दुष्टों की कुटिलता जाकर उनकी सत्कर्मों में प्रीति उत्पन्न हो और समस्त जीवों में परस्पर मित्र भाव वृद्धिंगत हो। अखिल विश्व का पाप रूपी अंधकार नष्ट होकर स्वधर्म – सूर्य का उदय हो, उसका प्रकाश हो और प्राणीमात्र की सदिच्छाएं पूर्ण हो। इस भूतल पर अखिल विश्व मंगलो की वर्षा करने वाले भगवद् भक्तों के समूह की सदा प्राप्ति हो। यह है वह प्रसाद याचना ओर संदेश जो संत ज्ञानेश्वर की वाणी से फूट फूटकर जन जन में प्रवाहित है। अपने इस लेख में हम इस महान संत ज्ञानेश्वर का जीवन परिचय, संत ज्ञानेश्वर की जीवनी, संत ज्ञानेश्वर के उपदेश आदि के बारे में विस्तार से जानेगें
संत ज्ञानेश्वर का जीवन परिचय – संत ज्ञानेश्वर बायोग्राफी इन हिन्दी
संत ज्ञानेश्वर जन्मजात संत थे। संत ज्ञानेश्वर का जन्म सम्वत 1332 भाद्र कृष्ण अष्टमी मध्य रात्रि को महाराष्ट्र में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री विठ्ठल पंत था और माता का नाम रूक्मिणी बाई। ये तीन भाई और एक बहिन थे– निवृत्ति नाथ, ज्ञानदेव, और सौपान देव तथा बहिन का नाम मुक्तिबाई था। ये चारों ही संत थे।
संत ज्ञानेश्वर जी महाराजशुद्धि पत्र
एक बार जब निवृत्तिनाथ की आयु सोलह वर्ष की थी, ज्ञानेश्वर की चौदह वर्ष की, सौपान देव बारह वर्ष के थे और मुक्तिबाई ग्यारह वर्ष की थी, तो यह बाल साधु मंडली आलंदी से चलकर पैठण आई। ये चारों संत ब्राह्मणों से शुद्धि पत्र लेने आये थे। यद्यपि इन चारों परम शुद्ध साधुओं को शुद्धि पत्र की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि इनकी चरण रज से तो उस समय भी सारा लोक शुद्ध था। पर शास्त्रों की मर्यादा जो रखनी थी, इसलिए शास्त्राज्ञ ब्राह्मणों से शुद्धि पत्र लेना आवश्यक था। पर जब संत ज्ञानेश्वर ने ब्राह्मण के चरण छू उनसे शुद्धि पत्र मांगा तो ब्राह्मण ने आगबबूला होकर कहा— आया कही का ज्ञानदेव, मेरे दरवाजे पर बंधे हुए इस भैंसे का नाम भी ज्ञानदेव है।
ज्ञानदेव ने शांति से उतर दिया— भैंसें में और हम में अंतर क्या है? नाम और रूप तो कल्पित है, पर आत्मतत्व तो एक ही है। भेद की कल्पना ही अज्ञान है।
इस बात से ब्राह्मण देवता के क्रोध में घी पड़ गया, उन्होंने ताव खाकर कहा— अच्छा यह बात है! — और फिर चाबुक निकाल कर भैंसे की पीठ पर तड़ातड़ कई चाबुक मार दिये।
किंतु चाबुक पड़े भैंसे की पीठ पर और उनकी चौटें लगी ज्ञानदेव की पीठ पर। चोट चिन्ह ज्ञानदेव की पीठ पर चमक उठे, रक्त जमे काले काले निशान बालक साधु की पीठ पर उपड़ आये। साधु की पीठ से रक्त टपकने लगा।
पर इतने पर भी ब्राह्मण को संतोष नहीं हुआ, उसने कहा कि यदि सभी में एक आत्मा है। तो क्या यह भैंसा तेरी ही तरह बोल भी सकता है। यदि भैसा तुम्हारे ही जैसा है तो तुम इससें ओउम बुलवाओ। तुम जैसी ज्ञान की की बाते करते हो वैसी ही इससे करवाओ।
ज्ञानदेव ने भैंसे की पीठ पर हाथ रखा और भैंसा ओउम का उच्चारण कर वेदमंत्र बोलने लगा। यही नही ज्ञान देव ने उनको कुछ मृतकों के सशरीर दर्शन भी करायें। श्राद्ध के दिन पितरों को आगन्तव्यम कहकर बुलाया और उन्हें भोजन कराया। संत ज्ञानेश्वर बाल्यकाल में ही पूर्ण साधू थे। इन्होंने अपनी इसी बाल अवस्था में ही ज्ञानेश्वरी ग्रंथ की रचना की। गीता का स्वानुभूति भाग्य सुनाया। हमारे इस संत के और कितने ही चमत्कार देखकर उस काल के बड़े बड़े पंडित चकित हो गये।
