शुक्र ग्रह तथा पृथ्वी सौर-मंडल में जुड़वां भाई कहे जाते हैं, क्योंकि इन दोनों का आकार तथा घनत्व करीब-करीब एक-सा है। यह अलग बात है कि शुक्र और पृथ्वी में बहुत से अंतर भी हैं। यह गुत्थी अभी तक रहस्य बनी हुई है कि शुक्र कुछ मामलों मे पृथ्वी के इतना समान तथा कुछ मामलों मे इतना भिन्न क्यों है? इन समस्याओं के निदान तथा अन्य वैज्ञानिक अध्ययनों के लिए अमेरिका तथा सोवियत संघ दुनिया भर के वैज्ञानिक अनवरत प्रयास कर रहे हैं।
शुक्र ग्रह की खोज
शुक्र ग्रह की ओर दौड़ मे रूस अमेरिका से बाजी मार ले गया है। उसकी बेनेरा (वीनस) श्रृंखला की उड़ानों ने कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक अनुसधान किए हैं। इन उड़ानों मे रखे उपकरणो द्वारा दी गई सूचनाओं से अब यह स्पष्ट हो गया है कि शुक्र ग्रह का
तापमान लगभग 500 डिग्री सेल्सियस है, जब कि पृथ्वी पर साधारणतः तापमान 30 डिग्री सेल्सियस रहता है और 100° डिग्री सेल्सियस पर पानी खौलने लगता है। किसी भी धातु
को अगर 500 डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जाए, तो वह लाल हो जाती है। शुक्र और पृथ्वी के तापमान का यह अंतर दोनों ग्रहों के बीच कई अंतर में से एक है।
इन अध्ययनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि शुक्र ग्रह पर व्याप्त वायुमंडलीय दबाव पृथ्वी पर मिलने वाले दबाव से सौ गुना अधिक है। पृथ्वी पर वायुमंडल का दबाव बैरोमीटर मे पारे के स्तम्भ मे प्रसार द्वारा नापा जाता है। पृथ्वी पर बैरोमीटर में पारे का प्रसार 30 इंच तक ही रह सकता है। जब कि शुक्र पर यही पारा 300 इंच तक खडा रह सकेगा। वेनेरा शृंखला का आधुनिकतम यान वेनेरा- 8 था। 117 दिनों में 30 करोड किमी. से भी अधिक की दूरी तय करने के बाद यह यान चमकते हुए शुक्र ग्रह के पास पहुंचा। जब यह अंतरिक्षयान शुक्र ग्रह के वायुमडल में प्रवेश कर रहा था, तभी वैज्ञानिक उपकरणों से भरें यंत्र-कक्ष (कैप्सूल) यान से अलग कर लिया गया तथा यंत्र-कक्ष की गति हवाई ब्रेक लगाकर कम कर दी गईं। 22 जुलाई, सन 1972 को भारतीय समय के अनुसार दिन के तीन बजे पैराशूट द्वारा इस यंत्र-कक्ष को शुक्र ग्रह की सतह पर बिना किसी झटके के उतार दिया गया।
शुक्र ग्रह की ओर जाने वाले किसी भी अंतरिक्ष यान के यंत्र-कक्ष का इस ग्रह के दिन वाले हिस्से में यह पहला अवतरण था। पैराशूट से उतरते समय तथा अवतरण के 50 मिनट बाद तक शुक्र ग्रह के वायुमंडल तथा धरती के बारे में अनुसंधान कार्य जारी रहा। इससे अर्जित जानकारी को रेडियो तरंगो द्वारा पृथ्वी पर स्थित प्रयोगशालाओं तक प्रेषित कर दिया गया।
बेनेरा-8 की उड़ान के दौरान शुक्र ग्रह के आसपास विकिरण की मात्रा, हाइड्रोजन तथा भारी हाइड्रोजन का अनुपात ज्ञात किया गया। इन अभियानों में पहली बार पैराशूट से उतरते समय यंत्र-कक्ष द्वारा शुक्र के वायुमंडल तथा उसकी सतह पर प्रकाश की मात्रा की माप की गईं। सतह पर वायुमंडल का दबाव तथा तापमान भी मापे गए। शुक्र ग्रह की सतह पर प्राप्त शैल-खंड़ो, धूल के कणों तथा धूल की प्रकृति के बारे में भी वैज्ञानिक तथ्य एकत्रित किए गए।

