कुत्ता काट ले तो गांवों में लुहार ही तब डाक्टर का काम कर देता। और अगर यह कुत्ता पागल हो तो उसका इलाज था, घाव में से एक लाल गरमा गरम सीख गुजार दो। कोई ही खुशकिस्मत मरीज़ होता जो इलाज से भी और मर्ज से भी, दोनों से इस तरह निजात पा सकता। लुई पाश्चर ने एक ऐसा केस अपनी आंखों देखा भी था, तब वह नौ साल का था। और पचास साल बाद उसने पागल कुत्ते के काटने का एक खतरे से खाली और आसान इलाज निकालकर उसे कसौटी पर उतार दिखाया। अपने इस लेख में हम इसी महान वैज्ञानिक का उल्लेख करेंगे और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से जानेंगे:—-
लुई पाश्चर की मृत्यु कब हुई? किंवन की खोज लुई पाश्चर ने कब की? पाश्चराइजेशन विधि क्या है? लुई पाश्चर के जीवन की उत्पत्ति के सिद्धांत? लुई पाश्चर माइक्रोबायोलॉजी के जनक? पाश्चर प्रभाव किसे कहते हैं? रेबीज के टीके की खोज किसने की? लुई पाश्चर को किसका जनक कहा जाता है? लुई पाश्चर के क्या आविष्कार किया? लुई पाश्चर की कहानी क्या है?
लुई पाश्चर का जीवन परिचय
लुई पास्चर का जन्म फ्रांस के पूर्वी हिस्से में एक गांव में 1822 की सदियों में हुआ था। पिता फ्रांस की फौज में एक सिपाही रह चुका था और, नेपोलियन के पतन के पश्चात उसने दोल में चमड़ा साफ करने की एक दुकान खोल ली थी। लुई के जन्म के कुछ ही दिन बाद परिवार दोल छोड़कर कुछ दूर अंगूरों की एक बस्ती के बीच आर्वोई में आ बसा। फौज का पुराना सार्जेंट जिन जोसेफ पास्चर टैनरी में भी मशगूल रहता, और बच्चों की परवरिश में भी। किसी सकल में उसने शिक्षा नहीं पाई थी, जो कुछ सीखा था वह अपने ही पैरों पर, किन्तु पढ़ाई-लिखाई और बुद्धि के कामों के लिए उसके दिल में इज्जत थी। गांव में भी उसके साथियों में एक गांव का डाक्टर था, और एक ऐतिहासिक बूस्सों डि मोरे था। जोसेफ पास्चर के मन में अपने पुत्र के लिए बड़ी महत्त्वाकांक्षाएं थीं। उसकी इच्छा थी कि उसका पुत्र बड़ा होकर प्रान्त के हायर सेकेण्डरी स्कूल में एक टीचर लग जाए।
पिता से और डि मोरे से लुई ने देशभक्ति की भावना ग्रहण की और फ्रांस के प्रति प्रेम, और फ्रांस की महान आात्माओं के प्रति आदर-भाव जिसका प्रभाव उसके हृदय में आजीवन स्थायी रूप से बना रहा। लुई पाश्चर के बचपन में कोई ऐसे आसार नही थे जिनसे पता चल सकता कि वह बडा होकर विज्ञान के अनुसंधान में प्रवृत्त होगा। पन्द्रह साल की उम्र से उसकी रुचि पोर्टेंट बनाने में थी । पेंटिग में उसकी सफलता अद्भुत थी, और वह सचमुच एक विख्यात चित्रकार होता भी यदि उसकी रुचि विज्ञान की ओर न हो गई होती। उसके कलाकार जीवन की ऐसी कुछ स्मृतियां बच भी आई है और आज पेरिस मेपाश्चर इंस्टीट्यूट में लटक रही है।
स्थानीय सेकेण्डरी स्कूल के हेडमास्टर ने देखा कि इस कल्पनाशील, उत्साही किन्तु विचारशील विद्यार्थी में एक अच्छा अध्यापक बनने के लक्षण है। एकोल नॉर्मलि सुपूरियो के विज्ञान विभाग में यद्यपि लुई को दाखिला मिल चुका था। यह पेरिस में अध्यापकों के प्रशिक्षणार्थ एक संस्था थी। एक साल तक वह खुद ही यहां दाखिल नही हुआ क्योंकि उसका विचार था कि वह अभी पूरी तरह से इसके लिए तैयार नही है। तब तक उसकी रुचि भी परिष्कृत हो चुकी थी। गणित, भौतिकी और रसायन में उसे विशेष रुचि थी। पास्चर एक प्रतिष्ठित अध्यापक बनना चाहता था। उसके पत्रों मे स्पष्ट अंकित है कि उसे भौतिकी तथा रसायन अध्यापन की क्रियात्मक परीक्षाओं में सफलता मिलने पर कितना गर्व एवं उल्लास अनुभव हुआ था। किन्तु प्रमाणपत्र मिलते ही वह अध्यापन की ओर न जाकर अनुसन्धान की ओर मूड गया।

