विजयनगर यह स्थानकर्नाटक में हम्पी के निकट तुभभद्रा नदी के दक्षिणी किनारे पर है। इसकी स्थापना मुहम्मद तुगलक के काल में 1336 ई० में संगम के पुत्रों हरिहर और बुक्काराय ने अपने गुरु विद्यारण्य की सहायता से की थी। हरिहर प्रथम ने 1343 ई० में इसे अपनी राजधानी बनाया। उन दिनों इसे हस्तिनावती कहा जाता था।
विजयनगर साम्राज्य की स्थापना
सन् 1325 में मुहम्मद-बिन-तुगलक के चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शप ने कर्नाटक में सागर नामक स्थान पर विद्रोह कर दिया।
जब तुगलक उसका दमन करने के लिए सागर आया, तो उसने कर्नाटक में कंपिली के राजा के यहाँ शरण ले ली। तुगलक ने कंपिली के राजा को हराकर कंपिली को भी दिल्ली सल्तनत में मिला लिया तथा उस राज्य के दो प्रमुख अधिकारियों हरिहर और बुक्काराय को बंदी बनाकर दिल्ली ले गया। बाद में आंध्र के तटवर्ती प्रदेश, बीदर, गुलबर्ग, मदुरा और पुनः कंपिली में भी विद्रोह हुए। साथ ही देवगिरि भी स्वतंत्र होने का प्रयास कर रही थी।
तुगलक ने हरिहर और बुक्काराय को मुक्त करके उन्हें दक्षिण के विद्रोहों को शांत करने के लिए अनीगुंडी के प्रमुख अधिपति बनाकर भेजा। उन्होंने कंपिली के विद्रोह का दमन किया। परंतु इसी दौरान वे संत विद्यारण्य के संपर्क में आए और उन्होंने उनकी प्रेरणा से विजयनगर में अपने पिता के नाम पर संगम वंश की नींव डाली।
विजयनगर साम्राज्य का शासन
हरिहर यहाँ संगम वंश का पहला शासक था। उसने 1336 से 1356 तक राज्य किया, परंतु उसने आपको सम्राट घोषित नहीं कियाउसके बाद बुक्काराय ने 1377 तक राज्य किया। उसने मदुरा की सल्तनत को जीतकर विजयनगर साम्राज्य में मिला लिया। उसके बाद हरिहर द्वितीय (1347-1404), विरुपाक्ष (1404-05), देवराय प्रथम (1405-22) उत्तराधिकारी हुए।
देवराय प्रथम ने अपने काल में बहमनी शासकों के साथ-साथ आंतरिक विद्रोहों को भी सफलतापूर्वक दबाया। उसने तुंगभद्रा नदी पर बाँध बनाकर नहरें निकालीं। उसके बाद बीर विजय, रामचंद और देवराय द्वितीय शासक हुए। एक बार बीदर के शासक शियाबुद्दीन अहमद शाह (1422-35) ने विजयनगर का घेरा डाल लिया था, परंतु युद्ध की क्षतिपूर्ति मिलने के बाद उसने घेरा उठा लिया।
देवराय द्वितीय ने आंध्र के कोंडविदु को हराकर अपने साम्राज्य की नींव कृष्णा नदी तक बढ़ा ली और वेलम के शासक को अपनी प्रभुसत्ता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। उसके काल में केरल सहित अधिकांश दक्षिणी भारत विजयनगर साम्राज्य में शामिल कर लिया गया था।
फारस के राजदूत अब्दुर रजाक विजयनगर में 1442 में आए थे। उसने लिखा है कि उस समय यह शहर सात दीवारों से घिरा हुआ था। 1446 में मल्लिकार्जुन गद्दी पर बैठा, परंतु उसके काल में विजयनगर साम्राज्य का पतन होना आरंभ हो गया। उसके उत्तर-पूर्वी इलाकों पर उड़ीसा के गजपति राजा कपिलेश्वर ने अधिकार कर लिया। 1454 तक गजपति सेनाएँ कर्नाटक में रामेश्वर तक पहुँच गईं। 1465 में मल्लिकार्जुन की मृत्यु के बाद विरुपाक्ष द्वितीय राजा बना। उसके काल में कपिलेश्वर ने उसके अनेक तटवर्ती क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया।
