लोहगढ़ साहिब का इतिहास – Lohgarh sahib amritsar panjab
Naeem Ahmad
अमृतसर शहर के कुल 13 द्वार है। लोहगढ़ द्वार के अंदर लोहगढ़ किला स्थित है। तत्कालीन मुगल सरकार पर्याप्त रूप से अत्याचारी तथा दूषित प्रवृत्ति वाली थी। परंतु सिख पंथ को गुरू साहिब जी ने आबरू तथा भ्रातृभाव से जीवन व्यतीत करने की जरूरत को सिखा दिया था।
आपने अनाचारी शासकों का नाश करने के लिए मीरी-पीरी की दो तलवारें धारण की। श्री अकाल तख्त साहिब का निर्माण किया, सेना रखी तथा सिख पंथ को शस्त्रबद्ध किया। ऐसी स्थिति को देखते हुए सिक्ख धर्म का सन् 1618 में पहला किला लोहगढ़ तैयार कराया गया। 8 नवंबर 1627 में जहांगीर की मौत के बाद शहंशाह तख्त पर बैठा।
लोहगढ़ साहिब हिस्ट्री इन हिन्दी – लोहगढ़ गुरूद्वारा साहिब का इतिहास
18 मई 1629 को श्री हरगोविंद साहिब की सुपुत्री बीबी वीरो के विवाह का दिन था। उन दिनों में लाहौर नगर का सूबेदार रामतीर्थ रोड पर स्थित कोहाला गांव, जोकि अमृतसर से 12 किमी दूर स्थित है, शिकार खेलने के बहाने आ गया। बाज का बहाना बनाकर मुखलिस खान ने भारी सेना सहित शहर पर आक्रमण कर दिया और खूब लूटपाट की, परंतु गुरू साहिब ने अपने परिवार को अपनी सुपुत्री की शादी करने के लिए झबाल गांव भेज दिया।
लोहगढ़ साहिब के सुंदर दृश्य
शादी की रस्म आदि से मुक्त होकर उन्होंने शत्रु सेना को मुंहतोड़ जवाब दिया। कोहाला गांव से लेकर खालसा कालेज, पिपली साहिब तथा लोहगढ़ तक रणभूमि बन गई। पैंदेखान तथा भाई बिधि चंद ने मुखलिस को मार गिराया। गुरू साहिब की विजय हुई। खालसे का भारतीय इतिहास में यह पहला युद्ध था, जिसके उदाहरण से निरूत्साहित सिख पंथ को शक्ति तथा साहस मिला। युद्ध समाप्त करने के बाद शादी की अन्य रस्मे पूरी की गई।
गुरू हरगोविंद सिंह जी ने लोहगढ़ के किले में बेरी वृक्ष की लकडी में छेद करके तथा इसमें बारूद भर कर तोप की तरह इसे चलाया। यह खालसे का प्रथम किला है, तथा बेरी वृक्ष की पहली तोप है, जो आज भी इस स्थान पर मौजूद है।
श्री गुरू हरगोविंद सिंह जी की दो तलवारें, जो लम्बाई मे ढाई फुट की है, उनकी शूरवीरता की गवाही यहां आज भी देती है। यहां एक पुराना कुआँ भी है। इस स्थान पर गुरूद्वारा बना दिया गया है। जहां रोज संगत तथा पंगत का प्रवाह चलता रहता है।
वर्तमान में इस स्थान की देखरेख शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी कर रही है। लकड़ी की तोप, दोनों तलवारें तथा युद्ध के समय का चित्र स्मृति चिन्ह के रूप में एक बडी शीशे की अलमारी में सुरक्षित रखा गया है। इस स्थान पर हरगोविंद साहिब जी के जीवन से संबंधित दिवस, अवतारधारण, गुरूगद्दी, विजय दिवस आदि बड़े उत्साह के साथ मनाये जाते है।
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