लखनऊ का इतिहास–प्राचीन समय में लखनऊकोसल महाजनपद के विशाल साम्राज्य का एक अंग था जिसकी राजधानीअयोध्या थी। एक लम्बे अरसे तक यहां सूर्य वंशीय राजाओं का शासन रहा। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पिता महाराज दशरथ 56वें सूर्यवंशी शासक थे। इस वंश के अन्तिम एवं 113वें शासक महाराज सुमित्र हुए।
छठी शताब्दी में हिन्दुस्तान 16 महाजनपदों में बँटा था। इन जनपदों में कोसल जनपद काफी सशक्त और समृद्धशाली माना जाता था। सरयू नदी इस जनपद को दो भागों में विभक्त करती थी। उत्तरी कोसल और दक्षिणी कोसल। ज्यों-ज्यों मगध राज्य का विस्तार होता गया त्यों-त्यों कोसल राज्य का पतन होता गया। भरवंशीय शासकों ने भी अवध के भू-भाग पर शासन किया। इसके प्रमाण भी खुदाई के दौरान मिले हैं।
सातवीं शताब्दी में महाराजा हर्षवर्धन के विशाल साम्राज्य में भी अवध का एक बड़ा भाग शामिल था। नवीं और दसवीं शताब्दी में गुजर तथा प्रतिहार वंशीय शासकों ने यहां शासन किया। ग्यारहवीं शताब्दी से मुगलों का अवध में प्रवेश होना शुरू हो गया। 1031 ई० और 1033 ई० में महमूद गजनवी तथा तुर्की सुलतान के भतीजे सेय्यद सालार मसऊद ‘गाज़ी’ ने अवध पर आक्रमण किया।
लखनऊ का इतिहास हिंदी में
मिरात-मसऊदी के अनुसार सैय्यद सालार मसऊद ने अवध की राजधानी बाराबंकी के करीब ग्राम सतरिख को बनाया। सन् 1847-48 में लखनऊ रेज़िडेंट के सहायक मेजर बर्ड ने अपनी किताब में वाल्मीकि कृत रामायण का एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अवध की महत्ता पर प्रकाश डाला है। बर्ड के अनुसार सन् 1855 ई० में नवाब बादशाहों के अधीन अवध का 24,000 वर्ग मील क्षेत्र था अवध की उस समय कुल जनसंख्या तकरीबन 50,00,000 थी। अब एक नजर लखनऊ का इतिहास पर भी डाल ली जाये। लक्ष्मणपुर से लखनावती और कब लखनऊ नाम हासिल हुआ इस शहर को, इस बारे में कोई सही जानकारी हासिल नहीं होती हैं। ऐसा कहा जाता है कि रामचन्द्र जी जब लंका पर विजय श्री हासिल कर पुनः अयोध्या लौट कर आये तो लखनऊ उन्होंने जागीर स्वरूप लक्ष्मण जी को प्रदान कर दिया। लक्ष्मण के निवास से गोमती नदी के तट व आासपास के क्षेत्रों में एक बस्ती आबाद हो गयी जिसका नाम “लक्ष्मणपुर’ पड़ा। इस बस्ती का केन्द्र लक्ष्मण टीला था। ऐसा कहा जाता है कि इस टीले पर एक बहुत ही गहरा कुआँ था जिसका सम्बन्ध पृथ्वी को अपने फन पर उठाये शेषनाग से था। इस कारण यह कुआं बड़ा ही पवित्र माना जाता था।
प्राचीन समय में लखनऊ एक पवित्र तीर्थ स्थल के रूप में विख्यात था। गोमती नदी आदि गंगा के नाम से जानी जाती थी और लखनऊ छोटी काशी। ऐसा भी कहा जाता है कि महाराजा युधिष्ठिर के पोते राजा जनमेजय ने लक्ष्मण टीले के आस-पास का काफी बड़ा इलाका तपस्वियों, ऋषियों और मुनियों को सौंपा था। इन्होंने यहां जगह-जगह अनेक आश्रम बनाए। ऐसे अनेक प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं जिनसे पता चलता है कि 1000 ई० पूर्व यहां दूर-दूर से तीर्थ यात्री आते थे। गोमती नदी के किनारे ही पश्चिमी क्षेत्र में ऋषि कोण्डिन्य का आश्रम था। यह स्थल आज कुंड़िया घाट के नाम से जाना जाता है।

