1857 के स्वतंत्रता संग्राम मेंलखनऊ के क्रांतिकारी ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इन लखनऊ के क्रांतिकारी पर क्या-क्या न ढाये जुल्मों सितम इन फिरंगियों ने भारतीयों पर। 1857 का विद्रोह शुरू होते ही तमाम लोगों को जानवरों की तरह जेलों में ठूस दिया गया। अनेक लोग नज़रबन्द कर दिये गये। तुलसीपुर के राजा दुर्गविजय सिंह एक साल तक नज़रबन्द रहे। बीमार हो गये इलाज न होने की वजह से दिलकुशा में मृत्यु हो गयी।दिल्ली में भी विद्रोह हो जाने के कारण शाहजादे मिर्जा मोहम्मद शिकोह और मिर्जा हैदर शिकोह लखनऊ भाग आये थे मगर यहां आते ही इन्हें भी नज़रबन्द कर दिया गया।नवाब सआदत अली खां के साहबज़ादे मिर्जा मोहम्मद हसन खाँ बेलीगारद में नजरबन्द थे।
हैजा हो जाने के कारण उनका इन्तकाल हो गया। मरने के बाद उन्हें शहीदमर्द की कब्र के करीब ही बेलीगारद में दफन कर दिया था।नवाब वाजिद अली शाह के भाई जान मुस्तफा अली भी बेलीगारद में नज़रबन्द थे। सन् 1857 की इस जंगे आज़ादी में अवध के ताललुकेदारों व ज़मीदारों ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। सैय्यद कमालुद्दीन के अनुसार गोण्डा के राजा देवी बख्श सिंह 3000 सेनिक, गोसाईगंज के जमीदार और ताल्लुकेदार आनन्द जी एवं खुशहाल जी 4000 सेनिक, सेमररौता चन्दापुर के राजा शिव दर्शन सिंह 10,000 सैनिक लेकर लखनऊ आये। जमींदार राम बख्श 3 तोपें और 2000 घुड़सवार सैनिक, अमेठी के राजा लाला माधो सिंह 4 तोपें 200 घुड़सवार सैनिक 5000 पैदल सेना, रसूलाबाद के चौधरी मीरमन्सब अली 1000 सैनिकों, खझूर गाँव के राणा रघुनाथ सिंह 4 तोपें और 2000 सैनिकों के साथ, संडीला के चौधरी हश्मत 4000 सेनिक, बसवारा के ताललुकेदार राणा बेणीमाधव बख्शसिंह 5 तोपों और 5000 सैनिक, राजा नानपारा के कारिन्दा कल्लू खाँ 10,000 सैनिक लेकर लखनऊ आ गये थे।
इस प्रकार ताललुकेदारों ओर ज़मींदारों की संयुक्त सेना 46,200 थी। इसमें विद्रोही सैनिक और मौलवी अहमद उल्ला शाह के जत्थे के सैनिक सम्मिलित नहीं हैं। पं ० देवीदत्त शुक्ल की किताब अवध के गदर का इतिहास से जो जानकारी हासिल होती है उससे पता चला है कि लखनऊ में एकत्र हुई ताल्लुकेदारों, जमींदारों, विद्रोही सैनिकों तथा विभिन्न विद्रोही संगठनों के सैनिकों को मिलाकर लखनऊ के क्रांतिकारी की संख्या एक लाख 50 हजार थी। तबस्सुम निजामी भारतीय की किताब लखनऊ जनपद का राष्ट्रीय इतिहाससे प्राप्त जानकारी के अनुसार सैनिकों की यह संख्या लाख 20 हज़ार थी।
अंग्रेजी सत्ता को हटाने के लिए लखनऊ के क्रांतिकारी ने कोई कसर न रख छोड़ी थी। उन्होंने सब कुछ सहा मगर गुलामी की जंजीरों से जकड़ कर रहना गवारा न किया। वह अपने लिये नहीं, आने वाली पीड़ियों की खुशहाली के लिए मिट गये। उनमें से कुछ भूले बिसरे लखनऊ के क्रांतिकारी लोगों का विवरण पेश है।
1857 क्रांति में लखनऊ के क्रांतिकारी
अजीम उल्ला खाँ
