प्रिय पाठको अपनी उत्तर प्रदेश यात्रा के दौरान हमने अपनी पिछली पोस्ट में उत्तर प्रदेश राज्य के प्रमुख व धार्मिक महत्व वाले खुबसूरत शहर इलाहाबाद की यात्रा की थी औऱ इलाहाबाद के बारे विस्तार से जाना था। अपनी उत्तर प्रदेश पर्यटन ऐतिहासिक व धार्मिक यात्रा को आगे बढाते हुए हम अपनी इस पोस्ट में हम उत्तर प्रदेश के ऐक बहुत ही प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्राचीन व धार्मिक शहर वाराणसी की यात्रा करेगे और उसके बारे में विस्तार से जानेगें। वाराणसी का वास्तविक व पौराणिक नाम “काशी” है। ब्रिटिश उपनिवेशिक काल में इसे “बनारस” नाम दिया गया । यह उत्तर प्रदेश का ऐसा एकमात्र शहर है जिसके तीनो नाम विश्वभर में प्रसिद्ध है। यह खुबसुरत हिन्दू धार्मिक महत्व वाला शहर वरूणा एंव असी नदियो के बिच बसा हुआ है।
भारत की आजादी के बाद इस शहर का नाम इन दोनो नदियो के नाम पर “वाराणसी” कर दिया गया। मंदिरो और गलियो के शहर के नाम से विख्यात यह शहर साहित्य कला एंव संस्कृति के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। यहा के प्रसिद्ध ऐतिहासिक मंदिर और यहा के घाट का यात्रियो के लिए बहुत बडा महत्वत रखते है। काशी विश्वनाथ तीर्थ के रूप में जाने जाने वाले इस शहर में वर्ष भर लाखो श्रद्धालु यहा आते है। यह भी माना जाता है कि यहा इस पावन धरती पर प्राण त्याग ने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
वाराणसी यात्रा – काशी विश्वनाथ यात्रा
वाराणसी ( काशी विश्वनाथ )का धार्मिक महत्व
काशी सप्तपुरियो हरिद्धार, मथुरा , अयोध्या, कांची, द्दारिका, काशी विश्वनाथ तथा अवंतिका में से एक मानी जाती है। धार्मिक मानयता के अनुसार कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। यहा तक कहा जाता है कि प्रलय में भी इसका नाश नही हो सकता। तथा यहा देह त्यागने पर प्राणी मुक्त हो जाता है। माना जाता है कि यहा देह त्याग के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारक मंत्र सुनाते है और उससे जीव को तत्तव ज्ञान हो जाता है।
इसलिए सातो पुरियो में काशी मुख्य मानी जाती है। इसमें आस्था रखने वाले हजारो लोग देह त्यागने के लिए यहाँ आते है। बहुत से लोग तो मरने के लिए काशी में ही निवास करते है। वे काशी से बाहर ही नही जाते। काशी किसी एक प्रांत सम्प्रदाय या समाज का नगर नही है। यहा भारत के सभी प्रांतो के निवासियो के मुहल्ले बसे हुए है जिसके कारण यह ” मुहल्लो का नगर” के नाम से भी जाना जाता है।
वाराणसी के सुंदर दृश्यकुल द्धादश ज्योतिर्लिंग है। इनमे से भगवान शंकर का विश्वनाथ नामक ज्योतिर्लिंग यही पर स्थित है। जिसके कारण इस नगर को काशी विश्वनाथ के नाम से जाना जाता है। यहा पर 51 शक्तिपीठो में से एक शक्तिपीठ ( मणिकर्णिका पर विशालाक्षी) काशी में ही स्थित है। यहा सती का दाहिना कर्ण कुंडल गिरा था। पुराणो में काशी की अपार महिमा है। यह भागीरथी नदी के बांए तट पर अर्द्धचंद्राकार रूप में लगभग तीन मील तक बसा हुआ है। समय के साथ साथ इसका और विस्तार होता जा रहा है। यहा गली गली में अनेको मंदिर है। जिनकी नामवली यहा देना संभव नही है। चंद्रग्रहण के समय यहा भारी संख्या में श्रृदद्धालु स्नान करने आते है। काशी को संसार की सबसे प्राचीन नगरी भी कहा जाति है जिसका वेदो में भी कई जगह उल्लेख है।
