एक दिन एक किसान अपने खेत से गन्ने कमर पर लाद कर
चला। मार्ग में बालकों की भीड़ उसके साथ हो ली। किसान
चलता जाता था और बच्चों को गन्ने बाटता जाता था। जब वह घर पहुंचा तो उसके पास केवल एक गन्ना बचा। घरवाली अपने पति के हाथ में सिर्फ एक गन्ना देख भड़क उठी और उसने बिचारे से गन्ना छीन उसकी कमर पर इस जोर से मारा कि गन्ने के दो टुकड़े ही गये। पत्नी के हाथ से गन्ने की चोट खाकर किसान ने हंसते हुए कहा– “बड़ा अच्छा किया तुमने एक गन्ने के दो टुकड़े कर दिये, एक अपने लिये और एक मेरे लिये। लो एक तुम चूस लो और एक मैं चूस लूँगा।” यह है संत तुकाराम की सहन शक्ति का एक नमूना और वह भी उस समय का जब वे संत नहीं गृहस्थी थे। गृहस्थ जीवन की ऐसी घोर घटनाओं ने ही तो तुकाराम को एक दिन पूर्ण संत बना दिया। आए दिन की आपत्तियों की आग में तप तप कर ही तो वे कुन्दन से पारस हो गये। कहीं जो असफल और दुखी सांसारिक होता है वही तो किसी दिन संत नहीं बन जाता?
संत तुकाराम जी
संत तुकाराम का जीवन परिचय हिंदी में
श्री संत तुकाराम का जन्म सम्वत् 1665 में दक्षिण के देहू नामक गाँव में हुआ था। संत तुकाराम की माता का नाम कनका बाई था और पिता का नाम बोलोजी था। यह परिवार भगवद भक्त था और श्रेष्ठ माना जाता था। संत तुकाराम का विवाह तेरह वर्ष की आयु में ही हो गया था। पत्नी का नाम रखूबाई था। वह दमे की बीमार निकली। इसलिये तुकाराम की दूसरी शादी हुई दूसरी पत्नी जिजाई बड़ी ही कर्कशा आई। संत तुकाराम जी के साबजी और कान्हा जी दो भाई थे। सावजी बड़े थे और कान्हा जी छोटे थे।
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तुकाराम जी के पिता बोलोराम जी साधु प्रकृति थे। जब वृद्ध
हुए वो वे घर-गृहस्थी तथा काम काज सब छोड़ विरक्त हो गये। संत तुकाराम के बड़े भाई साहब जी पहले से ही विरकत थे। अत: घर का सारा बोझ तुकाराम पर ही आ पड़ा। उस समय इनकी अवस्था सतरह वर्ष की थी। इन्होंने बड़ी चतुरता से सारा काम समभाला। कुछ समय तक देव की कृपा रही और काम ठीक चलता रहा। पर चार वर्ष बाद तुकाराम जी पर दु:ख पर दुःख आने लगे। संकट के पहाड़ उन पर टूट पड़े, उनकी परीक्षा पर परीक्षा होने लगीं, माता पिता का देहावसान हुआ, बड़े भाई की पत्नी स्वर्ग सिधारी, छोटे भाई का परिवार अपना परिवार सभी को कमाकर खिलाना इनके लिये दुर्भर होने लगा। काम चलता नहीं। जिस पर इनका रुपया था उन्होंने करवट नहीं ली, उल्टे ये कर्जदार होने लगे। ये सब प्रपंच सन्त प्रकृति के बेचारे तुकाराम के बस के कैसे ही सकते थे।
साधु को ठगने वालों की दुनिया में कमी नहीं, वे भी बार बार