लखनऊ में विद्रोह की आग सुलगाने में अजीम उल्ला खाँ ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। 18 अप्रैल 1857 को वह पेशवा नाना साहब के साथ लखनऊ आये थे। लखनऊ में उनका भव्य स्वागत हुआ। अजीम उज्ला खाँ का जन्म एक निर्धन परिवार में हुआ था। उन्होंने शुरू में एक अंग्रेज आफिसर के घर में खानसामे की नौकरी की। बाद में वह कानपुर के एक स्कूल में पढ़ाने लगे। उस वक्त नाना साहब बिठूर में रहा करते थे। कम्पनी सरकार की पेंशन ही नाना साहब की आजीविका का साधन थी। कम्पनी सरकार को यह 8 लाख की पेंशन देना भी गवारा न हुआ।
नाना साहब अजीम उल्ला खाँ को बहुत चाहते थे। पेशवा नाना साहब ने उनको यह उत्तरदायित्व सौंपा कि वह लंदन जाकर मलिका विक्टोरिया से मिलें और कम्पनी सरकार द्वारा उनके प्रति अख्तियार किया गया रवैया बतायें। अजीम उल्ला खाँ लन्दन गये मगर सब व्यर्थ रहा। जब खाँ साहब लन्दन में थे वहीं सतारा रियासत के महाराजा के वकील ‘रंगोजी बापू” से उनकी मुलाकात हुई।सातारा की रियासत भी अंग्रेजों ने डकार ली थी। रंगोजी बापू ने भी न्याय माँगा, बड़ी प्रार्थना की पर सब बेकार गया। अजीम उल्ला व रंगोजी बापु दोनों चोट खाये साँप हो गये थे। यहीं से योजना बननी शुरू हो गयी अंग्रेजों को अवध से ही नहीं देश से बाहर करने की। खाँ साहब ने फ्राँस, रूस, इटली आदि तमाम मुल्कों का दौरा किया जो कि ब्रिटिश विरोधी थे। इसका उद्देश्य विदेशों से सहायता प्राप्त करना था। रंगोजी बापू ने अवध आकर राजाओं, जमींदारों और ताल्लकेदारों को संगठित किया।

खाँ साहब भारत आये और झांसी, लखनऊ, अम्बाला,मेरठ आदि जिलों की महत्वपूर्ण यात्राएँ की। गुप्त रूप से क्रान्तिकारियों की बेठकें हुईं। 31 मई, 1857 को एक साथ अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ना तय हुआ। पर उतावलेपन में सब गड़बड़ हो गया। जंग पहले ही शुरू हो गयी। नाना साहब और अजीम उल्ला खाँ ने अंग्रेजों से भीषण टक्कर ली। अन्त तक यह दोनों ही महान क्रान्तिकारी अंग्रेजों के हाथ न लगे। लेकिन यह एकाएक कहां लोप हो गये इतिहास इस सम्बन्ध में मौन है।
मौलवी अहमद उल्ला शाह
लखनऊ के क्रांतिकारी मौलवी अहमद उल्ला शाह ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मौलवी साहब की दोनों सम्प्रदायों के लोग बड़ी इज्जत करते थे। फैजाबाद में गिरफ्तारी के बाद जब 8 जून, 1857 को उन्हें फाँसी की सजा सुनायी गयी तो जनता भड़क गयी और विद्रोह कर दिया। जेल पर हमला कर मौलवी साहब को छुड़ा लिया गया। हजारों की संख्या में फिरंगी मारकर फैजाबाद में बिछा दिये गये। मौलवी साहब फैजाबाद को आजाद कराने के बाद लखनऊ आ गये।
वह पहले आगामीर की सराय में रहते थे। बाद में घसियारी मण्डी में रहने लगे। मौलवी साहब डंकाशाह’ और ‘नक्कार शाह के नाम से मशहूर थे। उनका यह नाम इसलिए पड़ा कि जब वह चलते थे तो आगे-आगे एक नक्कारा बजता चलता था। शैदा बेगम’ ने वाजिद अलीशाह को अपने लिये एक खत में मौलवी साहब की कारगुजारियों का ज़िक्र किया था। पिया जाने आलम, जब से आप लखनऊ से सिधारे ख्वाब हराम है। रोना-धोना मुदाम है। यहाँ शबोरोज अहोबुकाँ में गुजरती है, मगर दूसरी मेरी हमजिस्सें