स्कंदपुराण के अनुसार :- मैं कब काशी जाऊंगां, कब भगवान शंकर जी का दर्शन करूंगा, ऐसा सोचने वाला व्यक्ति भी काशीवास का फल प्राप्त करता है। उन्हें संसार – सर्प के विष से क्या भय? जिसने काशी- यह दो अक्षरो का अमृत कानो से पान कर लिया उसे गर्भजनित व्यथा-कथा नही सुननी पडती। जो दूर से भी सदा काशी काशी जपता रहता है। वह अन्यत्र रहकर भी मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
नारदपुराण के अनुसार:- काशी परमरम्य ही नही त्रिलोकी का सार भी है। उसके सेवन किए जाने पर मनुष्यो को सदगति प्राप्त होती है। अनेक पिपाचारी भी यहाँ आकर पापमुक्त होकर देववत प्रकाशित होने लगते है। काशी ही एक पुरी है जो मोक्ष देती है।
पुराणो में भी काशी का बहुत बडा महात्मय बताया गया है पुराणो के अनुसार पहले यह भगवान माधव की पुरी थी। एक बार भगवान शिव ने ब्रह्माजी का एक सर काट दिया और वह सर उनके करतल से संग्लन हो गया। वह 12वर्षो तक बदरीनारायण, कुरूक्षेत्र इत्यादि तीर्थो पर घूमते रहे परन्तु ब्रह्माजी का वह सर भगवान शिव के हाथ से अलग नही हुआ । अंत में जैसे ही उन्होने काशी की सीमा में प्रवेश किया ब्रह्मा हत्या ने उनका पिछा छोड दिया और स्नान करते ही उनके हाथ से जुडा कपाल भी अलग हो गया। जहा वह कपाल छूटा था वह स्थान आज कपाल मोचन तीर्थ कहलाता है।
उसके बाद भगवान शंकर ने विष्णु जी से प्राथना करके इस स्थान को अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया था। तभी से यह माना जाता है कि भगवान शंकर स्वंय इस नगरी में वास करते है।जहा प्रभु के नेत्रो से आनंदाश्रु गिरे थे वह स्थान भी यही पर है जो बिंदुसरोवर कहलाया और भगवान बिंदुमाधव नाम से यहा प्रतिष्ठित हुए।
धार्मिक दृष्टि से वाराणसी को बारह नामो से भी जाना जाता है। जो इस प्रकार है :- काशी,वाराणसी, अविमुक्त, आनंदकानन, महाश्मशान, रूद्रावास, काशिका, तपस्थली, मुक्तिभूमि क्षेत्र, मुक्तिभूमि पुरी, श्री शिवपुरी त्रिपुरारी तथा श्री शिवपुरी राजनगरी।
वाराणसी के सुंदर दृश्यकाशी का पौराणीक इतिहास
महाराज सुदेव के पुत्र सम्राट दिवोदास ने गंगा तट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शिव ने देखा कि पार्वती जी को उनके साथ अपने पितृ गृह में रहना अच्छा नही लगता। पार्वती जी की प्रसन्नता के लिए शंकर जी ने हिमालय छोडकर किसी सिद्ध क्षेत्र में रहने का विचार किया। उन्हे काशी का यह क्षेत्र प्रिय लगा। तब शंकर जी ने अपने निकुंभ नामक गण को आदेश दिया कि वह वाराणसी (काशी) को निर्जन करे। निकुंभ ने भगवन के आदेश का पालन किया। निर्जन होने के बाद भगवान शंकर अपने गणो के साथ वहा आकर रहने लगे। भगवान शंकर के सांनिध्य में रहने की इच्छा से वहा देवता तथा नागलोक के निवासी भी वास करने लगे। ऐसा हो जाने पर सम्राट देवोदास बहुत दुखी हुए। उन्होने ब्रह्मा जी की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया और उनसे वरदान मांगा कि देवता अपने देव लोक में रहे और नाग अपने पाताल लोक में पृथ्वी केवल मनुष्यो के लिए रहे। ब्रह्मा जी ने उनकी इच्छा अनुसार उन्हे वरदान दे दिया। परिणाम स्वरूप यह हुआ कि भगववान शंकर सहित सभी देवताओ को पृथ्वी छोडनी पडी।