इन घने बादलों के कारण सूर्य की किरणों का प्रकाश शुक्र ग्रह की सतह तक पहुंचते-पहुंचते मंद हो जाता हैं। पृथ्वी पर किसी बादलों भरी शाम को जैसा धुंधला होता है, करीब-करीब वैसा ही धुंधला शुक्र की सतह पर हमेशा रहता है। इसलिए बादलों की विभिन्न ऊंचाइयों पर तथा सतह पर सूर्य के प्रकाश की मात्रा को नापना बहुत महत्वपूर्ण है। वेनेरा-8 ने यह काम सफलता से किया था। इसी श्रृंखला में रूस ने वेनेरा-9 तथा वेनेरा-10 (अक्टूबर, सन् 1975) भेजे। फिर वैनेरा-11 तथा वेनेरा-12 भेजे गए। यह क्रम जारी है। इससे कई अनसुलझे प्रश्न सुलझेंगे।
शुक्र ग्रह की सतह इतनी गर्म क्यों और कैसे बनी? शायद इस विषय में भी नये तथ्य सामने आएंगे। अब तक शुक्र की सतह पर तापमान अधिक होने के बारे में दो सिद्धांत बहु-प्रचलित हैं। इनमें से प्रथम के अनुसार शुक्र ग्रह के बादल एक कंबल का काम करते हैं। जिस प्रकार कंबल मनुष्य के शरीर की गर्मी को बाहर नहीं निकलने देता, उसी प्रकार शुक्र के घने बादल भी इस ग्रह पर मौजूद रहने वाली ऊप्मा को संजोये रहती है।
दूसरा सिद्धांत ऊष्मा-विनिमय के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार शुक्र ग्रह की धरती पर पहुंचने वाली सूर्य की ऊष्मा को वहां पर व्याप्त अत्यधिक कार्बन डाई ऑक्साइड तथा सूक्ष्म मात्रा मे मिलने वाली पानी की भाप सोख लेती है। ये दोनों इस ऊष्मा का पुनः विकिरण रोक देते हैं। ऊष्मा मिलने से इन गैसों का तापक्रम तथा दबाव बढ़ जाता है। ज्यों-ज्यो तापक्रम और दबाव बढ़ता है, त्यों-त्यों इन गैसों की ऊष्मा शोषण शक्ति बढ़ती जाती है। यही कारण है कि शुक्र ग्रह का तापमान तथा दबाव आज के उच्चांक तक पहुच गए हैं।
यहां यह बता देना उचित होगा कि पृथ्वी पर भी प्रारंभ में उतनी ही कार्बन डाई ऑक्साइड गैस थी, जितनी आज शुक्र पर है। किंतु पृथ्वी की कार्बन डाई ऑक्साइड यहां की चट॒टानो ने सोख ली तथा इससे कार्बोनिट चटूटानें बन गयीं। ऐसी कार्बोनेट चट्टानें पृथ्वी पर बहुतायत से पाई जाती हैं। इन चट्टानों का एक उदाहरण है-चूने का पत्थर, जिसे विज्ञान की भाषा में कैल्शियम कार्बोनेट कहा जाता है।
शुक्र के बादल सूर्य की किरणों को बडी ही दक्षता से परावर्तित (Reflect) करते हैं। यही कारण है कि हमारे आकाश मे सूर्य तथा चंद्रमा के बाद शुक्र ही सबसे ज्यादा चमकदार पिंड है। ये बादल क्या हैं तथा ये कैसे बने, इस बारे मे अटकलें लगाई जा रही हैं। सबसे प्रभावशाली अटकल यह है कि ये बादल भी पृथ्वी के ऊंचे बादलों की ही तरह पानी तथा बर्फ के बादल हैं। मगर यह सिद्धांत भी सारे तथ्यों की व्याख्या नहीं कर पाता। पृथ्वी के बादल केवल 10-12 किलोमीटर की ऊंचाई तक ही पाए जाते हैं, जब कि शुक्र ग्रह के बादल 60 किलोमीटर की ऊंचाई तक मिलते हैं। इनकी मोटाई भी कम से कम 10 किलोमीटर है।