खुश-खुश इठलाती फिरती हैं। आपके बाद से फिरंगियों के खिलाफ जहर उगला जा रहा है। नयी-नयी बातें सुनने में आ रही हैं। दिल में होल है कि देखिये फलक क्या-क्या रंग दिखलाता है। घास मण्डी में मौलवियों का अभाव है। सुना है कि एक सूफी अहमदुल्ला शाह आये हैं। नवाब चीनीटीन के साहबजादे कहलाते हैं। आगरे से आये हैं। ये भी सुना है कि उनके हजारहाँ मुरीद हैं ।
उन्होंने अपनी अन्तिम लड़ाई केवल 2 तोपों से 21 मार्च, 1858 को सआदत गंज के मोर्चे पर लड़ी थी। लखनऊ छोड़कर जब वह भागे तो करीब 6 मील तक उनका पीछा किया गया मगर मौलवी साहब किसी के हाथ न लगे। कैसरउल तवारीख’ के अनुसार डंकाशाह ने आधे लखनऊ पर अधिकार कर लिया था और जगह-जगह फौजी चौकियां बना ली थीं।
लखनऊ से हार कर भी यह साहसी चुप न बैठा शाहजहांपुरपहुँचकर रुहेलखण्ड के जवानों का नेतृत्व किया और अंग्रजों से टक्कर ली लेकिन हार गये। शाहजहाँपुर से भागना पड़ा। 16 मई, 1858 को वह मुहम्मदी (जिला लखीमपुर) पहुँच गये। मुहम्मदी में भी लोगों को उकसाकर अंग्रेजों से टक्कर ली यहां भी हार ही नसीब हुई। अब एक ही रास्ता था पुंवाया के राजा जगन्नाथ सिंह से सेनिक सहयोग। जगन्नाथ सिंह से वैसे तो उनकी पुरानी दुश्मनी थी लेकिन सोचा मुसीबत के वक्त शायद यह दुश्मन दोस्त बन जाये । जगन्नाथ ने उन्हें अपने किले में बुलवाया। किले में घुसते ही राजा ने फाटक बन्द कर दिया। डंकाशाह चारों तरफ से घिर चुके थे। उन्हें खतरे का आभास हुआ। हाथी के मस्तक से किले का फाटक तोड़ दिया परन्तु भाग न सके। राजा के भाई ने पीछे से गोली मार दी। मौलवी साहब शहीद हो गए। उनका गला काट दिया गया। इस सफलता पर खुश होकर जिलाधीश ने जगन्नाथ को 50 हजार रुपये इनाम दिया। 7 जून, 1858 को शाहजहाँपुर में उनका कटा सिर घुमाया गया। कई दिनों तक कोतवाली से बाहर सिर लटका रहा, बाद में मौजा जहानगंज में कटा सिर दफना दिया गया। जिस्म को अंग्रजों ने पहले ही जला दिया था।
बेगम हजरत महल
अवध के पहले सूबेदार शुजाउद्दौला की हुकूमत के दौरान एक शख्स दिल्ली से फैजाबाद आया। वह शिया था। जिसका नाम मोहम्मद अली शाह था। शाह के पूर्वज सिपाही का ही पेशा करते थे सो इसने भी सिपाही बनना ही उचित समझा और अवध की सेना से भर्ती हो गया। नवाब अमजद अलीशाह के शासनकाल में अली अहद जाने आलम नवाब वाजिद अलीशाह ने एक परी खाने की स्थापना की थी। इसपरीखाने की निगरानी के लिए महिला दरोगा नजमुन निसा थीं। इसी सिपाही मोहम्मद अली शाह के खानदान की अठारह साल की लड़की ‘मोहम्मदी खानम’ भी इस परीखाने में दाखिल हुई। ऐसा कहा जाता है कि उस समय सैय्यदों की तरह इस लड़की के बदन से भी खुशबु आती थी। इसलिए वली अहद ने उसे महक परी का खिताब दिया।
महक परी को यह रोज-ब-रोज पायलों की झनकार तबले की ताल ज्यादा पसन्द न थी। उनका वली अहद वाजिद अली शाह से निकाह हो गया। शादी के बाद उन्हें शाही नाम हासिल हुआ ‘हजरत महल। हजरत महल माँ बनने वाली हैं जब यह खुशखबरी शाह के कानों तक पहुंची तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा । वाजिद अली शाह ने उन्हें ‘इफ्तखार उन्निसाँ खानम’ की उपाधि दी।
