भारतीय संस्कृति के प्राण और विश्व साहित्य के कल्पतरू संत
तुलसीदास इस लोक के सुख और परलोक के दीपक हैं। उनके उदय ने धर्म को जीवन दिया, समाज को चेथना प्रदान की, जीवन को सत्य दिये और साहित्य में चार चांद जड़े। संत तुलसीदास जी का जन्म अब से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व श्रावण शुक्ल सप्तमी सम्वत् 1598 में हुआ था और श्रावण शुक्ला सप्तमी को ही सम्वत् 1680 में मृत्यु हुई थी। देहधारी तुलसीदास आज हमारे सामने नहीं हैं पर अपने अमर काव्य और उज्जवल तपस्या में वे सदा सब के सामने हैं। वे अंधेरे से निकले और उजाले में लेके आये। वे ऐसे संत हैं जिनका प्रकाश सर्वतोमुखी और सर्वोकालीन है।
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संत तुलसीदास की माता का नाम हुलसी और र पिता का नाम आत्माराम दूबे है। इनकी जन्मभमि राजपुर बाराबंकी है। संत तुलसीदास का विवाह एक परम सुन्दरी कन्या रत्नावली से हुआ था। यही रत्ना ही तुलसीदास की चेतना है। रत्ना के उपदेश से ही तुलसीदास, संत तुलसीदास बने।
प्रेमी तुलसीदास से संत तुलसीदास बनने की कहानी
कहानी बहुत प्रसिद्ध है कि संत तुलसीदास अपनी पत्नी रत्ना से प्रत्यधिक प्रेम करते थे। उनके लिये पत्नी से पल भर के लिये भी अलग रहना कठिन था। तुलसीदास एक दिन के लिये भी रत्ना को माता पिता के घर नहीं जाने देते थे। एक दिन जब तुलसी कुछ समय के लिये किसी काम से गये तो रत्ना यमुना पार अपने पीहर चली गई। तुलसीदास जब लौटकर आये और रत्ना को घर में नहीं पाया तो बहुत व्याकुल हुए। वे उसी समय रत्ना के पास चले।
समय आधी रात का था, अंधेरी काल-सर्पिशी की तरह खाने को आ रही थी, पानी बहुत जोर से बरस रहा था, आकाश में बिजली कड़क कड़क कर प्राणों को कंपा रही थी, यमुना की तूफानी बाढ़ किनारों को काटती हुई गरज रही थी। किंतु तुलसीदास के हृदय का प्रेम इस भयंकर काल रात्रि में तनिक भी कम्पित नहीं हुआ। वे अपनी प्रिया के मिलने को इतने व्यग्र थे कि तूफानी नदी में कूद पड़े। उस नदी में कोई लाश बही जा रही थी। इसी लाश को नाव समझ कर तुलसीदास उस पर सवार हों गये और उस पार जा पहुंचे, तथा पहुंच गए उस द्वार पर जिसमें उनके प्राणों की शान्ति सो रही थी।
दरवाजा बंद था, ऊपर चौखट पर एक काला सर्प लटक रहा
था। तुलसीदास सर्प को प्रेम-डोर समझ उसे पकड़कर ऊपर छत पर पहुंच गये। छत पर उनकी प्राण प्रिया मीठी नींद सो रही थी। तुलसीदास ने जैसे ही उस दिव्य सुंदरी के कपोलों पर उंगली रखी वैसे ही वह चौंककर उठी और अपने पास अपने प्राणधन को देख कर बोली- “आप और इतनी रात में, यहा तक से कैसे आये ?
