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संत दादू दयाल जी

संत दादू दयाल की जीवनी और परिचय

संत दादू दयाल जी का जन्म फागुन सुदी अष्टमी बृहस्पतिवार विक्रमी सम्वत 1601 को मुताबिक ईसवी सन्‌ 1544 के हुआ था अर्थात कबीर दास के गुप्त होने के छब्बीस बरस पीछे। इसमें सब की सम्मति हैं।

संत दादू दयाल का जन्म स्थान

संत दादू दयाल का जन्म स्थान दादू पंथीगुजरात प्रदेश के अहमदाबाद नगर की बतलाते हैं और यही पंडित चन्द्रिका प्रसाद त्रिपाठी और पादरी जान टॉमस ने निर्णय किया है यद्यपि महा महोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी ने उसे जौनपुर ठहराया है जो बनारस के विभाग का एक पुराना नगर है। कितनी ही बातें ऐसी हैं जिनसे जान पड़ता है कि पं० सुधाकर जी का अनुमान ठीक नहीं है और दादूदयाल अवश्य गुजरात प्रदेश के थे, जैसे उन की साखी और पदों की बोल चाल ओर मुहावरे जिन में गुजराती ढंग और लफ़्ज दरसते हैं, और अनेक सुच्ची या खिचड़ी गुजराती भाषा के पद, और यह बात कि पूरबी बोली जैसी कि कबीर दास,रैदासजी, भीखाजी वगैरह को बाणी में पाई जाती है दादू दयाल जी की बाणी में नहीं है।

संत दादू दयाल जी की जाति

दूसरा विषय झगड़े का दादू दयाल की जाति है। दादू-पंथी उनको गुजराती ब्राह्मण बतलाते हैं। पं० सुधाकर जी ने इनको मोची लिखा है जो मोठ बनाने का काम करते थे और संसारी नाम इनका महाबली बतला कर प्रमाण में यह साखी गुरुदेव के अंग के 33 नंम्बर की दी है—

साचा समरथ गुर मिल्या, तिन तत दिया बताय।
दादू मोट महाबली, सब घृत मथि करे खाय॥

[गुजराती भाषा में मोट वा मोटा बड़े और श्रेष्ठ को कहते हैं और महाबली का अर्थ संस्कृत में अति बलवान या पोढ़ा है ] पादरी जान टॉमस ने इनकी जाति धुनिया लिखी है और ऐसा ही सर्व साधारण में प्रसिद्ध है। हम को इस बात के निश्चय करने का न तो अवसर है और न उसकी आवश्यकता जान पड़ती है, क्योंकि पहिले तो दादू दयाल जी सरीखे भारी गति के महात्मा और भक्त की महिमा न तो ऊंची जाति के ब्राह्मण होने से बढ़ती है और न नीची जाति के मोची या मुसलमान होने से घटती है। जैसा कि कहा है:–

जाति पाति पूछे नहिं कोइ। हरि को भजै सो हरि का होइ॥

जो आंख खोल कर देखा जावे तो विशेष कर पिछले संत और साधू जैसे कबीरदास जी, रैदास जी इत्यादि, और भक्त जैसे वाल्मीक (डोमडा, श्रीकृष्णावतार के समय में) ओर दूसरे वाल्मीक (बहेलिया, संस्कृत रामायण के ग्रन्थ करता) और सदना (कसाई); और जोगेश्वर ज्ञानी जैसे नारद और व्यास आदि ने नीची ही जाति में जन्म लिया जिनकी कीर्ति का झंडा आज तक संसार में फहरा रहा है और सदा फहराता रहेगा।

