लखनऊ उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी है, और भारत का एक ऐतिहासिक महानगर है। लखनऊ को नवाबों का शहर कहा जाता है। कहा भी क्यों न जाएं इस शहर पर नवाबों ने 1720 से लेकर 1856 तक शासन किया। अपने शासन के दौरान नवाबों ने यहां बहुत सी ऐतिहासिक इमारतें बनवाई, जिनमें कोठी, महल, दरवाजें, मकबरे, बाग, मस्जिद आदि प्रमुख हैं। नवाबों ने अपने शासनकाल के दौरान लखनऊ शहर में कई ऐतिहासिक मस्जिदों का निर्माण करवाया। उन्हीं में से कुछ लखनऊ की मस्जिदें हैं, जो अपनी स्थापत्यकला और सुंदरता के लिए जानी जाती हैं। अपने इस लेख में हम उन्ही चुनिंदा लखनऊ की मस्जिदें जो ऐतिहासिक महत्व रखती है उल्लेख करेंगे।
लखनऊ की मस्जिदें जो ऐतिहासिक महत्व रखती है
लक्ष्मण टीले वाली मस्जिद
लखनऊ के इतिहास के आगे की कहानी अगर लक्ष्मण टीले से ही शुरू की जाये तो बेहतर होगा। बड़े इमामबाड़े के सामने मौजूद
ऊंचा टीला लक्ष्मण टीले के नाम से मशहूर है। इतिहास को अपने दामन में संजोये तमाम पुरातात्विक अवशेष आज भी इस विशाल टीले के नीचे दफन हैं। लखनऊ गज़ेंटियर में इसे शहर का केन्द्र बताया गया है। मुगल शासक औरंगजेब ने जब सुल्तान अली शाह कुली खाँ को अवध के देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी तो उसने इसी टीले पर एक विशाल मस्जिद बनवायी तो टीले वाली मस्जिद कि ” के नाम से मशहूर हुई। इस टीले को ‘शाहपीर मुहम्मद का टीला’ भी कहते हैं। शाहपीर मुहम्मद एक लम्बे समय तक इसी खास टीले पर रहे और यहीं उनका इन्तकाल भी हुआ। टीले की लम्बाई 200 मीटर और ऊंचाई 20 मीटर है। ऊंचाई पर मौजूद सफेद चने से पूती मस्जिद बड़ी आकर्षक नज़र आती है। इसके सामने की ओर फैले विशाल क्षेत्र में हरी घास की चादर और उसके बीच बनी क्यारियों में मुस्कराते फूल बड़ा दिलकश नज़ारा पैदा करते हैं। इसी हरी चादर के मध्य से एक छोटा सा रास्ता ऊपर स्थित मस्जिद तक चला जाता है। लखनऊ की मस्जिदें का जब ज़िक़्र आता है सबसे पहले इसी का नाम लिया जाता है।
आसफी मस्जिद
यह मस्जिद लखनऊ की मस्जिदें में महत्वपूर्ण स्थान रखती है, आसफी इमामबाड़े से हीं मिली हुई आसफी मस्जिद है इसका निर्माण भी इमामबाड़े के साथ ही साथ होता रहा। मस्जिद एक ऊंचे चबूतरे पर निर्मित है। जहाँ तक पहुँचने के लिए लम्बी-चौड़ी सीढ़ियों का सफर तय करना पड़ता है। जामा-मस्जिद विशाल जरूर है पर जहाँ तक खूबसूरती की बात है आसफी मस्जिद लखनऊ की तमाम मस्जिदों से कहीं अधिक खूबसूरत है।
मस्जिद के सामने खुला सहन है जिसमें दाहिनी तरफ एक बड़ा होज है इसके मुख्य द्वार की बनावट और उस पर की गयी कारीगरी काबिले तारीफ है। मुख्य द्वार के दायीं और बायीं ओर क्रमशः पाँच-पाँच दर कतारबद्ध बने हैं। मस्जिद में तीन कमरखी द्वार गुम्बद तथा दो ऊंची मीनारें हैं। मस्जिद में बजमात नमाजें होती हैं, साथ ही मोहर्रम, ईद व बकरीद आदि पर भी यहां नमाजें अदा की जाती है।
