नवाबी वक्त में लखनऊ ने नृत्य और संगीत में काफी उन्नति की। नृत्य और संगीत की बात हो और तवायफ का जिक्र न हो ऐसा तो नामुमकिन ही है। लखनऊ की तवायफें ने अपने उसूलों के कारण बड़ी शोहरत हासिल की थी। वक्त बदला, लखनऊ का रंग बदला, लोगों की नजरें बदलीं और बदले शौक। नाच-गाने के शौकीन लोगों का काफी बड़ा भाग चलचित्र खींच ले गया। जिन लोगों की रोजी-रोटी इस पेशे पर टिकी थी मजबूर हो उन्होंने गलत रास्ता अख्तियार किया, नहीं तो यह तवायफें भी शराफत की जिन्दगी जीती थीं। समाज में एक इज्जत थी।
लखनऊ की तवायफें
लखनऊ की तवायफें की तीन जातियाँ थी–कंचनियाँ, चुनेवालियाँ और नागरानियाँ। कंचनियाँ जाति की तवायफें शुजाउद्दौला के वक्त में पंजाब और दिल्ली से लखनऊ आ गयी। ‘कंचनियाँ’ जिनका पेशा केवल सतीत्व बेचना ही होता था। चुनेवालियाँ और नागरानियाँ जाति की तवायफों को बड़ी इज्जत बख्शी जाती थी। चूने वाली ‘हैदरी’ का गला इतना मीठा था कि जब वह गाती तो लोग बेसुध हो जाया करते थे। नवाब वाजिद अली शाह के वक्त में तवायफों का लखनऊ में बड़ा जोर रहा। अकबरी दरवाजे से लेकर फिरंगी महल तक तमाम तवायफें ही बसी थीं। नवाब साहब को जब लखनऊ से मटियाबुज भेज दिया गया तो उनके साथ नाचने-गाने वालों, तबलचियों आदि की एक विशाल मंडली भी चली गयी। इस मंडली में 360 व्यक्ति थे इन पर 116510 रुपये तनख्वाह के रूप में ही खर्च हो जाया करते थे। मुन्नी बाई, वजीरन, प्यारे खाँ, जाफर खाँ, हैदर खाँ आदि मशहूर ‘गवेये’ थे तो कन्हैया और अमजद खाँ जाने-माने कव्वाल, कुतुबुददीन — सितार वादक’ थे तो विलायत अली और कोदई सिंह परवाउज तबलची थे।
लखनऊ की मशहूर गाने वालियों में हैदरी और दिलबर की आवाज अगर दिलकश थी तो अमी रन डोमिनी की बेटी ‘नजमा’ को राग-रागिनियों की अदाकारी में महारत हासिल थी। इसमें कोई शक नहीं कि लखनऊ की तवायफों के कोठे तह॒जीब और तमीज के मदरसे थे। नवाब, रईस यहां तक के अंग्रेज आफीसर भी अपनी औलादों को तवायफों के कोठों पर उठने-बैठने, बातचीत करने का सलीका सीखने के लिए भेजते थे। उस समय अश्लीलता का कहीं कोई नामों निशान न था। सलाम करने, पान पेश करने का ढंग, खातिरदारी के तौर-तरीके उन्हीं कोठों से ही महलों व घरों में आये।
चौक के एक बुजुर्ग नजमुल हसन से मिला उन्होंने बताया, तवायफ जिस्म बेचने से कोसों दूर रहती थीं। किसी एक की होकर ही सारी जिन्दगी गुजार देती थी ऐसी तवायफों को ‘तवायफ खानगी’ कहते थे। ऐसी बात नहीं कि पेशे वाली तवायफ थी ही नहीं। हां इनकी भनक तक लोगों को नहीं मिलती थी।
तवायफों की उस वक्त बड़ी इज्जत थी इसका अन्दाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब यह दावतें देती तो सारे शहर के शरीफ इनके कोठे पर तशरीफ लाते। तवायफों में सबसे ऊंची जाति डरेदार तवायफों की मानी जाती थी। इनमें मुनीर बेगम, जरीना बेगम, अनवरी बेगम बड़ी मशहूर रहीं जो अच्छी गायिकाएं भी थीं।
तवायफों के कोठे पर न कोई अमीर होता न गरीब। जब महफिल जमती तो फर्श पर खूबसूरत कालीन और सफेद चादर बिछा दी जाती, तकिये लग जाते। लोग मुजरे सुनते। जो बन पड़ता खामोशी से तकिये के नीचे दबा देते। मुजरा खत्म होता इलायची व पान पेश किये जाते। जब सब लोग चले जाते तब तकिये के नीचे से रुपये निकाले जाते। ऐसा इसलिए होता कि मुजरे में अमीर भी आते कम हैसियत वाले भी। कौन कितना दे रहा है यह किसी को न मालूम हो।
तवायफ, हुसैनाबादी बेमिसाल गजल गायिका थी। नक्खास में उसका मशहूर इमामबाड़ा था। इसी तरह एक तवायफ थी ‘उमराव जान’ खुद गजलें लिखती खुद गाती। एक से बढ़कर एक गजल लेखक व गायक उसके पास आते थे। तवायफ नन्हुवां और बचुवा लखनऊ में ही नहीं विदेशों में मशहूर रहीं। यह दोनों तवायफें ‘बड़ी चौधराइन’ और ‘छोटी चौधराइन’ के नाम से जानी जाती थीं। चौधराइन का 500 रुपये माहवार खर्च केवल पान पर ही था। उनकी बेटी ‘रश्के मुनीर’ हुस्ने-ए-मलिका थी। इसकी शादी बम्बई के एक शरीफ और इज्जत- दार खानदान में सेठ सुलेमान के लड़के से हुई थी।
सन् 1940 ई० में महमूदाबाद के महाराज के महल में जब मुहम्मद अहमद हसन खाँ के विवाह पर महफिले जमीं तो लखनऊ से तमाम तवायफें बुलायी गयी इनमें–जहन बाई, बेगम अख्तर, रसूलन बाई, मलिका पुखराज, वहीदन बाई मुख्य थीं। जब इस बारे में ग्रामोफोन रिकार्ड बनाने वाली एक कम्पनी को पता लगा तो वह अपनी मशीनें लादकर महाराजा महमूदाबाद के महल जा पहुंची।
लखनऊ की अन्य मशहूर तवायफों में बेनजीर, अल्लारखी, नसीम आरा, दिलरुबा, शमीम बानों, राधा, जोहरा, बड़ी जहन, छोटी जहन, माहलका, अल्लाह बाँदी, जेली खुर्बोद, कमर जहाँ, सुन्ती बाई मुख्य थीं। 1958 के बाद से सरकार ने इन्हें लखनऊ से नेस्तनाबूद करके ही दम लिया।
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