तुलसीदास ने चौकोर की तरह चाँद की तरफ लपकते हुए उत्तर दिया, तुमने जो प्रेम-डोर द्वार पर लटका दी थी उसी की पकड़े कर यहां चला आया। रत्ना ने द्वार पर जाकर देखा तो सर्प देखकर कांप उठी और पति की ओर प्रेम से देखती हुई बोली :—-
लाज न लागत आपको, दौरै आयहु साथ।
धिक धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहाँ में नाथ।।
अस्थि-चर्म-मय देह मम, तामे जैसी प्रीत।
तैसी जौ श्री राम मह, होति न तो भवभीत॥
रत्नावली की यह बात तुलसीदास को लग गई। उनके ह्रदय में वह बार ऐसी चुभी कि तुलसीदास संसार को छोड़ कर संत हों गये। रत्ना को खोजते खोजते तुलसीदास राम को खोजने लगे। “हे राम ! तुम कहां हो? राम! मेरे राम ! दर्शन दो राम।। रत्ना से गुरु-मंत्र लेकर वे उसी समय विरक्त हो गये। उनके मन में राम और होंठों पर राम चरित्र मुखर हो उठा। प्रेमी तुलसीदास ने संत तुलसीदास का रूप के लिया।
संत तुलसीदास जीतुलसीदास की शिक्षा और गुरु
यद्यपि तुलसीदास को सबसे बड़ा गुरूमंत्र उनकी पत्नी रत्ना ने
दिया, पर तुलसीदास विद्वान् पहले ही हो चुके थे। वे संस्कृत,
अवधी, ब्रज आदि कितनी ही भाषाओं के पंडित थे। भारतीय संस्कृति भारतीय धर्म और भारतीय इतिहास के थे मर्मज्ञ थे। इतिहास दर्शन, पुराण, वेद आदि सबका उन्होंने मनन किया था। सत्संग और देशाटन से वे बहुत कुछ सीख चुके थे। संत तुलसीदास के गुरु बाबा नरहरिदास थे। गुरु के आश्रम में ही गोस्वामी तुलसीदास जी ने महात्मा शेष सनातन जी से
वेद वेदांग दर्शन इतिहास पुराण आदि पढ़े। इस प्रकार गुरुओं से शिक्षा और पत्नी से चेतना लेकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने गंगा तट पर आसन जमा लिया। यहीं गंगा तट पर संत तुलसीदास ने प्रसिद्ध ग्रंथ रामायण की रचना की। रामायण मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र पर महाकाव्य है, जिसमें संतों के सर्वोज्जवल तत्व भरें पड़े हैं।
संत कौन है? संत का चरित्र कैसा होता है, संत और असंत में क्या अंतर है? इन सब पर तुलसीदास ने ‘रामचरित-मानस में बहुत से अनुभवों और मन्थन से लिखा है। संत के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है:—
बन्दऊ गर्ल समान चित, हित अनहित नहि कोउ।
अंजलि सत सुभ सुमन जिमि, सम सुगन्ध कर दोउ।।
****
सन्त सरल चित जगत-हित जानि सुभाउ सनेह ।
संसार में चाहे सब कुछ मिल जाये पर यदि साधु संग नहीं मिला तो कुछ भी नहीं मिला, सत्संग के बिना जीवन वृथा है। और सत्य वही है जहां साधु के दर्शन हैं। तुलसीदास ने कहा हैं :—
विधि-हरि-हर कवि कोविंद वाणी।
कहत साधु महिमा सकुचानी ॥
*****
लहहि चार फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।
*****
साधु चरित सुभ सरिस कपासू ।
निरस विसद गुनमय फल जासू ।।
जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा।
बन्दनीय जेहिं जग जस पावा।।
