लोथल यह स्थल सौराष्ट्र क्षेत्र मेंअहमदाबाद से 87 किमी दूर
भोगवा नदी के किनारे धोलका तालुका के सरागवाला गांव के पास स्थित है। यह एक आर्कियोलॉजिकल साइट है। पुरातत्वविद एस. आर. राव की अगुवाई में कई टीमों ने मिलकर 1954 से 1963 के बीच कई हड़प्पा स्थलों की खोज की, जिनमें में बंदरगाह शहर लोथल भी शामिल है। पुरातत्व में रूची रखने वाले पर्यटक यहां आते रहते हैं।
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लोथल की खोज किसने की – लोथल किस नदी किनारे स्थित है
लोथल सिंधु घाटी सभ्यता के एक प्रमुख स्थल के रूप में जाना जाता है। लोथल की खोज 1954 में हुई थी। इसकी खुदाई 13 फरवरी 1955 से 19 मई 1960 के बीच भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा की गई थी। खुदाई में इस शहर के यहां छह बार बसने और उजड़ने के प्रमाण पाए गए हैं। यहां की गई खुदाइयों में 46.6 मी लंबा नाला, 3.7 मी चौड़ी सड़क, मिट्टी के लाल और काले रंग के बर्तन (यथा गिलास, कप, प्यालियाँ आदि), नाँद, लैंप, फन्नियाँ, बरछे और तीरों की नौकें, सुइयाँ, चाकू, पिनें, मछली पकड़ने के काँटे (सभी ताँबे अथवा पीतल के), गेहूँ चावल, घोड़ों की अस्थियाँ, सेलखड़ी पत्थर की चूड़ियाँ, अकीक और माप पाए गए हैं। बर्तनों पर ताड़, पीपल, पेड़ों की शाखाओं, फूलों, चिड़ियों, मछलियों, साँपों और हरिणों के चित्र पाए गए हैं।

सिंधु घाटी की मुहरों से मिलती-जुलती कुछ मुहरें भी पाई गई हैं। इन मुहरों पर हरिणों, हाथियों और साँपों के चित्र बने हैं। एक मुहर के चित्र में मुँह ऊँट का, सींग हरिण के, दाढ़ी बकरे की और धड़ बैल का पाया गया है। एक मुहर के चित्र में तीर में लगी मछली पाई गई है। यहां ज्यादातर घर कच्ची ईंट के बने होते थे, परंतु कुछ घर पकी ईंट के भी पाए गए हैं। एक घर 4.8 मी × 3.7 मी आकार का पाया गया है। इस घर में रसोई, स्नानघर तथा इन दोनों में जल-निकास की अवस्था पाई गई है।
लोथल तीन किमी के घेरे में फैला हुआ था। लोथल में की गई सबसे प्रमुख खोज तिकोणी गोदी है, जो पकी ईंट की है। इसका साइज 40×40×216 मी था। भोगवा नदी से पानी लेने और उसमें पानी छोड़ने के लिए इसमें सात मीटर चोड़ा नाला भी बना हुआ था। यहां सौदागरों की नावें ठहरती थीं। लोथल प्राचीन काल में एक महत्वपूर्ण और संपन्न व्यापार केंद्र था , जिसके मोतियों, रत्नों और मूल्यवान गहनों का व्यापार पश्चिम एशिया और अफ्रीका के सुदूर कोनों तक पहुंचता था।
यहां से मिश्र, सुमेरिया और पश्चिमी एशिया के साथ व्यापार किया जाता था। यहां पाई गई फारस की खाड़ी की मुहरों से मिलती- जुलती मुहरों से पता लगता है कि लोठल के ईरान से भी व्यापारिक संबंध थे। यहां हाथी पालने और चावल की खेती के प्रमाण भी मिले हैं। शहर छह खंडों में विभाजित था। प्रत्येक खंड कच्ची ईंट के बड़े चबूतरे पर बना था। यहां की गई खुदाइयों में मिट्टी की गोल मुहरें तथा कारीगरों के प्रयोग के ताँबे और काँसे के औजार पाए गए हैं।
लोथल शहर का निर्माण योजनाबद्ध तरीके से हुआ था और इसमें जल-निकास की अच्छी व्यवस्था थी। कब्रिस्तान शहर के बाहर था। इस कब्रिस्तान में आदमियों और औरतों की साथ-साथ पाई गई हड्डियों से आभास मिलता है कि उन दिनों यहां सती प्रथा का प्रचलन था। यहां सिंधु सभ्यता का अंत अचानक नहीं, बल्कि धीरे-धीरे हुआ था। यहां यह सभ्यता मोहनजोदाड़ो के ह्वास के बाद भी जारी रही। पुरातत्वविदों का मानना है कि लोथल का पतन बाढ़ के कारण हुआ था।