ये चमत्कार देखकर ब्राह्मण के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, वह लज्जा से जमीन में गड़ गया, उसने ज्ञानदेव के पैरों में गिरकर क्षमा मांगते हुए कहा — मैं अज्ञानी हूँ! मुझे क्षमा करो! पर काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह से दूर संत ने ब्राह्मण को उठाते हुए कहा— तुम भी ज्ञानदेव हो! क्षमा कौन किसे करेगा?।
धन्य हैं संत ज्ञानेश्वर की अखंड एकात्म भावना। क्षमा, यही तो पृथ्वी का धर्म है। सब में एक ही आत्मा, आत्मैव्य का अनुभव ही तो साधुत्व की प्राप्ति है। सब प्राणियों में एख ही आवाज गूंजती है। भिन्न भिन्न दिखते है पर वास्तव में भिन्न कोई भी नही, भिन्नता झूठ है, और एकता मूल है। संक्षेप मे यह है कि एक वह आदर्श जो संत ज्ञानदेव की आत्मा का स्वरूप है। संत ज्ञानेश्वर के पास योग की सभी सिद्धियां थी, वे जन्म से योगीराज थे, वे ज्ञान की साक्षात मूर्ति थे। वे सकल आगम के वेत्ता थे, परमार्थ उनके जीवन का लक्ष्य था।
संत का कर्म जीव की उन्नति है। प्राणियों को भजन में लगाना, उन्हें सत्कर्मों के लिए प्ररेणा देना दया और धर्म का रास्ता दिखाना संत प्रवृत्ति में शामिल है। जीवों को कष्ट से मुक्त करने के लिए ही तो संत का प्रादुर्भाव होता है। लौकिक और पारलौकिक मुक्ति के लिए ही संत के रूप में ईश्वरीय शक्ति अवतीर्ण होती हैं। जिसने क्रोध पर विजय पा ली जो क्षमा का साक्षात स्वरूप है जो सत्य और शांति का देवता है वहीं संत है।
संत ज्ञानेश्वर भारत के महान संत है। उन्होंने स्थान स्थान पर घूम जो ज्ञान वाक्य दिये है, वे अमर करने वाले अमर वाक्य है। ऐसा जान पड़ता है कि मानो ज्ञानदेव ने जन्म जन्म में तप कर जो अनुभूतियां की है, उन्हीं का सार वे प्राणियों में सद्भावना और मानव कल्याण के लिये छोड़ गये। उनके दो प्रसिद्ध प्रवचन इस प्रकार है —– जब तक इच्छा बनी हुई हैं, तब तक उद्योग भी है। पर संतोष हो गया तब उद्योग समाप्त हुआ।
वैराग्य के सहारे यदि यह मन अभ्यास में लगाया जाये तो कुछ काल बाद यह स्थिर होगा। कारण इस मन में एक बात बड़ी अच्छी है वह यह कि जहाँ इसे चसका लगता है वहा लग ही जाता है। इसलिए इसे सदा अनुभव सुख ही देते रहना चाहिए। परम सुख वही है जहाँ मन लीन है। इसलिए मन को अभ्यास में लगाना चाहिए।
इस वाणी में तपस्या का संदेश है। पर जब प्राणी को संतोष हो गया तो उद्योग ही समाप्त हो जायेगा। जिसकी इच्छा नही है, वह मुक्त है, और जीवन के लिए उद्योग आवश्यक है। इसलिए संत की चेतना में अथक उद्योग और परम शांति दोनों ही शामिल है।
मनुष्य का चरित्र जब भौतिक माया जाल फंसकर छटपटाने लगता है, तब संतों की वाणी ही उन्हें मुक्त करती है। संसार पग में धाने हुऐ प्राणियों को संत ही कमल बनाते है। संत का ह्रदय शुद्ध गंगाजल के समान है, जो अपने प्रवाह में प्राणियों के मैल को बहाकर ले जाता है।
राजनीति की कठोरता मनुष्य के चरित्र को भौतिक लालसाओं मे उलझा कर बहुत बार पतन की ओर ले जाती है। संसार के बड़े बड़े राजनितिज्ञों ने मानव चरित्र को कानूनों से इतना ऊंचा नहीं उठाया जितना संतों ने अपनी निर्मल वाणी से उठाया है। कानून है कि कत्ल मत करो, चोरी मत करो, कानून है कि अनैतिकता की ओर कदम न बढाओ, पर कौन रूकता है। न रिश्वत बंद है, न चोरियां रूकी है, न कत्ल बंद है, किंतु संतो के सद् उपदेशों से मानव उन सब दुष्कर्मों से बहुत दूर रहता है जिन दुष्कर्मों से यह चमकने वाला संसार मनुष्य को नहीं हटने देता। यदि मनुष्य को किसी परलोक सत्ता का भय न हो, यदि मनुष्य को पाप और पुण्य का भय न रहे, यदि मनुष्य यह भूल जाये कि चोरी और घूसखोरी से बड़ा भी सुख कोई है, तो वह कभी भी मनुष्य नहीं रह सकता। फिर उसे उसी जंगली की स्थिति में आना होगा जिस जंगली की स्थिति से वह विकास करता आज मनुष्य बना।
