शील की डूंगरी चाकसू राजस्थान – शीतला माता की कथा
शीतला माता यह नाम किसी से छिपा नहीं है। आपने भी शीतला माता के मंदिर भिन्न भिन्न शहरों, कस्बों, गावों या अपने आसपास जरूर देखें होगें। वैसे तो शीतला माता के मंदिर भारत के अनेक राज्यों में परंतु हिन्दी भाषी राज्यों जैसे मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा खासकर राजस्थान मे अधिकतर है। राजस्थान मे तो शीतला माता को लोक देवी के रूप माना जाता है तथा उनके स्थानों को लोक तीर्थ की दृष्टि से देखा जाता है। शीतला माता कौन थी? शीतला माता को पौराणिक देव अवतार माना जाता है। शील की डूंगरी चाकसू राजस्थान मे माता का प्राचीन स्थान व मंदिर है। यहां हर वर्ष चैत्र के माह में भव्य मेला भी लगता है। अपने इस लेख में हम शील की डूंगरी, शीतला माता मंदिर चाकसू, शीतला माता की कथा, शीतला माता की कहानी आदि के बारें में विस्तार से जानेंगे।
शीतला माता की कथा – शीतला माता की पौराणिक कहानी
चैत्र मास का महिना था। एक दिन शीतला माता ने सोचा इस बात को देखना चाहिए कि पृथ्वी पर लोग मेरा कितना मान रखते है। यही परखने के लिए शीतला माता एक वृद्ध महिला का वेश धारण कर शहर की एक गली से जा रही थी कि किसी ने चावल का गरम गरम पानी (मांड) गली मे डाला यह जलता हुआ पानी शील माता के ऊपर गिरा और शीलमाता के हाथ पांव और शरीर पर फफोले हो गये। सारे शरीर मे जलन होने लगी। शीलमाता पूरे शहर में घूम गई लेकिन उन्हे कही ठंड़क नही मिल सकी। पूरे शहर में से घूमती हुई शीतला माता जब शहर के बाहर पहुंची तो वहां एक कुम्हार की झोपड़ी देखी। झोपड़ी पर पहुंच कर माता ने कहा मै गर्मी से जल रही हूँ, मुझे कोई चीज जो। कुम्हार ने उनको आदर सहित बिठाया और ठंडी छाछ, रावडी मे मिलाकर शीतला माता के सामने रखी। शीतला माता ठंडी छाछ और रावडी खाकर बहुत प्रसन्न हुई और उनको शांति मिली।

शीतला माता ने फिर कुम्हारी से कहा बेटा मेरे सिर में जुएँ देख दे। कुम्हारी ने जुएँ देखना शुरु किया ज्योही कुम्हारी की नजर पीछे की तरफ गई, कुम्हारी ने उनके सर के दोनों तरफ आंखें देखी तो डर गई। शीतला माता ने कुम्हारी को बतलाया तू डर मत मै शील और वोदरी माता हूँ। शहर में घूमते हुए जल गई थी, तुमने मुझे ठंडी छाछ, रावडी खिलाकर शांति दी है। मै इससे बहुत प्रसन्न हुई हूँ। आज मै तुम्हें एक बात बता देती हूँ। कल सवेरे शहर में आग लग जायेगी। तू एक कोरे करवे में स्वच्छ जल लेकर और मेरा नाम लेकर अपनी झोपड़ी के चारो ओर एक धार निकाल देना इससे तेरी झोपड़ी बच जायेगी। इतना कहकर शीतला माता चली गई।
दूसरे दिन सवेरा होते ही पूरे शहर में आग लग गई। राजा ने अपने आदमियों को भेजा कि देखो कोई मकान बचा है क्या? शहर का चक्कर लगाकर लौटे एक सिपाही ने बतलाया। हजूर गांव के बाहर केवल एक कुम्हारी की झोपड़ी बची है। राजा ने कुम्हारी को बुलाकर रहस्य पूछा। कुम्हारी ने राजा को पूरी घटना बतला दी। पूरी घटना सुनने के बाद राजा ने उसी दिन ढ़िढ़ौरा पिटवाया कि चैत्र के महीने में छठ के दिन भोजन बनाकर सप्तमी को शील और वोदरी माता की पूजा करके ठंडा भोजन खावे। शीतला माता की पूजा छाछ, रावडी, पूआ, पुडी, नारियल आदि से करें। और यह पूजा कुम्हारी ही करेगी। और पूजा की सामग्री और चढ़ावा कुम्हारी ही लेगी।
एक अन्य पौराणिक कथा या पौराणिक मान्यता के अनुसार माता शीतला जी की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मा जी से ही हुई थी। ब्रह्मा जी ने माता शीतला को धरती पर पूजे जाने के लिए भेजा था। देवलोक से धरती पर मां शीतला अपने साथ भगवान शिव के पसीने से बने ज्वरासुर को अपना साथी मानकर लाईं। तब उनके पास दाल के दाने भी थे। उस समय के राजा विराट ने माता शीतला को अपने राज्य में रहने के लिए कोई स्थान नहीं दिया तो माता शीतला क्रोधित हो गईं।