जब हम उस साधु समाज की खोज में विकले जो अर्थ धर्म काम मोक्ष का दाता है तो वह हमें संत तुलसीदास में प्राप्त हुआ। सन्त तुलसीदास का “रामचरित मानस सच्चा साध संग है। राम-चरित मानस की चौपाई चौपाई में सतत का उपदेश है। संत और असंत का चरित्र चित्रण करते समय तुलसीदास ने बडा ही रोचक चित्र खींचा है । वन्दना करते हुए वे कहते हैं:–
बन्दऊं सन्त असज्जन चरना ॥
दुखप्रद उभय, बीच कछ बरना।।
बिछुरत एक प्रान हरि लेई।
मिलत एक दारुण दुख देई॥
*****
सुधा-सुरा सम साधु असाबु।
*****
हानि कुससंग सुसंगति लाहू।
जो सत उपदेश दे वह संत है, जो जीवन की भलाई के लिये ज्योति का पथ दिखाता है वह साधु है। दुनिया में गुण और दोष दोनों ही हैं, संत गुणों को ग्रहण कर बांटते हैं। हम बुद्धिमान हैं। जिससे हानि हो वह काम हम क्यों करें? हम तो लाभ चाहते हैं, वह लाभ जो अमर है। संत तुलसीदास की वाणी में वह अमृत है जो अमर बनाता है। संत के उपदेश अंधेरे से उजाले में लाते हैं। न कोई ऐसा उपदेश है, न होगा जो तुलसीदास ने नही दिया। मानव को ऊँचा उठाने के लिये संत की रचना कोटि कोटि संदेश है। रामचरित मानस की हर चौपाई एक मौलिक सन्देश देती हैं।
संत तुलसीदास की रचनाएं
संत तुलसीदास के सन्देश भक्ति, ज्ञान और अनुभूति के संगम हैं हमारे सन्त परम विद्वान, अद्वितीय भक्त और चोटी के कवि हैं। वे भाषा के निर्माता, अनुभूतियों की कामधेनु और भावनाओं के सागर है। उनका अक्षर अक्षर प्राणवान है। उनके रचे रामचरित मानस, विनय पत्रिका, रामलला नहुछू, दोहावली, बरवे रामायण, गीतावली, वैराग्य सन्दीपिनी आदि बारह ग्रन्थ हैं। इन ग्रंथों में सन्त के दिये हुए ये अब्द हैं जो चेतना बन कर गली गली में प्रभाती गा रहे हैं। जन जागरण और संस्कृति का संसार में एक ही कवि है, और वह हैं कवि तुलसीदास।
संत तुलसीदास का जीवन परिचय हिंदी
मानव चरित्र को जितना तुलसीदास ने ऊंचा उठाया है उतना भर किसी समकालीन सन्त ने नहीं उठाया। उन्होंने माता, पिता, गुरू, भाई, पत्नी, छात्र, मित्र आदि सभी के कर्तव्यों का विधान दिया है। माता सीता का चरित्र एक उज्ज्वल पत्नी और माता का चरित्र है, लक्ष्मण और भरत का चरित्र आदर्श भाइयों का चरित्र है, राजा दशरथ का चरित्र ‘प्राण जाय पर वचन न जाई राजा का चरित्र है, राम को चरित्र वीर क्षत्रिय और मर्यादा पुरुषोत्तम का चरित्र है, हनुमान का चरित्र सच्चे सेवक का यस्शवी रूप है। रावण, कुम्भकर्ण और मेंघनाथ के चरित्र भी नमूने के चरित्र है, जिनमें मानव शक्ति के कितने ही अद्भुत चमत्कार हैं। मनदोदरी और सुलोचना जैसी सतियों के चरित्र रामायण में ही हैं। इस प्रकार सन्त ने ‘रामचरित मानस के पात्रों के माध्यम से जीवन के लिये कोटि कोटि सन्देश दिये हैं, विशेष में सामान्य सत्य चरितार्थ हैं। जीवन की हर परिस्थिति के लिये उनके आदर्श वाक्य हैं । क्रोध न करने के लिये तुलसीदास ने कहा है:—
क्रोध पाप का मूल श।
जैहि बस जन अनुचित करें, करें विश्व प्रतिकूल।।
कामी को चेतना देते हुए उन्होंने कहा:–
कामी कौन कलंक ने लेही।
