हाजी वारिस अली शाह 1819 से 1905 की अवधि के एक मुस्लिम सूफी संत रहे है। वारिस अली शाह का जन्म 1819 देवा शरीफ, बारांबंकी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। सात साल की उम्र मे वारिस पाक कुरान हिफ्ज़ (कंठस्थ) कर लेते है। सिर्फ चौदह साल की उम्र में आपकी दस्तारबंदी और हिदायत जारी हो जाती है। पन्द्रह साल की उम्र मे दरबारे ख्वाजा में हाजिर हुए तो जुता पहनना छोड़ दिया। पहले हज के लिए जो ऐहराम बांधा तो हमेशा के लिए दुनयावी लिबास छोड़ दिया। हज बैतुल्लाह के तवाफ की इतनी दिवानगी थी कि अपनी जिंदगी में उन्होंने 17 बार हज किया। बिना साजो समान के पैदल ही हज के लिए रवाना हो जाया करते थे। फिर कई कई साल तक वतन वापिस नहीं आया करते थे। वारिस पाक की नूरानी शख्सियत की वो तासीर थी कि जो भी आपको देखता खिचा चला आता था। मुकद्दस जिस्म में बरकतों की लहरें दौड़ा करती थी। आंखों में नूरे इलाही की बिजलियाँ चमका करती थी। आपकी खुदानुमा सूरत को जिसने एक बार देखा वो आपका मुरीद हो गया। आप करूणा, दया, प्रेम, त्याग, ज्ञान, का समंदर थे। अपने इस लेख में हम इसी महान हस्ती हजरत हाफिज हाजी वारिस अली शाह की जीवनी, वारिस अली शाह बायोग्राफी, वारिस अली शाह का जीवन परिचय के बारें में विस्तार से जानेंगे।
हाजी वारिस अली शाह बायोग्राफी इन हिन्दी – वारिस अली शाह का जीवन परिचय
वारिस अली शाह का खानदानी सिलसिला
हाजी वारिस अली शाह की वालिदा (माता) माजिदा आपके दादा जान के हकीकी भाई सैय्यद शेर अली की की साहबजादी थी। आपके वालिद (पिता) सैय्यद कुरबान अली शाह का निकाह उनके चाचा सैय्यद शेर अली शाह की साहबजादी से हुआ था। इस तरह आप सैय्यद सलामत अली के पोते और सैय्यद शेर अली के नवाशे है। आपका खानदानी सिलसिला 29 वास्तो से हजरत मुहम्मद मुस्तफा (स०) से जाकर मिलता है जो इस प्रकार है:—-
• हजरत हाजी सैय्यद वारिस अली शाह
• बिन सैय्यद कुरबान अली शाह
• बिन सैय्यद सलामत अली शाह
• बिन सैय्यद करीमुउल्लाह
• बिन मीर सैय्यदना अहमद
• बिन सैय्यद अब्दुल्ला अहद
• बिन सैय्यद उमर नूर
• बिन सैय्यद जैनुल्लाब्दीन
• बिन सैय्यद उमर शाह
• बिन सैय्यद अब्दाल वाहिद
• बिन सैय्यद अब्दुल्ला शाह
• बिन सैय्यद आलाउद्दीन आला बुजुर्ग
• बिन सैय्यद अजीजुद्दीन
• बिन सैय्यद असरफ अबू तालिब
• बिन सैय्यद मौहम्मद मैहरूक
• बिन सैय्यद अब्दुल कासिम़
• बिन सैय्यद अली असकरी
• बिन सैय्यद अबू मौहम्मद
• बिन सैय्यद मुहम्मद जफर
• बिन सैय्यद मेहंदी
• बिन सैय्यद अली रज़ा
• बिन सैय्यद कासिम़ हमज़ा (रह°)
• बिन सैय्यद हजरत इमाम मूशा काजिम
• इबने सैय्यद हजरत जफर सादिक
• बिन सैय्यद हजरत इमाम मुहम्मद बाकी
• बिन सैय्यद हजरत इमाम जैनुल्लाब्दीन
• बिन सैय्यद अल सहेदा हजरत इमाम हुसैन
• बिन शेरे खुदा अली उल मुरतजा
• जोजे सैय्यदतुल निशा हजरते फातमा बिंते (रसूल)
• बिन हजरत सरवरे कायनात मुहम्मद मुस्तफा (स°)
वारिस पाक के खानदानी हालात
वारिस अली शाह के खानदानी बगदाद (इरान) के थहने वाले थे। सन् 1258 ई. मे हलाकू खान ने बगदाद पर आक्रमण किया और खलीफा की इस्लामी हकूमत को हरा दिया, और वहां खूब लूटमार और अत्याचार करने लगा। इस्लाम के मुहाफिज अपनी इज्ज़त व आबरू बचाने की खातिर अपने अजीज वतन को छोड़कर दूर दराज सुरक्षित स्थानों पर कूच करने लगे।
उसी दहशतगर्दी के दौर में हजरत मौलाना सैय्यद अशरफ अबू तालिब जो इस्लाम के मुहाफिज तथा वारिस पाक सिलसिले के 13वी पिढ़ी से थे। अपने बाल बच्चों के साथ बगदाद से हिन्दुस्तान आये और जिला बाराबंकी उत्तर प्रदेश के कस्बे रसूलपुर में बस गये। चार सदी बाद वारिस पाक के खानदान के सैय्यद अब्दुल्ला अहद रसूलपुर से देवा शरीफ चले आये और अपने सारे खानदान सहित यही बस गये।
इस छोटे से कस्बे में अब्दुल्ला अहद के आने से लोग बहुत खुश थे। क्योंकि आपके यहाँ आने से कुरान और हदीस का दौर जारी हो गया था। 1728 में अब्दुल्ला अहद के एक पुत्र हुआ जिसका नाम मीर सैय्दना अहमद रखा गया। उन्होंने आगे चलकर फकीरी और दरवेशी की बडी शौहरत हासिल की। उनके साहबजादे सैय्यद करीमुउल्लाह थे। करीमुउल्लाह के फरजंद हुए सैय्यद सलामत अली और उनके फरजंद कुरबान अली शाह। कुरबान अली शाह के फरजंद वारिस अली शाह थे।
वारिस अली शाह का जन्म