सन 1847 ई० कोनवाब वाजिद अली शाह अवध के बादशाह बने। उनकी ताजपोशी का जश्न मनाया गया। कुछ दिनों बाद वह घड़ी भी आ गयी जिसका बादशाह को बड़ी बेसब्री से इन्तिजार था।
बेगम हजरत महलने एक पुत्र को जन्म दिया। इसका नाम ‘रमजान अली खान” रखा गया। अमजद अलीशाह ने इस बालक को बिरजिस कदर का लकब दे दिया। सन 1856 में अंग्रजों ने नवाब वाजिद अलीशाह पर कुशासन का आरोप लगाकर उन्हें गद्दी से हटा दिया। बेगम हजरत महल ने 5 जुलाई, 1857 ई० को अपने साहबजादे बिरजीस कदर की ताजपोशी कर दी। चुकि बिरजीस अभी बहुत छोटा था इसलिए क्रान्तिकारियों के नेतृत्व की सारी जिम्मेदारी बेगम हजरत महल ने संभाली। अंग्रेज इस महिला से इतना खौफ खा गये थे। उन्होंने हजरत महल को एक सन्देश भिजवाया कि यदि आप युद्ध खत्म कर दें तो आपका राज्य आपको वापस दे दिया जायेगा।
मगर वीराँगना बेगम हजरत महल ने इस सन्देश को ठोकर मार दी और अपने पुत्र बिरजीस क़दर की ओर से घोषणा की कि–“ हर एक हिन्दू और मुसलमान को यह मालूम है कि चार चीजें हरेक इन्सान को बड़ी प्रिय होती हैं मजह॒ब, इज्जत, जिन्दगी और दौलत। पर इन चीजों की रक्षा केवल देशी शासन में ही हो सकती है। देशी हुकूमत में पूरी धार्मिक सहिष्णुता रहती है। सभी जाति के लोग बराबर होते हैं। छोटी जाति के धोबी, चमार, धानुक, सब बराबरी का दावा करने के हकदार हैं। अंग्रेज इन चीजों के शत्रु हैं वे सम्मानित लोगों को फाँसी लगा देते हैं। घर की औरतों और बच्चों को बरबाद कर देते हैं। स्त्रियों की इज्जत लूट लेते हैं। सारा सामान लूट ले जाते हैं। मकान खोद कर फेंक देते हैं। बनियों और महाजनों को जान से ही नहीं मारते बल्कि उनकी सम्पत्ति भी लूट ले जाते हैं। इसलिए हरेक हिन्दू तथा मुसलमान को चेतावनी दी जाती है कि अगर तुम अपने दीन और ईमान की रक्षा करना चाहते हो तो फिरंगियों के चक्कर में मत आओ। उन्हें पनाह मत दो, हमारी सरकार की फौज में शामिल हो और युद्ध करो।
बेगम हजरतमहल ने अपने पति के जिन्दा रहते अपने लड़के बिरजीस क़दर को बादशाह तक न कहा। मिर्ज़ा अब्बास इस जंगे आजादी को और बढ़ाने के लिए बिरजीस कदर को लेकर दिल्ली पहुँचे। बहादुरशाह ज़फर ने बिरजीस क़दर को सनद भी दी और ‘सफीरुद्दोला’ का खिताब भी। पर दुर्भाग्य के बादल फिर मंडराये। उसी दिन फिरंगियों की सेना दिल्ली शहर के अन्दर प्रवेश करने में सफल हुई। मिर्जा अब्बास किसी तरह से जान बचाकर बिरजीस कदर को लेते हुए लखनऊ आ गये। इसी बीच हज करके वापस
आ रहे फिरोजशाह को गदर की सूचना इन्दौर में मिली। फिरोजशाह बादशाह फरुखसियर के नाती और मिर्जा नाज़िम वख्त के साहबजादे थे। उन्होंने एक फरमान जारी कर लोगों से एकजुट होकर जंगे आजादी में कूद पड़ने की अपील की।
बेगम हज़रत महल बड़ी ही होशियार और दूरदर्शी महिला थी। कम्पनी सरकार की ओर से गवर्नर जनरल लार्ड कर्निग ने क्रान्तिकारियों से सुलह करने को कहा तो बेगम हजरत महल ने एक फरमान जारी करके इन वादा खिलाफी लुटेरे फिरंगियों के बहकावे में न आने की अपील की–“जो लोग समझते हैं कि उनको माफ कर दिया जाएगा–फिरंगियों ने माफ़ करना कभी नहीं सीखा–लोग इस धोखे में न रहें–भरतपुर के राजा को पुत्र सदृश मानने का बहाना बनाकर उनका राज्य हड़प लिया। लाहौर के राजा को लन्दन उठा ले गये—अगर बादशाह वाजिद अली शाह से प्रजा खुश नहीं थी तो हमसे क्यों सन्तुष्ट हैं ?–तो फिर हमारी रियासत हमें क्यों नहीं वापस दे देते–चाहे दोषी हो या निर्दोष, कोई बच नहीं सकता।