परन्तु शंकर जी ने यहा विश्वेश्वर रूप में निवास किया तथा दूसरे देवताओ ने भी श्री विग्रहह के रूप में स्थित हुए। भगवान शंकर काशी छोडकर मंदराचल पर चले तो गए किंतु उन्हे अपनी यह काशी बहुत पसंद थी वह यही रहहना चाहते थे। उन्होने सम्राट देवोदास को यहा से निकालने के लिए चौसठ योगिनियां भेजी परंतु सम्राट ने उन्हे एक घाट पर स्थापित कर दिया। इसके बाद शंकर जी ने सूर्य भेजा परंतु इस पुरी का वैभव देखकर सूर्य चंचल बन गये तथा अपने बारह रूपो में यहा बस गये। बाद में शकर जी की प्रेरणा से ब्रह्मा जी यहहा पधारै। उन्होने देवोदास की सहायता से यहा दस अश्वमेघ यज्ञ किये और स्वंय भी वही बस गए। अत में शंकर जी की इच्छा पूर्ण करने के लिए भगवान विष्णु ब्रह्मण के रूप में यहा पधारे। उन्होने देवोदास को ज्ञान उपदेश दिया। इससे वह पुण्यात्मा सम्राट संसार से विरक्त हो गए। सम्राट दिवोदास ने स्वंय एक शिवलिंग की स्थापना की बाद में विमान में बैठकर दिवोदास शंकर जी के धाम गए। तब मंदराचल से आकर भगवान शंकर वाराणसी में स्थित हुए। काशी में समस्त तीर्थ तथा सभी देवता निवास करते है।
वाराणसी (काशी) के प्रमुख घाट
काशी के घाटो की सूची बहुत लम्बी है। यहा काफी संख्या में छोटे बडे घाट है। इस पोस्ट में सभी घाटो की जानकारी देना यहा सम्भव नही है किन्तु हम आपको काशी के कूछ प्रसिद्ध घाटो की जानकारी आपको आगे दे रहै है।
वरणासंगम घाट
यह घाट वाराणसी रेलवे स्टेशन से लगभग ढेड मील की दूरी पर स्थित है। पश्चिम से आकर वरणा नाम की छोटी नदी यहा गंगा जी में मिलती है। यहा भद्र शुक्ल 12 तथा महावारूणी पर्व को मेला लगता है। संगम से पहले वरणा नदी के बाएं किनारे वशिष्ठेश्वर तथा ऋतीश्वर नाम के शिव मंदिर है। वरणा संगम के पास विष्णुपादोदक तीर्थ तथा श्वेतद्दीप तीर्थ है। घाट की सीढियो के ऊपर भगवान आदि केशव का मंदिर है। इस मंदिर में भगवान केशव की चतुर्भुज श्याम रंग की खडी मूर्ति है। यहा दीवाल में केशवादित्य शिव है। तथा पास ह मे हरिहरेश्वर शिव मंदिर है। इससे थोडी दूरी पर वेदेश्वर, नक्षत्रेश्रर तथा श्वेतद्धीपेश्वर महादेव हैं।
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पंचगंगा घाट
इस घाट के बारे में यह कहा जाता है कि यहा यमुना, सरस्वती, किरणा और धूतपापा नदिया गुप्त रुप से गंगा जी में मिलती है। इसलिए इस घाट का नाम पंचगंगा है।इस घाट पर विष्णु तीर्थ तथा बिंदु तीर्थ है। यहा घाट के ऊपर बहुत से मंदिर है। एक मंदिर यहा बिंदुमाधव जी का है जोकि सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। इसके बारे में मान्यता है कि अग्निबिंदु नामक ब्रह्मणको भगवान ने वरदान दिया था कि मै यहा रहूगां। इससे भगवान का नाम यहा बिनंदुमाधव पडा। पास ही में पंचगंगेश्वर महादेव का मंदिर है। इस घाट के पास ही में माधवराम का धरहरा भी है। इस पंचगंगा घाट का कार्तिक स्नान पर बहुत बडा महत्व माना जाता है इस समय यहा काफी संख्या में श्रृदद्धालु स्नान करने आते है।
