विज्ञान में और चिकित्साशास्त्र तथा तंत्रविज्ञान में विशेषतः एक दूरव्यापी क्रान्ति का प्रवर्तन 1895 के दिसम्बर की एक शरद शाम को हुआ था। 50 वर्ष के एक जर्मन भौतिकी-उपाध्याय ने वुत्सबुर्ग मेडिकल एण्ड फिजिकल सोसाइटी के एक शान्त अधिवेशन के सम्मुख अपने अनुसंधान का प्रदर्शन किया। विलहम कॉनरैड रॉटजन को छाया चित्र अंकित करने की विधि का पता लग गया था। और हम अन्दाजा कर ही सकते हैं कि ये एक खास किस्म के ही छायाचित्र थे।
विलहम कॉनरैड रॉटजन का जीवन परिचय
विलहम कॉनरैड रॉटजन का जन्म 27 मार्च 1845 को प्रशिया रियासत के लेन्नेप शहर में हुआ था। पिता एक जर्मन किसान था और मां एक डच थी। शुरू की पढ़ाई-लिखाई हौलेंड में हुई और फिर ज्यूरिख विश्वविद्यालय में स्विट्जरलैंड में विख्यात आचार्य रूडोफ क्लॉसियस के चरणों में उच्चतर अध्ययन। रोन्तजेन के प्रिय विषय थे, विद्युत, प्रकाश, ताप तथा इलेस्टिसिटी या लचकीलापन। भौतिकी में डॉक्टरेट हासिल करके वह जर्मनी में एक सहायक प्रोफेसर की हैसियत से वुत्सबुर्ग लौट आया। जर्मनी में एक से अधिक विश्वविद्यालय में स्ट्रॉसबर्ग, होएनहाइम, ग्नाइस्सेन फैकल्टी में अध्यापन कार्य करके 1885 में आखिर फिर वह वुत्सबुर्ग में ही प्रोफेसर बनकर लौट आया।
एक अंग्रेज वैज्ञानिक सर विलियम क्रुक्स की अभिलाषा माइकल फैराडे के कार्य को कुछ आगे ले चलने की थी। फैराडे ने जो चीज भी उसके हाथ आ सकी द्रव, स्थूल, गैस, कुछ हो, हर चीज़ में से बिजली गुजारने की कोशिश की थी। यही नहीं, शुन्यमें से भी विद्युत संचार का प्रयत्न उसने कर देखा था। किन्तु, उन दिनों के वेकुअम पम्प कोई बहुत सफल उपकरण नही थे, सो उन परीक्षणों को बहुत आगे नही ले जाया जा सका।
क्रुक्स के पास अलबत्ता आज अधिक विकसित साधन मौजूद थे, शून्य को वह बहुत हद तक सफलतापूर्वक सिद्ध भी कर सकता था। उसका सहायक भी एक सिद्धहस्त प्रयोगविद था जो शीशे की ट्यूब को फुला-फुलाकर उनमें तरह-तरह के उपकरण बैठा सकने में भी उतना ही माहिर था। क्रुक्स ने जो ट्यूब ईजाद की वह दरअसल शीशे का एक बर्तन ही थी जिसमें दो इलेक्ट्रोड सील करके उसमे से सारी हवा निकाल दी गई थी। इलेक्ट्रोडस से एक सशक्त वोल्टेज को संपृकत करके ट्यूब के अन्दर एक किरण पैदा की गई। यह किरण ऋणात्मक बिन्दु पर प्रत्यक्ष की गई। ट्यूब में पडा हुआ एक पैडल व्हील घूमने लग गया जब ये किरणें उससे जाकर टकराई। अर्थात किरण मे सचमुच कुछ भौतिक तत्त्व भी था, और बाकी चीजों के साये इधर-उधर पडने लगे। यही नही एक चुम्बक पास में ले जाए, या एक विद्युताविष्ट प्लेट हो, तो यह किरण पथभ्रष्ट भी हो जाती। शीशे से टकराने पर किरण एक तरह की हरी चमक-सी फैकती। इस तरह की चमक का वैज्ञानिक नाम ‘फ्लोरेस्सेन्स’ (पुष्पद्मुति)। अब पाठक भी समझ गये होंगे क्रुक्स कि ने इस प्रकार हमारे टेलीविजन के एक दो पीढी पहले के पुरखा का आविष्कार ही कर लिया था, यद्यपि स्वय टेलीविजन को मूर्त होने मे अभी 60 साल और लगने थे। अगली पीढी के वैज्ञानिको ने विश्लेषण द्वारा जाना कि क्रुक्स की कैथोड रे वस्तुत इलैक्ट्रन्स की एक अविरत धारा ही थी। उसकी ट्यूब भी एक प्रकार का विद्युत-उपकरण ही थी जिसके द्वारा आगे चलकरइलेक्ट्रोन का प्रत्यक्ष सम्भव हो सका।
विलहम कॉनरैड रॉटजनविश्वविद्यालय की अपनी परीक्षण शालाओ मे प्रोफेसर रॉटजन भी एक प्रकार की क्रुक्स ट्यूब लेकर ही कुछ परीक्षण कर रहा था। उसने ट्यूब को एक गत्ते के नीचे ढक दिया और कमरे को भी बन्द कर दिया कि बाहर की रोशनी अन्दर न आने पाए। और तब ट्यूब को डिस्चार्ज कर दिया अर्थात उसमे से बिजली गुजारी। बेरियम-