जंगे आजादी में यह शेरनी खूब लड़ी, मगर भाग्य ने साथ नहीं दिया। हजरत महल को लखनऊ छोड़कर नेपाल भागना पड़ा। वहाँ भी वह शान्त नहीं बैठी। मम्मू खाँ को नेपाल से तुलसीपुर भेजकर क्रान्तिकारियों को दोबारा एकत्र करने का प्रयास किया। अफसोस मम्मू खाँ पकड़े गए। उनको फाँसी भी हो गयी। बाद में अंग्रेज सरकार की ओर से बेगम हजरत महल के पास यह सन्देश आया कि आप वापस लखनऊ आ जाएं। वजीफा मिलेगा, शाही सम्मान मिलेगा। परन्तु एक स्वाभिमानी की भाँति उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। सन् 1874 ई० में बेगम हजरत महल का देहान्त हो गया। काठमाण्डू की एक मस्जिद के कब्रिस्तान में आज वह चिर निद्रा में सोई हैं।
राजा दुर्ग विजय सिंह
यह लखनऊ के क्रांतिकारी मोहान के ताललुकेदार थे। बेलीगारद के मोर्चे पर वीरतापूर्वक लड़े। बाद में अपनी सेना के साथ उमरगढ़ लोट गये जहाँ आठ महीने तक अंग्रेजी फौजों से जुझते रहे। मौलवी साहब से उनकी बड़ी अच्छी दोस्ती थी। अवध के चीफ कमिश्नर ने उन्हें कई बार पत्र लिखा कि वह अंग्रेजों से मिल जाये। अनेक लालच दिये गये। दुर्ग विजय सिंह ने इन सबको ठुकरा दिया। उनके साथ एक रसोइये ने इनाम के लालच में विश्वासघात किया। वह गिरफ्तार कर लिये गये। सारी जायदाद अंग्रेजों ने जब्त कर ली। 21 अगस्त 1865 को उन्हें काले पानी की सजा हो गयी। सन् 1889 में वह इस दुनिया से चल बसे। राजा दुर्ग विजय सिंह बेगम हजरत महल की बड़ी इज्जत करते थे। जब बेगम लखनऊ छोड़कर जाने लगीं तो वह उन्हें नेपाल की सीमा तक छोड़ने गये। रोते हुए बेगम हजरत महल को बिदा किया।
शेख खादिम अली
यह लखनऊ के क्रांतिकारी मोहान गढ़ के गोलंदाज थे। आजादी की लड़ाई में उन्होंने अपना सब कुछ गंवा दिया। उनका भतीजा अब्बास अली बेलीगारद के मोर्चे पर घायल हुआ। शेख खादिम अली के दोनों भाई मसाहिब अली और अमीर अली ने अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया। स्वयं शेख खादिम बेलीगारद के मोर्चे पर बड़ी बहादुरी से लड़े ।
अली मोहम्मद खाँ
यह लखनऊ के क्रांतिकारी अली मोहम्मद खाँ उर्फ ‘मम्मू खाँ बेगम हजरत महल के ‘कामदार’ थे। जितना साथ उन्होंने बेगम साहिबा का निभाया उतना शायद किसी और ने नहीं। मम्मू खाँ बेगम हजरत महल के साथ ही नेपाल चले गये। वहां भी लखनऊ की यह शेरनी चुप न बैठ । मम्मू खाँ को नेपाल से तुलसीपुर भेज कर दोबारा बिखरे क्रान्तिकारियों को संगठित करने का भार सौंपा । यद्यपि मम्मू खाँ जानते थे कि अब पग पग पर मौत है फिर भी उन्होंने वैसा ही किया जैसा बेगम ने कहा। मम्मू खाँ पकड़े गये। उन्हें फाँसी की सजा हो गयी।
खान अली खाँ
