लोद्रवा जैन मंदिर का इतिहास – हिस्ट्री ऑफ लोद्रवा जैन टेंपल

लोद्रवा जैन मंदिर के सुंदर दृश्य

भारतीय मरूस्थल भूमि में स्थित राजस्थान का प्रमुख जिले जैसलमेर की प्राचीन राजधानी लोद्रवा अपनी कला, संस्कृति और जैन मंदिर के लिए पुरातात्विक विशेषज्ञों, पर्यटकों, और जैन धर्म के अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान है। जैसलमेर से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित लोद्रवा प्रसिद्ध जैन तीर्थ स्थल है। यह स्थान पुराणों में वर्णित प्राचीन काक नदी के सुरम्य तट पर स्थित है। तथा यह नगर जैसलमेर की स्थापना से पूर्व लोद राजपूतों की राजधानी थी। जिसे लोद राजपूतों द्वारा बसाया गया था और लोद्रवा नाम दिया गया था।

लोद्रवा जैन मंदिर राजस्थान का इतिहास

तक्षशिला और नालंदा के समान ही लोद्रवा के प्राचीन विश्वविद्यालय की ख्याति दूर दूर तक थी। लोद्रवा के इतिहास से मालूम होता है कि भाटी देवराज की राजधानी पहले देवगढ़ थी। उसने लोद राजपूतों से यह नगर जीत कर स्वयं ने रावल की उपाधि धारण की ओर विक्रमी सन् 1082 में अपनी राजधानी देवगढ़ से लोद्रवा बदल दी। उस समय लोद्रवा एक समृद्धशाली नगर था।

कहते है कि उसमें प्रवेश के बारह बडे बडे दरवाजे थे। जिसके ध्वंसावशेष जैसलमेर के उत्तर पश्चिम में दस मील के घेरे में आज भी बिखरे पडे है। मौहम्मद गौरी द्वारा किए गए संहार से दूर तक फैला यह भव्य नगर आज खण्डहर मात्र रह गया है। यहां के प्रसिद्ध जैन एवमं वैष्णव मंदिरों की इस आक्रमण में सर्वाधिक दुर्गति हुई थी, और वे सर्वथा टूट फूट चुके थे। जिनका बाद मे समय समय पर श्रृद्धालु भक्तजनों द्वारा जीर्णोद्धार किया गया।


लोद्रवा जैन मंदिर के गर्भद्वार से दाहिनी ओर 22″×26″ का एक शतदल पदम्युक्त मंत्र मंडित है। जिससे मालूम होता है कि प्राचीन काल में यहां सगर नामक राजा था। जिसके श्रीधर और राजधर नामक दो पुत्र थे। जिन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान के मंदिर का निर्माण करवाया था। जो कालांतर में राजकीय विप्लवो में नष्ट हो गया। इसके पश्चात श्री भीम सिंह ने इसका पुनः निर्माण करवाया। समय के साथ साथ इसके भी क्षीर्ण होने पर विक्रमी सन् 1675 में जैसलमेर निवासी धर्मवीर सेठ धीरूशाह भंसाली ने इस प्राचीन मंदिर की नीवों पर ही नए मंदिर का निर्माण करवाया। जिसकी प्रतिष्ठा श्री जिनराज सूरि महाराज ने की। यही मंदिर आज देश के समस्त जैन मंदिरों में अनूठा, अपनी कला, सौंदर्य और भव्यता की दृष्टि से अद्वितीय है।


इस मंदिर के परकोटे में स्थित पांच देव मंदिरों में से मध्य का श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवान का बडा मंदिर ही मुख्य है। जिसमें मूल नायक की प्रतिमा श्यामवर्गीय एवंम रत्नजड़ित है। इस भव्य प्रतिमा के दर्शन कर भक्त जन असीम आनंद एवंम शांति का अनुभव करता है। इस प्रतिमा के संबंध में एक किवदंती प्रसिद्ध है, कहा जाता है कि लोद्रवा मंदिर के निर्माता श्री धीरूशाह जब सिद्धाचंल की यात्रा से लौटते समय पाटन (गुजरात) से गुजरे तो उन्होंने वहां एक मूर्तिकार के पास इन दो भव्य प्रतिमाओं को देखा और वे प्रतिमाओं पर मुग्ध हो गए।