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वारिस पाक के जन्म से एक मुद्दत पहले बनिया शरीफ में अपने समय के कुतब हजरत शाह अब्दुल रजाक बानसूई देवा शरीफ की तरफ मुंह करके दुआएं मांगा करते थे। अगर कोई कारण पूछता तो बताते कि इधर से विलायत का आफताब निकलेगा जिसकी रोशनी से दुनिया जगमगा उठेगी। यह आफताब हम में से ही होगा मगर उसके निकले में अभी बहुत समय है। इस वाक्य के एक अरसे के बाद अपने समय के बडे साहिबे कमाल बुजुर्ग हजरत मीर सैय्यद अहमद 1728 में अपने साथियों के साथ देवा शरीफ आये। वे एक तालाब के किनारे बैठे हुए थे। उधर से एक फकीर का गुजर हुआ। उसने खुश खबरी सुनाई मीर सैय्यद तुम्हारी पांचवीं पुस्त में ऐसा आफताबे विलायत होगा जिसकी रोशनी से जमीन व आसमान रोशन हो जायेंगे। इन कुछ वाकयात के बाद 1819 मेंलखनऊ मे शाह फतह अली नाम के एक दरवेश ने अपने एक मुरीद से कहा — खुदाबख्श ! देवा शरीफ में इस वक्त एक बच्चा पैदा हुआ है जो वली है। जब ये बड़ा होगा तो इसकी शौहरत पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक फैल जायेगी
रमजानुल मुबारक के महीने का पहला रोजा था। सन् 1819 में देवा शरीफ में कुरबान अली शाह के यहाँ एक बच्चे का जन्म हुआ। जिसके आने की सूचना पहले ही कई सुफी दरवेश दे चुके थे। बच्चे का नाम वारिस अली रखा गया। हुसैनी बाग का यह हसीन फूल रमजानुल मुबारक के पहले रोजे को खिला था। इसलिए सारे रमजानुल मुबारक कभी इस बच्चे ने रोजे की अवधि में दूध नहीं पिया। और न ही भूख से बेताब होकर रोना चिल्लाना किया। निहायत सब्र व सकुन से शहरी के समय से लेकर इफ्तार के समय के समय तक बगैर दूध के रहा। रमजान का मुबारक महीना बिता और ईद आयी। इसके बाद बच्चे ने दिन में दूध पिना शुरू कर दिया। मगर फिर भी आम बच्चों की तरह घबराते हुए जल्दी जल्दी नहीं बल्कि निहायत ही सब्र और सकुन के साथ और आम बच्चों की खुराक की अपेक्षा बहुत कम। इसके अलावा ना कभी बेवजू मां का दूध पिया ना कभी मुकर्रर वक्त के अलावा दूध पिया। नींद पहले तो आती ही बहुत कम थी, इस पर भी कभी भी गफलत की नींद नहीं सोते देखा गया। और जब जागता तो हंसता खेलता हुआ उठता आम बच्चों की तरह कभी रोता हुआ नहीं देखा गया बल्कि अक्सर खामोश खामोश पाया गया जैसे किसी गहरे ख्याल में गुम हो।
माता पिता की मत्यु
वारिस पाक की उम्र सिर्फ दो साल थी कि उनके वालिद कुरबान अली शाह की मृत्यु हो गई। इतनी छोटी सी उम्र में वह अनाथ हो गये। मां ने अपने जिगर के टुकडे को सिने से लगा अपने विधवा जीवन का सहारा बनाया। बच्चा दिन भर हंसता खेलता रहता, रात को चांद तारों में कुदरत के करिश्मे देखकर मुस्कुरा देता, मां बच्चे को गोद में उठा लेती और प्यार से अपने ममता के आंचल में छुपा लेती। आखिर बच्चे को मां का यह प्यार भी ज्यादा समय तक न मिल सका जब वारिस की उम्र तीन साल की थी तो उनकी वालिदा (माता) का भी इंतकाल (स्वर्गवास) हो गया। इस तरह वारिस के मां बाप का साया बचपन में ही उठ गया था।
वारिस पाक का बचपन
मां की मृत्यु के बाद दादी ने बच्चे को अपने सीने से लगाया और बड़े प्यार से परवरिश करने लगी। जब वारिस पाक की उम्र पांच साल की हुई तो बड़े प्यार से उनको बिस्मिल्लाह शरीफ पढ़ाई, और बच्चे को पढ़ाने के लिए बकायदा मौलवी साहब घर पर आने लगे। बचपन में सभी प्यार से उन्हें मिठन मियां कहते थे। जब मौलवी साहब घर पर पढ़ाने आते तो मिठन मियां खाने पिने की चीजें देकर उस्ताद (मौलवी) साहब को खेल में लगा लेते। उस्ताद साहब भी बच्चे के साथ बच्चा बन जाते। जब मौलवी साहब चले जाते तो मिठन मियां बाहर आते और अपने हम उम्र दोस्तों को खेल ही खेल में मौहब्बतें इलाही का सबक देते। (यानि मौलवी साहब को खेल में लगाना और खेलते हुए बच्चों को पढ़ाना उनका हिस्सा था) अक्सर दादी के संदूक में से रूपये निकाल लाते। और उनकी नसीहत सुनने वाले बच्चों को खिलाते और बची हुई रकम गरीबों फकीरों में बांट देते। अक्सर काफी देर घर से गायब हो जाते तो घरवालों को फिकर हो जाती लेकिन खुद ही वापस आ जाते थे। एक दिन तंग आकर दादी ने मिठन मियां को कोठरी में बंद कर दिया। लेकिन कुछ ही देर बाद मिठन मियां बंद कोठरी से गायब हो गये, जब तलाश की गई तो एक बाग में खेलते हुए मिले। कभी कभी मिठन मियां की आंखें इस कदर लाल हो जाती थी कि आंसू निकल आते, जिससे ऐसा लगता कि आंखें दुखने आ गई है। लेकिन फिर कुछ ही देर बाद खुद ठीक नजर आने लगती लोग हैरत में पड़ जाते थे।