यह लखनऊ के क्रांतिकारी नवाब अली खाँ जो कि महमूदाबाद (जिला सीतापुर) के राजा थे उनके नायब खान अली खाँ फौज के साथ लखनऊ आये। 30 जून सन् 1857 को जब हेनरी लारेन्स और ब्रिगेडियर ईगलिस अपनी फौजें लेकर स्माइलगंज पहुँचे तो उन पर अचानक आक्रमण हो गया। यहां का मोर्चा खान अली खाँ के साथ साथ बख्त अहमद खाँ शहाबुद्दीन तथा घमंडी सिंह ने संभाल रखा था। यह भारतीय फौजों की एक ऐतिहासिक जीत रही।
मुहम्मद अहमद खाँ
बशीरत गंज के मोर्चे पर अपनी अभूतपूर्व वीरता का परिचय देने वाले लखनऊ के क्रांतिकारी मुहम्मद अहमद खाँ मलिहाबाद के नवाब फकीर मुहम्मद खाँ के साहबजादे थे। बशीरतगंज में घमासान जंग जारी थी। अंग्रेजी फौजों को निरन्तर आगे बढ़ता देख सारे विद्रोही सिपाही निकल भागे। मुहम्मद अहमद खाँ अकेले ही लड़ते रहे।
राजा हनुमंत सिंह
1857 के गदर में इस लखनऊ के क्रांतिकारी ने एक हिन्दुस्तानी का फर्ज इन्होंने बखूबी निभाया। जंग में उनका लाडला पुत्र जौनपुर में अंग्रेजों की गोरखा पलटन से लड़ता हुआ शहीद हो गया। एक बार कर्नल बेरों की उन्होंने जान ही नहीं बचाई बल्कि शरण भी दी और खतरा टलने के बाद इलाहाबाद भिजवा दिया। कर्नल बेरों ने इसका गलत अर्थ लगाया। कर्लन साहब ने कहा आप हमारी विद्रोह में मदद तो करेंगे ही। इतना सुनते ही राजा कालाकाँकर हनुमंत सिंह गुस्से से तिलमिलाकर बोले मेरा यह इन्सानी फर्ज था कि खतरे में फंसे आपकी मैंने मदद की। इसका मतलब यह नहीं कि विद्रोह के समय में भी आपकी मदद करूँगा। अंग्रेजों के साथ लड़ाई करना हमारा राष्ट्रीय फर्ज है इस लड़ाई में उनकी रियासत तक छिन गयी।
जनरल बख्त अहमद खाँ
जनरल बख्त शाही फौजों के सेनापति थे। विशाल सेना और भारी मात्रा में गोला बारूद लेकर वह लखनऊ आ गये थे। चक्कर वाली
कोठी के मोर्चे पर वह लड़े थे। श्री तबस्सुम निजामी भारतीय के अनुसार जब वह दिल्ली से लखनऊ आये थे तो उनके साथ 5000 सैनिक थे। लखनऊ में मौलवी अहमद उल्ला शाह और बेगम हजरत महल में पारस्परिक तनाव को देखकर वह बहुत दुखी हुए और निराश होकर कहीं चले गये।
राणा बेनी माधव सिंह और नुसरत जंग
एक सच्चे भारतीय की तरह लखनऊ के क्रांतिकारी दोनों ही वीरों ने अपनी जानें गंवा दीं। एक को तोप से उड़ा दिया तो दूजे को फाँसी पर लटका दिया गया। राणा बेनी माधव बख्श सिंह ने आजादी की लड़ाई में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वह 5 तोपें और 5,000 बहादुर सैनिकों को लेकर लखनऊ आये और विभिन्न मोर्चों पर लड़े। बेगम हजरत महल जब लखनऊ छोड़कर जाने लगीं तो वह भी अपने बचे 248 सैनिकों को लेकर बेगम के साथ ही चल पड़े। अब उनका यहां बचा ही क्या था। बेनी माधव देवगढ़ में रहने लगे। निजाम भारतीय’ के अनुसार बेनी माधव से यह कहा गया था कि वह अंग्रेजों से माफी माँग लें परन्तु उन्होंने माफी माँगने से साफ मना कर दिया। नेपाल के सेनापति पहलवान सिंह ने तोपचियों को हुक्म दिया कि तोपों द्वारा उन्हें और उनके सैनिकों को खत्म कर दिया जाए तोपों ने आग उगली बेनी माधव अपने तमाम सैनिकों सहित शहीद हो गये। नुसरतजंग को कैसरबाग़ के निकट ही चाइनाबाग़ में खुलेआम फाँसी पर लटका दिया गया था। इन दोनों लखनऊ के क्रांतिकारी ने हंसते हंसते अपनी जान गंवा दी।