उसी क्रोध की ज्वाला से राजा की प्रजा के शरीर पर लाल-लाल दाने निकल आए और लोग उस गर्मी से संतप्त हो गए। राजा को अपनी गलती का एहसास होने पर उन्होंने माता शीतला से माफी मांगकर उन्हें उचित स्थान दिया। लोगों ने माता शीतला के क्रोध को शांत करने के लिए ठंडा दूध एवं कच्ची लस्सी उन पर चढ़ाई और माता शांत हुईं। तब से हर साल शीतला अष्टमी पर लोग मां का आशीर्वाद पाने के लिए ठंडे बासी भोजन का प्रसाद मां को चढ़ाने लगे और व्रत करने लगे।
शीतला माता का महत्व, शील की डूंगरी का महत्व
आज भी चैत्र माह के अंधेरे पखवाड़े में शील सप्तम को राजस्थान के हर क्षेत्र में शीतला माता का मेला लगता है। लोग पहले दिन का बना हुआ भोजन सप्तमी को शीतला माता के मंदिर में चढ़ाते है एवं पूजा करते है और फिर भोजन करते है। गीत गाती महिलाएं शीतला माता के मंदिर में जाती है। पूआ, पापड़ी, छाछ, रावडी, गुलगुला, नारियल आदि चढाती है। उस दिन यहां बड़ा मेला भी लगता है। यह दिन यदि शनिवार, रविवार या मंगलवार को पड़ता है तो छटे दिन ही बसेडा (ठंडा) खाया जाता है। राजस्थान में अविवाहित लड़कियां खेजड़ी के नीचे रखे लाल पत्थर पर नियमित पानी डालती है। वह वर्षभर पानी इसलिए डालती है कि माता शांत रहें। विवाह के समय भी शीतला की पूजा होती है। विवाह हो जाने के बाद दूल्हा दुल्हन जात देने के लिए शीतला माता के मंदिर जाकर पूजा करते है। लाल कपडें में गुड, गुलगुले व पैसे रखकर चढ़ाते है।
शीतला माता के मंदिर की पूजा आज भी कुम्हार जाति के ही लोग करते है। राजस्थान एवं आसपास के अनेक राज्यों में शीतला माता मातृलक्षिका देवी के रूप में पूजी जाती है। शीतला माता को देश के भिन्न भिन्न भागों में अलग अलग नामों के साथ पूजा जाता है। जहां वह उत्तर प्रदेश में माता या महामाई के नाम से जानी जाती है। वही पश्चिमी भारत में माई अनामा और राजस्थान में सेढ़, शीतला तथा सेढ़ल माता के रूप में विख्यात है। शीतला माता को एक पौराणिक देव माना गया है।हर हिन्दू चाहे वह किसी भी धर्म जाति का हो उसकी यह मान्यता है कि माता माई एक दिन उसके घर अवश्य आती है। वह यही मनौती करता है कि माता माई बिना कोई नुकसान पहुंचाएं शांति से लौट जाएं। शीतला माता को मुस्लमान जाति के लोग भी मानते है।
भारत में चेचक एक भयंकर रोग माना जाता है। इस रोग को माता, शीतला माता, सेढ़ल, महामाया, माई ऊलामा आदि नामों से भी अलग अलग प्रान्तों में पुकारा जाता है। लोगों की ऐसी मान्यता है कि चेचक का प्रकोप माता की रूष्ठता के कारण ही होता है। शील को बच्चों की संरक्षिका माना जाता है और इसी रूप में इसे पूजा जाता है। शीतला का अर्थ ठंड से है। ऐसी भी मान्यता है कि अधिक तेज बुखार के बाद शीतला के आने पर ठंडक हो जाती है। इसलिए इसे माता कहते है। उदाहरण के तौर पर आपने सुना होगा कुछ लोग कहते है कि बच्चे के माता निकल आई। या उस व्यक्ति के माता निकल रही है आदि। ऐसे मे चेचक के मरीज को कपडों में लपेटे अंधेरे कमरें में रखते है। माता शांति चाहती है। अतः किसी को जोर से बोलने तक नहीं दिया जाता। तथा घर में घी तेल का तड़का नहीं लगाया जाता। घर वालों को नहाने तथा नये कपड़े पहनने नहीं दिये जाते। इसको छूत की बिमारी मानते है। अतः कई तो इस बिमारी के मरीज का हाल पूछने भी नहीं जाते। कोई दवाई नहीं दी जाती केवल नीम की पत्तियों की वंदनवार घर के