विजयनगर साम्राज्य का इतिहासचंद्रगिरि में उसके राज्यपाल सालुंब नरसिंह ने गजपति नरेश का वीरता से सामना किया। बहमनी सुल्तान मुहम्मद अष्टम ने नेल्लोर और काँची तक आक्रमण किए। 1485 में उसके बड़े बेटे ने उसकी हत्या कर दी। उसके बाद प्रौढ़ देवराय ने कुछ समय तक शासन संभाला, परंतु सालुंब नरसिंह ने नायक राजाओं से मिलकर उसके शासन को समाप्त करने की योजना बना ली। सालुंब नरसिंह के सेनानायक नरसा नायक ने राजमहल पर अधिकार करके उसकी गददी पर बैठने में सहायता की, यहीं से विजयनगर में संगम वंश के शासन का अंत और सालुंब वंश के शासन का आरंभ हो गया।
सालुंब नरसिंह ने अपने सामंतों और विद्रोही नायकों का दमन किया। उसके काल में पुरुषोत्तम गजपति ने विजयनगर और उदयगिरि पर अधिकार करके उसे बंदी बना लिया। बाद में उसने उदयगिरि पर अधिकार रखकर उसे छोड़ दिया। सालुंब नरसिंह ने कर्नाटक के तुलु क्षेत्र पर अधिकार किया। 1490 में उसकी मृत्यु हो गई, जिसके बाद उसका अल्पवयस्क बेटा इम्माड़ि नरसिंह नरसा नायक के संरक्षण में राजा बना।
नरसा नायक ने साम्राज्य की सारी सत्ता अपने हाथ में ले ली,जिस कारण इम्माड़ि के वयस्क होने के बाद दोनों में विवाद हुआ। नरसा नायक ने उसे पेनुकोंडा के किले में नजरबंद करके बीजापुर, बीदर और मदुरा वापस लेने के अभियान छेड़े। उसने कासिम बरीद से मिलकर रायचूर दोआब के अनेक किलों पर कब्जा कर लिया। उसने बीजापुर के आदिलखाँ को हराकर कछ समय तक उसे बंदी बनाए रखा। नरसा नायक ने चोल, पांड्य और चेर राजाओं पर आक्रमण करके उनसे अपनी प्रभुसत्ता स्वीकार करवाई। उसने
गजपति नरेश प्रताप रूद्र के दक्षिण में साम्राज्य विस्तार के प्रयासों को भी असफल किया। सन् 1505 ई० में नरसा नायक के पुत्र वीर नरसिंह ने इम्माड़ि नरसिंह की हत्या करके विजयनगर में तुलुव वंश के शासन की स्थापना की।
वीर नरसिंह ने 1509 ई० तक शासन किया, परंतु उसके काल में उस पर आंतरिक विद्रोहों और बाहरी आक्रमणों दोनों का दबाव बना रहा। उसके बाद उसके छोटे भाई कृष्णदेव राय ने गद्दी संभाली। कृष्णा देव राय विजयनगर साम्राज्य का महानतम शासक था। उसने 1509-10 ई० में बीदर के सुल्तान महमूद शाह के आक्रमण को निष्फल करके उसे पराजित किया और उसका कोविलकोंडा तक पीछा किया। युद्ध में बीजापुर का सुल्तान यूसुफ मारा गया।
यूसुफ का उत्तराधिकारी इस्माइल नाबालिग होने के कारण बीजापुर मे अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। इस स्थिति का लाभ उठाकर कृष्णदेव राय ने 1512 में रायचूर पर अधिकार कर लिया। उसने गुलबर्गा को भी जीता और बीदर पर आक्रमण
करके बहमनी सुल्तान महमूद शाह को बरीद के चंगुल से मुक्त कराकर उसे दुबारा शासनारूढ़ किया और “यवनराज्य स्थापनाचार्य”“ विरुद धारण किया। उसने उम्मतूर के सामंत गंग राजा को हराकर श्रीरंगम् और शिवसुदरम् पर अधिकार कर लिया।
सन् 1513 से 1518 के बीच उसने उड़ीसा के गजपति नरेश
प्रताप रूद्र से चार युद्ध किए और उसे चारों बार हराया। इन युद्धों के फलस्वरूप कृष्णदेव की सेना उनकी राजधानी कटक तक जा पहुँची। अंत में गजपति नरेश ने अपनी पुत्री का विवाह कृष्णदेव राय से करके उससे संधि कर ली। कृष्णदेव राय ने कृष्णा के उत्तर के विजित प्रदेश उसे वापस कर दिए। जब कृष्णदेव राय उड़ीसा में व्यस्त था, उस समय गोलकुंडा के सुल्तान कुली कुतुब शाह ने उसके पांगल और गुंदूर के किलों के साथ-साथ कोंडविदु के किले पर भी अधिकार कर लिया। बाद में कृष्णदेव राय के सेनापति सालुंब तिम्म ने कुतुबशाही सेना को हराकर इन किलों पर पुनः अधिकार किया। इसी दौरान बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिल ने रायचूर के किले पर अधिकार कर लिया।