ऐकोल में विद्यार्थी रहते हुए ही पास्चर ने स्फटिकों के सम्बन्ध मे कुछ अनुसन्धान शुरू कर दिया था। उन्ही दिनो उसने ब्रोमीन के आविष्कर्ता ऐल्तॉयने येरोम बलार के रसायन पर कुछ व्याख्यान सुने भी थे। बेंजामिन फ्रैकलिन की तरह बलार का भी विश्वास था कि वैज्ञानिक अनुसन्धान का कार्य घर में ही एक छोटी-मोटी प्रयोगशाला खडी करके भी चलाया जा सकता है। सो, स्कूल मे ही इसी तरह की एक झोपडी सी उसने बना भी रखी थी। बलार पास्चर की मौलिक गवेषणाओं से और अन्तदृष्टि से पहले ही बहुत प्रभावित हो चुका था। उसने उसे अपने असिस्टेंट के तौर पर बुला लिया। इस अवसर से पास्चर को तुरत लाभ यह हुआ कि टार्टरिक एसिड के स्फटिकों की सूक्ष्म परीक्षा उसकी वैसी ही बदस्तुर चलती रही। बलार ने उसके निष्कर्षों को फ्रांस के प्रसिद्ध भौतिकी विशारद जिए बैप्टिस्टे बिओ के पास भेज दिया और बिओ ने इन अनुसन्धानों की ओर फ्रेंच ऐंकेडमी ऑफ साइन्स का ध्यान आकर्षित किया।
1848 मे प्रोफेसर बलार तथा प्रोफेसर बिओ की उठाई आपत्तियों एवं आक्षेपों के बावजूद और एकेडमी के अन्य सदस्यों का विचार भी कुछ भिन्न न था, शिक्षा मन्त्रालय ने लुई पाश्चर को दिजो के एक सेकेण्डरी स्कूल से प्रारंभिक भौतिकी पढाने पर नियुक्त कर
दिया। पास्चर के मित्रों तथा अभिभावकों की कोशिशें अब भी जारी रही। वे अब भी मन्त्रालय पर दबाव डालते रहे जिसका नतीजा यह हुआ कि एक ही साल बाद लुई को स्ट्रासबर्ग विश्वविद्यालय मे रसायन की प्रोफेसरी मिल गई। यहां आने के कुछ ही सप्ताह पश्चात इस गम्भीर प्रकृति, चिन्तनशील वैज्ञानिक ने विश्वविद्यालय के रैक्टर से कहां कि वह उसे अपनी लडकी का हाथ शादी मे दे दे। पत्र इस प्रकार था “मेरे पास कुछ भी सम्पत्ति नही है। मेरे पास जो थोडे-बहुत साधन है, वे है, अच्छा स्वास्थ्य, कुछ साहस भी, और विश्वविद्यालय में मेरी यह नौकरी। भविष्य के बारे में मैं यही कह सकता हु कि, जब तक मेरी रुचियों मे कुछ मौलिक परिवर्तन ही नहीं आ जाता, मेरा ध्येय जीवन को रसायन सम्बन्धी अनुसन्धान मे खपा देने का ही है। विज्ञान के क्षेत्र मे अनुसन्धान की बदौलत जब कुछ प्रतिष्ठा मुझे मिल जाएगी, मेरा विचार पेरिस लौट जाने का है। मेरे पिता खुद स्ट्रासबर्ग आकर विवाह का यह प्रस्ताव आपके सम्मुख रखेंगे।
