा:–
एक बांत कोइ ना कहै, नाना मति परचंड।
धर्मदासा परखे मतै, जानि परे पाखंड।
चौपाई:–
समुझि परौ ऐसो मन माहीं। जिंद का मता काह सम नाहीं।
बरस दिना गिरही में रहेऊ। बहुत सुरत कासी की कियेऊ॥
धर्मदास कासी चलि आयै। हृदय हुती सो दरसन पाये॥
मुक्तिरूप सुख अमृत बानी। नाम कबीर जगत गुरु ज्ञानी।।
विमल विमल साखी पद गावै। जुरी भीर सबहिन समुझावै॥
धर्मदास तहँ निरखे ठाढ़ा। चंद चकोर जिमि आँखि पसारा॥
पंडित ज्ञानी सबै हराये। थाह कबीर की कोह नहिं पाये॥
धर्मदास चीन्हे मन माना। येहि जिंद तजि होय न आना॥
दोहा:–
पिरथम मोहिं मथुरा मिले, बहुत बाद हम कीन्ह।
सॉच सॉच सब उन कही, मन हमार हर लीन्ह॥
चौपाई:–
धर्मदास हरष मन कीन्हा। बहुरि पुरुष मोहिं दरसन दीन्हा॥
अपने मन में कीन्ह विचारा। इनकर ज्ञान महा टकसारा॥
दोइ दीन के करता कहाई। इनकर भेद कोइ नहीं पाई॥
इतना कहि मन कीन्ह विचारा। तब॒ कबीर उन ओर निहारा॥
आओ भक्त महाजन पगु धारो। चिहुँकि चिहुँकि तुम कोइ निहारो॥
कहिये छिमा कुसल हो नीके। सुरत तुम्हार बहुत हम झीकैं॥
धर्मदास हम तुम को चीन्हा। बहुत दिनन में दरसन दीन्हा॥
बहुत ज्ञान कहसी हम तुमहीं। बहुरि के अब तुम चीन्हो हमहीं॥
तुम तो भक्त हम जिंद फकीरा। सुधि करि देखो सत मत धीरा॥
दोहा:–
भली भई दरसन मिले, बहुरि मिले तुम आय।
जो कोई मोसै मिले, ते जुग बिछुरि न जाय॥
चौपाई:–
सुनि धर्मदास हिये सुख भरे। सन्मुख घाई पाँव जा परै॥
दया सिन्धु चितये भरि नैना। उठि धर्मदास अंक भरि लीन्हा ॥
धर्मदास कबीर मे भेंटा। सत्त सब्द के खुले कपाटा॥
प्रगट ज्ञान ध्यान की खानी। सत्त सब्द निज अमृत वानी।।
जो कोइ सुनै चेत चित लाई। संसय टरै पाप छय जाई॥
तुलसी दास के ग्रंथ घटरामायण में लिखा है कि कबीर दास काशी में धर्मदास जी के घर गये जब वह मूर्ति पूजा कर रहे थे और बहुत से पंडित और पुजारी जमा थे। कबीरदास ने पूछा कि घात की गढ़ी मूरत और पत्थर की बटिया के पूजने का क्या फल है इस पर पुजारी बहुत बिगडे और उनको नास्तिक और भला बुरा कह कर निकाल देना चाहा परन्तु संत धर्मदास जी ने रोका ओर उनसे देर तक चर्चा करते रहे जिससे उनकी कुछ शांति हुई। फिर कबीर दास ने मौज से यह चमत्कार दिखलाया कि एक हिचकी लेकर अपने गले से शालग्राम की वटिया निकाल कर धर दी ओर फिर उसको बुलाया तो वह हाथ पर आ बैठी। यह कौतुक देखकर धर्मदासजी के चित्त में पूरी रीति से कबीर दास की महिमा बैठ गई और अपनी स्त्री और पुत्रों को भी उनके चरणों पर गिराया। उनकी स्त्री और जेठे पुत्र चूड़ामणि ने तो पूरे भाव से कबीर दास की शरण ली ओर उनको गुरू धारण किया परन्तु छोटे बेटे नारायण दास ने नाक भौं सिकोड़ ली और कबीर दास को पाखंडी और
जादूगर ठहराया।
इल दोनों कथाओं से संतों के इस वचन का प्रमाण मिलता है कि जब स्वत: संत जगत में पधारते हैं, तो अपनी निज अंश अर्थात् गुरुमुख को भी देर सबेर लाते हैं और उसी के द्वारे सारी रचना को पवित्र करते हैं। यघपि गुरुमुख को परमार्थ का चाव लड़कपन ही से रहता है, परन्तु पहले माया का पर्दा उस पर पड़ा रहता है, जब समय आता है तब सतगुरु उसे अपने दर्शन और वचन से एक छिन में चेता देते हैं ओर माया के परदे को हटा देते हैं। जैसे कबीर दास पहिले संत अवतार हुए ऐसे ही धनी धर्मदास जी पहिले गुरु मुख प्रगट हुए जो कबीर साहेब की दया दृष्टि से संत गति को प्राप्त हुए।
संत धर्मदास जी ने कबीर साहेब की शरण लेने पर अपना सारा धन दौलत लुटा दिया ओर काशी में गुरु चरणों में रहने लगे। उनके पीछे उनके बड़े बेटे चूड़ामणिजी ने भी वही ऊंचा पद पाया परन्तु नारायणदास संतों की साखी के अनुसार काल के अवतार समझे जाते हैं। कबीर दास के सन् 1518 में परमधाम को सिधारने के पीछे धर्मदास जी को उनकी गद्दी और सब ग्रंथ मिले और वह बहुत बरस तक जगत जीवों को चेताते और संत मत बढ़ाते रहे। उनके गुप्त होने पर चूड़ामणि जी को गद्दी हुई और सब ग्रंथ मिले सिवाय कबीरदास के बीजक के जिसे भागू धर्मदास जी के गुरुभाई ने चोरा कर भगवान, गोसोंई के हाथ मुकाम धनौली जिला तिरहुत को भेज दिया और फिर वहां अपनी गद्दी अलग कायम की।
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