ठगे गये। एक बार किसी ने इनको पालिश चढ़े हुए पीतल के जेवर सोने के मोल बेच दिये। एक बार ये कुछ माल बेचकर ढाई सौरुपये घर ला रहे थे। रास्ते में एक दुखिया मिल गया। उसे देख कर इन्हें दया आ गई और अपने सब रुपये उसे दे दिये। घर में पैसा नहीं रहा। कुछ समय बाद इनकी पत्नी और पुत्र भी चल बसे। दु:ख और शोक की सीमा न रही, मानो तमाम दुख तुकाराम पर इसलिये टूटे कि वे इस दुनिया के प्रपंचों से दूर भाग भगवान् की शरण में चले जायें।
अन्ततोगत्वा यही हुआ। दुनिया की ज्वाला से झूलसे हुए तुकाराम राम की शरण खोजने लगे। उन्होंने भगवान् के भजन में लौ लगा ली। सारे जंजालों को छोड़ वे ईश्वर की उपासना में लीन हो गये। अपने आराध्य को पुकारते हुए कभी वे इस मन्दिर में जाते तो कभी उस मन्दिर में दिखाई देते। कभी इंद्रायणी के इस तट पर गाते तो कभी इन्द्रायणी के उस तट पर भजन करते।कभी इस पर्वत पर एकांत स्थल में ज्ञानेश्वेरी या एक नयी भागवत का पारायाण करते तो कभी उस पर्वत पर नाम स्मरण करते रहते। आज यहां हरिकीर्तन में मस्त हैं तो कल वहा हरिभजन का आनन्द ले रहे होते।
श्रम भी एक प्रकार की ईश्वर उपासना है। संत तुकाराम की पूजा का एक रूप श्रम भी है, उन्हीने की विशम्भर बाबा के बनाएं हुए श्री विठ्ठल मंदिर की जो बहुत टूट फूट गया था, अपने हाथ से मरम्मत की। इस प्रकार कठिन साधनाओं के फलस्वरूप भी तुकाराम जी की चित ईश्वर भजन मे दृढ़ होती चली गई। जो प्रभु से लौ लगा लेता हैं उसके कंठ से प्रेम फूटने लगता है। प्रेम के समुद्र से ही तो कविता के मोती निकलने लगते हैं। कीर्तन करते करते संत तुकाराम जी के कण्ठ से “अभंग” निकलने लगे। बडे बड़े विद्वान् ब्राह्मण और साधु सन्त इनकी ज्ञानमयी कविताओं को श्रवण कर रस विभोर हो जाते थे और नमस्त हो जाते थे सन्त की प्रेम भरी भावनाओं के आगे।
यह संसार है, इसमें पत्थर बन कर रास्ता रोकने वालों की कमी नहीं। जैसे जेसे संत तुकाराम का प्रभाव बढ़ने लगा वैसे ही वैसे वेद वेदान्त के प्रकाण्ड पण्डित तथा कर्मनिष्ठ ब्राह्मण इनसे चिढ़ने लगे। उनको तुकाराम जी की तुके अच्छी नहीं लगीं। भला एक शूद्र जाति वाले के मुख से श्रुत्यर्थ बोधक मराठी अभंग सुन कर वे कैसे न धधक उठते। भला एक शूद्र को एक संत मान कर उसकी पूजा कैसे हो सकती है। उन्होंने हाकिमों से मिल कर तुकाराम को दहू से निकल जाने की आज्ञा दिला दी। इस पर तुकाराम जी पण्डित रामेश्वर भट्ट के पास गये और विनीत होकर बोले– “मेरे मुख से जो ये अभंग निकलते हैं, सो भगवान पाण्डुरंग की आज्ञा से ही निकलते हैं। आप ब्राह्मण हैं, ईश्वरवत हैं। आपकी आज्ञा है तो में अभंग बनाना छोड़ दूंगा, पर जो अभंग बन चुके हैं और लिखे रखे हैं उनका क्या करूं” ?