लुई पाश्चर और मैरी लौरेत 29 मई, 1849 को विवाह में बध गए। पाश्चर 26 वर्ष का था और मैरी 22 की। मेरी एक आदर्श पत्नी थी। एमिल रूक्स जो 1876 में पाश्चर का असिस्टेंट था और 1904 मे पाश्चर इन्स्टीट्यूट का डायरेक्टर मैरी के बारे में लिखता है, “विवाहित जीवन के पहले दिन से मैरी को पता था कि उसकी शादी किसके साथ हुई है। जीवन की कठोरताओं से पति को बचाए रखने के लिए उसने सब कुछ किया, घर की चिन्ताएं अपने ऊपर लेते हुए कि अनुसन्धान-कार्य मे पाश्चर के मन को पूर्ण स्वतन्त्रता मिली रहे। शाम को उसका यह एक दैनिक कर्तव्य ही हो गया था कि जो कुछ पास्चर बोलता चले वह लिखती जाए। स्फटिकों की रचनाओं में और विषाणुओं के तनूकरण मे भी वह सच्ची दिलचस्पी दिखाती। उसमें यह बुद्धि ही जागृरित हो चुकी थी कि विचारों को किसी और के सम्मुख अभिव्यक्त करके उनमें स्पष्टता आ जाती है, और यह कि पुराने परीक्षणो के उपवर्णन में जो प्रेरणा नये परीक्षणो को सयोजित करने की मिलती है वह किसी भी और प्रकार से असम्भव है। परीक्षणो में प्राय एक श्रृंखला सम्बन्ध हुआ करता है। मैरी पास्चर की एक अनुपम साथिन ही नही, एक अनुपम सहयोगिती थी।”
और फिर लुई पाश्चर और मैरी के जीवन में व्यक्तिगत दुख भी कुछ कम नही आए। उनकी पहली सन्तान, जिएने, एक लडकी थी जो नौ बरस की होकर गुजर गई। 1865 में दो साल की नन्ही कैमिली भी गुजर गईं। और 1866 में 12 साल के सीसिल को टाइफाइड ले गया। 1871 में जर्मनी के हाथो फ्रांसासी फौज की हार के दौरान में खबर आई पाश्चर का बीस साल का जवान बेटा बप्टिस्टे लापता है। लुई ने सब काम-काज छोड दिए और लौट रहे थके-हारे सिपाहियो की लम्बी कतारो को ही सारा दिन देखते गुज़ार देता। और फिर दिल तोड़ देने वाली एक खबर यह आई कि साजेंट पास्चर की बटालियन के 1200 आदमियो में अब केवल 300 ही बच रहे है। लुई और मैरी के लिए यह एक खुदकिस्मती ही थी कि उनका इकलौता बेटा घायल लेकिन ज़िन्दा घर लौट आया और तीमार पुरसी करके उन्होने उसे भला-चंगा भी कर लिया। लुई पाश्चर जर्मनी का यह अपराध जीवन-भर कभी क्षमा नही कर सका। सालो बाद जब जर्मनी की सरकार ने एक मेडल उसे उसके वैज्ञानिक अनुसन्धानों के सम्मान में देना चाहा तो उसने लेने से इन्कार कर दिया।
लुई पाश्चर की खोज
अब हम ज़रा देखे कि लुई पाश्चर ने क्या कुछ सम्भव कर दिखाया पास्चर के पहले पहल परीक्षण स्फटिकों के सम्बन्ध में थे। भौतिकी के प्रसिद्ध प्रोफेसर बिओ ने देखा था कि क्वार्ट्ज के स्फटिक में से जब “ध्रुवित’ प्रकाश को गुज़ारा जाता है उसका ‘तल’ घूम जाता है, अर्थात प्रकाश की दिशा परिवर्तित हो जाती है। अन्य वैज्ञानिकों की भी साक्षी थी कि ध्रुवित प्रकाश को चक्कर देने के लिए पहले कुछ स्फटिकों को विलीन कर देना जरूरी है। उदाहरण के तौर पर यदि इस ध्रुवित प्रकाश को पानी में कुछ शक्कर घोलकर उसमें से गुज़ारा जाए, ध्रुवीकरण के तल में शक्कर के शरबत में से गुजरते हुए कुछ चक्कर आने लगेंगे। उधर, एक जर्मन वैज्ञानिक आइलहार्ड मितशेरलिख टार्टरिक एसिड से सम्बद्ध किसी प्रश्न से जूझा हुआ था। शराब के कारोबार मे टार्टरिक की उत्पत्ति होती है। उसकी सूचना थी कि टार्टरिक एसिड दो तरह के होते है, एक तो सच्चा टार्टरिक एसिड और दूसरा पेराटार्टरिक एसिड। सच्चे एसिड से तो ध्रुवित प्रकाश में यह चक्कर आता है, किन्तु पेराटार्टरिक का उस पर कुछ भी असर नहीं होता। और सब मामलो में दोनों में कुछ भी भेद नही है।