जामा मस्जिद
हुसैनाबाद इमामबाड़े के पश्चिम में एक ऊबड़-खाबड़ विशाल मैदान है। इसके ऊंचे टीले पर लखनऊ की मस्जिदें में सबसे विशाल जामा मस्जिद है। मोहम्मद अली शाह के वक्त इसका निर्माण चल रहा था कि अचानक ही उनका इंतकाल हो गया। बेगम मलका जहान ने अपने शौहर की इस निशानी को पूरा करवाना अपना फर्ज समझा। लखौड़ी ईंटों से बनी यह विशालकाय मस्जिद तत्कालीन वास्तु कला का अनुपम उदाहरण है। इसकी भीतरी दीवारें 15 फूट चौड़ी हैं। मस्जिद में तीन गुम्बद हैं जिनमें बीच का गुम्बद सबसे बड़ा है। अगल बगल दो ऊंची मीनारें हैं। जिसमें 114 सीढ़ियाँ हैं।
मस्जिद की दूसरी विशेषता इसमें लकड़ी व लोहे का इस्तेमाल न किया जाता है। मस्जिद की भीतरी दीवारों व छत पर खूबसूरत डिजाइन बनी हैं। सामने की ओर एक विशाल बरामदा है सन् 1901 में 12 हजार रुपये मस्जिद की मरम्मत के लिए सरकार द्वारा दिये गये थे। मस्जिद के दक्षिणी भाग में एक अधूराइमामबाड़ा बना है। इसके खम्बे 6 फूट ऊंचे हैं। इमामबाड़े की बनावट को देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि इसको एक भव्य आकार प्रदान करने की योजना थी जो कि नवाब के मरते ही खाक में मिल गयी। चूँकि मलका जहान द्वारा बनवाई गयी इस मस्जिद में शुरू से ही जुमे की नमाज अदा की जाती रहीं सो यह “जामा मस्जिद’ के नाम से ही मशहूर हो गयी।
मस्जिद मियाँ अल्मास अली खां
अल्मास अली खाँनवाब आसफुद्दौला के वक्त में ख्वाजासरा थे। नवाब साहब को मियाँ अल्मास पर बहुत विश्वास था, जिसका उन्होंने नाजायज फायदा उठाने में कोई कसर न छोड़ी। हराम की कमाई ऐसा रंग लाई कि यह ख्वाजासरा लखनऊ का सबसे बड़ा
रईस हो गया। अल्मास साहब नवाब शुजाउद्दौला की बीबी और नवाब आसफुद्दौला की माँ ‘बहु-बेगम’ के पास फ़ैजाबाद में ही रहा करते थे। आसफुद्दौला ने लखनऊ को जब अवध की राजधानी बनाया तो वह भी फैजाबाद से लखनऊ आ गये। मियाँ अल्मास ने तमाम इमारतें बनवाईं जिसमें लखनऊ में बना उनका इमामबाड़ा और मस्जिद अपनी विशालता और खूबूसरती में एक अलग ही स्थान रखती है। ठाकुरगंज के करीब ऊंची कुर्सी पर बनी यह आलीशान मस्जिद आज भी इस ख्वाजासरा की अमीरी का बखान करती नज़र आती है। जबकि इससे लगा इमामबाड़ा अब खण्डहर में तबदील हो चुका है। माली खाँ सराय रोड पर दाहिनी तरफ मौजूद इसके प्रवेश द्वार से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि मस्जिद और इमामबाड़ा एक काफी बड़ा क्षेत्र घेरे हुए थे। मस्जिद में पाँच दर हैं। जिसमें से तीन दर सामने की तरफ हैं और बाकी दो क्रमशः: उत्तर ओर दक्षिण में है । मस्जिद में मौजूद विशाल तह॒खाने का प्रव्रेशद्वार ऊपर से ही है। इसे एक बड़े पत्थर से अब बन्द कर दिया गया है। मियाँ अल्मास के इमामबाड़े में नवाब वाजिद अली शाह के वक्त में एक कचहरी रहा करती थी। जिसे ‘चोर-कचहरी’ कहते थे।
तहसीन की मस्जिद