उत्तर काण्ड में गुरुड़ जी के कांगभुशुण्डि जी से सात प्रश्न और कांगभुशुण्डि जी के प्रश्नों के उत्तर में तुलसीदास ने श्रेष्ठ वाक्य रचे हैं। गरुड़ जी ने पूछा– सबसे दुर्लभ शरीर कौन सा है ? सबसे बड़ा दुःख क्या है ? संत और असंत का स्वभाव बतलाने की कृपा करो ? पुण्य क्या है और पाप क्या है ? मानस रोग क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर में संत तुलसीदास की वाणी सुनिये:—
नर-तनू सम नहिं कवनिउ देही।
जीव चराचर जाचत जेह़ी।।
नरक-स्वर्ग अपवर्ग निसेनी।
ग्यान-बिराग-भगति सुख देनी।।
सो तन धरि हरि भजहि न जे नर।
होहि विषय रत मन्द मन्दतर ॥
काँच किरिचि बदले जिमि लेही।
कर ते डारि परस मनि देही॥
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।
सन्त मिलन सम सुख कछु नाहीं।।
पर उपकार वचन मन काया।
सन्त सहज सुभाव खगराया॥
सन्त सहहि दुख परहित लागी।
पर-दुख-हैतु असन्त अभागी॥
दुष्ट उदय जग आरत हेतू।
जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ।।
सन्त उदय संतत सुखकारी।
विश्व सुखद जिमि इन्दूं तमारी ॥
परम धरम सुति बिदित अहीसा।
पर निन्दा सम अघ न गिरीसा।।
सबकी निन्दा जे जड़ करही ।
ते चमगादुर होई अवतरही।।
सुनहु तात अब मानस रोगा।
जेहि ते दुख पावहि सब लोगा॥
मोह सकल व्याधिन कर मूला ।
तेहि ते पुनि उपजइ बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीति करहि जो तीनिउ भाई।
उपजइ सन्निपात दुखदाई ॥
ये हैं संत तुलसीदास के वे सत्य जो सर्वहितकारी हैं। ममता,
ईर्ष्या, हर, विधाद, अहंकार, दम्भ, तृप्णा आदि ऐसे रोग हैं, जिनसे छूत की बीमारी की तरह बचने का सन्देश तुलसीदास ने दिया है। ये बीमारियां जब मनुष्य के चिट जाती हैं तो करोड़ों औपधियों से भी ठीक नहीं होतीं, इनका उपचार केवल राम-भक्ति है। हरिभजन ही मनुष्य के उद्धार का मूल मन्त्र है। संत ते कहा है:–
बारि मथे घृत होइ बरु, सिकता ते बरु तेल।
बिन हरि भजन ने भव तरय, यह सिद्धांत अपेल।।
हरि भजन सन्त तुलसीदास का मूल मन्त्र है। राम भक्ति को ही सन्त ने नर तन का परम लक्ष्य माना है। राम ही जीवन सिद्धि के माध्यम हैं, राम ही बिगड़ी की बनाने वाले हैं, राम समर्थ हैं, जो निराधार को आधार देते हैं। तभी तो सन्त ने कहा हैं:—
मसकहि करई बिरंचि प्रभु, अजहि मसक ते हीन ।
अस॒ बिचारि तजि संसय, रामहि भजहि प्रवीन॥
संत तुलसीदास राम भक्त थे। रामायण के अक्षर अक्षर में उनके राम हैं। वे राम जिनके राज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप नही सताते थे, वे राम जो अखिल विश्व में रमे हुए हैं, वे राम जो दशरथ-सुत के साथ साथ परब्रह्म परमेश्वर हैं, जो हमारी संस्कृति भक्ति और शक्ति के स्वरूप हैं। उन राम की उपासना, उन राम की भक्ति ही तो ‘रामचरित मानस” की रचना का मुख्य लक्ष्य है। विनीत तुलसीदास ने पूर्ण श्रद्धा से अपने राम के चरणों में कितनी लगन से नमस्कार किया है, देखिये:—
साधक सिद्ध विमुक्त उदासी।
कवि कोबिद कृतग्य संयासी।।
जोर्गी सुर सुतापस ग्यानी ।
