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वल्लभ सम्प्रदाय अथवा पुष्टि मार्ग

वल्लभ सम्प्रदाय अथवा पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक, नियम, पीठ, व इतिहास

Naeem Ahmad, November 18, 2023

वल्लभ सम्प्रदाय :– मध्यकाल में गुजरात तथा राजस्थान में वैष्णव भक्ति का प्रचार कितने व्यापक रूप में हुआ था। इस पर विचार करने के पश्चात हमें यह देखना है कि यहां के वैष्णव भक्तों पर कौन-कौन से संप्रदायों का प्रभाव पड़ा था। सर्वप्रथम उल्लेखनीय बात तो यह है कि यहां के अधिकांश भक्‍त-कवि संप्रदाय मुक्त ही रहे हैं अर्थात्‌ न तो उन्होंने किसी प्रचलित सम्प्रदाय में दीक्षा ली थी और न किसी सम्प्रदाय का प्रचार किया था। इसलिये इन प्रदेशों में जिन सम्प्रदायों की स्थापना हुई थी उनका प्रचार कार्य सामान्य जन समुदाय तक ही सीमित रहा। तत्कालीन प्रसिद्ध भक्त कवियों में से अधिकांश इन संप्रदायों से अलग ही रहे हैं। राजस्थान तथा गुजरात में वैष्णव सम्प्रदायों में से तीन का प्रभाव यहां के भक्तों की उपासना पद्धति पर विशेष दिखाई देता है। ये तीन क्रमशः वल्लभाचार्य का पुष्टि सम्प्रदाय, रामानुजाचार्य का रामानुज सम्प्रदाय तथा निम्बार्क का निम्बाक सम्प्रदाय हैं। इनमें से वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग का प्रचार एवं प्रभाव विशेष दृष्टिगोचर होता है। इसलिये इस सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का तथा उनके प्रभाव का यहा विचार कर लेना उपयुक्त जान पड़ता है।

 

Contents

  • 1 वल्लभ सम्प्रदाय अथवा पुष्टि मार्ग का परिचय व संस्थापक
    • 1.1 पुष्टिमार्ग पंथ के नियम
  • 2 हमारे यह लेख भी जरुर पढ़े:—-

वल्लभ सम्प्रदाय अथवा पुष्टि मार्ग का परिचय व संस्थापक

 

वल्लभ सम्प्रदाय के मुख्य प्रवर्तक विष्णु स्वामी माने जाते हैं, किन्तु देश व्यापी प्रचार वल्लभाचार्य ने ही किया था इसलिए वल्लभ पंत के प्रमुख आचार्य वल्लभाचार्य जी ही माने जाते हैं। इनका जन्म संवत्‌ 1535 में हुआ था। इनके माता-पिता आन्ध्र-प्रदेश के निवासी थे। पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट तथा माता का बल्लभागारु था। वे तेलंग ब्राह्मण थे। वे अधिकांशत: काशी में रहते थे। एक बार काशी छोड़कर दक्षिण की ओर जा रहे थे, तभी रामपुर जिले के चम्पारन नामक स्थान पर इनका जन्म हुआ था। बाल्यावस्था से ही अध्ययन काल में आध्यात्मिकता की ओर इनकी रुचि प्रवृत्त हुई थी। आगे चलकर उन्होंने अपने चिन्तन को पुष्टिमार्ग के रूप में प्रसारित किया। ये प्रखर विद्वान एवं उच्चकोट्टि के भक्‍त थे। तत्कालीन बड़े-बड़े शासकों को भी इन्होंने अपने व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित किया था। विजयनगर के महाराज कृष्णदेव तथा दिल्‍ली के बादशाह सिकंदर लोदी वल्लभाचार्य के ज्ञान एवं सिद्धि से अत्यन्त प्रभावित हुए थे।

 

वल्लभाचार्य के वल्लभ सम्प्रदाय को शुद्धादवेती सम्प्रदाय भी कहते हैं। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि वल्लभ सम्प्रदाय का सबसे अधिक प्रचार उत्तर प्रदेश के अतिरिक्‍त गुजरात एवं राजस्थान में ही हुआ है। स्वयं वल्‍लभाचार्य जी एवं उनके पुत्र विठ्ठलनाथ जी गुजरात में अनेक बार आ चुके थे। पुष्टि सम्प्रदाय के व्यापक प्रचार का श्रेय वल्‍लभाचार्य जी के पश्चांत् विठ्ठलनाथ जी को ही है। ये सम्प्रदाय की गददी पर संवत् 1620 में पदारूढ़़ हुए। इनके सात पुत्रे थे जिनको इन्होंने सम्प्रदाय के विस्तार के लिए बाहर भेज दिया था। इनमें से यदुनाथ जी ने सूरत में तथा गिरिधर जी ने कोटा में,गोविन्दराय जी ने नाथद्वारा में, एवं बालकृष्ण जी ने काँकरोली में सम्प्रदाय की व्यवस्था का कार्य किया। गुजरात, सौराष्ट्र तथा राजस्थान के विभिन्‍न भागों में, विशेषकर, दक्षिण-पूर्व राजस्थान में पुष्टिमार्ग के मन्दिर स्थापित हुए जो ओज भी विद्यमान हैं। इन प्रदेशों में ब्राह्मण तथा व्यापारी वर्ग के लोग इस सम्प्रदाय के अनुयायी विशेष होते हैं।