वारिस पाक की शिक्षा
घर पर शुरूआती तालीम के बाद आगे की तालीम हासिल करने के लिए दादी ने मिठन मियां को अपने पीर मुरशिद हजरत अमीर अली शाह साहब के पास भेजा। उस्ताद ने अपने होनहार शागिर्द को देखा तो फरमाया — ये शहजादे तो खल्क-ए-खुदा रहनुमा हो गये और तमाम आलम में इनका डंका बजेगा। हांलाकि वारिस पाक मकतब मे जाने लगे मगर आम बच्चों की तरह आप कुरान-ए-करीम को बगल में ना दबाते बल्कि अपने सर पर रख कर ले जाते और फिर इसी तरह मकतब से मकान तक निहायत ही अदब व एहतराम से कुरान-ए-मजीद को सर पर रखे हुए वापिस आते। घर वापिस आते ही अंधेरे और तन्हाई में बैठ कर किसी गहरे ख्याल में डूब जाते। फिर भी वारिस अली शाह ने सिर्फ दो साल के अंदर कुरान शरीफ हिफ्ज़ (कंठस्थ) कर लिया, और कुछ अन्य महत्वपूर्ण किताबे भी पढ़ ली। इसी के साथ वारिस पाक हाफिज वारिस अली शाह बन गए।
इसके बाद की तालीम (शिक्षा) के लिए मिठन मियां को मौलाना इमाम अली साहब की खिदमत में भेजा गया। मगर खुद मौलाना साहब का ये आलम था कि अपने इस शिष्य को आता देखते तो अदब से सर झुकाकर खड़े हो जाते। मिठन मियां रूकते तो फरमाते साहबजादे में तो किताबी इल्म का उस्ताद हूँ, तुम तो खल्के खुदा को बातनी इल्म से मालामाल करोगें। अभी मिठन मियां की उम्र 7-8 साल की होगी कि उनको अपनी दादी के प्यार से भी मरहूम होना पड़ा उनकी दादी का इंतकाल हो गया। दादी के स्वर्गवास के बाद दुनिया में बड़ी बहन के अलावा और कोई चाहने वाला नहीं रह गया था। जिनके शौहर खादिम अली शाह अपने समय के कामिल बुजुर्ग थे। जो लखनऊ में रहते थे। इसलिए वह मिठन मियां को देवा शरीफ से लखनऊ ले आये और आगे की तालीम के लिए फिरंगी महल में दाखिला करा दिया।
यहां से आप से हैरतअंगेज करामातें होने लगी, जिसके फलस्वरूप खुद उस्ताद आपका अदब करते थे। एक दिन उस्ताद ने खादिम अली शाह से कहा — आपने एक शेर को मेरे सुपुर्द कर दिया है। उन साहबजादे के करिश्मे हैरतअंगेज है। इस लड़कपन में जो करामातें मिठन मियां में दिखाई देती है। वो किसी कामिल बुजुर्गों में भी देखने को नहीं मिलतीहै। पढ़ाई का यह आलम है कि साहबजादे पढ़े पढ़ायें पैदा हुए है। मेरी राय है कि ज्यादा तालीम की इन्हें जरूरत नहीं है।
लेकिन हजरत खादिम अली शाह फिर भी उन्हें बराबर पढ़ाते रहे और खुद भी देखभाल करते रहे। इस तरह वारिस पाक ने तफसिरा हदीस की तालीम हासिल कर ली। लेकिन तालीमी तरक्की के साथ साथ जोश-ए-इश्क-ए-इलाही में भी दिन ब दिन इजाफा होता गया। नौबत यहां तक आ पहुंची कि हर समय खुदा के इश्क में खोये खोये रहने लगे। अक्सर वीरानों में जाते और यादे इलाही में खो जाते। आखिर कोई तलाश करता हुआ उन तक पहुंच जाता तो चौंक जाते, जैसे कोई बच्चा नींद से जाग उठा हो। और फिर बेकरारी इस कदर बढ़ जाती कि दीवानों सी हालत हो जाती।
जब आपकी बहन ने यह हाल सुना तो बेकरार हो गई और अपने शौहर खादिम अली शाह से बोली– अब तो यह सुन सुनकर मेरा कलेजा फटने लगा है कि मिठन मियां की दिमागी हालत ठीक नहीं है। सारा दिन जंगल में कहीं गुम बैठे रहते है। अगर वाकई उनके होशोहवास ठीक नहीं है तो आप उनके लिए दुआ फरमाएं। ये सुनकर खादिम अली शाह ने कहा — तुम इस किस्म की बातों का कुछ ख्याल न करो। जो लोग मिठन मियां को पागल समझते हैं, वो खुद पागल है। ये शहजादे पैदाइशी वली है। और दुनिया के हंगामें और शोरशराबे से भागकर हक की तलाश में रहते है। बहुत जल्दी ऐसा समय आने वाला है। जब बड़े बड़े होशियार उनकी दीवानगी का भरम भरेंगे। सबसे हेरत की बात तो यह है कि आपके तमाम आमाल मुहम्मद रसूल अल्लाह (स°) की सुन्नत के मुताबिक शुरू हुआ करते थे।
हाजी वारिस अली शाहबेअत
खादिम अली शाह ने जब मिठन मियां की तबीयत में इश्के इलाही का जब ज्यादा जोश खरोश देखा तो आप को बकायदा बेअत करके सिलसिला कादरिया चिश्तिया में दाखिल फरमा लिया। अभी आपकी उम्र सिर्फ ग्यारह साल की हुई थी कि पीरे रोशन जमीर ने अपने कमसिन मुरीद के आला रूहानी मुकामात देखकर आपको खल्के खिलाफत से नवाज दिया। इस पर कई उम्रदराज मुरीदों ने खिलाफत भी कि मगर वो उन्हें नहीं जानते थे कि वारिस अली शाह मुरीद नहीं बल्कि अपने पीर की मुराद है।
