रॉकेट अग्नि बाण के रूप में हजारों वर्षो से प्रचलित रहा है।भारत में प्राचीन काल से ही अग्नि बाण का युद्ध अस्त्र के रूप में इस्तेमाल होता रहा है। रामायण और महाभारत काल में अनेक प्रकार के अग्नि बाणों का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। दिवाली आदि त्योहारों में आतिशबाज़ी के रूप में अग्नि बाण सैकड़ों वर्षो से मनोरंजन का साधन रहा है।
रूसी वैज्ञानिक सियोल्कोवस्की ने सन् 1903 में संभवतः सबसे पहले यह सुझाव दिया था कि पृथ्वी के वातावरण से बाहर जाने वाले यान के रूप में रॉकेट की व्यवस्था ही सर्वोत्तम हो सकती है। इसका मुख्य कारण यह था कि रॉकेट उन सभी ईंधन रसायनों को अपने अंदर ही ढोता चलता है जो उसे अंतरिक्ष (Space) में आगे बढ़ाते हैं। उसे वायुयान से ऑक्सीजन प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रहती है।
रॉकेट का आविष्कार किसने किया और कब हुआ
1923 में जर्मनी के एक वैज्ञानिक हरमन ओवर्थ ने अपनी पुस्तक रॉकेट और अतंर्ग्रहीय अंतरिक्ष में रॉकेट के बारे में बहुत कुछ जानकारी दी। एक अन्य वैज्ञानिक फ्रिट्ज फोन ओपेल ने बर्लिन में एक रॉकेट चलित कार का परिक्षण किया था। एक और वैज्ञानिक मेक्स वेलियट ने 1929 में रॉकेट चलित कार का प्रदर्शन बवेरिया की एक जमी हुई झील पर किया था। जो 235 मील प्रतिघंटा की गति से चली परंतु रॉकेट ट्यूब फट जाने से वेलियट की मृत्यु हो गई।
जर्मनी के वैज्ञानिक ने वी1 और वी2 नाम के रॉकेटों को विकसित किया जो उड़ने, बमों के रूप में द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन के खिलाफ इस्तेमाल किए गए। वी2 रॉकेट आधुनिक रॉकेटों का पहला नमूना था। वी2 ने 15 मील की ऊंचाई पर 3700 मील प्रतिघंटा की रफ्तार प्राप्त की। बाद में यह 60 मील की ऊंचाई पर 650 मील दूर गया। इसके रॉकेट इंजनों ने 55000 पौंड का प्रणाद (Thrust) उत्पन्न किया था। विश्व युद्ध के समय से ही अमेरीका, रूस और ब्रिटेन में रॉकेट विकास की गति तेज होती गई। अनेक प्रकार के नियंत्रित सस्त्र और रॉकेटों का विकास हुआ।
प्रोपेलर वाले विमानो को संघन वायु की आवश्यकता पडती है, ताकि प्रोपेलर को दाब उत्पन्न करने के लिए संघन वायु मिल सके ओर विमान सुगमता से आगे बढ सके। जेट विमान को आगे बढने के लिए वायु की आवश्यकता नहीं पडती, लेकिन यह वायु पीने वाली मशीन से चालित होता है। अतः अंतरिक्ष के लिए ये दोनो यान अनुपयुक्त है, क्योंकि इनमे किसी न किसी रूप मे वायु की आवश्यकता पड़ती है। राकेट को आगे बढ़ने के लिए वायु की जरूरत नही पडती।

रॉकेट चाहे युद्ध के लिए बनाया जाए या अंतरिक्ष में जाने के लिए अथवा चांद पर जाने के लिए, इनके इंजन केवल दो प्रकार के होते हैं। एक ठोस ईंधन से चलने वाले, दूसरे तरल ईंधन से चलने वाले। ठोस ईंधन से चलने वाले रॉकेट कम दूरी के लिए उपयुक्त होते हैं। सबसे पहले रॉकेट में इस्तेमाल किया गया ईंधन बारूद था। आधुनिक रॉकेटों में एल्कोहल, मीथेन, हाइड्रोजन,ऑक्सीजन और फ्लोरीन आदि का इस्तेमाल तरल ईंधन के रूप मे होता है। रॉकेट का एग्जास्ट दो बातो पर निर्भर होता है-एक गैसे किस रफ्तार से बाहर ठेली जाती हैं और दूसरा इसके चलने की रफ्तार। अतः महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि किस प्रकार का ईंधन प्रयोग में लाया जाए और उसके निकास की व्यवस्था कैसी हो ताकि रॉकेट ईंधन गैसे अधिक से अधिक रफ्तार से बाहर आ सके, जिससे रॉकेट को अधिकतम गति प्राप्त हो सके।