पाश्चर अभी उम्र में बहुत छोटा था, किन्तु यह अजीब-सी स्थिति उसके दिमाग को काबू कर गई। विश्वास ही न आता उसे। कुछ न कुछ स्पष्ट भेद होना ही चाहिए। और अब वह इसी पर लग गया कि वह भेद है क्या है? इतने साल स्फटिकों पर काम किया था, आज उसी की परीक्षा का दिन जैसे आ गया था। टाट्टरिक एसिड के स्फटिकों की सुक्ष्म रूप-रेखाएं गौर से देखी। मितशेरलिख की किस्म का पैराटार्टरिक एसिड भी तैयार किया, और उसके स्फटिकों की छानबीन भी उसने की। पैराटार्टरिक मे उसने देखा कि उसके स्फटिकों की आकृति दो प्रकार की है। कुछ वाममुखी है, तो कुछ दक्षिण मुखी। उसका चेहरा खिल उठा पैराटार्टरिक एसिड वस्तुत दो किस्म के टाट्रेट है, वाममुखी तथा दक्षिणमुखी दो किस्मों का एक सममिश्रण सा। यह एक बिलकुल ही अद्भूत और स्वंथा नूतन खोज थी। पाश्चर की स्फटिक-सम्बन्धी खोजों का यह अन्त नही आरम्भ था। स्फटिकों के अध्ययन को समाप्त करने से पूर्व उसने पार्थिव जीवन के सम्बन्ध में एक स्थापना भी प्रस्तुत कर दी। उसका विचार था कि ये दक्षिणमुखी और वाममुृखी स्फटिक सदा सजीव वस्तुओ की अन्त क्रिया द्वारा ही उत्पन्न हुआ करते है। दोनो को एक नाम अ-समरूप’ (ए-सिमिट्रिकल ) दे सकते हैं। पास्चर को विश्वास था कि रासायनिक प्रक्रियाओं मे ये अ-समरूप शक्तियां प्रवेश पा सकें तो प्रयोगशाला में स्वयं जीवन का निर्माण भी किया जा सकता है। प्रयोगशाला में जीवन को सिद्ध कर दिखाने के इस स्वप्न में तो पास्चर को सफलता नही मिली, किन्तु एक और नई समस्या,खमीर लगना, के समाधान के लिए अलबत्ता उसे कुछ प्रशिक्षण इस प्रकार आप से आप मिल गया।
‘फेर्मेंप्टेशन, अथवा ‘खमीर लग जाना” एक वैज्ञानिक परिभाषा है जिसका प्रयोग कुछ द्रव्यों में प्रत्यक्षीकृत परिवर्तनों के वर्णन में किया जाता है। कभी तो हम चाहते हैं कि चीज़ को खमीर लग जाए, और कभी नहीं चाहते। अंगूर सड़ते हैं, उन्हें खमीरी लग जाती है, ओर तब जाकर शराब बनती है, और यह शराब ही अब सिरका भी बन सकती है यदि यह और सड़कर एसेटिक एसिड बन जाए। दूध खट्टा पड़ जाता है जब उसकी शक्कर खमीरी होकर दुग्धाम्ल में परिणत हो जाती है। मांस और अण्डों के लिए खमीर हानिप्रद है। शराब फ्रांस में एक बड़ा ही भारी उद्योग थी, और अब, जब अंगूर मुफ्त में ही सड़ने लग गए, स्वभावत: कारोबार के लिए एक समस्या उठ ही खड़ी होती थी। किन्तु अभी तक किसी को यह मालूम नहीं था कि चीज़ों में यह खमीर आखिर लगता किस तरह है, और प्रकृति को ही यदि स्वतन्त्र छोड़ दिया जाए तो उसका नतीजा यह भी हो सकता है कि शराब या तो खट्टी हो जाए या फिर बने ही नहीं। पास्चर ने शराब के कारोबार का सूक्ष्म अध्ययन किया जिसका परिणाम हुआ खमीर के कीटोत्पादन-सिद्धांत का आविष्कार, जिसे पास्चर ने लिली की ‘सोसाइटी डि साइन्सेज़’ के सम्मुख रखा। उसने अपनी यह
धारणा सूत्रबद्ध कर दी कि सूक्ष्म तथा व्यापक परीक्षणों द्वारा यह स्पष्ट है कि प्रकृति में द्रव्यमात्र में कोई भी परिवर्तन बिना इन छोटे-छोटे जीवाणुओं के असंभव है, भले ही हम इन्हें सूक्ष्मदर्शी यन्त्र की सहायता के बिना देख भी न सकें। पास्चर ने यह भी प्रत्यक्ष दिखा दिया कि ताप के द्वारा इन क्षुद्रजन्तुओं को नियन्त्रित भी किया जा सकता है। पास्चर के परीक्षणों और अनुसंधानों ने फ्रांस के शराब-उद्योग को एक वैज्ञानिक आधार दे दिया। और इसी अध्ययन का एक और परिणाम भी विश्व-व्यापक सिद्ध हुआ। पास्चराइजेशन की विधि द्वारा दूध वगैरह की सुरक्षा, ताकि न तो वह फटने पाए और न ही उसमें बीमारीके कोई कीटाणु ही रह सके या जा सकें।