खादिम अली शाह अब बिमार रहने लगे थे। उम्र भी सत्तर साल के करीब पहुंच चुकी थी। उम्र के इस आखिरी हिस्से में मुरशिद कामिल ने अपने मुरीद पर इस कद्र वारिसे लफ्जे करम फरमाया कि गुलशने विलायत में बहार आ गई। वारिस पाक की उम्र अब तेरह साल की हो चुकी थी। इस उम्र में पीर मुरशिद का नाम भी अब खत्म हो चुका था। खादिम अली शाह को खुदा ने अपने पास बुला लिया। उनके स्वर्गवास के मौके पर अवध के नवाब की ओर से सात तोपों की सलामी दी गई थी।
दस्तारबंदी
तीसरे रोज सोयम की फातह के बाद अवध के दरोगा मौलवी मुनजाना साहब ने चांदी के थाल में सुनहरी दस्तार रख कर इस महफिल के सामने पेश की। और अर्ज किया की जो शख्स खादिम अली शाह की जानिब खास और इस दस्तार का हकदार हो उसे ये अमानत सौंप दी जाएं। ताकि पैरवी सब पर लाजिम हो जाये। अतः मजमे के तमाम कुतब अब्दाल के मशविरे से यह दस्तारे मुबारक वारिस अली शाह के सर पर पहुंचा दी गई। इस मुबारक मौके पर अवध के नवाब की तरफ से सात तोपों की सलामी दी गई। इस वक्त आपकी उम्र सिर्फ चौदह साल की थी कि सिलसिला बेअत भी जारी हो गया। दस्तारबंदी के बाद जब मकान में कव्वालियाँ होने लगी तो वारिस पाक महफिल से उठकर चलें आये। अभी थोडी देर पहले जो चीजें मिली थी वो बाहर जाकर तकसीम कर दी। बचपन के एक हमजोली ने कहा — ऐसे में तो कबाब खाने को जी चाह रहा है। आप ने सुना तो तुरंत मौला बख्श से कबाब लेकर दोस्त को दे दिये। कबाबची ने कीमत मांगी तो बदले में दस्तार सर से उतार कर कबाबची के हवाले कर दी। और यह सबक देकर चलते बने कि दोनों बोझ उतर गये। दरासल आप रस्मी शानोशौकत के कायल ही न थे, तभी तो फरमाया करते थे, कि “पगड़ी वगड़ी झगड़ा है, हम नहीं जानते” ! सच है इश्क तमाम रस्मी बंधनों से आजाद होता है।
हज का सफर
हजरत हाफिज वारिस अली शाह की उम्र 14 साल हो चुकी थी। बहनोई की मृत्यु को भी एक महीना गुजर चुका था। अब वतन में उनका दिल नहीं लग रहा रहा था। आप हज को जाने की सोच ही रहे थे कि पीरे मुरशिद ने ख्वाब में हिदायत की कि “तुम सफर इख्तियार करो”!
तत्पश्चात आप ने घर का सारा सामान गरीबों में बांट दिया। जमीन जायदाद रिश्तेदारों में बांट दी। इसके बाद मालिकाना हक के सारे कागजात तालाब में फेंक दिये। इस तरह दुनिया की तमाम झंझटों से छुटकारा पाकर सफर-ए-हज पर तन्हा पैदल रवाना हो गए।
कानपुर होते हुए इटावा में तशरीफ़ लाये और पठानों के मुहल्ले कटरा सहाब में कयाम फरमाया। जहाँ आप ठहरे थे वहां आज अजीमोशान आशताना ए वारसियां बना हुआ है। यहां हर साल बडे पैमाने पर उर्स लगता है। इटावा के कयाम के दौरान आपने एक आशिक मिजाज शायर को अपना मुरीश बनाया जिसका नाम हजरत बेदम शाह वारसी है। इटावा में अपनी रहमत की बारिश बरसाकर वारिस पाकमैनपुरी होते हुए शिकोहाबाद पहुंचे। शिकोहाबाद के सेठ शेख चांद साहब (तम्बाकू वाले) अपने चाचा के साथ जुमा की नमाज पढ़कर वापिस आ रहे थे, उनको ध्यान है कि तालाब के किनारे एक फरिश्ता सूरत नौजवान को हमने बैठा देखा। करीब पहुंचे तो चाचा का नाम लेकर उन्होंने इस्तकबाल किया। नजरे दो चार हुई तो ना मालूम उन आंखों में चाचा जान ने क्या देखा कि कदमों में गिर पड़े। वारिस पाक ने चाचा साहब को उठाया, तसल्ली दी और फरमाया तुम तो हमारे पहले से मुरीद हो। रहमत की बारिश देखी तो मैने फरमाया — हजूर मै! फरमाया — आओ तुम भी मुरीद हो जाओ। इसके बाद वारिस पाक हमारी इल्तजा पर मकान पर तशरीफ़ ले आये। अब जो भी शख्स आपसे मिलने आता खुदा जाने वो क्या देखता कि एक ही नजर में गिरफ्तार होकर मुरीद बन जाता।
शिकोहाबाद के कयाम के बाद आपने अपना सफर जारी रखते हुए फिरोजाबाद पहुंचे। वारिस पाक के तशरीफ़ लाने की खबर यहां पहले ही पहुंच चुकी थी। पिछले कयामो के दौरान आपकी प्रसिद्धि इस क्षेत्र में दूर दूर तक फैल गई थी। जिसके फलस्वरूप लोग आपके इस्तकबाल के लिए सुबह से खड़े हो गये। शाम के वक्त आप यहां तशरीफ़ लाये। रास्ते में ही लोग आपके कदमों पर गिरने लगेऔर वारिस पाक मुरीद बनाते हुए आप हकीम अमजद अली खां साहब के मकान पर ठहरें। यहां आपने अनेक लोगों को मुरीद बनाया। और सच्ची राह पर चलने का संदेश दिया। फिरोजाबाद के कयाम के बाद आपकी तशरीफ़ आगरा जा पहुंची यहां आपने सराय में कयाम किया। वहां हाफिज गुलाब शाह को मुरीद बनाया और फिर गुलाब शाह के घर कयाम किया। और डाक्टर अलताफ अली साहब के साथ साथ अनेक मुरीद बनाये। फिर वहां से जयपुर कयाम करते हुए ख्वाजा अजमेर शरीफ पहुंचे और वहां कयाम किया। अजमेर से बम्बई पहुंचे और वहां से जहाज का सफर शुरू किया।
