शाही नवाबों की भूमि लखनऊ अपने मनोरम अवधी व्यंजनों, तहज़ीब (परिष्कृत संस्कृति), जरदोज़ी (कढ़ाई), तारीख (प्राचीन प्राचीन अतीत), और चेहल-पहल (स्ट्रीट वेंडर्स और दुकानों से सजी चमकदार सड़कें) के लिए दुनिया भर में लोकप्रिय है। इन सबके अलावा,लखनऊ शहर में कई भव्य ऐतिहासिक स्मारक हैं जो अवधी वास्तुकला की समृद्धि और नवाबों के गौरवशाली अतीत के बारे में बताते हैं। एसा ही एक स्मारक शहर के बीच खड़ा है जो समकालीन लखनवी आबादी की चकाचौंध से छिपा हुआ है, वह स्मारक जो लखनऊ के बीचों-बीच खड़े होकर भी कई लोगों की नज़रों से बच गया है, वह स्मारक जो शहर के शिया मुसलमानों के लिए धार्मिक महत्व रखता है। शाह नज़फ इमामबाड़ा, शाह नज़फ रोड का शुरुआती बिंदु, सहारा गंज मॉल के बहुत करीब है। यह एक वास्तुशिल्प कृति है और शिया मुसलमानों के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान है।
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शाह नज़फ इमामबाड़ा का इतिहास
शाह नज़फ इमामबाड़ा प्रसिद्धनवाब गाजीउद्दीन हैदर द्वारा निर्मित एक प्रभावशाली इमामबाड़ा है, जो वास्तव में नवाबों और ब्रिटिश साम्राज्य के बीच मौद्रिक ऋण के मुख्य लाभार्थियों में से एक था। नवाब गाजी-उद-दीन हैदर ने शाह नज़फ इमामबाड़े के निर्माण का आदेश पलटन घाट के नाम से एक प्रमुख स्थान पर दिया था। यह घाट लखनऊ में गोमती नदी के तट पर स्थित है। महल के इमामबाड़े को नवाब गाजी-उद-दीन हैदर ने हजरत अली के प्रति अपने प्यार और श्रद्धा को दिखाने के लिए बनवाया था।
हजरत अली पैगंबर मुहम्मद की प्यारी बेटी फातिमा के पति थे। अद्भुत शाह नज़फ इमामबाड़ा इराक में नज़फ-ए-अशरफ के मकबरे जैसा दिखता है और इस तथ्य के कारण इसका नाम हो सकता है। इसके अलावा, हजरत अली को शाह-ए-नज़फ या “नज़फ के राजा” के रूप में भी जाना जाता है।
हजरत मुहम्मद के दामाद शाह नज़फ या हजरत अली एक प्रमुख विद्वान और साहसी योद्धा थे। इस्लाम के प्रचार और रक्षा में उनके वीरतापूर्ण प्रयासों ने उन्हें विशेष रूप से हैदर-ए-खुदा का ख़िताब (पदनाम) दिलाया। हैदर-ए-खुदा का शाब्दिक अर्थ है “अल्लाह का शेर।” शाह नज़फ इस्लाम के चौथे खलीफा बने। नवाब गाज़ी-उद-दीन हैदर ने इमामबाड़ा का निर्माण और हज़रत अली को समर्पित किया।
गाज़ीउद्दीत हैदर ने सन 1814 ई० में अपने वालिदनवाब सआदत अली खां के गूजर जाने के बाद हुकूमत संभाली। उन्हें भी इमारतें
बनवाने का बड़ा शौक रहा, अपनी हुकूमत के दौरान उन्होंने लखनऊ में तमाम खूबसूरत इमारतें बनवाईं जिनमें छतर मंजिल, मुबारक मंजिल, शाह नज़फ इमामबाड़ा आदि प्रमुख हैं।

20 अक्टूबर सन् 1827 ई० को गाजीउद्दीन का इन्तकाल हो गया। नवाब साहब की यह आखिरी इच्छा थी कि मरने के बाद उन्हें शाह नज़फ में ही दफनाया जाए आखिरकार उनकी यह आखिरी ख्वाहिश भी पूरी हुई। इस इमामबाड़े को बनवाने से पहले नज़फ पर्वत (इराक) पर बनी मो० साहब के दामाद हजरत अली की मज़ार की पवित्र मिट्टी लखनऊ लायी गयी और हु-बहू वहां बनी मजार की तरह ही इस शाह नज़फ इमामबाड़े की इमारत का निर्माण हुआ जिससे इसका नाम शाह नज़फ पड़ा।
शाह नज़फ को बनवाने का उद्देश्य यह था कि जो लोग करबला-ए-मौला की ज़ियारत के लिए करबला नहीं जा सकते हैं वे यहीं हजरत अली की ज़ियारत कर सके। गाजीउद्दीन बड़े ही रहम दिल इन्सान थे। उन्होंने तमाम गरीब लड़कियों की शादियां करवायी। एक दिन नवाब साहब सेर पर निकले उनकी निगाह एक बेवा औरत और उसकी लड़की पर पड़ी। गरीबी की मार से चोट खाई इन दोनों औरतों पर उन्हें बड़ा तरस आया रुक कर उनका हाल चाल पूछा।
उनकी कहानी सुनकर नवाब साहब भारी मन से महल लौट आए और अपने वज़ीर आगामीर से कहा कि उस बेवा को बेटी की शादी के वास्ते 500 अशर्फियाँ भिजवा दो। वजीर ने उस तक अशर्फियां भिजवाने के बजाय शाम के वक्त सारी अशर्फियां दहलीज पर इधर-उधर फैलवा दी ताकि बादशाह समझे की शादी के लिए इतनी रकम कम होने के कारण उस बेवा ने उन्हें वापिस कर दी है। नवाब ने जब दहलीज पर अशफियां छितरी देखीं तो कुछ देर सोच कर सुखपाल के हाथों दुगनी अशर्फियां पहुंचवा दीं। बेचारे वज़ीर साहब अपना सा मुंह लिए रह गये।