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के ईंधन मिश्रण का निकास वेग लगभग 13,000 फुट प्रति सेकण्ड से भी अधिक होता है। बोरोन और हाइड्रोजन के योगिक पेटाबोरेन का आक्सीजन के साथ निकास वेग लगभग 10,000 फूट प्रति सेकण्ड होता है। इन यौगिको के जलने से जो भयंकर ताप उत्पन्न होता है, उससे रॉकेट को सुरक्षित रखने के लिए विशेष धातु का उपयोग किया जाता है।
अब वह दिन दूर नही जब रॉकेट-विमानो से यात्रा संभव हो सकेगी। रॉकेट-विमानों से 9,000 से 12000 मील प्रति घंटे की रफ्तार प्राप्त की जा सकती है। अमेरिका में निर्मित एक रॉकेट विमान एक्स-5 से एक परीक्षण उडान में 3140 मील प्रति घंटे की रफ्तार प्राप्त की गयी थी। यह परीक्षण 1961 में किया गया था। इसके इंजन का प्रणोद (Thrust) 57000 पोंड था। अमेरीका ने हाल ही मे स्पेस-शटल चैलेंजर और कोलम्बिया नामक अंतरिक्ष विमानो का उपयोग प्रारम्भ किया है। ये रॉकेट विमान संचार उपग्रही को अंतरिक्ष में स्थापित होने के लिए छोडकर पुन वायुयान की भांति पृथ्वी पर लौट आते हैं। दो भारतीय संचार उपग्रह अमरीका के चैलेंजर नामक अतरिक्ष-विमान से ही छोडा गया था।
अंतरिक्ष में प्रथम उपग्रह को ले जाने वाला प्रथम रूसी रॉकेट सन् 1957 में छोडा गया था। स्पुतनिक नाम का यह उपग्रह विश्व का पहला कृत्रिम उपग्रह था। रूस के रॉकेट उडान अभियान के पथप्रदर्शक थे सर्जी कोरोलोव (1930)। कोरोलोव का उस रॉकेट और उपग्रह के विकास में पूरा हाथ था, जिसके द्वारा रूस का प्रथम उपग्रह छोडा गया था। जिस रॉकेट में विश्व का प्रथम अंतरिक्ष यात्री यूरी गगारिन भेजा गया था, वह भी कोरोलोव की देखरेख में तेयार हुआ था। जर्मनी का एक रॉकेट इंजीनियर वर्नहर फॉन ब्रॉन द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अमेरिका जाकर रहने लगा। वहा उसने अंतरिक्ष अभियान दल का नेतृत्व किया ओर अमेरीका का पहला उपग्रह एक्सप्लोरर-1 को अंतरिक्ष-कक्षा मे पहुंचाने में सफलता प्राप्त की। वर्नहर फॉन बॉन के नेतृत्व मे ही सेटर्न नामक उस रॉकेट का निर्माण भी हुआ जो सबसे पहले मानव को चंद्रमा तक ले गया।
कृत्रिम उपग्रह के अंतरिक्ष अभियान की शुरुआत तो लगभग उसी दिन से हो गयी थी, जब सत्रहवी शताब्दी में जर्मनी के अंतरिक्ष विज्ञानी जोहान्स कैपलर (1571-1630) ने सूर्य की परिक्रमा करने वाले उसके ग्रहों की चाल, परिक्रमा पथ और सूर्य से दूरी से संबंधित तीन नियमो का प्रतिपादन किया। उसके बाद ब्रिटेन के सर आइजेक न्यूटन ने भी गुरुत्वाकर्षण संबंधी नियमों का प्रतिपादन किया जो आज अंतरिक्ष-अभियान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
अंतरिक्ष की खोज का अभियान उस दिन शुरू हुआ जब 4 अक्टूबर 1957 मे रूस ने अपने रूसी रॉकेट द्वारा एक छोटा सा कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक-1 अंतरिक्ष में 560 मील ऊपर पहुचाया। इस उपग्रह ने 17000 मील प्रति घंटे की गति से पृथ्वी के चक्कर लगाए। उसके बाद से अनेक रूसी उपग्रह अंतरिक्ष में भेजे गए। 12 अप्रेल 1961 को रूस ने अपने साढ़े चार टन वजन के अंतरिक्ष यान द्वारा पहला मानव अंतरिक्ष मे भेजने मे सफलता पायी। यूरी गगारिन विश्व के प्रथम अंतरिक्ष-यात्री थे। जर्मनी के फॉन दान ने अमेरीकी अंतरिक्ष अभियान दल का नेतृत्व किया ओर उनके नेतृत्व में अमरीका का प्रथम कृत्रिम उपग्रह एक्सप्लोरर-1 फरवरी 1958 में अंतरिक्ष में जा गया।