कृष्णदेव राय ने उसे अनेक जगह हराया और वह बीजापुर तक जा पहुँचा। उसने बीजापुर को क्षतिग्रस्त किया। वापसी में उसने गुलबर्गा पर आक्रमण करके वहाँ के किले मैं कैद तीन बहमनी शहजादों को मुक्त कराया। इस प्रकार 1520 तक उसने विजयनगर के सारे शत्रुओं को परास्त करके विजयनगर को पुनः एक शक्तिशाली साम्राज्य का रूप दे दिया। कालिकट और गोआ पर पुर्तगालियों का कब्जा हो जाने के कारण उसने अपने व्यापारिक हितों को ध्यान में रखते हुए उनके साथ उदार रुख अपनाया।
सन् 1529 में कृष्णदेव राय की मृत्यु हो गई। इटली के एक लेखक निकोली कोंति कृष्णदेव राय के काल में विजयनगर आए थे। उसने लिखा है कि उस समय विजयनगर संसार का सबसे बड़ा शहर था। यह एक किलेबंद शहर था तथा यहाँ बाग और फलोद्यान काफी संख्या में थे। कोंति ने लिखा है कि कृष्णदेव राय सेना तथा क्षेत्र दोनों दृष्टियों से सबसे शक्तिशाली राजा था।कृष्णदेव राय की मृत्यु के समय उसका पुत्र सदाशिव केवल 18 महीने का था। इसलिए कृष्णदेव राय ने अपने जीवन काल में ही अपने चचेरे भाई अच्युत को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था, परंतु उसके दामाद रामराय (राम राजा) ने सदाशिव का पक्ष लिया। दूसरी ओर अच्युत के साले सलकराज तिरुमल और चिन तिरुमल अच्युत का पक्ष ले रहे थे। इस स्थिति से निपटने के लिए अच्युत ने रामराय को शासन में सहभागी बना दिया। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर कटक के प्रताप रूद्र ने विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। अच्युत ने उसके आक्रमण को विफल किया।
बीजापुर के इस्माइल आदिल ने भी उस पर आक्रमण किया और रायचूर तथा मुद्गल के किलों पर अधिकार कर लिया। 1530 ई० में गोलकुंडा के सुल्तान ने कोंडविदु पर आक्रमण किया, परंतु पराजित हुआ। 1534 ई० में अच्युत ने बीजापुर की अव्यवस्था का लाभ उठाकर उससे रायचूर और मुद्गल वापस ले लिए। जब अच्युत इन विजयों के लिए राजधानी से अनुपस्थित था, तब रामराय ने शासन पर कब्जा कर लिया और उसके लौटने पर उसे बंदी बना लिया और विरोधों से बचने के लिए उसने सदाशिव को नाममात्र के लिए गददी पर बैठा दिया, परंतु जब रामराय सुदूर दक्षिण में विद्रोह का दमन करने के लिए गया हुआ था, तो अच्युत ने अपने साले तिरुमल की सहायता से शासन पर अधिकार कर लिया। जब रामराय विजयनगर लौटा, तो उसी समय बीजापुर के इब्राहिम आदिल ने विजयनगर को घेर लिया। इब्राहिम उन दोनों में समझौता कराकर लौट गया।
अब मदुरा, जिंजी और तंजौर स्वतंत्र हो गए तथा पुर्तगालियों ने टुटिकोरिन के मोती उत्पादक क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। 1542 में अच्युत का निधन हो गया। अच्युत के निधन के बाद सलकराज तिरुमल ने उसके अवयस्क पुत्र वेंकट प्रथम को गद्दी पर बैठाकर सत्ता अपने हाथ में ले ली। राजमाता वरदेवी अपने पुत्र वेंकट को अपने भाई तिरुमल के चंगुल से छुड़ाना चाहती थी। उसने इब्राहिम आदिल से सहायता माँगी। उसी दौरान रामराय भी इब्राहिम से जा मिला और उसकी सहायता से सलकराज तिरुमल को हराकर सदाशिव को गद्दी पर बैठा दिया। अब सत्ता रामराय के हाथ में आ गई। रामराय ने सदाशिव के गद्दी पर बैठने के पहले वर्ष (1542) में ही त्रावणकोर के शासक को दंडित करने और पुर्तगालियों के सत्ता विस्तार तथा उनके द्वारा हिंदू मंदिरों की लूट को रोकने के लिए सेना भेजी। उसने साम्राज्य के आंतरिक विद्रोहों का भी दमन किया।