आखिरकार सफर खत्म हुआ और खुदा की पाक सरजमीं नजर आई। जद्दाह उतरते ही आपने ऐहराम बांधा और फिर पैदल सफर करते हुए 29 शाबान को मक्का मुकर्रमा में दाखिल हुए। यहां हरम शरीफ के करीब एक बुजुर्ग इंतजार में खड़े थे। उन्होंने आपसे मुलाकात की और फरमाया आप ने बहुत देर कर दी। और फिर उन्होंने उनके रहने का इंतजाम किया। पहले रमजान को आप अपने मेजबान अब्दुल्ला हसन मक्की के हमराह तवाफ को जा रहे थे कि एक जबरदस्त बुजुर्ग करीब आये और आपको सीने से लगाया और खुश खबरी सुनायी कि — शहजादे आज बैतुल्लाह शरीफ में आप पर वो अनवारे इलाही बरसेंगे जो सैकडों साल बाद किसी को नसीब हो रहे है। यहां सारे रमजान शरीफ में रोजाना वारिस पाक मुकामे इब्राहिम पर दो रकात नमाज नफिल में पुरा कुरान पाक खत्म फरमाते। दिन चढ़े इप आप मुकामाते मुकद्दस की जियारत को निकल जाते। अकीदतमंदों का हुजूम साथ रहता। इस तरह पहला हज आपने पन्द्रह साल की उम्र में अदा फरमाया। इस साल का हज, हज अकबर था।
बगदाद शरीफ का सफर
हज मुकम्मल करने के बाद आप वहीं से बगदाद के लिए रवाना हो गये। बगदाद शरीफ में दाखिल होने से पहले ही हजरत पीर सैय्यद मुस्तफा सज्जादानशीन दरगाह जिलानी को हजरत गौस-ए-आजम से बसारत हुई कि हिन्दुस्तान से हमारे खानदान का रोशन चिराग आ रहा है। उसे जर्द रंग का ऐहराम पेश किया जाये। नाम उसका वारिस अली शाह है। सज्जादानशीन ने जैसे हजरत गौस-ए-आजम का हुक्म सुना जल्दी से दो ऐहराम जर्द रंग के बनवाये। और आपके आने का इंतजार करने लगे। जब बगदाद शरीफ में आपकी आपकी आमद हुई तो सज्जादानशीन ने आपका उत्साह के साथ इस्तकबाल किया और खाना-ए-खाना आलिया में ठहराया। और वो दोनों ऐहराम पेशे खिदमत किये।
यह खास मामला देखकर हाजरीन-ए-महफिल ने सज्जादानशीन से सवाल किया हजूर सब को तो आप दस्तार अता फरमाते है। पर इनको जर्द ऐहराम पेश करने का क्या सबब है। इस पर उन्होंने जवाब दिया — हम दस्तार अपनी मर्जी से देते है। मगर हजरत हाजी साहब को ऐहराम शरीफ खास हजरत गौस-ए-आजम दस्तेगीर की मर्जी से दिया गया है। मुझे ऐसा ही हुक्म हुआ था। जिसकी तामिल की गई है। बगदाद शरीफ में कयाम के दौरान आप दिन में कदमे सूफिया-ए-कराम के मजारों मुकद्दस की जियारत करते और रात को मस्जिद में इबादते इलाही करते। बगदाद शरीफ से रवाना होकर आप मक्का पहुंच गये और इस साल आपको इतवार के दिन हज करने की शआदत नसीब हुई। हज की अदायगी के बाद आप फिर मदीना मुनव्वरा में हाजिर हुए। यहां से आप बेअतुल मुकद्दस तशरीफ़ ले गये। वहा अंबिया-ए-इस्लाम के मजारात मुकद्दस की जियारत की उसके बाद वही से अफ्रीका की यात्रा के लिए रवाना हो गये। और वहां से आकर आपने फिर हज किया।
वतन वापसी
हज मुकद्दस के पहले सफर में चार बार हज करने के बाद हाजी वारिस अली शाह जहाज के जरियेमुम्बई पहुंचे और यहां से इंदौर, उज्जैन, टोंक, अजमेर, और देहली आदि होते हुए 1841 में लखनऊ तशरीफ़ लाये। यहां एक हफ्ता ठहरने के बाद देवा शरीफ आ गये। पहले तो नंगे सर, नंगे पांव ऐहराम पोश फकीर को देखकर लोग पहचाने नहीं। लेकिन बाद में शौहरत हुई मिठन मियां हज करके ऐहराम पहने हुए आये है। अतः सब को खुशी हुई, अजीजों ने दावतें की, और कुछ रिश्तेदारों को हाजी वारिस अली शाह की शादी का भी ख्याल आया। सैय्यद आजम अली शाह की नेक दुखतर शहजादी अख्तरा पैदाइश ही के वक्त से आप के साथ मंनसूब थी। इस लिए रिश्तेदारों ने चाहा की ये शादी हो जाये। मगर आपने साफ इंकार कर दिया। मगर रिश्तेदारों और अजीजों का दबाव बढ़ता ही गया। जिसके जवाब में बार बार इंकार करना भी मुनासिब न जानकर वह खामोशी से लखनऊ तशरीफ़ ले गये। और कुछ दिन वहां रहने के बाद आपने फिर हज सफर का इरादा कर लिया।
12रबी उल सानी 1257 हिजरी (1841) को आप ने सफर जहाज से बेनियाज़ होकर पैदल ही शुरू कर दिया। इस जमाने में न तो ऐसे अच्छे रास्ते थे और ना ही आरामगाहें। लेकिन अल्लाह का फकीर इन मुश्किल रास्तों को तय करता हुआ बुलंद पहाड़ों को रौंदता हुआ चला जा रहा था। आखिरकार आप अपनी महबूब मंजिल मदीना मुनव्वरा पहुंच गये। वहां कुछ हफ्ते ठहरने के बाद हज बेतुल्लाह के लिए मक्का चले गये। हज करने के बाद आपने तुर्की के काफिले के साथ सफर किया।