दादू पंथी संत दादू दयाल के प्रगट होने का भेद इस तरह बतलाते हैं कि एक टापू में कुछ योगी भगवत भजन करते थे, उनमें से एक योगी को आकाशवाणी द्वारा आज्ञा हुई कि तुम भारत वर्ष में जाकर जीवों को चितावों। इस आज्ञा के अनुसार वह योगिराज विचरते हुए जब अहमदाबाद में पहुंचे तो वहां लोदीराम नागर ब्राह्मण से भेंट हुई जिसको बेटे की बड़ी अभिलाषा थी, उसने योगी से वर माँगा कि हम को लड़का हो। योगी ने कहा कि बड़े तड़के साबरमती नदी के तट पर जाओ वहां तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। जब लोदीराम जी दूसरे दिन सवेरे वहां पहुंचे तो एक बच्चा नदी में बहता हुआ मिला जिसे लोदीराम निकाल कर घर लाये ओर पाला। (यह कथा संत कबीर दास की उत्पत्ति कथा से पूरी भाँति से मिलती है जिन्हें काशी के लह॒रतारा नामक तलाब में बहते हुए नीरू जुलाहे ने पाया था ओर अपना बेटा बनाया) दादू पंथियों का निश्चय है कि उन्हीं योगी जी ने योग बल से अपनी काया बदल कर बच्चे का रूप धारण कर लिया ओर दादू दयाल बने, इसके प्रमाण में यह साखी दादू जी की बतलाते हैं—

सबद बँधाना साह के, ता थैं दादू आया।
दुनियां जीवी बापुड़ी, सुख दरसन पाया॥

संत दादू दयाल के गुरु

पंडित सुधाकर द्विवेदी जी ने लिखा है कि संत दादू दयाल जी के गुरू कमाल थे जो कबीर दास के मुख्य शिष्यों में से थे ओर जिन को कितने लोग कबीरदास का बेटा बतलाते हैं। दादू दयाल की बाणी में कही से उन के गुरू का नाम नहीं खुलता परंतु कबीरदास की उन्होंने जगह जगह महिमा की है और कहीं कहीं साखियां भी कबीर दास को दी हैं जिन्हें क्षेपक न कहना चाहिए, पर उनके कमाल के शिष्य होने का प्रमाण कहीं नहीं मिलता। पं० सुधाकर जी के अनुसार दादूदयाल नाम कमाल का ही रखा हुआ है क्योंकि दादू जी छोटे बड़े सब को “दादा” पुकारा करते थे इस लिये कमाल ने उन का नाम दादू रखा।

संत दादू दयाल जी
संत दादू दयाल जी

जनगोपाल ने लिखा है कि दादूदयाल जी की अवस्था ग्यारह बरस की होने पर परम पुरुष ने एक बूढ़े साधू के भेष में उन को दर्शन दिया जब कि दादू दयाल जी लड़कों में खेल रहे थे और उनको पान का एक बीड़ा खिलाकर मस्तक पर हाथ रखा और परमार्थ का गुप्त भेद देना चाहा जिसे बाल बुद्धि से दादू दयाल जी ने न लिया। सात बरस पीछे वही बूढ़े बाबा फिर मिले ओर दादूदयाल जी की बहिर्मुख वृत्ति को दया दृष्टि से अंतरमुख कर के उपदेश दिया। उसी दिन से दादूदयाल जी भगवत भजन में तत्पर हो गये ओर इसी लिये जन गोपाल ने दादू दयाल साहिब के गुरू का नाम “वृद्ध बाबा” लिखा है जो सुंदरदास जी के लिखे हुए नाम “वद्धानन्द” से मिलता है। पं० जगजीवन जी के लेख के अनुसार भी साक्षात परमेश्वर ही दादूदयाल के गुरू थे ओर इस के प्रमाण में उन्होंने यह साखी दादू साहिब की दी है–