दरवाजें पर लगाई जाती है। गधा माता की सवारी माना जाता है। अतः घर में माता का प्रकोप होने पर गधे को रोज कुछ न कुछ खाने को दिया जाता है। टोने टोटके आदि किए जाते है। एक घड़े मे कुछ खाने की सामग्री रखकर मरीज के चारों ओर सात वार घुमाकर पास के चौराहे पर रख दिया जाता है। कुछ लोग ऐसा भी मानते है कि मरीज का कोई रिश्तेदार रात को कुएँ पर जाकर पानी की घूंट मुंह में भरकर अचानक मरीज पर फैंक देता है तो उसके बाद मरीज जल्दी ठीक हो जाता है। ऐसी भी मान्यता है। चेचक के मरीज की मृत्यु के बाद उसे जलाया नहीं जाता बल्कि दफनाया जाता है। चेचक में मरीज बदसूरत हो जाता है। कभी कभी तो आंखें तक चली जाती है। फिर भी माता की ही मरजी मानी जाती है। और कोई इलाज नहीं किया जाता। हालांकि यह मान्यताएं धीरे धीरे कम होती जा रही है। लोग कुरितियां समझकर इनका त्याग करते जा रहे है।

शील की डूंगरी का मेला – शीतला माता चाकसू का मेला
शीतला माता की स्मृति में हर वर्ष भव्य मेला लगता है। यह मेला चैत्र की अंधेरे पक्ष में सप्तमी को राजस्थान के हर क्षेत्र में लगता है। मुख्य और प्रसिद्ध मेला शील की डूंगरी पर लगता है। शील की डूंगरी शीतला माता का प्राचीन स्थल माना जाता है। शील की डूंगरी कहा है? जयपुर जिले में जयपुर-कोटा मुख्य मार्ग पर जयपुर से लगभग 70 किमी दूर चाकसू स्टेशन है। चाकसू से करीब 5 किमी दूरी तय कर तालाब के किनारे शील की डूंगरी स्थित है। यहां एक टीले के ऊपर माता शीतला का मंदिर है। इस मंदिर पर ही भव्य मेला लगता है। चाकसू रेलवे स्टेशन भी है। मेले के समय जयपुर, टौंक, कोटा आदि स्थानों से दिन भर बसे चलती रहती है। बिना मेले के भी इस मार्ग पर नियमित बसे आती जाती रहती है।
शीतला माता के मंदिर का निर्माण जयपुर के भूतपूर्व महाराजा श्री माधोसिंह ने करवाया था। मेले में राज्य के हर हिस्से से लोग माता के दर्शन करने आते है। बैलगाड़ियों, पैदल तथा अन्य साधनों से लाखो लोग इस मेले में पहुंचते है। रंगबिरंगी वेषभूषा पहने लोग रात भर जागरण करते है। तथा नाच गाकर शीतला माता के भजन गाते है। शीतला सप्तमी के दिन लगभग एक लाख से अधिक यात्री माता के दर्शन करते है। मीणा और गूजर जाति के लोग यहां आकर अपनी पंचायत लगाते है। और आपसी झगडे तय करते है।
परम्परा के अनुसार शील की डूंगरी का पुजारी भी कुम्हार होता है। कुम्हार जाति के लोग हर पन्द्रह दिन बाद बारी बारी से माता की दिन में दो बार आरती उतारते है। और अपने हिस्से का पुजापा लेते है। मेले के दिन जो भी रूपया पैसा अथवा पुजापा एकत्रित होता है। उसे सभी बराबर बांट लेते है। पंचायत समितियों की स्थापना के बाद अब चाकसू पंचायत समिति इस मेले में पानी, बिजली, सफाई आदि की व्यवस्था करती है। वहां इस दिन पशुओं का मेला भी आयोजित होता है। खेल कूद होते है तथा कृषि पशुपालन, सहकारिता एवं जन स्वास्थ्य विभागो की ओर से प्रदर्शनी भी लगायी जाती है। रात्रि को फिल्म प्रदर्शन आदि भी आयोजित किये जाते है। दिन भर खेल कूद व झूले झूलने के बाद संध्या को लोग नाचते गाते माता की मनौती मनाते हुए अपने अपने गंतव्यों को लौटते है।
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One Comment
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Apne bhut achchi jankari share ki hai uske liye thanks, maine apne school time main bhut suna tha ki isko mata nikal aayi h main sochti thi mata konsi bimari hoti h, jo totkon se theek hoti h aaj apki blog padhkar sab kuch clear ho gya aakhir mata naam ki bimari ka kya karan h