तुर्की का सफर
मक्का मुनव्वरा मे हज के दौरानतुर्की अमीर अब्दुल्ला हाजिब आपका मुरीद होकर तुर्की आने की दरख्वास्त कर गया था। अतः जब आप इसके पास तुर्की पहुंचे तो अब्दुल्ला हाजिब शाही शाही दरबार में एक खास मुकाम रखता था। और सुल्तान तक उसकी पहुंच थी। एक दिन अब्दुल्ला हाजिब इजाजत लेकर अपने पीर-ए-मुरशिद को शाही बाग की सैर कराने ले गये। इतने में शाही सवारी भी आ गई। थोडी ही देर बाद दुनिया का सबसे बड़ा सुल्तान अब्दुल मजीद खां अपने रौबदार चहरे पर शानदार मुछें खड़ी किये हुए वारिस पाक के रूबरु खड़ा था। उसे सख्त हैरत हुई की शाही बाग में कंबल बिछाये एक ऐहराम पोश फकीर किस बेनियाज़ी से बैठा हुआ था। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। कि इतने में वारिस पाक ने एक नजर रहमत की सुल्तान पर डाली जो तीर की तरह सुल्तान के दिल के पार हो गई। सुल्तान अपने दिल पर काबू न रख सका। घबरा कर अब्दुल्ला हाजिब से पूछा — हाजिब ये बुजुर्ग कहा से आये है? और कहा ठहरे हुए है?।
अबदुल्ला हाजिब के जवाब देने से पहले ही आप ने जवाब दिया — फकीर का कोई घर नहीं और सब घर फकीर के है।
सुल्तान ने हैरत से पूछा — आप तुर्की जबान जानते है?।
आप ने ये फरमाकर सुल्तान को हैरत में डाल दिया — हमें दिल की ज़बान आती है, और जिसे दिल की ज़बान आती है, वो सब ज़बानें जानता है।
सुल्तान अब लाजवाब हो चुका था। सब अमीर, वजीर, सिपाही हैरान और परेशान होकर एक दूसरे की तरफ देख रहे थे। और सोच रहे थे कि ये किस तरह का फकीर है। जिसके सामने अरबे आजम का सबसे ज्यादा ताकतवर सुल्तान बेबस और मजबूर खडा है। आखिर सुल्तान ने लरजते हुए जिस्म और कांपते हुये होंठों से शाही महल में चलने की दरख्वास्त की, जिसे वारिस पाक ने कबूल करते हुए अगले दिन आने का वादा फरमाया।
दूसरे दिन शाही महल को सजाया जा रहा था। ये मंजर भी किस कदर हैरतअंगेज होगा की एक ऐहराम पोश फकीर नंगे पांव शाही महल की ओर चला आ रहा है। और बाहर से अंदर तक शाही महल के तमाम शहजादे, शहजादियाँ, वजीर, अमीर, सेनापति, सैनिक आदि सब उनके इस्तकबाल में सर झुकाएं खडे है। जब आप महल तशरीफ़ लाये तो सबसे पहले सुल्तान आपके मुरीद हुए। उसके बाद शाही परिवार सैनिक वजीर सब आपके मुरीद हुए। सुल्तान के निवेदन पर आपने यहां एक हफ्ता कयाम किया। इसके बाद आप यहा से मक्का मुकर्रमा पहुंचे हज अदा फरमाया इसके बाद वतन अजीजी की तरफ रवाना हो गये। और 1844 के करीब आप फिर देवा शरीफ आये। मगर जल्दी ही यहां से दिल उब गया। और महबूबे खुदा की याद सताने लगी। अतः आप फिर पैदल रवाना हो गये यह आपका तीसरा हज सफर था। हज अदा करके वही से आप एक इरानी काफिले के साथ इरान की यात्रा की। इरान से फिर यूरोप से मक्का मुनव्वरा में फिर हज करके आप अपने वतन के लिए रवाना होकर जहाज से मुम्बई पहुंचे। यहां से पैदल चलकर ख्वाजा गरीब नवाज के दरबार में हाजरी दी। ये 1850 का वाकया है। इसके बाद आप देवा शरीफ तशरीफ़ लाये और फिर उस सरजमीं को ऐसी इज्ज़त बख्शी कि डाकखाने की सरकारी मोहर पर भी देवा शरीफ लिखा जाने लगा। इस बार की वापसी के बाद आपकी खिदमत में पहले से भी ज्यादा हुजूम रहने लगा। दूर दूर से लोग आपसे मिलने देवा शरीफ चले आ रहे थे। क्योंकि इस बार आपने बहुत से मुरीदों को ऐहराम पोश बनाकर आदाबे ऐहराम पोशी की हिदायत दी। तबलीग और हिदायतों के यह सिलसिला चल निकला और सालों साल चलता रहा। लोग आते रहे मुरीद होते रहे। और फकीरी कि विलायत पाते रहे। आपने आखिर समय तक उन्होंने लाखो मुरीद बनाएं। जिनमें से आज भी कई इतिहास के पन्नों में अपना और अपने पीर मुरशिद का नाम रोशन कर रहे है और करते रहेंगे।
वारिस पाक का आखरी समय
