राजस्थान की राजधानी जयपुर में जयसागर के आगे अर्थात जनता बाजार के पूर्व में सिरह ड्योढ़ी बाजार मे खुलने वाला रामप्रकाश थिएटर कभी इस गुलाबी शहर जयपुर की एक अलग ही शान था। साहित्याचार्य भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने इस नगर के इस भारत-विख्यात रंगमच के प्रसंग मे खेद जनित आश्चर्य के साथ व्यक्त किया है कि नवीनयुग रुच्या नरनाट्यस्थले चित्रताट्यमीक्षचलज्जल्पच्चित्र बन्धुरे” (इस थिएटर मे मानव नाट्य-कला के स्थान पर अब चित्रों की नाट्यकला देखता है)। वस्तुत जिन लोगो को रामप्रकाश थिएटर मे नाटक देखने का अवसर मिला है ओर जिन्होने इस रंगमच के ऐतिहासिक महत्त्व को आका है, वे सभी इस बात पर खेद प्रकट करते हैं।
रामप्रकाश थिएटर जयपुर
रामप्रकाश के नाटकघर से थिएटर बन जाने के कारण इस नगर की कोई ऐसी चीज खत्म हो गई है जो रखने ओर रहने लायक थी। इस नाटकघर को सिनेमा में परिणत करने का ‘अपराध’ जयपुर के प्रसिद्ध प्रधानमन्त्री सर मिर्जा इस्माइल ने किया था जिन्हे अन्यथा जयपुर को सुधारने-सवारने का बडा श्रेय है। जब ऐसा किया गया था तब भी पुराने ओर जानकार लोगों को यह परिवर्तन बहत अखरा था ओर उनके इस तर्क में सचमुच सच्चाई थी कि थिएटर तो नया भी बन सकता है (तब से आज तक कई बन गये है ओर बनते जा रहे है) किन्तु ऐसा नाटकघर फिर कहा बनेगा? इस नाटकघर के समाप्त हो जाने पर जयपुर में रंगमच का अभाव अनुभव किया गया ओर रवीन्द्र शताब्दी के अवसर पर “रवीन्द्र मंच” के निर्माण द्वारा इसकी पूर्ति भी की गई। इस नवीन रंगमच की इमारत से इसके उद्घाटनकर्ता स्वर्गीय डा सम्पूर्णानंद की तबीयत कोफ्त हो गईं थी ओर उन्होने अपने उद्घाटन भाषण में इसे साफ-साफ अभिव्यक्त भी किया था। यह बात जाने दे, फिर भी यह निर्विवाद है कि रवीन्द्र मंच ने जयपुर में न वैसी धूम मचाई है ओर न मचायेगा जो कभी रामप्रकाश थिएटर (पूर्व का नाटकघर) ने मचाई थी।
साहित्य, संगीत ओर कला के प्रेमी रामसिंह (1835-1880 ई ) ने जयपुर निवासियों को रामनिवास ओर रामबाग, महाराजा कॉलेज ओर महाराजा संस्कृत कॉलेज, गर्ल्स सकल, मेयो अस्पताल, जलकल और गेस लाइट के साथ-साथ रामप्रकाश थियेटर या नाटकघर भी दिया था। जब यह बनाकर खोला गया था तो
तत्कालीन भारत के सर्वोत्तम नाटकघरों मे इसकी गिनती की गई थी। इसके मंच पर विमानो तथा पात्रो के आकाश से अवतरित होने अथवा पृथ्वी से अकस्मात् प्रकट होने के आश्चर्यजनक साधन ओर उपकरण थे ओर पर्दे भी प्राकृतिक दृश्यों ओर महल-मन्दिरों की चित्रकला से अलंकृत होकर प्रसगानुकुल पृष्ठभूमि बनाते थे। अपने समय में यह बडा आश्चर्यजनक ओर एक नवीन आविष्कार था जिसे देखने के लिए जयपुर और आसपास के क्षेत्रों मे एक नशा ही छा गया था। इक्के-तांगे वालो ने नाटक देखने के लिये अपने टटटुओ को बेच डाला था, बहिश्तियो ने अपनी मशके और पखाले। नाटक देखने के नशे में गाफिल शहर में चोरिया ओर उठाईगिरी की वारदाते भी बढ गई थी। पोटाश के धमाके के साथ संगीत के मुखारित वातावरण मे रामप्रकाश थिएटर का पर्दा उठता तो दर्शक दंग रह जाते ओर तीन-तीन चार-चार घण्टे बैठकर अपूर्व मनोरंजन करते। उस समय खेले जाने वाले नाटको में इन्द्रसभा बडा लोकप्रिय नाटक था जिसमे रामसिंह के गणीजन खाने के अनेक कलावत भी काम करते थे।