गैव माहिं गुरदेव मिल्या। पाया हम परसाद।
भस्तकि मेरे कर घरया। दृष्या अगम अगाध॥

संत दादू दयाल की दयालुता

दादू जी का क्षमा और दया का अंग इतना बड़ा था कि दादू “दयाल” के नाम से लोग उन को पुकारने लगे। इस के दृष्टांत में कहा जाता है कि एक बार एक काजी जिसकी गोष्टी दादू जी के साथ हो रही थी ऐसा झुँझला उठा कि उनके मुंह पर एक घूंसा मारा परंतु संत दादू दयाल जी क्रोध करने के बदले बड़ी शांति से मुंह आगे करके बोले कि भाई एक ओर मार ले जिस पर काज़ी बहुत लज्जित हुआ। ऐसे ही किसी समय में वह समाधि में बैठे थे, कुछ ब्राह्मणों ने जो उनसे विरोध रखते थे उन को ईंटों से घेर कर बंद कर दिया। जब उनकी आंख खुली तो निकलने का रास्ता न पाकर फिर ध्यान में बैठ गये और इस अवस्था में कई दिन तक रहे। अंत में आस पास के सभ्य जनों को यह हाल मिला तो उन्होंने आकर ईंटों को हटाया और बदमाशों को दंड देना चाहा परंतु दयाल जी ने कहा कि ऐसे लोग जिन की करतूत से हमारा भगवंत के चरणों से अधिक काल तक मेला रहा वह धन्यवाद पाने के योग्य हैं न कि दंड।

अकबर शाह सहकाली

संत दादू दयाल का जीवन पूरा पूरा अकबर बादशाह के राज्य समय में था। अकबर के पैदा होने के एक बरस पीछे अर्थात्‌ विक्रमी सम्वत्‌ 1601 में इन्होंने जन्म लिया और उसके मरने के दो वर्ष पहिले अर्थात्‌ 1660 के जेठ वदी अष्टमी शनिवार के अठ्ठावन बरस ढाई महीने की अवस्था में चोला छोड़ा। कहते हैं कि सम्वत 1642 में दादू दयाल की मुलाकात फतेहपुर सीकरी में अकबर शाह के साथ पहिले पहिल हुई जिस में अकबर ने उनसे सवाल किया कि खुदा की जात, अंग, वजूद ओर रंग क्या है, इस पर दादू जी ने यह जवाब दिया:–

इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग॥

संत दादू दयाल का देशाटन

संत दादू दयाल के पहिले 29 बरस का हाल नहीं मिलता पर सम्वत 1630 में वह साँभर आये और वहां अनुमान छः बरस रहे। फिर आमेर को गये जो जयपुर राज्य की पुरानी राजधानी थी और वहां चौदह बरस के लगभग रहे। सम्वत 1650 से 1659 तक जयपुर, मारवाड़, बीकानेर आदि राज्यों के अनेक स्थानों में विचरते रहे और फिर सं० 1659 में नराना में जो जयपुर से 20 कोस पर है आकर ठहर गये। वहां से तीन चार कोस भराने की पहाड़ी है। यहां भी दादू दयाल कुछ काल तक रहे और यहां सं० 1660 में चोला छोड़ा इसलिये यह स्थान बहुत पवित्र समझा जाता है, बहुघा साधू वहां यात्रा को जाते हैं और कितने साधुओं के फूल भी वहां गाड़े जाते हैं।

दादू पंथ के अखाड़े

दादू सम्प्रदाय के बावन प्रसिद्ध अखाड़े हैं ओर हर एक का महंत अलग है। यह अखाड़े विशेष कर जयपुर राज्य में हैं और कुछ अलवर, मारवाड़, मेवाड़, बीकानेर आदि राज्यों में और पंजाब व गुजरात आदि प्रदेशों में हैं। काशी में भी दादू पंथियों का एक अखाड़ा है। सब महंतों के मुखिया नराना में रहते हैं जहां दादू दयाल ने अपने पिछले दिनों में निवास किया था।

भेषों के चिन्ह और रीति और रहनी

इस पंथ में दो प्रकार के साधू पाये जाते हैं एक भेषधारी विरक्त जो ग्रेरुआ वस्त्र पहनते हैं ओर पठन पाठन कथा कीर्तन जप भजन में अपना पूरा समय लगाते हैं, दूसरे नागा जो सफेद सादे कपड़े पहनते हैं और लेन देन खेती फौज की नौकरी वैद्यक आदि व्यापार रुपया कमाने के लिये करते हैं। नागो की फौज जयपुर राज्य की मशहूर है, जिस में दस हजार नागा साधु से कम न होंगे। दोनों प्रकार के साधू विवाह नहीं करते, गृहस्थों के लड़कों को चेला मूढ़ कर अपना वंश और पंथ चलाते है।