प्लाटिनम की परत से आवृत एक कागज़ का टुकडा, ट्यूब के अन्दर चमकने लगा, विद्युत से ‘खिल” उठा। एक नई खोज सामने आ गई, एक नये किस्म की किरण जो कि कैथोड-किरण नही थी, क्योकि कैथोड-रे शीशे मे से नही गुजर सकती, और यह नई किस्म की किरण शीशे मे से भी और कागज़ मे से भी साफ-साफ गुजर गईं थी। और न कोई चुम्बक अथवा विद्युत-क्षेत्र इसे पथभ्रष्ट भी कर सकता था। अगले परीक्षणो में इन किरणों को एल्यूमीनियम, टिन-फॉयल की पतली चादरों में से रबर और अन्य द्रव्यों मे से भी गुज़ार कर देखा गया।
फोटो लेने की एक फिल्म को एक अच्छे तगड़े काले कागज में लपेटकर रखा हुआ था। पता चला उस पर भी जैसे रोशनी पड चुकी हो, इन नई किरणों में इतनी ताकत थी कि अच्छी तरह संभालकर रखी हुई फिल्मों को भी बड़ी एहतियात के बावजूद चौपट कर दे। विलहम कॉनरैड रॉटजन ने इन अज्ञात किरणों को एक्स-रे नाम दे दिया क्योकि उसे मालूम नही था ये है क्या बला।
एक्स-रे किरणों की उत्पत्ति तब होती हैं जबकि नेगेटिव इलेक्ट्रोड से उद्भूत इलेक्ट्रॉन्स वैसे ही जैसे क्रुक्स ट्यूब मे जाकर पाज़िटिव इलैक्ट्रोड से टकराते है। एक्स-रे पैदा करने वाली मशीन में इस योगात्मक बिन्दु का नाम होता है, लक्ष्य (टारगेट)। होता यह है कि लक्ष्य पर स्थित अणुओं के इलैक्ट्रोन अपने गृह से एक बार उन्पूलित होकर फिर अपनी जगह लौट आते है। उनके इस निर्गमन तथा प्रत्यागमन की गति इतनी अधिक होती है कि अविश्वसनीय प्राय 10,00,00,00,00,000 साइकल प्रति सेकण्ड की एक विद्युत-चुम्बकीय तरंग को प्रस्रवित करते हुए।
रॉटजन को यह जानकर बडी प्रसन्नता हुई कि इन ‘एक्स-रे’ अथवा रॉटजन (जैसा कि उसके साथी उन्हे पुकारते थे) किरणों मे प्राणि मास में से भी आर पार निकल जाने की ताकत है। काले कागज़ में एक फोटोग्राफिक प्लेट पर उसने अपना हाथ रखकर देखा। एक्स-रे मशीन चला देने पर फिल्म पर उसके हाथ की हड्डियों की एक छाया- सी (“जिसका अपना ही सौन्दर्य था, उसके शब्द है) उतर आई।
1896 मे इस महत्त्वपूर्ण खोज के लिए विलहम कॉनरैड रॉटजन को रॉयल सोसाइटी का रूमफोर्ड मेडल पुरस्कार मे मिला, और 1900 मे म्यूनिख विश्वविद्यालय मे भौतिकी का प्रोफेसर। जिस पद पर वह अपनी मृत्यु (1923) से तीन वर्ष पूर्व तक बना रहा, और फिर सन् 1001 मे विलहम कॉनरैड रॉटजन को नोबल पुरस्कार दिया गया। रेडियो-एक्टिविटी के क्षेत्र मे जितने भी आविष्कार हो चुके हैं— बेकेरेल, क्यूरीद पती, रदरफोर्ड, प्लैक, टामसन, आइंस्टाइन, फर्मि के—उन सबका प्रवतन रॉटजन के इस प्रथम आविष्कार द्वारा ही हुआ था। अपने जीवनकाल में ही रॉटजन इन किरणों को चिकित्सा में टूटी हडिडयों पर, क्षय रोग में अन्यान्य शल्य-सम्बन्धी निदानों में प्रयुक्त होता देख चुका था। आगे चलकर भौतिकी में इनका प्रयोग तरह तरह के स्फटिकों की आन्तर रचना ज्ञात करने में भी किया गया। शिल्प उद्योग में धात्वंशों आन्तर अभिज्ञान के लिए इनका उपयोग आजकल किया जाता है, क्योंकि युद्ध में भी, शान्ति में भी, यह ज्ञान नितांत अपेक्षित होता है।
और जब आपका दांतों का डाक्टर आपके मुंह में एक कागज़ में लिपटी फिल्म सी डालता है और उधर से एक्स-रे मशीन चला देता है। आपको रॉटजन का ऋण स्वीकार करना चाहिए कि वह ये अद्भुत किरणें आविष्कृत कर गया, जैसे उसी की आत्मा शायद स्वयं उपस्थित होकर आपको एक नामुराद दर्द से बचा रही है।
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