कुछ साल बाद, अब फ्रांस का रेशम-उद्योग बरबाद होने की नौबत पर आ गया क्योकि रेशम के कीडो को कुछ बीमारी लग गई थी। मुश्किल का पता करने के लिए लुई पाश्चर को बुलाया गया। यहां भी समस्या के हर पहलू का उसने अध्ययन किया। रेशम के कीडो को पैदा करने में वह सिद्धहस्त हो गया कि किस प्रकार रेशम के स्वस्थ कीटाणुओं को पृथक करके कारोबार को सुरक्षित किया जा सकता है।
लुई पाश्चर की सफलताओ में चिन्तन से उद्भूत कुछ निरन्तरितता सी, कुछ क्रम सा, कुछ अपरिहेयता सी है। एक अनुसंधान का अर्थ था, एक और अनुसन्धान की अवश्यम्भाविता। स्फटिक के अध्ययन ने उसे जीवन के निगूढ़ रहस्यो की खोज के लिए प्रेरित किया। और जीवन के अध्ययन द्वारा वह खमीर लगने की समस्या के समाधान की ओर मुड़ा, यहां वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि फेमेंटेशन का मूल होते है छोटे-छोटे जीवाणु (माइक्रोब्ज) इस अनुसधान का परिणाम यह हुआ कि परम्परावादियो से उसकी झडप हो गई। ये लोग अभी तक यही मानते आ रहे थे कि निर्जीव मिट्टी से भी जीवन की उत्पत्ति स्वत हो सकती है। यह सच है कि ग्रब, मेंगट, और टेपवर्म और चूहे की उत्पत्ति के विषय में तो इंसान इटेलियन वैज्ञानिक फ्रासिस्कों रेडि के बाद, अब यह मानने लग गया था कि ये स्वयं भू नही हैं, किन्तु यह विश्वास अब भी प्रचलित था कि माइक्रोब्स की उत्पत्ति किन्ही जीव-रहित ऑर्गेनिक द्रव्यों से ही होती है।
इन क्षुद्राणुओं की उत्पत्ति भी स्वयंभु नही होती, पास्चर ने आखिर यह भी सिद्ध कर दिखाया। उसके कीटाणू-सिद्धान्तों का ही यह प्रसाद था कि फ्रांस का रेशम का कारोबार नष्ट होते-होते बच गया। उसने एक जलील बीमारी ‘एन्ध्रैक्स’ (गिल्टी बनना ) के विषय मे भी अध्ययन किया और यूरोप भर के पशुओं को इसके जबडें मे जाने से बचा लिया। उसने गैग्नीन (चमडी वगैरह का गलने लग जाना, और खून में जहर फैलने का, और प्रसव-ज्वर का भी व्यापक अध्ययन किया और क्यो कि इन सब बीमारियों का कारण भी कीटाणु ही थे, इन्हे नियंत्रित करने की विधि भी परिणामत वह चिकित्सक जगत को दे गया।
ओर फिर पागल कुत्ते के काटने से पैदा होने वाली हलकेपन की वह लानत भी लुई पाश्चर की प्रयोगशाला में पहुची। इसका भी कुछ समाधान करना होगा और पास्चर ने अद्भुत कुशलता के साथ एक नौ साल के बच्चे की जिन्दगी को एक ही टीके से बचाकर चंगा कर दिखाया। बेचारे को कुत्ते ने इस बुरी तरह काटा था कि गरम सीख को तो बरदाश्त कर सकता भी उसके लिए कभी मुमकिन न होता।
लुई पाश्चर की मृत्यु 28 सितम्बर 1891 को हुई। उसका जीवन-दर्शन खुद उसी के शब्दो मे सूत्रित है “मुझे पूर्ण विश्वास है कि अविद्या तथा युद्ध की प्रवृत्ति पर अन्त में विजय विज्ञान और शान्ति की ही होगी और ये राष्ट्र भी आखिर एक होकर परस्पर विनाश में नही, मनुष्य की उन्नति में ही प्रवृत्त होंगे। भविष्य उन्हीं का होगा जिन्होंने दुखी मानव जाति के लिए अधिक से अधिक कष्ट उठाते हैं।