मूर्तिकार ने अपने जीवन के सर्वाधिक वर्षो को इन दो प्रतिमाओं के निर्माण में ही लगाया था। श्री धीरूशाह इन प्रतिमाओं के बराबर वजन की स्वर्ण मुद्राएं देकर उन्हें लोद्रवा में प्रतिष्ठित करने हेतु खरीद लाएं। जिस रथ पर वे मूर्तियां गुजरात से लाई गई थी, आज भी वह रथ इस मंदिर में विद्यमान हैं। इन प्रतिमाओं के संबंधित एक किवदंती ओर भी प्रसिद्ध है। कहते है कि प्रतिष्ठा के पश्चात इन मूर्तियों का अलग अलग कोणों से अलग अलग समय में दर्शन करने पर विभिन्न देव रूपों के दर्शन भक्तजनों को हुआ करते थे। इस मूर्ति मे भगवान सहस्त्रनाग का छत्र धारण किए हुए है। यह भी माना जाता है कि मूर्ति की प्रतिषठिता से आज तक बराबर एक जीवित काला सर्प वहीं मूर्ति के आसपास विद्यमान रहता है। जिसके हजारों जैन श्रृद्धालु दर्शन करने का दावा करते है। और पुजारी द्वारा प्रतिदिन नागराज के लिए अलग से एक कटोरे में दुग्ध पेय रखा जाता है। जिसे नागराज आकर ग्रहण कर जाते है।


लोद्रवा जैन मंदिर की बनावट अत्यंत विचित्र एवमं भव्य है। मंदिर के अंदर की बनावट व्यवस्था आर्य शैली के अनुरूप है। प्रस्तर कला में सर्वत्र हौरीजेनल थ्योरी का प्रचुर उपयोग किया गया है। मकराने पत्थर के उपयोग का यहा अभाव है। जैसलमेर के पीतवर्णी पाषाण में मंदिर की शोभा स्वर्णिम हो गई है। मंदिर की छत पेनल्स में विभाजित की गई है। प्रवेशद्वार के तोरण में इस कला का सौंदर्य विशेष रूप से मूर्त हुआ है। कोणों से स्तंभ आदि प्रत्येक भाग में बारीक खुदाई का काम किया गया है। सौंदर्य से भी अधिक इस मंदिर की मजबूती देखने योग्य है। मुख्य मंदिर के चारों कोनो पर चार छोटे छोटे शिखर बदी मंदिर है। जिनका निर्माण धीरूशाह की पत्नी, पुत्र और पौत्र ने पुण्यार्थ करवाया था। जिस पर विक्रमी सन् 1675 से 1693 तक की तिथियां अंकित है।

इस भव्य मंदिर के पास समोशरण के ऊपर अष्टापद गिरि और उसके ऊपर कल्पवृक्ष की मनोहर रचना की हुई है। कल्पवृक्ष हांलाकि इस मंदिर से ही जुडा हुआ है किंतु वह अपने आप में भव्य और सब से अलग इस मंदिर का मुख्य आकर्षण है। इस मंदिर के अलावा यहाँ देवी का मंदिर भी विख्यात है। जहाँ पर वर्ष में दो बार मेला लगता है। ऐतिहासिक किवदंतियों की प्रसिद्ध नायिका नारी सौंदर्य की देवी मूमल की मेड़ी आज भी जीर्ण अवस्था में पडी है। जिसे देखकर ऐसा लगता है मानो कि राजस्थानी लोक गीतों की नायिका मूमल और अमरकोट के राणा महेंद्र, आज भी ऊंटनी पर सवार होकर मरू के टीले पर खडे होकर लोद्रवा की ओर निहारते हुए सिसकियां भर रहे है।

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