लखनऊ का खान पान – लखनऊ का खाना Naeem Ahmad, June 30, 2022March 8, 2024 लखनऊ का जिक्र हो ओर खान-पान छूट जाये यह तो नामुमकिन है। लखनऊ का खान पान हिन्दुस्तान में ही नहीं दुनिया के तमाम मुल्कों में मशहूर रहा है। शीरमाल, कबाब, पुलाव आदि को जाने दीजिए, लखनवी रोटियां व खिचड़ी तक का स्वाद जिस शख्स की जुबान पर एक बार लग जाता वह जिन्दगी-भर याद रहता।दूध में आटा गूथकर, शक्कर मिलाकर बड़ी ही मुलायम जो रोटियां तैयार की जाती उन्हें रोग़नी रोटी कहते थे। इन रोटियों के मुलायम होने का एक कारण और रहा आटे को घण्टों तक गूंधा जाना। इसी तरह जब खिचड़ी बनती तो पिस्ता, बादाम, ईलायची आदि डालने में कोई कसर बाकी न रह जाती।लखनऊ का खान पानसलारजंग अपने एक बावर्ची को 1200 रुपये महीने तनख्वाह देते थे। वह केवल उन्हीं के लिए पुलाव तैयार करता था। पुलाव बनाने में उसके बराबर माहिर दूर-दूर तक कोई न था। एक दिन नवाब आसफुद्दौला के पास एक बावर्ची आया। नवाब साहब उसे 500 रुपये माहवार तनख्वा देने पर राजी हो गये, मगर उसने तुरन्त कहा–“मैं चन्द शर्तों पर ही नौकरी करूँगा।” नवाब साहब ने पुछा—वो शर्तें क्या हैं। उत्तर दिया–“जब हुजूर को मेरे हाथ की दाल का शौक हो तो एक रोज पहले से हुक्म हो जाए, और जब मैं इत्तला दूं कि तैयार है तो हजूर उसी वक्त खालें। नवाब साहब ने खुशी-खुशी यह शर्ते मंजूर कर ली।लखनऊ के क्रांतिकारी और 1857 की क्रांति में अवधकुछ दिन बीतने पर उसे दाल पकाने का हुक्म आया। दाल तैयार कर उसने नवाब साहब को तीन बार खाना-खाने के लिए पुकारा, पर वह न आये। उसने दाल की हांडी ले जाकर सूखे पेड़ की जड़ में उड़ेल दी और नौकरी छोड़कर न जाने कहां चला गया। बड़ी तलाश की गयी मगर उसका कहीं कुछ भी पता न चल सका।लखनऊ का खान पाननवाब गाजीउद्दीन हैदर को जो अवध के बादशाह थे पराठे पसन्द थे। उनका बावर्ची था जो हर रोज छह पराठे पकाता और फी पराठा पाँच सेर के हिसाब से 30 सेर घी रोज लिया करता। एक दिन गाजीउद्दीन के वजीर मोतमदउद्दौला आगामीर ने शाही बावर्ची को बुलाकर पूछा, यह तीस सेर घी का क्या होता है ? कहा हजूर, पराठे पकाता हूँ ।’ इस पर वजीर ने कहा, भला मेरे सामने तो पकाओ। उसने कहा, बहुत खूब ।’ पराठे पकाये। जितना घी खपा खपाया और जो बाकी बचा फेंक दिया। मोतमदउद्दौला आगामीर ने यह देखकर हैरत से कहा, पूरा घी तो खर्च नहीं हुआ ? उसने कहा, अब यह घी तो बिल्कुल तेल हो गया, इस काबिल थोड़े ही है कि किसी और खाने में लगाया जाये । वजीर से जवाब तो न बन पड़ा मगर हुक्म दे दिया। आइंदा से सिर्फ पांच सेर घी दिया जाया करे, प्रति पराठा के लिए एक सेर घी बहुत है।लखनऊ में 1857 की क्रांति का इतिहासबावर्ची ने कहा, बेहतर मैं इतने ही घी में पका दिया करूँगा। मगर वजीर की रोक-टोक से ऐसा नाराज हुआ कि मामूली किस्म के पराठे पकाकर बादशाह के खाने पर भेज दिये। जब कई दिन यही हालत रही तो बादशाह ने शिकायत की कि ये पराठे अब कैसे आते हैं ?’ बावर्ची ने अरज किया, “हुजूर जैसे पराठे नवाब मोतमनउदौला बहादुर का हुक्म है पकाता हूं। बादशाह ने उसकी असल वजह पूछी तो उसने सारा हाल बयान कर दिया। फौरन मोतमदउद्दौला की याद हुई।