दादू पंथी साधू कबीर पंथियों को तरह न तो माथे पर तिलक लगाते ओर न गले में कंठी पहनते हैं पर प्रायः हाथ में सुमिरनी रखते हैं। यह लोग सिर पर टोपा या मुरायठ पहनते हैं और आते जाते समय एक दूसरे से “सत राम” कहते हैं। मुर्दे को यह लोग चिता लगाकर जला देते हैं पर यह चाल नई निकली है। प्राचीन रीति के अनुसार मुर्दे को अर्थी या विमान पर रख कर जंगल में छोड़ आते थे जिस में पशु पंछी उस का अहार करें। दादू दयाल ने इसी चाल को अपने उपदेश में उत्तम कहा है–

हरि भज साफल जीवना, पर उपगार समाइ।
दादू मरणा तहँ भला, जहै पशु पंछी खाइ॥
साधू सूर सोहै मैदाना। उनका नाहीं गोर मसाना॥

मुख्य तीर्थ

नराना में जहां दादू-पंथियों की मुख्य गद्दी है एक दर्शनीय मंदिर
संत दादू दयाल द्वारा के नाम का है। यहां संत दादू दयाल के रहने ओर बैठने के निशान अब तक मौजूद है और उनके पहरने के कपड़े है और पोथियां जिनकी पूजा होती है।

मेला

नराना में फागुन सुदी से ( जिस दिन दादू दयाल वहां पहली बार आये थे ) द्वादशी तक नौ दिन भारी मेला हर साल होता है।

ईष्ट ओर मत शिक्षा

संत दादू दयाल, कबीर दास की तरह निर्गुण के उपासक थे पर इन का ईष्ट ब्रह्मांड का धनी निरंजन निराकार परमेश्वर था उसी को सब में रमने वाला राम कह कर सुमिरन भजन कराते थे। उनके मत की शिक्षा नीचे लिखे हुए विषयों पर थी–

  1. परमेश्वर की महिमा ओर उसका सचिदानन्द स्वरूप।
  2. उसकी निगुण आराधना और अनन्य भक्ति।
  3. उसकी परम उपासना और उसका अजपा जाप।
  4. मन को परम रूप में स्थिर करने के साधन ।
  5. परम रूप का ध्यान ओर धारणा और समाधि।
  6. अनहद बाजे का श्रवण और उसमें मग्न होना।
  7. अमृत बिंदु का पान और परमानंद की प्रीति।
  8. परमेश्वर से अरस परस मिलाप–ब्रह्म का साक्षातकार।

समाज संशोधन

दादू दयाल केवल परमार्थी शिक्षक न थे बरन संसारी चाल व्यवहार और जाति भेद में भी उन्होंने बहुत सुधार क्रिया ।

चमत्कार

लिखा है कि एक साल दादू दयाल आंधी नामक गाँव में चौमासे की ऋतु में थे जहां वर्ष न होने के कारण जीवों को अति विकल देखकर उन की मांग पर भगवंत से प्रार्थना करके दादूदयाल जी ने जल बरसाया और अकाल को दूर किया, इसके। प्रमाण में यह साखी बतलाते हैं–

आज्ञा अपरंपार की, बसि अंबर भरतार।
हरे पटम्बर पहिरि करे, धरती करता करै सिंगार॥

बहु भाषा बोध

दादू दयाल कुछ विशेष पढ़े लिखे न थे यद्यपि उन की साखियों और पदों में अनेक भाषाओं के शब्द मिलते हैं ओर कितनी ही साखी और पद ठेठ फारसी में हैं। गुजराती तो उन की मात्र भाषा थी ही और मारवाड़ में भी बहुत काल तक रहे सो वहां की भाषाओं का जानना अचरज नहीं है परंतु उन की बाणी से पंजाबी, सिंधी, मरहठी ओर ब्रज भाषा की भी अच्छी जानकारी पाई जाती है। दादू दयाल ने अपनी वाणी कभी अपने हाथ से नहीं लिखी, उन के पास रहने वाले शिष्य जो कुछ उन के मुख से निकलता था लिख लिया करते थे।

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