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संत चरणदास जी

संत चरणदास जी का जीवन परिचय, समाधि, चमत्कार

महात्मा संत चरणदास जी का जन्म राजपूताना के मेवात प्रदेश के डेहरा नामी गांव में एक प्रसिद्ध ढूसर कुल में हुआ था, जन्म का दिन भादों सुदी 3 मंगलवार सम्वत्‌ 1760 विक्रमी मुताबिक सन्‌ 1703 ईसवी के था ओर 79 बरस की उमर तक प्रेमाभक्ति का सदावर्त चलाकर सम्वत्‌ 1839 मेंदिल्ली में चोला छोड़ा जहां संत चरणदास जी कि समाधि अब तक बनी हुई है। यह 79 बरस का समय बड़े तखड पखड़ और उखाड़ पछाड़ का था जो कि साधू या संत के विराजमान होने का एक लक्षण हैं। सन्‌ 1707 अर्थात इनका जन्म होने के चार वर्ष बाद तक औरंगज़ेब दिल्‍ली के तख्त पर था और इस जालिम बादशाह की दारुण पीड़ा और मरहट्टो के साथ घोर संग्राम का हाल इतिहास से जाना जा सकता है।

औरंगजेब के मरने पर बहादुरशाह का तख्त पर बैठना और पांच वर्ष तक उसकी सिक्खों के साथ लगातार लड़ाइयां भी प्रसिद्ध हैं। फिर सन्‌ 1712 और 1719 के बीच में तीन बादशाह हुए और सन्‌ 1719 में मुगल खानदान फिर गद्दी पर आया और मुहम्मद शाह का निपुंसक राज शुरू हुआ जो मरता जीता सन्‌ 1748 तक सिसकता रहा। इसी बादशाहत में सन्‌ 1738 में नादिरशाह का हमला हुआ जिसने लूट मार कर लहू की नदी बहा दी और कितने देशों को भिख मंगा बना दिया ओर स्त्रियों की हुर्मत ली। सन्‌ 1748 से 54 तक अहमदशाह का राज रहा और उसके पीछे आलमगीर सानी पांच वर्ष तक गद्दी पर था ओर सन्‌ 1759 में शाहआलम बादशाह हुआ जो संत चरणदास जी के गुप्त होने के समय तक नाम मात्र को राज करता रहा। इसके जमाने में अबदालियों की चढ़ाई और पानीपत की लड़ाई हुई। अंग्रेजों अर्थात्‌ ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकार की दृढ़ता इसी के समय में हुई ओर सन्‌ 1774 से 1785 तक प्रतापी लार्ड वॉरन हेस्टिंगज हिन्दुस्तान का गवर्नर जनरल रहा। यह सब तवारीखी हाल है और इनके लिखने का इतना ही अभिप्राय है कि संत चरणदास जी के समय में हिंदुस्तानियों की पूरी गढ़त हुई और उनका बल तोड़ कर परमार्थ में लगने की थोड़ी बहुत योग्यता पैदा की गई।

संत चरणदास का जीवन परिचय

संत चरणदास जी का घरेलू नाम रणजीत सिंह था उनके पिता का नाम मुरलीधर और माता का कुंती देवी था। जब यह सात वर्ष के थे एक दिन इनके पिता जंगल में गये ( जैसा कि वह कभी कभी सुमिरन ध्यान के लिये जाया करते थे ) और फिर वहां से न लोटे। घर वालों ने बहुत खोज की पर सिवाय उनके कपड़ों के जो जंगल में एक जगह रखे मिले ओर कुछ पता न चला। तब संत चरण दास जी को और उनकी माता के साथ उनके नाना जो दिल्ली में रहते थे अपने घर ले आये।