भट्ट जी ने कहा– “उन्हें नदी में डूबा दो।
ब्राह्मण की आज्ञा मान कर संत तुकाराम जी ने ऐसा ही किया,
भगवद्भक्ति के सारे अभंग इंद्रायणी नदी में डूबा दिये। संत ने
अभंगो की बंहियाँ इन्द्रायणी में डूबों तो दी पर उनके हृदय को
चोट बहुत लगी। वे बहुत दुखी हुए। उन्होंने अन्न जल त्याग दिया, विठ्ठल मन्दिर के सामने एक शिला पर बैठ गये, और उन्होने प्रतिज्ञा कर ली कि या तो भगवान मिलेंगे या इस शरीर का ही अंत होगा। भक्त तुकाराम का अन्न और सत्याग्रह देख भगवान का आसन डोल उठा। तुकाराम को अन्न-जल लिये जब तेरह दिन बीत गये तो श्री पाण्डुरंग ने उन्हें साक्षात दर्शन दिये। वे बाल वेश धारण करके सन्त के सामने प्रकट हो गये। संत तुकाराम जी ने उनके चरणों को अपनी आंखों के जल में डूबों दिया। भगवान् ने सन्त को उठा कर अपनी छाती से लगाया और कहा— “तुम्हारे अभंग इन्द्रायणी नदी में से मैंने तभी निकाल लिये थे। वे डूबे नही हैं, तुम्हारे भक्तों में मैं बाँट आया हूँ, उनकी वाणी पर वे गुंज रहे हैं।”
इस साक्षात्कार से तुकाराम जी को अलौकिक आनन्द और परम शान्ति मिली। इस साक्षात्कार के बाद वे पन्द्रह वर्ष तक इस भूतल पर सत्य, प्रेम’ और शान्ति के उपदेश देते रहे। जो भी इनके पास आता वही अमृत लेकर जाता था। जो जैसा करता है वह वैसा ही फल पाता है। रामेश्वर भट्टजिन्होंने तुकाराम जी के अभंग इन्द्रायणी नदी में डूबवा दिये थे,एक दिन जब इंद्रायणी में स्नान करके निकले तो उनके शरीर में भयानक आग लग उठी। वे तड़प उठे। रात को उन्हें स्वप्न में सन्त ज्ञानेश्वर के दर्शन हुए और उनसे कहा कि संत तुकाराम जी की शरण में जाओ’ तभी’ तुम्हें शान्ति मिलेगी। भट्ट जी सन्त की शरण में गये और सन्त ने उन्हें अपनाकर उनका ताप दूर किया।
अब तो संत तुकाराम जी की प्रतिष्ठा चारों ओर फैल गई। बड़े
बड़े ब्राह्मण उन्हें अपना गुरु बताने में गौरव मानने लगे थे। छत्रपति शिवाजी ने भी संत तुकाराम से प्रार्थना की कि वे उसे अपना शिष्य बना लें, पर तुकाराम जी ने कहा कि समर्थ गुरु रामदास जैसे सिद्ध तपस्वी जिनके गुरू हैं में उन्हें शिष्य कैसे बना सकता हूँ। फिर भी शिवाजी संत तुकाराम जी के उपदेशों में प्राय: शामिल होते रहते थे और उनके भजन कीर्तन में बड़ा आनंद लेते थे।
संत तुकाराम जी के कितने ही चमत्कार प्रसिद्ध हैं। दूहू के आस पास लोगों में इनकी कितनी ही चमत्कारों भरी कहानियां प्रसिद्ध हैं। सम्वत् 1706 में कृष्णा दौज के दिन अपने चमत्कार और उपदेश छोड़ वे इस लोक से विदा हो गये। उनका मृत शरीर किसी ने नहीं देखा। कहते हैं वे सशरीर ही इस संसार से गये और वैकुण्ठ सिधारने के बाद भी बहुत बार अपने भक्तों में आये। दूहु और लोह गांव में संत तुकाराम के स्मारक आज भी उनकी तस्वीर उपस्थित करते हैं। पर वे तो जड़ स्मारक हैं, चेतन स्मारक तो सन्त के अभंग उपदेश हैं। उनकी अभंग वाणी जगत को अमुल्य आध्यात्मिक निधि है। आओ तनिक उसके अभंग उपदेशों का भी आनन्द ले लें :—
बस, केवल आशा तृष्णा से बिल्कुल खाली हो जाओ, तुम्हें सच्चिदानन्द की प्राप्ति हो जायेगी। अभिमान का मुंह काला है और उसका काम अंधेरा फैलाना है। स्वाँग बनाने से भगवान नहीं मिलते । निर्मल चित्त की प्रेम भरी चाह नहीं तो जो कुछ भी करो अन्त में केवल आह ही मिलेगी। लोग जानते हैं, जानने पर भी अंधे बने रहते है। वाद-विवाद जहां होता है वहां खड़े रहोगे तो फंदे में फंसोगे। मिलो उन्हीं से जो सर्वतो भाव से हरि की शरण में हों। जिसका जैसा भाव होता है उसी के अनुसार ईश्वर उसके पास या दूर है एवं उसे देता लेता है ।