शाह नज़फ इमामबाड़े में बना एकमात्र विशाल गुम्बद बड़ा ही खूबसूरत है। गुम्बद के ऊपर बनी मीनार कभी पूरी सोने की हुआ करती थी, मगर फिरंगियों की नापाक नजरें जब इस पर गयी तो इसे तुड़वा दिया। जब यह दौबारा बनी तो इस पर केवल सोने का पानी ही चढ़ाया जा सका।
इमामबाड़े का बरामदा खूबसूरत झाड़ फानूसों से सजा है। गाज़ीउद्दीन ने जब इसको बनवाया तो तमाम झाड़फानूस आसफी इमामबाड़े से यहां उठा लाये। हाल में प्रवेश करते ही सामने की ओर चाँदी के ताजिए रखे हैं जिनमें दो छोटे और एक बड़ा है। इनके ऊपर मखमल की चादर तनी है। हाल में अनेक शाही आईने रखे हैं। इमामबाड़े में पहली मोहर्रम से लेकर ग्यारह मोहर्रम तक तमाम तकरीबात होते हैं जिन पर होने वाले खर्च का 1/4 भाग सरकार देती है और बाकी का खर्च ट्रस्ट उठाता है। इस दौरान गरीबों को शीरमाल पुलाव आदि बाँटा जाता है। सात व आठ तारीख को सजावट होती है। जिसका एफतिताह जिला अधिकारी महोदय करते हैं, आठ तारीख को यहीं पर “आग का मातम” मनाया जाता है।
इसी के साथ पहली से 11 तारीख तक मजलिसों का एहतिमाम होता है जिसमें जिले एवं बाहर से भी अनेक ‘नौहाख्वाँ मरसिया गोई’ आते हैं। मोहर्रम के दिनों में होने वाली भव्य एवं आकर्षक सजावट का एक कारण और बताया जाता है। कि ब्रिटिश सरकार शाही खाने का तमाम पैसा इधर-उधर खर्च कर रही थी इसे रोकने के लिए नवाबों ने एक ट्रस्ट बनाया जो कि हुसैनाबाद ट्रस्ट के नाम से मशहूर हुआ। यह एशिया का सबसे बड़ा ट्रस्ट है। इस ट्रस्ट के पैसे का इस्तेमाल मोहर्रम के दिन ताजियादारी अलम और मजलिसों के आयोजनों में खर्च होने लगा तब से मोहर्रम के अवसर पर रोशनी की जाती है
शाह नज़फ इमामबाड़े की वास्तुकला
शाह नज़फ इमामबाड़ा नवाबों के शहर में सबसे बेहतरीन और सबसे शानदार स्मारकों में से एक है। स्मारक का भव्य गुंबद बहुत ही अनोखा और प्रभावशाली है। गुंबद में नीचे की ओर स्थित ड्रम जैसा दुबला गर्दन होता है। यह इमामबाड़े के आगे और पीछे दो खूबसूरत प्रवेश द्वार भी है। पिछला गेट गोमती नदी के सामने था, जो अब शहर में बाढ़ को रोकने के लिए बनाए गए बांध में बहती है।
इमामबाड़ा परिसर के अंदर नवाब गाजी-उद-दीन हैदर की पत्नी मुमताज महल के लिए एक आवासीय स्थान और एक मस्जिद का निर्माण किया गया था। हालांकि, नदी के किनारे एक सड़क के निर्माण के लिए रास्ता बनाने के लिए वर्ष 1913 में घर को ध्वस्त कर दिया गया था।
शाह नज़फ इमामबाड़े को लखनऊ में कर्बला भी कहा जाता है। इमामबाड़े के मुख्य हॉल के अंदर नवाब गाजी-उद-दीन हैदर की कब्र है, क्योंकि वह वहां दफन होना चाहता था। इमामबाड़ा परिसर में उनकी तीन पत्नियों, मुमताज महल, मुबारक महल और सरफराज महल की कब्रें भी मौजूद हैं।
इमामबाड़ा का प्रवेश द्वार आगंतुकों को एक सुरम्य उद्यान के माध्यम से मुख्य हॉल में ले जाता है, जिसे विभिन्न प्रकार के फूलों और पौधों से शानदार ढंग से सजाया गया है। इमामबाड़े के बीच में गाजी-उद-दीन हैदर का अद्भुत चांदी का मकबरा है। चांदी का मकबरा मुमताज महल, मुबारक महल और सरफराज महल की सोने की कब्रों के बहुत करीब स्थित है।
हजरत अली के जन्मदिन पर राजसी शाह नज़फ इमामबाड़ा खूबसूरती से रोशन और रंगीन रोशनी से सजाया जाता है। मुस्लिम कैलेंडर के अनुसार, हज़रत अली का जन्मदिन इस्लामी महीने रजब के 13 वें दिन पड़ता है।
इमामबाड़ा आगंतुकों के लिए सप्ताह के सभी दिनों में सुबह 9:00 बजे से शाम 5:00 बजे तक खुला रहता है। स्मारक का संरक्षण हुसैनाबादट्रस्ट बोर्ड और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा किया जाता है। इसके विपरीत, आप एक तरफ शाह नज़फ इमामबाड़े में शहर की मध्ययुगीन विरासत और सड़क के पार सहारा गंज मॉल का एक आधुनिक दृश्य देख पाएंगे।