संत चरणदास जी को बालक पन ही से परमार्थ का बड़ा चाव था। लिखा है कि 19 वर्ष की अवस्था में इनको जंगल में जहां यह भगवंत के विरह में व्याकुल होकर रो रहे थे शुक्रदेव मुनि मिले और शब्द मार्ग का उपदेश दिया। संत चरणदास जी बारह बरस तक दिल्ली में अभ्यास करते रहे और इसके पीछे लोगों को उपदेश देना आरंभ किया। उनके निकटवर्ती शिष्य 52 थे जिनकी बावन गद्दियां अलग-अलग आज कल वर्तमान हैं, परंतु इनके गुरुमुख शिष्य गुंसाई युक्तानंद जी समझे जाते थे उनकी चेलियों में सहजो बाई और दया बाई की भक्ति बड़ी प्रचंड थी जो कि उनकी कोमल और अपूर्व वाणी से टपकती है इनकी वाणियां भी अलग छपी हैं।

संत चरणदास जी के चमत्कार

संत चरणदास जी के विषय में बहुत से करामात के कौतुक कहे जाते हैं जो उनके शिष्य रामरूप जी की बनाई हुई “गुरु भक्ति प्रकाश” नामक पोथी में लिखे हैं परंतु उनमें से कोई ऐसे नहीं हैं जिनसे उनकी महिमा ऐसों के चित्त में बढे जो साध गति की समर्थता को जानते हैं इसलिये उनको विस्तार के साथ लिखना आवश्यक नहीं है तो भी नमूने की तरह दो तीन लिख दिये जाते है।

संत चरणदास जी
संत चरणदास जी

कहा जाता है कि संत चरणदास जी ने अपनी मां को साक्षात्‌ भगवान के दर्शन कराये। दूसरी कथा के अनुसार नादिरशाह ने विरोध से इनको कैद में रखा जहां से वह गायब हो गये। फिर उसने दूसरी बार पकड़वा कर अपने सामने बेड़ी हथकड़ी और तौक डलवाकर कारागार में बंद करके कुंजी दरवाजे के ताले की अपने पास रख ली, रात को चरण दास जी नादिर शाह के सोने के कमरे में प्रगट होकर उसके सिर पर ऐसी लात मारी कि बादशाह वह कांपने लगा और चरणों पर गिर कर क्षमा मांगी। तीसरी प्रचलित कथा के अनुसार शाह आलमगीर सानी के मरने की तिथि ओर घड़ी उन्होंने दो बरस पहले से बता दी थी। संत चरण दास द्वारा इस तरह के और भी अनेक चमत्कार किए गए। पर ऐसी करामातें महात्मा संत चरणदास जी सरीखे भारी गति के पुरुष के लिये महा तुच्छ है क्योंकि पूरे साध की अपने भगवंत से एकता हो जाती है अर्थात्‌ दोनों में कोई भेद नहीं रहता।

सब सच्चे साधों और संतों ने गुरु और नाम की महिमा गाई है और कहा है कि बिना इन दोनों की मुख्यता किये किसी साधन से जीव का पूरा उद्धार नहीं हो सकता। उन सब का मार्ग एक है अर्थात्‌ शब्द अभ्यास, क्‍योंकि “गुरू” से उनका अमिप्राय शब्द अभ्यासी और शब्द सरूपी गुरू से है चाहे वह किसी पंथ और जात में हों और “नाम”? का मतलब धुन्यात्मक नाम है जिसकी धुनि आप से आप घट घट के ऊंचे देश में हो रही है। संत चरणदास जी पूरे साध गुरू थे, सतगुरु वही है जो शब्द की चोट करता है और नाम वह है जो लिखने पढ़ने और बोलने में नहीं आता है अर्थात् धुन्यात्मक नाम; परंतु इस भेद को उनके अनुयाइयों में से भी विरले समझते हैं। यही हाल कबीर दास, गुरु नानक देव, पलटू साहब, जगजीवन साहब, दरिया साहब ओर दूसरे महात्माओं के मतों का है। पर याद रखना चाहिये कि उनके चलाने वाले महापुरुष और महात्मा थे और जो एक मत के अनुयाई दूसरे मत के आदि आचार्य या उस मत की निंदा करते हैं वह अनसमझता से मानों अपने आचार्य ओर अपने मत की निंदा करते हैं और अपने को महा पातकी बनाते हैं।