जब लखनऊ के धार्मिक महत्व की चर्चा चल रही है तो सूर्यकुण्ड का जिक्र करना बेजा नहीं होगा। यह तो सर्वविदित है कि सुूर्य वंशीय राजाओं ने एक लम्बे अरसे तक उत्तर भारत में शासन किया। अपने शासन काज के दौरान अयोध्या, बहराइच,लखनऊ, सीतापुर आदि जिलों में तमाम सूर्यकुण्ड बनवाये। किसी जमाने में लखनऊ का सूर्यकुण्ड भी पावन तीर्थ स्थल रहा।आइने अकबरी में इस सूरज कुण्ड के धार्मिक महत्व के सम्बन्ध में चर्चा की गयी है। इस कुण्ड के चारों ओर एक विशाल मेला लगता था। लोग दूर-दूर से इस मेले में आते और पवित्र कुण्ड में स्नान किये बिना न जाते। इसके जल में खड़े होकर लोग मनौतियाँ मानते–पूरी होने पर हर हालत में मेले के दिन पहुँच कर अपनी मानी हुईं मनौतियों के अनुसार गरीबों को दान आदि व ब्राह्मणों को भोजन कराते। हिन्दू धर्मान्तर्गत तमाम संस्कार यथा–मुण्डन व नामकरण आदि इसी कुण्ड के पास करवाना उत्तम माना जाता था। इस कुण्ड की बड़ी मान्यता थी । नेत्रदोष, काँवर, कोढ़, खुजली, पेट की बीमारियों से लोग जब पीड़ित होते तो कुण्ड में स्नान कर उसका पानी पीते और निजात पाते।
सूर्य ग्रहण के दिन स्नान करने वालों की इतनी भीड़ होती थी कि साँस लेना दूभर हो जाता। आज भी कार्तिक स्नान पर एक विशाल मेला कुण्ड के इर्दे-गिर्दे लगता है, जो तकरीबन एक महीने तक चलता है। बस समय के थपेड़ों के साथ स्नान करने वालों का स्थान बदल गया है। लोग अब सूर्यकुण्ड में स्नान करने की बजाय गोमती तट पर बने घाटों पर चले जाते हैं।
नवाब आसफुद्दौला ने जब इस कुण्ड की जीर्ण-शीर्ण दशा देखी तो इसकी मरम्मत करवायी थी। धीरे-धीरे इसका धार्मिक महत्व खत्म होता गया, लोग इसे भूलते गये। लखनऊ का इतिहास गवाह है न जाने कितनी बार लखनऊ के सीने को दुश्मनों ने तोपों, घोड़ों की टापों, हाथियों के पैरों तले रौंदा, तमाम आलीशान कोठियाँ, और महल गिरे फिर बने मगर किसी ने कुछ न छुआ तो वह यही सूरज कुण्ड ही था। जिसने इंसानों की हैवानियत, बदनियत, और कमबख्ती देखकर खुद को समय के आगोश में छुपा लिया था। आज इसी कुण्ड से मिला जो निहायत खुबसूरत पार्क बना है उसका नाम सूरज कुण्ड ही दिया गया है।
सन् 1540 ई० में बादशाह हुमायूं शेरशाह सूरी के हाथों जोनपुर में बुरी तरह पराजित हो गया। वह सुल्तानपुर, लखनऊ,पीलीभीत होते हुए भागा। भागते वक्त हुमायूं लखनऊ में केवल चार घण्टे ही रुक सका क्योंकि बराबर दुश्मनों द्वारा उसका पीछा हो रहा था। लखनऊ वासी इंसानी फर्ज से कभी पीछे नहीं हटे इसका तो इतिहास भी गवाह है। मुसीबतों का मारा दुश्मन ही क्यों न हो लखनऊ ने उसे भी अपने आँचल में प्यार और इज्जत से बैठाया है। हुमायूं ने जब आप बीती सुनाई तो लखनऊ के एक बुजुर्ग पंडित सदाशिव पाण्डेय ने भर, पार्सियों, कायस्थों और ब्राह्मणों को जुटा लिया। जो जितना दे सका खुशी से दे गया। इस प्रकार हुमायूं की मदद के लिए 10 हजार रुपये और 50 घोड़े एकत्र हो गये।