वाराणसी के सुंदर दृश्यमणिकर्णिका घाट
इस घाट को वीरतीर्थ भी कहते है। इस घाट के ऊपर मणिकर्णिका कुंड है। इस कुंड में चारो ओर 21 सिढिया नीचे की ओर बनी है इस कुंड की तह में एक भैरव कुंड भी है। इस कुंड का जल प्रति आठवे दिन निकाल दिया जाता है। इसके बाद एक छिद्र से एक जलधारा अपने आप निकती है। जिससे कुंड फिर से भर जाता है। पास ही तारकेश्वर शिव मंदिर तथा ओरकई दूसरे मंदिर भी है। यहा स्थित विरेश्वर मंदिर में वीरतीर्थ में स्नान करने के बाद यात्री यहा पूजा करते है। जोकि शुभ माना जाता है।
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दशाश्वमेध घाट
वरणासंगम घाट से इस घाट की दूरी लगभग तीन मील तथा राजघाट से लगभग एक मील है। कहा जाता है कि ब्रह्माजी ने रहा दस अश्वमेध यज्ञ किए थे। काशी का यह मुख्य घाट है। यहा भारी संख्या में स्नानार्थी आते है।यहा जल के भीतर रूद्र सरोवर तीर्थ है। घाट पर दशाश्वमेधेश्वर शिवजी है तथा शीतला देवी की मूर्ती है। यहा एक गंगा मंदिर में गंगा, सरस्वती, यमुना, ब्रह्मा, विष्णु और नरसिंह जी की मनुष्य बराबर मूर्तिया है। इस घाट के उत्तर में विशाल शिव मंदिर है। उसके उत्तर में शूलटंकेश्वर शिव मंदिर है। घाट पर प्रयागेश्वर, प्रयागमाधव तथा आदिवाराहेश्वर के मंदिर है। ज्येष्ठ शुक्ल 10 को इस घाट का बहुत बडा महत्व माना जाता है इस समय यहा भारी संख्या में यात्री स्नान के लिए आते है।
असि संगम घाट
वाराणसी का यह घाट कच्चा है। यहा असि नामक नदी गंगाजी में मिलती है। इस घाट के ऊपर एक जैन मंदिर है। यहा हरिद्धार माना जाता है। कार्तिका 6 को यहा स्नान का विशेष महत्व माना जाता है। यह घाट दशाश्वमेध घाट से लगभग दो मील की दूरी पर है।
काशी के मुख्य मंदिर
वाराणसी देवताओ की नगरी भी कही जाती है यहा काशी विश्वनाथ जी को मिलाकर कुल 59 शिवलिंग है। 12आदित्य है। 56 विनायक है, 8 भैरव है, 9दुर्गा है, 13 नरसिंह तथा 16 केशव है। यहा लगभग 100 के करीब घाट तथा 1400 के करीब छोटे बडे मंदिर है जिनमे सभी का विवरण यहा देना असंभव है। यहा हम वाराणसी के कुछ प्रमुख मंदिरो, सरोवरो के बारे में जानेगें
श्री विश्वनाथ जी मंदिर
यह मंदिर वाराणसी का सर्व प्रधान व मुख्य मंदिर है। यह मंदिर बहुत भव्य है। इस पर स्वर्णकलश चढा है। इसे इतिहास प्रसिद्ध पंजाब केसरी महाराजा रणजीतसिंह ने अर्पित किया था। इस मंदिर के सामने सभा मंडप है और मंडप के पश्चिम दंडपाणीश्वर मंदिर है। सभा मंडप में में बडा घंटा तथा अनेक देवमूर्तिया है। मंदिर के प्रागण में एक ओर सौभाग्य-गौरी तथा गणेश जी तथा दूसरी ओर श्रृंगार-गौरी अविमुक्तेश्वर तथा सत्यनारायण के मंदिर है। दंडपाणीश्वर मंदिर के पश्चिम में शनश्वरेश्रवर महादेव है। द्वादश ज्योतिर्लिंगो में से एक विश्वेश्वर लिंग हैइसकी कुछ विशेषताए है। यहा जलहरी शंकु के आकार की नही चौरस है। उसमें से जल निकलने का मार्ग नही है।