शुक्र ग्रह के बादलों में गंधक, पारा, आयोडीन तथा ब्रोमिन मिलने की संभावना है। परंतु इन तत्वों को 60 किलोमीटर की ऊंचाई पर पहुंचने से पहले ही द्रवीभूत हो जाना चाहिए। हो सकता है कि प्रत्येक तत्व अलग-अलग ऊचाइयों पर द्रवीभूत होता हो। इस प्रकार एक बिल्कुल नए प्रकार के बादलों की कल्पना की जा सकती है, जिनमे विभिन्न तत्व अलग-अलग सतहों पर स्तरित हैं। अगर ऐसा हुआ तो विज्ञान का एक अत्यंत रोचक पहलू सामने आएगा।
वेनेरा-शंखला की पिछली उड़ानो की एक उपलब्धि है-शुक्र ग्रह के वायमंडल में वाष्प रूप में निहित पानी की मात्रा का पता लगाना। इस प्रयास के फलस्वरूप ज्ञात हुआ है कि वहां पानी बहुत कम है। अगर शुक्र ग्रह का विकास भी पृथ्वी की तरह ही हुआ है, तो वहां पानी काफी मात्रा मे होना चाहिए था। पृथ्वी पर पानी उसके उदर से फूटे ज्वालामुखियों द्वारा बाहर आया है। शुक्र पर भी इसी प्रकार की प्रक्रियाएं हुई होंगी। फिर यह समझना भी अत्यंत कठिन है कि शुक्र ग्रह के वायुमंडल मे प्राप्त पानी की सांद्रता पृथ्वी के वायुमंडल मे प्राप्त पानी की साद्रता से कम से कम एक हजार गुना कम क्यों है।
पानी की कम मात्रा के लिए तर्क यह दिया जाता है कि श॒क्र के ऊपरी वातावरण में तापमान काफी ऊंचा है। इस उच्च तापमान के कारण तेज पराबैंगनी (अल्ट्रावॉयलेट) किरणे पृथ्वी की अपेक्षा अधिक गहराई तक वायुमंडल मे घुस सकती हैं। ये पराबैंगनी किरणें पानी को उसके मूलभूत तत्वों, हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन मै तोड़ देती हैं। हाइड्रोजन गैस हल्की होती है, इस कारण यह ऊपर उठ कर अंतरिक्ष में विलीन हो जाती है। परंतु आक्सीजन गैस भारी होती है, अतः वह सतह पर शुक्र की चट्टानो द्वारा अवशोषित कर ली जाती है। इन दो गैसों के अलग-अलग टूट जाने के कारण ही वहां पानी की मात्रा कम है।
उपर्युक्त सिद्धांत की पुष्टि तब हो सकती है, जब शुक्र के हाइड्रोजन – किरीट की सांद्रता को मापा जा सके। पिछली वेनेरा उडानों द्वारा हाइड्रोजन की“मात्रा मापन पर कम पायी गई थीं। हाइड्रोजन तथा उसके समस्थानिक ((Isotopes) भारी
हाइड्रोजन (ड्यूटेरियम) के घनत्व का अनुपात मापा जा सके, तो इस सिद्धांत के बारे में ठोस धारणा बनाई जा सकती है। यह काम वेनेरा-श्रृंखला ने कर लिया है, अतः शुक्र में कम पानी के बारे में अब कोई निश्चित सिद्धांत सामने आएगा।
समय के साथ-साथ मनुष्य को ग्रहों, उपग्रहों तथा तारों के बारे मे अपने विचार बदलने पड़े हैं। जहां भूतकाल में उसकी धारणाएं अधिकतर कल्पनाशक्ति पर आधारित रहती थीं, वहीं अब कृत्रिम उपग्रहों के सशक्त माध्यम से वह इनके बारे में ठोस तथ्य जानने में सफल हो गया है। निकट भविष्य मे ही उसे इस विराट ब्रह्मांड के उद्गम तथा सम्भावित विनाश के बारे में निश्चित धारणा बनाने में मदद मिलेगी। इस दिशा मेंवेनेरा की उडानें एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम है।