चोक के गोल दरवाजे से एक संकरी सी किन्तु व्यस्त सड़क अकबरी दरवाजे तक चली जाती है। अकबरी दरवाजे के करीब ही मौजूद टुंड़े-कबाबियों की मशहूर दुकान इसी मस्जिद की इमारत में ही कायम है। एक ऊँची कुर्सी पर बनी यह मस्जिद लखनऊ की मस्जिदें जो खूबसुरत में गिनी जाती है, शुमार है। दरबार में मियाँ तहसीन का बड़ा रुतबा था। उन्हें सम्मान पूर्वक “नवाब नाजिर मियाँ तहसीन अली खाँ के नाम से पुकारा जाता था।
नवाब आसफूद्दौला की तख्त नशीनी के 17 साल बाद इस मस्जिद की नींव पड़ी। तारीखे-अवध के मुताबिक तहसीन मियां की मस्जिद का निर्माण भी आसफी इमामबाड़े के साथ ही साथ चल रहा था। इमामबाड़ा रात भर जितना बनता सुबह इतना गिरा दिया जाता था। इस प्रकार काफी मसाला बरबाद हो रहा था। मियां तहसीन ने खराब हो रहे मसाले के बारे में नवाब साहब से कहा। हुजूर अगर यह मसाला मुझे मिल जाया करे तो मैं एक मस्जिद बनवा दूँ ।” भला नवाब साहब को इस नेक काम में क्या एतराज होता वह खुशी से राजी हो गये। इस तरह जो मसाला आसफी इमाम बाड़े व रूमी दरवाजे में इस्तेमाल हुआ वहां इस मस्जिद में भी।
सन् 1857 ई० से जुलाई, 1884 ई० तक यह मस्जिद मस्जिदे जुमा भी रही । यहां जुमां व ईद की नमाज़े अदा की जाती थीं। नमाजियों की इतनी भीड़ होती थी कि हमाम और फाटक की छतों तक पर नमाजियों की कतारें लग जाया करती थीं। सफेद चुने से पुती मस्जिद में तीन दर तीन गुम्बद और दो मीनारें हैं। गुम्बदों की ऊपरी मीनारों पर पीतल की चादर हैं। इस पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है। विशाल सहन के बाई और दायीं ओर दो हौज हैं । दाहिनी तरफ वाले होज के करीब ही एक टूटा-फूटा गुसलखाना है जिसमें आज भी भट्टियों के चिन्ह मौजूद हैं। इन पर जाड़े के दिनों में पानी गर्म किया जाता था।
सराय तहसीन मस्जिद
हैदर हुसैन के दरवाजे को पार कर चौक के पश्चिमी क्षेत्र में नवाब नाजिर मियाँ तहसीन अली की सराय है।यह मशहूर सराय मियाँ
तहसीन ने नवाब आसफुद्दौला के वक्त में आम जनता के इस्तेमाल के लिए बनवायी थी। मियां तहसीन साहब नवाब शुजाउद्दौला की हुकूमत के समय ‘ख्वाजासरा’ थे और कौम के खत्री थे। मुस्लिम धर्म स्वीकार करने से पहले तहसीन साहब का नाम भोलानाथ था। नवाब आसफुद्दौला की हुकूमत में वह लखनऊ आकर बस गये। उनको बावर्चीखाने की देखरेख का उत्तरदायित्व सौंप दिया गया। बाद में वह तोशाखाने के दरोगा बने । मियाँ तहसीन बड़े ही तिकड़मी इंसान थे। नवाब साहब के दिल पर बड़ी अच्छी पैठ बना रखी थी। वजीर अली खाँ तहसीन की नज़रों में चढ़ गये। कहते हैं उनको वज़ीर के पद से हटाने में तहसीन साहब का काफी बड़ा हाथ रहा।
छोटे तहसीन की मस्जिद
बावर्ची टीले में स्थित इस मस्जिद को तहसीन अली खाँ खुद ने बनवाया था। अली खाँ खुर्द छोटे तहसीन खाँ के नाम से मशहूर