जल लोटे से उलीचकर निकाला जाता है। कार्तिक शुक्ल 14 को तथा महाशिवरात्रि को विश्वेश्वर लिंग का अर्चना महा फलदायी मानी जाती है। श्री विश्वनाथ जी काशी के सम्राट है। उनके मंत्री हरेश्वर, कथावाचक ब्रह्मेश्वर, कोतवाल भैरव ,थानाध्यक्ष तारकेश्वर , चौबदार दंडपाणी, भंडारी वीरेश्वर, अधिकारी ढुण्ढिराज तथा काशी के अन्य लिंग प्रजापालक है। विश्वनाथ मंदिर के वायव्यकोण में लगभग डेढ सौ शिवलिंग है। इनमे धर्मराजेश्वर मुख्य है। इस मंडली को शिव की कचहरी कहते है। यहा मोद विनायक, प्रमोद विनायक, सुमुख विनायक, तथा गणनाथ विनायक की मूर्तिया है।
बारह ज्योतिर्लिंगो मे से एक विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग यहा होने के कारण वाराणसी का इतना महत्तव नही है बल्कि वाराणसी की गिनती सप्त पुरियो में होने के कारण इसका महत्व अधिक है। काशी की गिनती त्रिस्थली में भी की जाती है। विश्वनाथ मंदिर के मूल मंदिर की परंपरा अतीत के इतिहास के अज्ञात युगो तक चली गई है परंतु वर्तमान मंदिर अधिक प्राचीन नही है। आज कल यहा तीन विश्वनाथ मंदिर है। एक ज्ञानव्यापी में है जिसका निर्माण रानी अहिल्याबाई ने करवाया था। दूसरा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में है जिसका निर्माण उद्योगपति बिडला ने करवाया था। तीसरा मीर घाट में है जिसका निर्माण स्वामी करपात्रीजी ने करवाया था।
काशी की एक संकरी गली में प्रवेश करने पर प्राचीन विश्वनाथ मंदिर के दर्शन होते है। भक्तजनो में यह प्रचलित विश्वास है कि यहा आये प्रत्येक व्यक्ति की मनोकामना भगवान शिव पूर्ण करतेहै। इस मंदिर में ध्वजा सोने की बनी हुई है। यहा हर समय दर्शको की भीड लगी रहती है। यह मंदिर बडा भव्य तथा सुंदर है। जो मंदिर काशी हिन्दु विश्वविद्यालय में है उसका निर्माण कुछ ही वर्ष पूर्व हुआ है। यह मंदिर सुंदर तथा दर्शनीय है। इसकी दो मंजिल है ऊपरी मंजिलो में शिवलिंग स्थापित है। इस मंदिर के चारो ओर संपूर्ण श्रीमदभागवत गीता अंकित है। जो मंदिर मीराघाट मे रचित है उसै स्वामी करपात्री ने बनवाया था यह मंदिर भी भव्य तथा दर्शनीय है।
अन्नपूर्णा मंदिर वाराणसी
यह मंदिर विश्वनाथ मंदिर से थोडी ही दूरी पर स्थित है। यहा चांदी के सिंहासन पर अन्नपूर्णा की पीतल की मेर्ति विराजमान है। मंदिर के सभा मंडप के पूर्व में कुबेर, सूर्य, गणेश, विष्णु, तथा हनुमान की मूर्तिया है। यही पर श्री भास्करराय द्वारा स्थापित यंत्रेश्वर लिंग है इस लिंग पर श्री यंत्र खुदा हुआ है। इस मंदिर के साथ एक खंड है जिसमे महाकाली, शिव परिवार, लक्ष्मीनारायण, श्री रामदरबार, राधा कृष्ण तथा नरसिंह जी की संगमरमर की मूर्तिया है। चैत्र शुक्ल 9 तथा अश्विन शुक्ल 8 को अन्नपूर्णा के दर्शन व पूजा की विशेष महिमा है।
अक्षय वट मंदिर