यह सलाह उन लोगों के हित के लिये है जो साधू या संतों के पंथ में हैं निरे पंडितों और विद्वानों के लिये नहीं है जिनकी आँखों पर ऊंची जाति और विद्या बुद्धि के अहंकार का परदा पड़ा हुआ है। यह बेचारे क्या करें क्योंकि सब साधू और संतों ने जाति पाँति करम भरम, सूरत पूजा और शास्त्रों की बहिर्मुखी करतूत का निषेध जोर देकर किया है जिससे न केवल इनके जाति अभिमान पर चोट लगती है वरन्‌ जीविका में भी खलल पड़ता है इसलिये वह विरोध के घाट पर आ बैठते हैं।

संत चरणदास जी ने भी और साधू संतों की तरह बाहरी कारवाई और अटक भटक का खंडन किया है और यद्यपि वाणी में जो वैराग ज्ञान आदिक सब साधन कहे हैं परन्तु सिद्धांत में नाम ओर गुरु भक्ति ही को सबसे ऊंचा रखा है और इसका इशारा अपनी वाणी के समाप्त की चौपाई में किया है–

अछूत ग्रंथ महा सुख दाई। ताकी महिमा कही न जाई॥
ता में जोग ज्ञान बैरागा। प्रेम भक्ति जा में अनुरागा॥
निर्गण सिर्गुण सब ही कहियाफिर गुरु चरन कमल में रहिया ॥जो कोइ पढ़ि पढ़ि अथै विचारै। आप तरै औरन को तारै॥

नीचे लिखी हुई कड़ियों में संत चरणदास जी ने वेद, पुरान, देवताओं की पूजा, तीरथ, व्रत, कर्म भरम, इत्यादि की असली हैसियत दिखला कर गुरु भक्ति और नाम को बढ़ाया है, यहां पेश उन शब्दों की कुछ प्रमुख कड़ियां—

भेद वाणी अंग का शब्द 9

छर ही नाद वेद अरु पंडित छर ज्ञानी अज्ञानी।
ब्रह्मा सेस महेसर छर ही छर ही त्रैगुन माया।।
छर ही सहित लिये ओतारा छर हा तक जहं माया।
चरनदास सुकदेव बतावे निःअच्छर है सब सूंन्यारा।।

भेद वाणी अंग का शब्द 3

सब जग पांच तत्व का उपासी।
परम तत्व पाँचौ से आगे गुरु सुकदेव बखानै।

भेद वाणी अंग का शब्द 13

विरच महादेव से मीन बहुतै जहाँ होयं प्रगट कभी गोत मारा।
तसु में बुदबुदे अंड उपजै मिटै गुरु दई दृष्टि जा सू निहारा।।

अनहद शब्द की महिमा के अंग का शब्द 12

किरिया कर्म भर्म उरझेरे ये माया के भटके।
ज्ञान ध्यान दोउ पहुचत नाहीं राम रहीमा फटके।।
जग कुल रीत लोक मरजादा मानत नाहीं हटके।

करम भरम के निषेध अंग का शब्द 2

साधो घूँघट भर्म उठाय होली खेलिये।
वेद पुराण लाज तजिबे री इन में ना उरझैये।

भेद वाणी अंग का शब्द 1

गुरु दऊती विन सखी पीव न देखो जाय ।
भावै तुम जप तप करि देखो भावै तीरथ नहाय।।
वेद पुरान सब जो ढूंढे स्त्रुति स्मृति सब घाय।
आनि धर्म ओ क्रिया कर्म में दीन्हों मोहिं भरमाय।

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