भारतीय संत परम्परा की प्राणी जगत को बड़ी देन है। भारत के संतो ने जीवन और जगत को जितना ऊंचा उठाया है। उतना किसी देश ने नहीं उठाया। आज के युग में भी यह संत संदेश ही गांधी की वाणी में मुखर है। जो मनुष्य को रक्त स्नान से रोके हुए है। जो अहिंसा, सत्य, प्रेम और एकता की वाणी आज सारे संसार को शांति प्रदान कर रही है। वह भारतीय संतो की बहुत प्राचीन परम्परा है। भारत में जो भी राजनितिज्ञ हुए है वे महान संत पहले है। और राजनीतिज्ञ बाद में। श्रीराम, राजा हरिश्चंद्र, युधिष्ठिर, श्रीकृष्ण, चाणक्य, महात्मा गांधी आदि सभी पहले है बाद में राजनीतिज्ञ।
संत ज्ञानेश्वर चाहे राजनीतिज्ञ नहीं थे, पर उन्होंने मानव चरित्र को बहुत ऊंचा उठाया है। समाज को उन्होंने वे मानव दिये है जिनसे परोपकार, सत्य, दया और क्षमा का तेज रहा है। यह साधु परम्परा ही है। जो शांति संदेश देती हुई भारत से अखिल विश्व में भ्रमण कर रही है
संत ज्ञानेश्वर जी महाराजसंत ज्ञानेश्वर महाराज अभंग
बड़ी बड़ी दाढ़ी और जटाओं वाले तपोवृद्ध साधु तो भारत बहुत हुए है किंतु कुल 21 वर्ष 3 मास और 5 दिन तक दुनिया में रहकर जीवित समाधि लेने वाले महान संत ज्ञानेश्वर ही है। संत ज्ञानेश्वर के ये चार ग्रंथ बहुत ही प्रसिद्ध है— भावार्थ, दीपिका, अर्थात ज्ञानेश्वरी, अमलानुभव, हरिपाठ के भंग तथा चांग देव पाठसी। इसके अतिरिक्त ज्ञानदेव ने योगवाशिष्ठ पर एक अभंगवृत्त की टीका भी लिखी थी।इस प्रकार जगत को संत ने ज्ञान के कितने ही फल और छाया देने वाले वृक्ष दिये है।
जगत को ज्ञानेश्वर की देन वह देन है जिसके मिलने पर और कुछ पाने की इच्छा नहीं रहती। उन्होंने सब सुखों की कुंजी भगवद् भक्ति का आदेश दिया है। उन्होंने कहा— ” बहुत क्या मांगा जाये। त्रैलोक्य सुख से परिपूर्ण हो प्राणी मात्र को ईश्वर का अखंड भजन करने की इच्छा हो भाव बल से भगवान मिलते है, नही तो नहीं। जो भगवद् भक्त है वे कलंक रहित चंद्रमा है, तापहीन सूर्य है, और वे सदा सबको प्रियजन है। यह सारा ब्रह्मांड हरिमय है। तुलसीदास ने भी कहा है — अखिल विश्व मे रमा हुआ है राम हमारा” और कण कण में में व्याप्त उस हरि की उपासना ही संत ज्ञानेश्वर महाराज के स्वरूप का सार है।
उनकी ही भाषा ही भाषा में उनके हरि के दर्शन किजिए— “हरि आया, हरि आया सत्संग से ब्रह्मानंद हो गया, हरि यहां है हरि वहां है, हरि से कुछ भी खाली नहीं है। हरि देखता है हरि त्यागता है, हरि बिना और कुछ नहीं है। हरि पढ़ता है, हरि नाचता है, हरि दर्शन में सच्चा आनंद है। हरि आदि में है हरि अंत में है, हरि सब भूतो में व्यापक है। हरि को जानो, हरि को बखानो”।
आओ हब सब मिलकर उच्च स्वर मे संत ज्ञानेश्वर महाराज के मंत्रो का उच्चारण करे उन संत ज्ञानदेव के मंत्रो का जो भगवद् भक्त है, चलने बोलने वाले कल्पतरु है, चेतना मुक्त चिन्तामणि के गांव है और अमृत के चलने बोलने वाले समुद्र है।
संत ज्ञानेश्वर जी की मृत्यु :—-
महज 21 साल की अल्पायु में 1296 ईसवी में भारत के महान संत एवं प्रसिद्ध मराठी कवि संत ज्ञानेश्वर जी ने संसारिक मोह-माया को त्याग कर समाधि ग्रहण कर ली। उनकी समाधि अलंदी में सिध्देश्वर मंदिर परिसर में स्थित है। वहीं उनके उपदेशों और उनके द्धारा रचित महान ग्रंथों के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है।