श्री विश्वनाथ मंदिर के द्वार से निकलकर ढुण्ढिराज गणेश की ओर चले तो प्रथम बाई ओर शनैश्वर का मंदिर मिलता है। इनका मुख चांदी का है शरीर नही है। नीचे केवल कपडा पहनाया होता है। पास में एक ओर महावीर जी है एक कोने में एक वट वृक्ष है जिसे अक्षय वट कहते है।
ज्ञान वापी वाराणसी
श्री विश्वनाथ मंदिर के पास ही ज्ञान कूप है। कहा जाता है कि औरंगजेब ने जब विश्वनाथ मंदिर तुडवाया तब श्री विश्वनाथ जी इस कूप में चले गये । बाद में उन्हे वहा से निकालकर वर्तमान मंदिर में स्थापित किया गया। इस कूप के जल में यात्री आचमन करते है। यही पर सात फुट ऊंचा नंदी है जो प्राचीन विश्वनाथ मंदिर की ओर मुख करके स्थित है। यहा पारचीन स्थान पर औरंगजेब ने मस्जिद बनवा दी परंतु उसमे मंदिर के चिंह अभी तक देखे जा सकते है। यहा मस्जिद के बाहर छोटे चबूतरे पर बहुत छोटे मंदिर में गौरी शंकर मूर्ति है।
ढुण्ढिराज गणेश वाराणसी
अन्नापूर्णा मंदिर के पश्चिम गली के पास ढुण्ढिराज गणेश है। इनके प्रत्येक अंग पर चांदी मढी है कहा जाता है कि महाराज दिवोदास ने गण्डकी के पाषाण से यह मूर्ति बनवाई थी माघ शुक्ल 4 को इनके पूजन का अधिक महत्व माना जाता है।
दण्डपाणि
ढुण्ढिराज गणेश मंदिर के करीब उत्तर की दिशा में एक छोटे से मंदिर में दण्डपाणि की मूर्ति है। मूर्ति के दोनो ओर उनके दो गण शुभ्रं तथा विभ्रं स्थित है।
आदिविश्वेश्वर
ज्ञान वापी के पास प्राचीन विश्वनाथ मंदिर तोडकर औरंजेब ने यहा मस्जिद बनवा दी है। उसके पश्चिमोत्तर सडक के पास आदिविश्वेश्वर का मंदिर है।
वाराणसी के सुंदर दृश्यलांगलीश्वर
आदि विश्वेश्वर के समीप पांच पांडवो से आगे एक मंदिर में लांगलीश्वर नामक विशाल शिव लिंग है। यहा समीप में सत्यनारायण का भव्य मंदिर भी है जो दर्शनीय है।
काशी करवत
औरंजेब वाली मस्जिद के पास एक गली में यह स्थान है। यहा एक अंधेरे कुएं में एक शिव लिंग है। कुएं में जाने का मार्ग बंद रहता है। किसी निश्चित समय ही वह खुलता है। कुए में ऊपर से ही अक्षत पुष्प चढाए जाते है। पहले लोग यहा करवत लैते थे।
गोपाल मंदिर
सत्य कालेश्वर से पूर्व चौखंभा मुहल्ले में बल्लभ संप्रदाय का यह मुख्य मंदिर है। इसमे श्री गोपालजी तथा श्री मुकुंदराय जी के विग्रह है। यहा पूजा सेवा बल्लभ संप्रदाय के अनुसार होती है। गोपाल मंदिर के सामने रणछोडजी का मंदिर है। इसके अलावा यहा बडे महाराज का मंदिर, बलदेव जी का मंदिर तथा दाऊजी का मंदिर भी स्थित है।
सिद्धिदा दुर्गा मंदिर
गोपाल मंदिर से थोडी दूरी पर यह मंदिर स्थित हे। इसके अलावा यहा दाऊजी मंदिर के पास बिंदुमाधव मंदिर, कर्दमेश्वर, काल माधव तथा पापक्षेमेश्वर शिव मंदिर है।
काल भैरव मंदिर
यह मंदिर भैरवनाथ मुहल्ले में स्थित है। यहा सिंहासन पर स्थित चतुर्भुज मूर्ति है। जो चांदी से मढी है।मंदिर के आगे बडे महादेव तथा दाहिने मंडप में योगीश्वरी देवी है। मंदिर के पिछले द्वार के बाहर क्षेत्रपाल भैरव की मूर्ति है। श्री भैरव का वाहन काला कुत्ता है। ये नगर के कोटेपाल है। कार्तिक कृष्णा 8 तथा चतुदर्शी और रवीवार को भैरव जी के दर्शन पून का विशेष महत्व माना जाता है।