उम्र और बुजुर्गी के साथ साथ कमजोरी भी दिखाई देने लगी थी। मगर इस उम्र में भी आसियाना ए आलिया के दरवाजे हमेशा खुले रहते थे। जिसका जी चाहता बिना रोक टोक सरकार के पास चला जाता था। सन् 1905 तक सेहत और खराब हो गई और तबीयत नासाज रहने लगी। लेकिन तबीयत नासाज रहने के बावजूद कभी भी तबलीग और हिदायत के काम की रफ्तार को न तो कम किया ना ही कभी दूसरे समय के लिए टाला। जिंदगी कै आखरी लम्हों तक तबलीग व हिदायत का फर्ज अदा करते रहे। इस सिलसिले में इतने मशगूल थे कि कभी सेहत व मर्ज की शिद्दत का ख्याल नहीं किया। ना कभी किसी से दुख तकलीफ का इशारा तक फरमाया। हर वक्त तबलीग-ए-हक व हिदायत को अपनाया। (वैसे भी आप का सब्र करना तो मशहूर था) चहरे का रंग बदला हुआ देखकर लोग अक्सर आपका हाल मालूम करते। मगर आप मर्ज की तकलीफ का इजहार तक ना फरमाते। डाक्टर हकीम लाख पूछा करते मगर आप अपनी ज़बान से बिमारी की कोई अलामत तक जाहिर ना करते। बस हर एक के जवाब में खुदा का शुक्र अदा फरमाते रहे। और अपने खादिमों को आप खुद तसल्ली देते और उनसे अपनी तकलीफ़ को छुपाते। और दिलदारी का यह आलम था कि खादिम व तीमारदारों का दिल रखने की खातिर हर किस्म की दवा भी खा लेते थे।
मर्ज की शिद्दत दिमाग पर भी असर कर रही थी। अगर खादिम कहते हजूर खाना खा लिजिए। तो नाखुश होकर जवाब देते — अभी तो खा चुके है। कभी नमाज अदा कर चुके होते और फिर दोबारा वही नमाज अदा करते। अगर कोई कहता सरकार नमाज तो अदा कर चुके है।
तो आप फरमाते — खैर! फिर पढ़ ली, तो तुम्हारा क्या हर्ज हुआ। इस बुजुर्गी और बिमारी के आलम में भी आप ने साबित कर दिया वाकई नमाज मोमिन की आंखों की ठंडक है।
आखिर 18 मोहर्रम की सब आ पहुंची। वारिस अली शाह की तबीयत और भी नासाज होना शुरू हो गई। पहले जुकाम और हरारत हुई। खादिम खास ने पूछा सरकार का मिज़ाज कैसा है।
इरशाद फरमाया — “अलहम्दुलिल्लाह” अच्छा है।
20 मोहर्रम तक यही हालात रहे। दिन ब दिन तबीयत नासाज होने लगी तो खादिम को फिक्र हुई। आखिर 25 मोहर्रम को हकीम मौहम्मद याकूब दरभंगा से बुलाये गये। वारिस पाक ने उन्हें देखकर फरमाया— याकूब अब तो रहोगें?
हकीम साहब ने जवाब दिया — हजूर की सेहतयाबती तक हाजिर रहूँगा।
ये सुनकर आप मुस्कुरा दिये और फरमाया— अच्छा चलो! ठहरो।
इसी दौरान नवाब अब्दुल शकूर साहब वारसी ने हुक्म दिया कि एक रूपये से लेकर एक लाख तक दवा दारू के लिए फौरन अदा कर दिये जाएं। नवाब साहब खुद भी अपने हाथों से दवायें कूटने पिसने में इस तरह मशगूल रहते कि अपने खाने पिने तक का होश न था। दिन रात नंगे पैर इसी दौड़ दूप में मशगूल रहते। उधर मुरिदे आशीकीन आशियाने की ढ़योढ़ी पर गरीब गुरबाओ को अनाज बांटते, कोई कपडे तकसीम करता, कोई नगद रूपये खैरात करता, कोई बकरा जिबह कर सदका देता। दिन रात वारिस पाक की सेहतयाबती के लिए यह सिलसिला जारी रहता।
26 मोहर्रम को इटावा शहर से हकीम महमूद साहब आये और सरकार ए आला की नब्ज़ मुबारक देखी तो हैरत में पड़ गये। कभी नब्ज़ ऐसी सुस्त चलती कि आखिरी वक्त मालूम पड़ता और कभी ऐसी चलती कि जैसे किसी सेहतमंद नौजवान की हो। 27 मुहर्रम के दिन बुखार बहुत तेज हो गया। थर्मामीटर लगाया तो 104℃ बुखार था। थोड़ी देर में फिर लगाया तो 99℃ हरारत रह गई। यह देखकर लोग हैरान रह गए।
इस बिमारी की हालत में भी लोग बडी संख्या मे मुरीद हो रहे थे तालीम व तबलीग का काम बढ़ गया था। मगर यह फर्ज मुहब्बत भी बाखूबी अदा हो रहा था। 28 मोहर्रम को हालत ऐसी नाजुक सूरत अख्तियार कर गई कि मुहं से आवाज़ तक निकलना दुसवार हो गई। इसी दौरान एक बुढिया देखने को आयी और रोते तड़ते हुए बोली — मियां साहब अब तो अच्छे हो जाओ।
बुढ़िया की दुखी आवाज़ जैसे ही कानों में पड़ी इसी वक्त वारिस पाक ने सर उठाकर मौहब्बत से उसकी तरफ देखते हुए फरमाया — घबराओं नहीं हम अच्छे है।
जहाँ अभी कुछ देर पहले बोलती बंद थी अचानक ऐसी साफ व तेज आवाज सुनकर वहां मौजूद तीमारदार व बूढ़िया खुश हो गयी और बलाएँ लेती हुई चली गई। ऐसी हालत में भी आपने गुलामों को मायूस ना लौटाया।
29 मोहर्रम को तबीयत काफी अच्छी हो गई। किसी ने मिजाज पूछा तो खादिम की तरफ इशारा करते हुए फरमाया — हम तो अच्छे है। यही लोग कहते है बीमार हो। तबीयत का यह रंग देखकर लोग खुश हो गये। एक दूसरे को मुबारकबाद देने लगे। कोई नगद खैरात बांटता कोई गल्ला तकसीम करता। इस खुशी के मौके पर मिलाद शरीफ पढ़वाया गया। जो फिर हमेशा के लिए हर साल इसी तारीख को आज तक देवा शरीफ में होता आ रहा है।
