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संत गुलाल साहब जी

संत गुलाल साहब का जीवन परिचय हिंदी में

संत गुलाल साहब जाति के छत्री थे, और संत बुल्ला साहब के गुरूमुख शिष्य, तथा संत जगजीवन साहब के गुरु भाई, और संत भीखा दास के गुरु थे जैसा कि नीचे दी गई वंशावली से प्रगट होता। इनके जीवन का कुछ हाल नहीं मिलता यद्यपि इनके स्थान सुरकुड़ा जिला गाजीपुर और दूसरी जगहों में खोज की गईं। लेकिन जोकि यह संत जगजीवन साहब के सहकाली थे इनके जीवन का समय विक्रमी सम्वत्‌ 1750 और 1800 के दरमियान में पाया जाता है।

संत गुलाल साहब का जीवन परिचय हिंदी में

संत गुलाल साहब जिमीदार थे और इनके गुरु संत बुल्ला साहब जिनका असली नाम बुलाकीराम था पहले उनके नौकर हल चलाने वगैरह के काम पर थे। संत बुल्ला साहब जब किसी काम को जाते, भजन ध्यान में लग जाने से अक्सर देर कर देते थे। इन की सुस्ती की शिकायत लोगों ने संत गुलाल साहब से की और गुलाल साहब कई बार इन पर खफा हुए। एक दिन का जिक्र है कि संत बुल्ला साहब हल चलाने को गये थे और वहां भगवंत का ध्यान और मानसी साथ सेवा में लग गये। उसी समय गुलाल साहब मौके पर पहुँच गये और बैलों को हल के साथ फिरते और बुल्ला साहब को खेत की मेंढ़ पर आंख बंद किये हुए बैठा देख कर समझे, कि वह ऊंघ रहे हैं तो उनको क्रोध आया और क्रोध में भर कर एक लात मारी।

बुल्ला साहब एक बारगी चौंक उठे ओर उनके हाथ से दही छलक पड़ा। यह कौतुक देख कर संत गुलाल साहब हक्के-बक्के हो गये क्योंकि पहले उन्होंने बुल्ला साहब के हाथ में दही नहीं देखा था। पर बुल्ला साहब बड़ी आधीनता से संत गुलाल साहब से बोले कि मेरा अपराध क्षमा करो में साधों की सेवा में लग गया था ओर भोजन परोस चुड़ा था केवल दही बाकी था उसे परोस ही रहा था जो आप के हिला देने से छलक गया। यह गति अपने नौकर की देख कर संत गुलाल साहब चरणों पर गिरे और उनको अपना गुरु धारण किया।

संत गुलाल साहब जी
संत गुलाल साहब जी

संत गुलाल साहब तालुका बसहरि जिलागाजीपुर के जमींदार थे और वहीं पैदा हुए और गृहस्थ आश्रम में रह कर वहीं चोला छोड़ा। इसी तालुका के एक गाँव का नाम सुरकुंड़ा है जहां गुलाल साहब सतसंग करते व कराते रहे। गुलाल साहब की साध गति थी और उनका तीव्र बैराग्य और प्रचंड भक्ति उनकी अति कोमल और मधुर वाणी से टपकती है।

संत गुलाल साहब की वाणी

वैराग्य और प्रेम-भक्ति, अभ्यास और अनुभव के गहरे रंग में संत गुलाल साहब की वाणी रंगी हुईं है। प्रियतम के मिलन के अति भीने मार्ग का बड़ा आकर्षक वर्णन इन्होंने किया है। उपमान ओर रूपक कई बिल्कुल नये अनूठे हैं। तीव्र वैराग्य और ज्वलंत भक्ति की उत्सव-झलक इनके अनेक चौटीले शब्दों में मिलती है। भाषा भी भावो के सर्वथा अनुरूप अकृत्रिम ओर सहज है। नीचे उनकी कुछ प्रसिद्ध वाणी प्रस्तुत है :—

उपदेश का अंग

राम मोर पुंजिया मोर धना, निसबासर लागल रहु रे मना॥
आठ पहर तहेँ सुरति निहारी, जस बालक पालै महतारी॥
धन सुत लछमी रहो लोभायं, गर्भमूल सब चल्यो गँवाय॥
बहुत जतन भेष रच्यो बनाय, बिन हरिभजन इंदौरन पाय॥
हिंदू तुरक सब गयल बहाय, चौरासी में रहि लपटाय॥
कहै गुलाल सतगुरु बलिहारी, जाति-पॉति अब छुटल हमारी॥१॥

नगर हम खोजिले चोर अबाटी।
निसबासर चहुँ ओर घाइलै, लुटत फिरत सब घाटी॥
काजी मुलना पीर औलिया, सुर नर मुनि सब जाती।
जोगी जती तपी संयासी, घरि मारयो बहुभांती ॥
दुनिया नेस-धर्म करि भूल्यो, गर्व-माया-मद-माती।
देवहर पूजत समय सिरानो, कोझ सग न जाती॥

चेतावनी का अंग

करु मन सहज नाम व्योपार, छोड़ि सकल व्यौहार।
निसुबासर दिन रैन ढहतु है, नेक न धरत करार।।
धंधा धोख रहत लपटानो, भ्रमत फिरत संसार।
मात पिता सुत बंधू नारी, कुल्न कुट्ठम्ब परिवार।।
माया-फांसि बांधि मत ढबहु, छिन मे होहु संधार।
हरि की भक्ति करी नहिं कबहीं, संत बचन आगार।।
करि हंकार मद गये भुलानो, जन्म गयो जरि छार॥
अनुभव धर के सुधियो न जानत कासों कहूं गँवार।
कहे गुल्लाल सबें नर गाफिल, कोन उतारै पार।।

नाम महिमा का अंग

नामरस अमरा है भाई, कोउ साथ-सगति ते पाई।।
बिन घोटे बिन छाने पीबै, कोड़ी दाम न लाई।
रंग रँगीले चढ़त रसीले, कबहीं उतरि न जाईं॥
छके छकाये पगे-पगाये, भूमि-भूमि रस लाई।
विमल विमल बानी गुन बोले, अनुभव अमल चढ़ाई।।
जहेँ जहेँ जावे थिर नहिं आबै, खोलि अमल लै धाई।
जल पत्थल पूजन करि भानत, फोकट गाढ़ बनाई॥

प्रेम का अंग

लागलि नेह हमारी पिया मोर।।
चुनि चुनि कलियाँ सेज बिछावौ, करौ मैं मंगलचार।
एको घरौ पिया नहिं अइलै, होइला मोहि धिरकार॥
आठौ जाम रेनदिन जोहौ, नेक न हृदय बिसार।
तीनलोक के साहब अपने, फरलहिं मोर लितार॥
सत्सरूप सदा ही निरखौ, सतन प्रान-अधार।
कहे गुलाल पावों भरिपूरन, मोजे मौज हमार।।

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