थे। आबादी के बीच होने के कारण छोटे तहसीन की यह मस्जिद अपना अहम स्थान रखती है। बड़े तहसीन अर्थात नवाब नाजिर मियाँ तहसीन अली खाँ नवाब शुजाउद्दौला के वक्त में ख्वाजासरा थे जबकि छोटे तहसीन बादशाह नसीरुद्दीन हैदर के वक्त में महलखाने में तशरीफ लाये। छोटे तहसीन के वालिद का नाम दलेल खाँ था जो कि शाही फौज़ में मामूली से मुलाजिम थे । एक बार कुछ बेरहम डाकुओं ने उनके वालिद को लूटकर कत्ल कर दिया। तहसीन अली की उम्र उस वक्त तकरीबन पाँच-छ: साल की ही थी जब वालिद का साया उनके ऊपर से उठ गया। जालिमों ने बच्चा समझकर इन्हें छोड़ दिया। तहसीन अली की तकदीर ने यहीं से अपना खेल खेला। वह कुछ ऐसे आदमियों के हाथ लग गये जिन्होंने तहसीन की नन्हीं उँगली पकड़कर उन्हें नसीरुद्दीन हैदर के पास पहुंचा दिया। नेक दिल नवाब इस नन्हीं सी जान को देखकर खुश हो गये, बड़े प्यार से तहसीन की परवरिश की गयी। नवाब मोसिनुद्दौला इस बच्चे की देखभाल के लिये नियुक्त किये गये थे। वक्त बीतता गया और छोटे तहसीन की कहानी लोगों के दिमाग से उड़ती गयी। अब वह शाही परिवार के अंग बन चुके थे। लखनऊ के बावर्ची टोले में बनी यह मस्जिद आज भी छोटे तहसीन की याद दिलाती है। तथा लखनऊ की मस्जिदें में प्रमुख स्थान रखती है।
मस्जिद मलका किश्वर
काश्मीरी मोहल्ले में बनी इस खूबसूरत मस्जिद को मलका किश्वर ने बनवाया था। मलका किश्वर शाही फौज के रिसालदार हसतुद्दीन खाँ की लड़की थीं और अमजद अली शाह को ब्याही थीं। निकाह होने के बाद ताज आरा बेगम (मलका-किश्वर) को खातून मुअज्जमा बादशाह बह – नवाब मलका किश्वर’ का खिताब हासिल हुआ। मलका किश्वर बड़ी ही दिलेर महिला थीं। उन्होंने आजादी के लिये जंग तो न लड़ी थी मगर फिरंगियों के अत्याचारों और आतंक के झोंको से मुरझाये हुए आवाम को राहत दिलाने के लिए वह तमाम परेशानियाँ झेलती हुई इंग्लैण्ड जा पहुँची थी। मेजर बर्ड ने खुद इस महान हिन्दुस्तानी नारी का पूरा साथ दिया। अवध की लूट किताब में मलका की इंलेण्ड यात्रा का विस्तार से जिक्र किया गया है। मलका किश्वर ने मलका विक्टोरिया को खुश करने की हर मुमकिन कोशिश की। जब आशा की ज्योति कुछ नजर आयी ही थी कि इधर अवध में आजादी की जंग शुरू हो गयी। इंग्लैण्ड से हिन्दुस्तान लौटते वक्त पेरिस में ही उनका इन्तकाल हो गया।
पंडाइन की मस्जिद
अमीनाबाद में होटलगुलमर्ग के करीब आज जहां पंडाइन की मस्जिद मौजूद है, तथा झण्डे वाला पार्क समेत काफी बड़ा इलाका पंडाइन का बाग कहलाता था। खदीजा खानम’ और ‘रानी जय कुँवर’ में बड़ी गहरी दोस्ती थी। बुढ़ापे के वक्त में रानी साहिबा ने खदीजा खानम की बड़ी देखभाल की थी। खदीजा खानम की तमन्ना थी कि वह एक मस्जिद बनवा सके। उनकी यह तमन्ना रानी जय कुंवर ने पूरी की और एक मस्जिद बनवाई जो कि “पंडाइन की मस्जिद” के नाम से मशहूर है। मस्जिद जब तक पूरी बनकर तैयार हो खदीजा खानम का वक्त पूरा हो चुका था। इन्तकाल के बाद मस्जिद के करीब ही खदीजा खानम का मकबरा बनवाया गया जिसका कि अब नामों निशान मिट चुका है। खदीजा खानम को तकदीर बड़ी जोरदार थी। नवाब बुरहानुलमुल्क’ की बेगम जो कि अकबराबाद के सूबेदार की