उसके बाद से रूस और अमेरिका ने अनेक बार अंतरिक्ष में अपने उपग्रह भेज। अनेक रुसी चंद्रयान चंद्रमा के धरातल पर उतरकर विभिन्न प्रकार के अन्वेषण कर सफलता पूर्वक पृथ्वी पर वापस आ चुके हैं। अंतरिक्ष यानों से मंगल, शुक्र और र शनि आदि ग्रहों का बहुत निकट से सर्वेक्षण किया जा चुका है। चंद्रमा पर कदम रखने वाला पहला मानव अमेरिका का नील आर्मस्ट्रांग था। वह 21 जुलाई 1969 को चांद पर उतरा। उनके साथ दूसरा अंतरिक्ष यात्री था एडविन एल्ड्रिन।
अंतरिक्ष यात्रा के अलाउ उपग्रह संचार के माध्यम के रूप मे बडे महत्त्वपूर्ण साबित हुए हैं। संचार उपग्रहों के जरिये रेडियो-प्रसारण, टेलीफोन-वार्ता, टेलीप्रिंटर तथा टेलीफोटो सवा ओर टेलीविजन प्रसारण की व्यवस्था बखूबी की जा सकती है। संचार उपग्रह अंतरिक्ष टेलीफोन एक्सचेंज की तरह कार्य करता है। इसी तरह के एक अमरीकी संचार उपग्रह ‘टेलस्टार’ ने सन् 1962 मे अमेरीका ओर यूरोप के मध्य टेलीविजन कार्यक्रमों को रिले करने का कार्य आरम्भ किया। इसके बाद तो अन्य विकसित देशो ने भी अपने-अपने संचार उपग्रहों की अंतरिक्ष मे स्थापना की और आक़ाश में संचार उपग्रहों का जाल-सा बिछ गया।
उपग्रह ओर भू-केंद्र का संबध सूक्ष्म तरंगों के जरिये स्थापित होता है। ये तरंगे विद्युत-चुम्बकीय तरंगो की तरह ही होती है। रेडियो तथा टेलीविजन कार्यक्रमो के प्रसारण मे भी इन्ही तरंगो का इस्तेमाल किया जाता है। ये तरंगे अति उच्च और अल्ट्रा हाई फ्रिक्वेंसी की होती हैं। माइक्रोवेव अथवा सूक्ष्म-तरंगे प्रकाश की रफ्तार से ही गति करती हैं। रेडियो तरंगें पट्टी जिसे रेडियो स्पेक्ट्रम कहते है, में विभिन्न रेडियो-तरंगों को भिन्न-भिन्न कामों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। अलग-अलग कार्यो के लिए प्रसारण तरंगो की भिन्नता के कारण ही अनेक तरह के प्रसारण एक साथ किए जा सकते हैं ओर वे एक दूसरे से टकराते नहीं हैं। रेडियो प्रसारण साधारण तौर पर प्रति सेकण्ड दस लाख हर्टज से पद्रह मेंगा हट्ज वाली तरंगों तक किया जाता है और इससे अधिक 100 मैगा हट्ज तक टेलीविजन प्रसारण की व्यवस्था होती है। इनका प्रसार क्षेत्र तरंगो को दी गयी शक्ति पर निभर होता है।
अब आइए देखे कि उपग्रह से सम्पर्क किस प्रकार किया जाता है। किसी भी तरह की सूचना को सबसे पहले उपकरणों की सहायता से विद्युत-चुम्बकीय संकेतों मे परिवर्त्तित किया जाता है। उपग्रह में लगा अति संवेदनशील रैजोल्यूशन रेडियो मीटर मौसमी हलचलो की सूचना आर बादलों आदि के चित्रों की जानकारी देता है।रेडियो मीटर तक धरती के केंद्र से जिस प्रकार की तथा जितनी शक्ति की ऊष्मा-तरंगे आती हैं, उन्हें यह विद्युत-चुम्बकीय तरंगो मे परिवतित करता रहता है। इन्हे पुन शक्तिशाली बनाकर धरती पर स्थित भू-केन्द्र की ओर भेज दिया जाता है, जहा इन्हे यंत्रों की सहायता से फिर से चित्रों और अन्य सूचनाओं के रूप में प्राप्त कर लिया जाता है। यह प्रक्रिया माडुलशन कहलाती है। हमारे देश में भी संचार उपग्रहों के माध्यम से संचार व्यवस्था को एक नया आयाम दिया गया है। इन्मेट-1 बी’ हमारे देश की संचार व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यह सब रॉकेट के आविष्कार से ही संभव हुआ।