 

वल्लभ सम्प्रदाय अथवा पुष्टि मार्ग
वल्लभ सम्प्रदाय अथवा पुष्टि मार्ग

 

दर्शन सिद्धान्त की दृष्टि में वल्लभ सम्प्रदाय शुद्धादवैत कहलाता है। इनके मतानुसार जगत का कारण ब्रह्म माया से अलिप्त एवं नितान्त शुद्ध है। इसके अतिरिक्‍त शंकराचार्य के अद्वैतवाद से भिन्‍नता दिखलाने के लिये भी उन्होंने अपने मत को शुद्ध विशेषण देकर शुद्धादवैत नाम दिया है।

 

पुष्टिमार्ग पंथ के नियम

 

वल्‍लभाचार्य के मतानुसार ब्रह्म विरुद्ध धर्मो का आश्रय है। इसके दोनों ही रूप सत्य है। वह कठोर भी है और करुणामय भी है। वह स्वभाव धारण करता है। अविकृत होते हुए भी भक्‍तजनों पर कृपा करता है। वह निर्गुण भी हैं और सगुण भी। शक्तियों की बाह्य अभिव्यक्ति के कारण वह पुरुषोत्तम कहलाता है, तथा आनन्द की अभिव्यक्ति के कारण वह परमानन्द स्वरूप भी कहा जाता है। पुष्टिमार्ग में श्रीकृष्ण ही परब्रह्म स्वरूप है।

 

जीव के सम्बन्ध में वल्लभाचार्य ने कहा है कि ब्रह्म स्वयं रमण करने की इच्छा से अपने आनन्द आदि गुणों को छोड़कर जीव रूप धारण करता है। इनके मतानुसार ब्रह्म से जीव का आविर्भाव उसी प्रकार होता है जैसे अग्नि से स्पुर्लिगों का होता है। जीव के तीन प्रकार बतलाये गये हैं, वे क्रमश: शुद्ध, संसारी एवं मुक्त होते हैं। जब तक जीव का अविद्या से अथवा माया से संसर्ग नहीं होता तब तक वह शुद्ध-जीव होता है। अविद्या के सम्बन्ध से जीव संसारी बन जाता है। और पुष्टिमार्ग के अनुसार जब जीव सेवा से भगवान को प्रसन्न कर लेता है एवं उनकी कृपा प्राप्त कर लेता है तब वह पुनः मुक्त हो जाता है। अर्थात्‌ अविद्या से मुक्त होकर आनन्द को प्राप्त करता है।

 

जगत के सम्बन्ध में वल्लभाचार्य का सिद्धान्त अविकृत परिणामवाद कहलाता है। इस सिद्धान्त से उनका तात्पर्य यह है कि ब्रह्म स्वयं इस सृष्टि को उत्पन्न करता है किन्तु वह विकार नहीं उत्पन्न होता जिस प्रकार स्वर्ण आभूषण रूप में परिणत होने पर भी सुवर्ण ही रहता है। उसी प्रकार ब्रह्म सृष्टि रूप में परिणत होने पर भी अविकृत रहता है। पुष्टि सम्प्रदाय में जगत और संसार को भिन्न माना है। जगत सत्य है जब कि संसार अनित्य है। संसार अविद्या के योग से बना कल्पित पदार्थ है जगत में ब्रह्म अंश है।

 

भगवान के अनुग्रह को वल्लभ सम्प्रदाय में बहुत महत्व दिया गया है। अनुग्रह ही जीव को मुक्ति दिला सकता है। अनुग्रह प्राप्त करने के लिये जीव को भक्ति करनी चाहिए। भक्ति में वललभाचार्य ने ऊंच नीच के भेद नहीं माने। भक्ति करते समय फल की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। निरपेक्ष भक्ति से भगवान स्वयं जीव पर दया करके अपना अनुग्रह व्यक्त करता है।

 

वल्लभ सम्प्रदाय के इन सिद्धान्तों का दर्शन हम नरसी मेहता, मीराबाई तथा अन्य सगुण भक्तों की रचनाओं में कर सकते हैं। गुजरात एवं राजस्थान के अधिकांश वैष्णव भक्तों की उपासना पद्धति वल्लभाचार्य के इस शुद्धादवैत सिद्धान्त पर ही आधारित है। यद्यपि ये सम्प्रदाय के शिष्य नहीं बने तथापि उपासना का मार्ग उन्होंने यही स्वीकार किया है इसमें किसी को सन्देह नहीं हो सकता।

 

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