जहाँ उसके नाम का घोष होता है, उस स्थान मैं नारायण भय नहीं आने देता। जिसका नाम पापों को नाश करता है, जो तैज का समुद्र है, तुकाराम उसकी शरण में सर्व-भाव से है। पर द्रव्य और पर नारी की अभिलाषा जहां हुई वहीं से पतन आरम्भ हो गया ।
संत तुकाराम के कुछ दोहे:—
लोभी के चित धन बेठे, कामी के चित काम ।
माता के चित पूत बैठे, तुका के मन राम॥
कहे तुका जग भूला रे, कह्या न मानत कोय।
हाथ पड़े जब काल के, मारत फोरत डोय।।
तुका मिलन तो भला जब मन सू मत मिल जाय ।
उपर उपर माटी धसी, उनकी कौन बराय।।
कहे तुका भला भया, हुआ सन्तन का दास।
क्या जानूं कैसे मरता, न मिटती मन की आस।।
सन्त का ईश्वर में अटल विश्वास होता है। उसकी सिद्धि का साधन भगवद्भक्ति है। हमारी सन्त परम्परा में श्रद्धा समिति और प्रेम इच्छा ज्ञान और क्रिया के एकीकरण हैं। सन्त अपनी चित वृत्तियों को लेकर अपने भगवान की उपासना करता है। संत तुकाराम के जीवन का सारा सार भगवद्भक्ति मात्र है। उसकी ही वाणी में उनकी यें भावनायें बोलती हुई सुनिये:–
विठ्ठल का नाम संकीर्तन ही मेरा सब कुछ साधन है। विठ्ठल का नाम लेते ही मेरा मुह मीठा हो गया और मुझे सुख मिला। मेरी दृष्टि नारायण के मुख पर सन्तुष्ट होकर फिर पीछे नहीं लौटती। तेरा नाम ही मेरा तप, दान, अनुष्ठान, तीर्थ, क्षत, सत्य, सुकृत, धर्म कर्म, नित्य नियम, योग, यज्ञ, जप ध्यान, ज्ञान, क्षण, मनन, निद्धबासन, कुलाचार, कुल धर्म, आचार विचार और निराधार है। नाम के अतिरिक्त और कोई धन मेरे पास नहीं है। जहां भी बेठें, खेलें, भोजन करें, वहां तुम्हारा नाम गायेंगे, राम कृष्ण नाम की माला गूथ कर गले में डालेंगे। तुका कहता है गोविन्द से यह अखिल काल सुकाल है। माता से बच्चे को यह नहीं कहना पड़ता कि तुम सुझे संभालों। माता तो स्वभाव से ही उसे अपनी छाती से लगाये रहती हैं। इसलिये में भी सोच विचार क्यों कंरु, जिसके सिर जो भार है वह तो है ही। बिना माँगे ही माँ बच्चे को खिलाती है और बच्चा कितना भी खाये खिलाने से मां नहीं अधाती। खेल खेलने में बच्चा झूला रहे तो भी माता उसे नहीं भूलती, बरबस पकड़ कर उसे छाती से चिपटा लेती है और स्तनपान कराती
है। बच्चे को कोई भी पीड़ा हो तो माता भाड़ की लाई सी विकल हो उठती है, अपनी देह की सुध भुला देती है और बच्चे पर कोई चोट नहीं आने देती। इसलिये में भी क्यों सोच विचार करू जिसके सिर जो भार है वह तो है ही।
लौकिक व्यवहार छोड़ने का काम नहीं, बन-बन भटकते या भस्म और दण्ड धारण करने की भी कोई आवश्यकता नहीं। कलियुग में यही उपाय है कि नाम कीर्तन करो, इसी से नारायण दर्शन देंगे। संत तुलसीदास ने भी कहा है:–
कलि में केवल नाम अधारा।
और इस प्रक्रार राम नाम लेते लेते संत तुकाराम जी ने
“राम नाम वंचना कर ली। “हम अपने गांव चले। हमारा राम राम बंचना। अब हमारातुम्हारा यही मिलना है। यहां से जन्म बंधन टूट गया। अब हम पर दया रखना तुम्हारे पैरों पड़ता हूं। कोई निज धाम को पधारते हुए “विठ्ठल विठ्ठल वाणी बीलो। मुख से राम कृष्ण कहो। तुकाराम बैकुण्ठ को चला।
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