धर्म निरत पंडित बिग्यानी॥
तरहि न बिनू सेये मम स्वामी ।
राम नमामि नमामि नमामि॥
तुलसीदास जहां महान सन्त थे वहां लौकिक रीतियों को भी खूब जानते थे। परिस्थिति विशेष के अनुसार उनकी वाणी की कितनी ही उक्तियाँ हैं। व्यवहार जगत के वे जागरूक कवि हैं। वे कितने बड़े मनोवैज्ञानिक थे, यह हमें उनकी पंक्ति पंक्ति से पता चलता है। जीवन और जगत के मन्थन से उन्होंने जो अमृत के झरने दिये हैं वे जीवन और जगत को सदा सींचते रहेंगे। कुछ उदाहरण देखियें :—
दोषु लखन कर हम पर रोपू , कहूँ सुधाई ते बड़ दोषू।
टेढ़ जानि संका सब काहू, बक्त चंद्रमा ग्रसइ न राहु॥
और–
जिमि स्वतन्त्र ह्वै बिगरे नारी।
नारि धरम पति देव न दूजा।।
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जैसो हो होतव्यता तैसी बनै सहाय।
आप न जावे ताहि पै ताहि तहाँ लै जाय।।
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धीरज धरम मित्र अरू नारी, आपद काल परखिय चारी।
*****
एहि ते अधिक धर्म नहिं दुजा, सादर सासु-ससुर-पद-पूजा।
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हठ बस सब संकट सहै, गालब नहुष नरेस।
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पराधीन सपनेह सुख नाड़ी।
*****
दुष्ट संग जनि देंहि विधाता।
एहि ते भला नरक कर बासा ॥
तुलसीदास सन्त औरर भक्त पहले, पीछे कवि थे, पर उनका कवित्य गौण नहीं हुआ। वे सर्वतोमुखी प्रतिभाशाली कवि हैं। उनके काव्य में उनसे पूर्व और बाद की सभी शैलियां हैं। वे रसों के कवि थे। उनके भाव, उनकी भाषा, उनकी अभिव्यक्ति सभी में अद्भुत चमत्कार हैं कोई ऐसा अलंकार नहीं जो उनके काव्य में नहीं, कोई ऐसी बात नहीं जो उन्होंने नहीं कही। बात यह है कि बात की बात कही कविता की कविता लिखी और आराध्य की पूजा भी की। उनकी बात की बात और कविता की कविता इस वर्षा वर्णन में देखिये :–
धन घमण्ड नभ गरजत घोरा।
प्रिया’ होना डर॒पति मन मोरा॥
दामिनी दमक रही धन माहीं।
ग्वल के प्रीत यथा थिर नाहीं॥
बरपहि जलद भूमि नियराये।
जथा नवहिं बृध विद्या पाये।।
बूंद अघात सहै गिरि कैसे।
खल के वचन सन्त सहै जैसे॥
छद्र नदी भरि चली तोराई।
जस थोरेहु धन ख़ल इतराई।
भूमि परत भा ढाबर पानी।
जनू जीवहि साया लपटानी॥
सिमटि सिमटि जल भरहिं तलाबा।
जिमि संदगुन सज्जन पहि आवा।।
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई।
होई प्रचल जिमि जिउ हरि पाई।।
हरित भूमि तृण संकुल, समुझि परहि नहिं पंथ।
जिमि पराखण्ड विवाद में लुप्त होहि सदग्रंथ।।
गोस्वामी तुलसीदास जी कोरे भक्त नहीं थे, वे बड़े ज्ञानी थे। उन्होंने भक्ति और ज्ञान का सामंजस्य किया है। उन्होंने कहा है– “भक्ति जानहि नहिं कछु भेदा”। ज्ञान की जो वाणी स्वामी तुलसीदास जी ने दी है वही तो जीवन सिद्धि की ज्योति है। आओं हम सब मिलकर संत तुलसीदास जी की वाणी का अनुसरण करें और जग को अपने चरित्र से जगमगा दें।
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