दुर्गा जी
अति संगम घाट से थोडी दूरी पर पुष्कर तीर्थ सरोवर है। वहा से आधे मील पर दुर्गा कुंड नाम का विशाल सरोवर है। सरोववर के किनारे ही दुर्गा जी का मंदिर है। इस मंदिर में कूष्मांडा देवी की मूर्ति है जिसे लोग दुर्गा जी कहते है। मंदिर के घेरे में शिव गणपति आदि देवताओ के मंदिर है। मुख्य द्वार के पास दुर्गा, विनायक, तथा चंडभैरव की मूर्तिया है। पास ही कुक्कटेश्वर महादेव है। राजा सुबाहु पर प्रसन्न होकर माता भगवती यहा दुर्गा रूप में स्थित हुई थी।
संकटमोचन
दुर्गा जी मंदिर से थोडा आगे चलने पर एक बगीचे में यह मंदिर स्थित है। यहा स्थापित हनुमान जी की मूर्ति गोस्वामी तुलसीदास द्वारा स्थापित है। इस मंदिर के सामने राम मंदिर भी है।
कुरूक्षेत्र तीर्थ
दुर्गा कुंड से कुछ ही दूरी पर नगर की ओर कुरूक्षेत्र सरोवर है। वहा से समीप में सिद्धकुंड और कृमिकुंड है। यहा बाबा किनाराम का स्थान है इसके पास कूटदंत विनायक है। यहा से थोडी दूरी पर रेवती सरोवर है। जिसे अब खेडी तालाब कहते है। यहा से थोडा ओर आगे शंखोदद्धार तीर्थ, द्वारका तीर्थ, दुर्वासा तीर्थ तथा कृष्ण – रुक्मिणी तीर्थ है। यहा से उत्तर में कामाक्ष कुंड है। इसके पास वैद्यनाथ, क्रोध भैरव तथा कुशेश्वर शिव है। आगे शिवगिरी सरोवर के पास त्रिमुख विनायक और त्रिपुरान्तक के मंदिर है। यहा से कुछ दूर लालपुर मुहल्ले में मातृकुंड है। जिसके पास पित्राश्वर शिव तथा क्षिप्रसाद विनायक है इनके पिछे मातृदेवी मंदिर तथा आगे की ओर पितृकुंड सरोवर है।
पिशाचमोचन कुंड
मातृकुंड से थोडी दूरी पर यह कुंड स्थित है। यहा पिंडदान से मृतात्मा प्रेतयोनि से छूट जाती है। यह काफी बडा सरोवर है। घाट पर महावीर, कपर्दीश्वर, पंच विनायक, पिशाचमस्तक, विष्णु वालकमीकी तथा अन्य कई देवताओ की मूर्तिया है।
लक्ष्मी कुंड
पिशाचमोचन कुंड से थोडी दूरी पर लक्ष्मी कुंड मुहल्ले में लक्ष्मी कुंड सरोवर स्थित है। सरोवर के पास लक्ष्मी जी का मंदिर है। इस मंदिर में मयूरी योगिनी की मूर्ति भी है। पास ही शिव मंदिर तथा काली मठ है। कुंड के पास कुंडीकाक्ष विनायक है।
मंदाकिनी
इस मुहल्ले को अब मैदागिन कहते है। यहा कंपनी बाग में मंदाकिनी सरोवर है। जिसके पास में मदाकिनी मंदिर भी है। कंपनी बाग के पास बडे गणेश की भव्य मूर्ति भी है।
गोरखनाथ मंदिर
मैदागिन मुहल्ले में यह मंदिर स्थित है। इसमे गोरखनाथ जी के चरण चिन्ह है। यहा गोरख संप्रदाय के लोग रहते है। इस स्थान से थोडी दूरी पर हनुमान जी तथा जम्बुकेश्वर शिव मंदिर है। यहा से थोडी दूरी पर वक्रतुंड विनायक का विशाल मंदिर है। इसमे हस्तदंत विनायक मूर्ति है। इस मंदिर में सिद्ध कंठेश्वर शिवलिंग है। यहा से कुछ दूर श्री जगन्नाथ मंदिर तथा आषाढिश्वर शिव मंदिर है।
भूत भैरव
काशीपुरा मुहल्ले में भूतभैरव का मंदिर है इन्हें भीषण भैरव भी कहते है। पास ही कन्हुकेश्वर शिव मंदिर और कुछ दूर निवासेश्वर, व्याघ्रेश्वर एंव जैगीषव येश्वर के मंदिर है इससे आगे काशी देवी मंदिर है।
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