हुमायूं लखनऊ वासियों की मेहमानबाजी और इन्सानी फर्ज को याद करता पीलीभीत निकल गया। 1590 ई० में अकबर ने जब हुकूमत संभाली तो हिन्दुस्तान को बारह प्रान्तों में बाँटा जिसमें एक प्रान्त अवध भी था। अवध की राजधानी बनने का गौरव लखनऊ को हासिल हुआ। इन्हीं दिनों बिजनौर का एक शेख अब्दुरहीम लखनऊ आया। यहां वह पं० सदाशिव के साहबजादे पं० हरिहर पाण्डेय से मिला। हरिहर ने जब उसकी गरीबी देखी तो बड़ा दुखी हुआ। बादशाह अकबर के नाम एक खत लिखकर शेख अब्दुरहीम को दे दिया। खत में हुमायूं को गुरबत में दी गयी मदद तक का शुरू से आखिर तक जिक्र था। इस बारे में अकबर को भी जानकारी न थी। खत के आखिर में लिखा था—“यदि हो सके तो जहांपनाह इस गरीब की कुछ मदद कर दें।” खत पढ़कर अकबर भाव विभोर हो गया। लखनऊ वासियों के प्रति श्रद्धा से सिर झुका दिया। शेख अब्दुरहीम को एक बड़ी जागीर अदा कर दी ओर कहा— “बखुदा, मुगलों की तारीख में जब भी मुर्वरिख हुमायूं के जवाल का जिक्र करेगा तो लखनऊ के मेजबान का जिक्र सुनहरी हर्फों में लिखते वक्त लक्ष्मण टीले के उस ब्राह्मण खानदान को भी फरामोश नहीं करेगा, जिसने शहंशाह हुमायूं को गुरबत में पनाह दी।”
वही पाई-पाई के लिये मोहताज शेख साहब लखनऊ आये और जागीर हासिल की। लक्ष्मण टीले के करीब ही उन्होंने पंच महला और शेखन दरवाजाबनवाया। लखनऊ में ही उनका इन्तकाल हुआ। उनका मकबरा नादान महलके नाम से मशहूर है। अकबर को लखनऊ से खास लगाव हो गया था। उसके जमाने में लखनऊ ने खूब तरक्की की खास कर व्यापार के मामले में। यूरोपीय पर्यटक लैकेट जो कि शाहजहाँ की हुकूमत के वक्त आया था उसने लखनऊ को एक शानदार मण्डी कहा। शाहजहाँ के वक्त ही सूबेदार अली शाह कुली खाँ के साहबजादे–मिर्जा फाजिल और मिर्जा मंसूर ने फाजिल नगर और मंसूर नगर दो मोहल्ले बसाये। रिसालदार अशरफ अली खाँ ने अशर्फाबाद आबाद किया तो उनके भाई जान मुशरफ खाँ ने मुशर्फाबाद मोहल्ला बसाया। इस प्रकार धीरे-धीरे लखनऊ में तमाम मोहल्ले आबाद होते चले गये। नबाब आसफुद्दौला ने फैजाबाद को छोड़कर जब अवध की राजधानी लखनऊ कायम की तो शहर-ए-लखनऊ दुल्हन की तरह सज उठा। इमारतों, खूबसूरत बागों का जाल तो फैला ही नये-नये तमाम मोहल्ले बसने शुरू हो गये। नवाब आसफुद्दौला के निजी दारोगा ने फतेहगंज, अमीनगंज, दौलतगंज, रकाबगंज, खानसामें का अहाता, बेगमगंज मोहल्ले बसाये तो महाराजा टिकेतराय ने टिकंतराय का बाजार, टिकेतगंज, नवाब आसफुद्दौला की माता बहु बेगम ने अलीगंज, भवानीगंज, तरमनी गंज, हसनगंज की बावली, तहसीन गंज, खुदागंज, कश्मीरी मुहल्ला, हसीनुद्दीव खाँ की छावनी, सूरत सिंह का अहाता, बालकगंज आदि तमाम मोहल्ले आबाद किये। इनके अतिरिक्त तोप दरवाजा, ख्यालीगंज, मह॒बूबगंज, अंबरगंज, नदी के इस पार हसनगंज आदि मोहल्ले आबाद हुए।
सआदत अली खाँ का जमाना आया तो मोहल्लों के साथ-साथ, बड़े-बड़े बाजार भी कायम हुए जिनमें जंगली गंज, रस्तोगी मोहल्ला, मौलवीगंज, मकबूल गंज, रकाबगंज प्रमुख थे रकाबगंज उन दिनों लोहे और अनाज की सबसे बड़ी मण्डी थी। गाजीउद्दीन हैदर को जब शाही खिताब हासिल हुआ तो इस खुशी में उन्होंने एक नया बाजार कायम किया बादशाहगंज। वजीर आगामीर कैसे चुप बैठते उन्होंने मुहल्ला आगामीर की ड्योढ़ी बसाया तो हकीम मेंहदी ने मेंहदीगंज मोहल्ला आबाद किया।
नसीरुद्दीन के वक्त में चाँदगंज और गणेशगंज मोहल्ले बसे। अमजद अली शाह के जमाने में लखनऊ का सबसे रंगीन और हसीन मोहल्ला हजरतगंज बसा जो शहर में आबाद तमाम मोहल्लों से अधिक साफ सुधरा था। अमजद अली शाह के वजीर अमीनुद्दोला ने मौहल्ला–अमीनाबाद आबाद किया। यह दोनों ही मोहल्ले दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करते गये ‘हजरतगंज लखनऊ का दिल बना तो अमीनाबाद धड़कन।