विजयनगर साम्राज्य का पतन
1546 ई० में उसने पुर्तगालियों के साथ व्यापारिक समझौता करने के बावजूद उनकी धर्म-परिवर्तन और साम्राज्यवाद
नीतियों को सफल नहीं होने दिया। बीजापुर के इब्राहिम आदिल ने उसके अदोनी के किले पर आक्रमण करके उसे एक समझौते के लिए विवश किया। 1542-43 ई० में इब्राहिम ने अहमद नगर के बुरहान निजामशाह के साथ मिलकर विजयनगर साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया और उसके कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। रामराय ने बुरहान निजामशाह को अपनी ओर मिलाकर आदिलशाह को लगातार तीन युद्धों में पराजित किया।
सन् 1552 ई० तक उसने रायचूर और मुद्गल दोनों पर अधिकार कर लिया। 1558 में बुरहान निजामशाह के पुत्र हुरीन निजामशाह ने गोलकुंडा के सुल्तान इब्राहिम कुतुबशाह के साथ मिलकर बीजापुर पर आक्रमण कर दिया था। बीजापुर के अनुरोध पर रामराय ने उसकी सहायता की और 1559 ई० में अहमदनगर को एक अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया। 1560 ई० तक विजयनगर दक्षिण भारत का एक शक्तिशाली साम्राज्य बन गया था। विजयनगर की बढ़ती हुई शक्ति से दक्षिण भारत की मुस्लिम सल्तनतों को खतरा पैदा हो गया। रामराय से निपटने के लिए अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा और बीदर की सल्तनतों ने अपने भेद-भाव भुलाकर अलग साम्राज्य का अंत करने की योजना बनाई। योजनानुसार अली आदिलशाह ने रामराय से रायचूर, मुदूगल और अन्य दुर्ग वापस माँगे, जिन्हें देने से रामराय ने इंकार कर दिया।
25 जनवरी, 1565 ई० को दक्षिण की इन चारों सल्तनतों और रामराय के मध्य तलिकोटा के पास रक्षसी-तंगड़ी में युद्ध हुआ हालाँकि आरंभ में रामराय ने उन्हें पराजित कर दिया था, परंतु बाद में विजयनगर की सेना मुस्लिम तोपखाने का सामना नहीं कर सकी। इसी दौरान रामराय के मुस्लिम सैनिक भी इन सल्तनतों की सेनाओं से जा मिले। रामराय की हार हुई और उसका वध कर दिया गया। मुस्लिम सेनाओं ने विजयनगर को लूटकर उसे नष्ट- भ्रष्ठ कर दिया। युद्ध में रामराय का भाई वेंकटाद्रि भी मारा गया। यूँ इस युद्ध के बाद विजयनगर साम्राज्य लगभग 100 वर्षों तक और चलता रहा, परंतु अब उसकी संपन्नता और शक्ति नष्ट हो गई थी। तिरुमल ने सदाशिव के संरक्षक के रूप में पेनुकोंडा से
शासन करना आरंभ किया और बाद में उसने विजयनगर के चौथे राजवंश अंडविदु की नींव डाली। तिरुमल ने पेनुकोंडा को अपनी राजधानी बनाया। बाबर के आक्रमण के दौरान विजयनगर अपनी राजनीतिक, आर्थिक और सांस्थ प्रसिद्धि के शिखर पर था।
विजय नगर साम्राज्य का व्यापारिक महत्त्व
अपनी ख्याति के समय में विजयनगर साम्राज्य का व्यापारिक एवं वाणिज्यिक महत्त्व बहुत अधिक था। इसी महत्त्व को ध्यान में रखते हुए सदाशिव राव तथा पुर्तगालियों ने यहाँ 1547 ई० में एक संधि की, जिसकी शर्तों के अनुसार यह तय हुआ कि विजयनगर से निर्यात की जाने वाली सभी वस्तुएँ होनावर तथा बसरून भेजी जाएँगी तथा पुर्तगाली भी अपना तांबा, पारा, चीनी, रेशमी कपड़े, मूँगे तथा सिंदूर केवल विजयनगर साम्राज्य को ही बेचेंगे।
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