बेटी थीं ‘खदीजा-खानम” उन्हीं की कनीज थी। शादी के चन्द रोज बाद बेगम साहिबा खुदा को प्यारी हो गयी और खदीजा खानम “बुरहानुलमुल्क’ को। जमायते उलमुल्क अबुल मंसूर खाँ बहादुर सफदरजंग’ की बेगम ‘सदरुन्निसा’ इसी कनीज की ही औलाद थीं।
पंडाइन की मस्जिद को ‘जिन्नातों वाली मस्जिद” भी कहते हैं। यहीं पर एक बात मैं और स्पष्ट कर देना चाहूगा कि पतंग पार्क के करीब जो मस्जिद है वह भी “जिन्नातों वाली मस्जिद” के नाम से जानी जाती है। लेकिन यह मस्जिद शाह नसीरुद्दीन हैदर के वक्त की है। जहाँ आज यह मस्जिद है वहाँ कभी मीर रमजान अली साहब का मकान हुआ करता था। एक लम्बे अरसे तक यह मस्जिद वीरान पड़ी रही हाल ही में इसकी नये सिरे से मरम्मत करवाई गयी है।
मोहर्रम की 8 तारीख को इसी मस्जिद से शिया समुदाय का ताजिया उठता है और शबे बारात का मेला लगता हैइस मस्जिद में एक भी गुम्बद नहीं हैं । जब कि पंडाइन की मस्जिद इससे बड़ी होने के साथ-साथ उसमें तीन गुम्बद औरदो मीनारें भी हैं।
मस्जिद धनियाँ महरी
मस्जिद धनियाँ महरी” मौलवी गंज चिक मण्डी में मौलाना अब्दुल शक्र मार्ग पर स्थित है। धनियाँ महरी बादशाह नसीरुद्दीन हैदर की बड़ी सिर चढ़ी थी। दरबार में धनियाँ महरी और उसकी बहन डोली ने अच्छा-खासा दबदबा बना रखा था। वह थीं तो मामूली सी मुलाजिम ही, लेकिन ठाठ किसी अमीरजादी से कम न थे। धरनियाँ महरी जनानखाने की देखरेख की जिम्मेदारी बखूबी निभाती थी। जनानखाने की इस अफसर की मातह॒ती में सैकड़ों नौकरानियाँ रहती थीं। धनियाँ महरी को ‘अफजलउन्निसा’ का खिताब मिला था।
नसीरुद्दीन ने एक दिन खुश होकर इसे हजारों रुपये इनाम में दिये। इन्हीं इनाम के पैसों से धनियाँ महरी ने यह मस्जिद बनवा दी। जब कि नवाब नसीरुद्दीन ने बुद्धेश्वर महादेव मन्दिर के करीब पड़ने वाले नाले पर एक पुल बनवाया। यह नाला बरसात के दिनों में उफन आता था। जिससे बृद्धेश्वर महादेव के मेले में नाले के उस पार से आने वाले लोगों को बड़ी तकलीफ उठानी पड़ती थीं। धनियाँ महरी ने मस्जिद के अलावा एक इमामबाड़ा भी बनवाया था जिसका अब अस्तित्व ही मिट चुका है।
धनियाँ महरी की मस्जिद में अब वह खूबसूरती न रही। इसे तुड़वाकर दोबारा नये सिरे से बनवाया गया है। मस्जिद की दोनों मीनारें हटा दी गयीं हैं। जबकि पुराने गुम्बद की अच्छी तरह मरम्मत कर दी गयी है। 7 जुलाई, 1837 की रात ने इस महरी की दामन में दाग लगा दिया। लोगों ने नसीरुद्दीन को ज़हर देकर मारने का इल्जाम धनियाँ महरी के सिर थोप दिया। लेकिन इस बात में हकीकत कितनी है यह पता न चल सका। राज्य संग्रहालय में धनियाँ महरी की एक खूबसूरत तस्वीर आज भी देखी जा सकती है। लखनऊ की मस्जिदें में इसका ऐतिहासिक महत्व है। तो ये सभी लखनऊ की मस्जिदें अपना ऐतिहासिक महत्व रखती है। अब तो शहर में तमाम अनेक नई मस्जिदें बन चुकी है लेकिन ये ऐतिहासिक लखनऊ की मस्जिदें काफी प्रसिद्ध है। पर्यटन और धार्मिक दोनों क्षेत्र में।