आज ही वजीरिस्तान से नादिर खां नाम का एक नौजवान आया और सरकार में हाजिर होकर रोने लगा। कि मुझ से हजरत ने वादा किया था कि तीन साल बाद आना तुम्हें फकीर बनाकर ऐहराम देगें। यह सुनकर आपने आंखें खोल दी उठकर बैठ गए। नादिर खां की तरफ गौर किया और फिर लेट गए। और फिर नादिर खां से फरमाया– जाओ आज नहीं कल आना। क्योंकि तीन साल की मुद्दत खत्म होने में अभी एक दिन बाकी है। (ऐसी नाजुक हालत में भी आपकी होशमंदी का यह आलम था) इस सारी गुफ्तगू से थकान बेहद हो गई और हालत फिर नासाज हुई।
इससे पहले हकीम अब्दुल हई साहब के ईलाज से फायदा जाहिर हुआ था। इसलिए उन्हीं को फिर बुलाया गया। मगर अबकी बार हकीम साहब जैसे हाजिर हुए वारिस पाक ने उन्हें तेज नजर से देखकर फरमाया — अब तुम चले जाओ।
यह सुनकर हकीम साहब हजूरी से उठ कर चले पैर कही रखते थे पड़ते कही थे। आंखें सुर्ख सुर्ख बदन चूर चूर था। जिससे मालूम होता था हकीम साहब खाली हाथ नहीं जा रहे है।
30 मुहर्रम को सख्त बैचेनी रही उसी हालत में एक बुढ़े नानक शाही फकीर हाजिर-ए-खिदमत हुए। उन्हें देखते ही आपने फरमाया– तुम आ गये। बैठों! ।
आखिर इसी हालत में उस फकीर को तौबा अस्तगफ़ार पढ़ा कर अपना मुरीद किया। ऐहराम अता फरमाकर रसूल शाह का खिताब देकर फरमाया — जाओ खुदा की रज़ा में राज़ी रहना, मर जाना मगर हाथ न फैलाना।
इस तमाम कार्यवाही के बाद जो थकान हुई तो खुमारी सी छा गई। कुछ देर बाद निहायत ही धीमी आवाज में पूछा — के बजे है? ।
खादिम ने जवाब दिया– तीन बजे है।
इस पर आपने फरमाया — अभी बहुत देर है, मुशकी घोड़े की टांग टूट गई है, भेली आ गई, चार बजे सवार होगें।
ये सुनकर लोग सकते में आ गए। बहुत ने इसका मतलब निकाला– मुशकी घोड़ा –दरासल काली रात है। जिस की टांग टूट गई है — यानि रात अब खत्म हो रही है। भेली — से मुराद है सफर-ए-आखिरत की सवारी, आ गई है- रवानगी के लिए सुबह चार बजे का वक्त मुकर्रर है।
तबीयत में बेखुमारी और बैचेनी सी जारी थी। मगर कल वाले वजीरिस्तानी खां साहब हाजिर हुए तो वारिस पाक ने आंखे खोल दी। वादे के मुताबिक आज तीन साल की मुद्दत खत्म हो चुकी थी। और आज चौथे साल का पहला दिन था। वारिस पाक ने इसी नाजुक हालत में इस वजीरिस्तानी नादिर खां को ऐहराम अता फरमाया और अपनी जुबान मुबारक से फकीर शाह का खिताब दिया और हिदायत दी कि — मुहब्बत के रास्ते में अगर कोई मुसीबत भी आये तो उसे रब की इनायत समझना और अल्लाह के सिवाय किसी दूसरे का सरोकार ना रखना। जाओ! ।
ये हिदायत वारिस अली शाह की आखरी तबलीगी हिदायत थी। अब इल्म व रूहानियत के समंदर से ना तो किसी को तबलीग होगी ना.ही इस बस्ते करम से कोई ऐहराम इनायत होगा। और ना ही इस जहन मुबारक से किसी को कोई खिताब दिया जायेगा। अतः ये आखिरी अल्फाज थे जो तालीम के लिए आप ने किसी के लिए फरमाएं थे। इसी तरह ये आखिरी बुजुर्ग थे जो कदम बोस होकर बारगाहे वारसी से से रूखसत हुए थे।
इस तमाम कार्यवाही के बाद आप पर बैहोशी जारी होती गई। शाम को तकरीबन सात बजे आप ने आंख खोली और गुलामों को नजरे इनायत से देखा और जोश खरोश से फरमाया– अल्लाह एक है।
आखरी वक्त में भी आपने तौहीद परस्ती का सबूत दिया। और साफ साफ ऐलान कर फरमाया — खबरदार! अल्लाह को हमेशा वाहिद-ला-शरीक एक समझना। कभी किसी को इसकी जात में शरीक ना करना। रात को करीब दस बजे आपने पूछा– कया बजा है?
खादिम ने जवाब दिया — सरकार दस बजे है।
इस पर आपने फरमाया– फैज़ शाह! तैयार हो जाओ! चार बजे चलेंगे।
फैजशाह ने चीख मारी और कहा– सरकार मुझे लेते चलें मै तैयार हूँ।
इसके बाद आपने खामोशी इख्तियार कर ली। सासें आपकी इस तरह चल रही थी जैसे कोई कलमा पढ़ रहा हो। इसके बाद सुबह दो बजे के करीब बुखार तेज हो गया। हाथ पांव सुन्न पड़ गये। इतने में मकान के सहन में खड़े हुए दरख्त पर जूगनूओ की तरह रोशनी जगमगाती नजर आयी। सब हाजरीन डर गये। एक बुजुर्ग ने फरमाया यह रहमतों के नाजिल होने का वक्त है। बरकतों का दौर है। यह दुवाओं की कबूलियत का वक्त है। जो मांगना है मांग लो। खुदा का जिक्र किये जाओ।
इसी तरह की नुरानी वारदातें गुजर रही थी और हकीम याकूब वारिस पाक की नब्ज देख रहे थे। और लोग बैचेनी से दरयाफ़्त कर रहे थे, अब क्या हालत है। इस वक्त चार बजकर तेरह मिनट हो रहे थे। उधर हकीम साहब ने जवाब दिया नब्ज़ बहुत अच्छी है। उधर नब्ज़ एक दम बंद हो गई। हकीम साहब सिसक गए। हाथ छोड़ दिया और फरमाया सरकार का इंतकाल हो गया। यह दिन 5 अप्रैल 1905 का था।
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