शम्सुन्निसा बेगम लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला की बेगमउन्होंने अर्ज किया, “जहाँपनाह ये लोग ख्वाहमख्वाह आपको लूटते हैं। बादशाह ने इस जवाब पर पाँच थप्पड़ और घूँसे रसीद किये। खूब ठोंका और कहा, “तुम नहीं लूटते हो तुम सारी सल्तनत और सारे मुल्क को लूट लेते हो इसका ख्याल नहीं। यह जो थोड़ा-सा घी ज्यादा ले लेता है और वह भी मेरे खाने के लिए, वह तुम्हें न गवार है। इसके बाद उन्होंने कभी उस रकाबदार पर एतराज न किया और वह उसी तरह 30 सेर घी रोज लेता रहा।क्राइस्ट चर्च लखनऊ का इतिहास हिन्दी मेंनवाब नसीरुद्दीन हैदर का एक बावर्ची केवल पिस्ते और बादाम की ही खिचड़ी तैयार करता था। पेरिस का एक बावर्ची नसीरुद्दीन के लिए विलायती मिठाइयों और नफीस मगरिबी खाने पकाया करता था। बादशाह पर इस विलायती स्वाद का रंग इस कदर चढ़ चुका था कि उनके खाना खाने में भी विलायतीपन नजर आने लगा था। कोठी फरहत-बख्श में जब कभी अंग्रेज अफसरों व खुसूसी मेहमानों की खातिरदारी में दावतें दी जाती तो अंग्रेजी शराब और तमाम तरह के पकवानों का ढेर लग जाता। देखते-ही-देखते 50-60 हजार रुपये इन दावतों पर हवा हो जाते।चारबाग रेलवे स्टेशन का इतिहास – मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैनवाब मलकाजहाँ को पोदीने की चटनी इतनी पसन्द थी कि वह बिना चटनी खाये एक कौर भी हलक से नीचे न उतारती। जब बाहर जाती तो सूखा पोदीना बडी मात्रा में रखा लिया जाता। अगर कहीं परदेश जाना हुआ तो पानी के जहाज पर ही मिट्टी इकट्ठी कर क्यारियाँ बनाकर पोदीना लगा दिया जाता।अकबरी दरवाजे से चौक तक का इलाका अपने वक्त में बड़ा ही मशहूर रहा। यह नाच-गाने के अलावा खुशबूदार इत्र बनाने, तम्बाकू बनाने, चिकन जरदोजी, सोने-चाँदी, गोटा-किनारी जैसे कार्यों का भी केन्द्र था। इसी इलाके के खाने-पीने की चीजें बनाने वाले दूर-दूर तक मशहूर थे। आज भी इस क्षेत्र में कुछ दुकानें अपने पुराने अस्तित्व को कायम रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं।लखनऊ की चाट कचौरी ऐसा स्वाद रहें हमेशा यादअकबरी गेट के करीब चौपटिया जाने वाली सड़क से दाहिनी तरफ को एक गली चौक की ओर चली जाती है । इसी गली में टुंडे कबाब की एक दुकान है। जिसकी आजकल की ब्रांच हो गई है। इसके मालिक हाजी मुराद अली हैं। दुकान का इतिहास तकरीबन सवा सौसाल पुराना है। यह वही दुकान है जहां से कबाब दूसरे मुल्कों को भेजा जाता था। एक अच्छा-खासा मजमा इस दुकान पर जमता था। सन् 1936 में पं० शिव आधार राम आधार उर्फ ‘राजा’ ठंडाई की दुकान स्थापित हुई। यहां की ठंडाई बड़ी ही मशहूर है। गर्मियों के दिनों में शाम के वक्त हरी ठंडाई पीने वालों की एक भीड़ देखी जा सकती है। कभी नख्खास के शीरमाल भी हिन्दुस्तान में ही नहीं दूसरे मुल्कों में भी प्रसिद्ध थे। उसी तरह रहीम के नहारी कुलचे और इदरीस की बिरयानी भी लखनऊ में बहुत प्रसिद्ध है। लखनऊ का खान पान हमेशा से जायकेदार रहा है।हमारे यह लेख भी जरूर पढ़ें:—[post_grid id=”9505″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... Uncategorized स्वादिष्ट व्यंजन