लेफ्टीनेंट मेजर मकवाड ईनिस (आर० ई० पी० सी०) ने अपनी किताब लखनऊ एण्ड अवध इन द म्यूटिनी’ में लखनऊ के तत्कालीन स्वरूप विशेषकर पुलों और मार्गों का जिक्र किया है—लखनऊ शहर तकरीबन साढ़े पाँच मील लम्बा और ढाई मील चौड़ा है। यह मुख्यतः गोमती के किनारे आबाद है। यह तीन ओर से एक बड़ी व गहरी नहर से घिरा हुआ है। शहर के पश्चिमी भाग में घनी आबादी है। शहर का पूर्वी ओर दक्षिणी भाग भी घना बसा है। शहर का उत्तरी-पूर्वी भाग बंगलों, कोठियों महलों से आच्छादित है। जहाँ शहर के पूर्वी और पश्चिमी भाग विभकत होते हैं, वहाँ गोमती नदी पर एक पुराना पुल मौजूद है जिसे पत्थर का पुल’ कहते हैं। पुल से एक मील दूर नदी के बहाव वाली दिशा में एक नया लोहे का पुल बना है। इन दोनों पुलों से होकर मड़ियाँव छावनी की ओर आवागमन होता है। मडियाँव उत्तर में दो मील की दूरी पर है। दक्षिण दिशा में कानपुर जाने का रास्ता लोहे के पुल से प्रारम्भ होकर बेलीगारद के किनारे से होता हुआ चार बाग क्षेत्र में निर्मित नहर के ऊपर से होकर जाता है। ‘मच्छी भवन” ओर वेलीगारद दरिया के दक्षिणी तट पर क्रमश: पत्थर के पुल और लोहे के पुल के करीब ही बने हुए हैं।
दारोगा अब्बास अली बेग ने अपनी किताब द लखनऊ एलबम में लखनऊ के तत्कालीन स्वरूप पर रोशनी डाली है— अवध में बादशाहत से पहले लखनऊ में अधिकांशतः मजबूत ईट या पत्थर
के इटालियन और मुस्लिम वास्तुकला में निर्मित दो या तीन मंजिले ऊँचे मकान बने होते थे। जिनके बीच में संकरी किन्तु साफ सुधरी गलियाँ होती थीं। जनसंख्या बहुत थी जिसके कारण गलियों में घुड़सवारी या किसी सवारी को ले जाना नामुमकिन होता था। ऐसा कहते हैं फैजाबाद और लखनऊ यह दोनों शहर पहले एक गुप्त सुरंग द्वारा जुड़े थे, जिनके बारे में केवल अवध के नवाब ही जानते थे। जब सुरंगों का जिक्र आ ही गया है तो यह कहना बेजा नहीं होगा कि लखनऊ यदि बागों का शहर है तो यह सुरंगों पर बसा शहर भी है।
छतर मंजिल से मोती महल तक आज भी एक सुरंग मौजूद है जिसके प्रवेश द्वार बन्द कर दिये गये है। कोठी रोशनुउद्दौला और नवाब अली का अकबर हाउस एक सुरंग के माध्यम से जुड़े थे। विलायती बाग से एक सुरंग दिलकुशा महल तक जाती थी, अवध की बेगमातें अक्सर इस गुप्त रास्ते से आया-जाया करती थीं। इसी तरह से एक सुरंग रेजीडेंसी तक आती थी। ऐतिहासिक सूर्य-
कुण्ड तक भी एक लम्बी सुरंग आने के प्रमाण मिले हैं।
लखनऊ का इतिहास देखे तो नवाबीन वक्त में जितनी भी इमारतें बनीं उनमें से अधिकांश इमारतों में तहखाने बने थे। यह तहखाने गर्मियों के लिये आरामदेह तो थे ही साथ ही साथ संकट के वक्त में सुरक्षा की दृष्टि से भी बड़े महत्वपूर्ण थे। इनमें से अधिकांश तहखाने एक-दूसरे से सुरंगों द्वारा जुड़े थे। वक्त की करवटें लखनऊ का भी रूप रंग बदलती गयीं। उत्तर प्रदेश की राजधानी होने का गौरवमयी ताज शीश पर रखे शहर-ए-लखनऊ अब विकास’ की दौड़ में शामिल हो चुका है। आज लखनऊ महानगर की भौगोलिक संरचना
2528 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में सीमांकित है।