जयपुर का गणीजनखाना तब कलावतो की खान था, किन्तु रामसिंह ने इस रंगमच को एकदम आधुनिक बनाने में कोई कोर-कसर नही छोडी ओर नाट्यकला मे सिद्ध-हस्त बम्बई की पारसी थियेटिकल कम्पनी के कलाकारों को भी यहां आमन्त्रित किया और स्थानीय अभिनेताओं को उनकें प्रशिक्षण में तेयार करवाया। शीघ्र ही रामप्रकाश की मंच-सज्जा, अन्य उपकरण, आकेंस्ट्रा ओर कलाकारों की टोली ऐसी कुशल हो गई कि तत्कालीन राजपूताना मे तो कही इसका मुकाबला न था।
महिला पात्रों के अभिनय के लिये तवायफो-वेश्याओ-को प्रेरित करना इस नाटकघर का अपने आप में एक कीर्तिमान था। तब के समाज में भले घरों की कौन औरते इस गाने-बजाने ओर नाचने- कूदने के काम के लिये आगे आती? सिनेमा के मूक युग में भी तारिकाये बहत दिनो तक वेश्यायें ही हुआ करती थी। जयपुर के इस अत्यन्त लोकप्रिय ओर अपूर्व रंगमच ने सौ साल पहले जैसी धूम मचा रखी थी उसकी ऐतिहासिक सनद महामहोपाध्याय कवि राजा श्यामलदास के “वीर विनोद” मे सुरक्षित है। 1880 ई का साल आरम्भ होते ही श्यामलदास मेवाड के महाराणा सज्जनसिंह के साथ जयपुर में महाराजा रामसिंह के मेहमान थे। महाराणा ओर उनकी पार्टी पूरे एक सप्ताह यहां रहे और इन सात दिनो की पांच राते उन्होंने रामप्रकाश थिएटर में नाटक देखने मे बिताई। रामप्रकाश थिएटर की विशेषताओं को उजागर करने वाली इस इतिहासकार की पंक्तियां उद्धृत करने योग्य है।

“पहली जनवरी को दोनो अधीश एक बग्घी मे सवार होकर राम निवास बाग मे पाठशाला के विद्यार्थियों का जलसा देखने गये और वहा हैड मास्टर की स्पीच सुनकर विद्यार्थियों का कौतूहल देखने के बाद वापस महलो में आये। रात्रि के समय दोनों अधीशो ने मय सभ्यजनो के नाटकशाला मे पधार कर ‘जहांगीर” बादशाह का नाटक देखा (यह शायद अनारकली” रहा होगा)। यह नाटकशाला इन्ही महाराजा साहब ने बडे खर्च से बनवाकर बम्बई से पारसी वगेरह शिक्षित मनुष्यों को बुलवाया और स्त्रियों की जगह जयपुर की वेश्याओं को तालीम दिलवाकर तैयार करवाया। इस नाटक मे वस्त्र, आभूषण वगैरह सामग्री समयानुसार और बोलचाल, पठन-पाठन आदि सभी बाते अद्भत और चरित्र की सभ्यता दिखाने वाली थी। परियों का उडना, पहाडो व मकानों की दिखावट और फरिश्तो का जमीन व आकाश से प्रकट होना देखने वालो के नेत्रों को अत्यन्त आनन्द देता था। मेंने ऐेसा नाटक पहले कभी नही देखा था। कविराजा के अनुसार दूसरे दिन भी दोनों अधीशो ने ‘बद्रेमुनीर’ और ‘बेनजीर’ नाटक देखे। चार जनवरी की रात का ‘अलादीन और अजीब व गरीब चिराग” का नाटक हुआ और पांच जनवरी को _ हवाई मजलिस का नाटक देखा।”दीर विनोद” मे आगे बताया गया है’ छह जनवरी को दोनो अधीशो का मिलना हुआ और रात के समय ‘लैला-मजनू’ का नाटक देखा जहा तुकोजीराब होल्कर, इन्दौर के ज्येष्ठ और कनिष्ठ पुत्र भी, जो राजपूताना की सैर करते हुए जयपुर मे आये थे, नाटक देखने मे शरीक हुए।
महाराणा सज्जन सिंह और श्यामलदास 30 दिसम्बर, 1879 ई को जयपुर पहुंचे थे ओर सात जनवरी 1880 ई की रात को स्पेशल ट्रेन से वे किशनगढ़ गये थे। जयपुर प्रवास में उनकी राते जैसे रामप्रकाश थिएटर के लिए ही आती थी। ‘वीर-विनोद’ मे यह सविस्तार वर्णन नाटकघर के साथ-साथ नाटकों और उनके पात्रों के अभिनय की उत्कृष्टता और सफलता का भी परिचायक है। यह भी स्पष्ट है कि श्यामलदास जैसे विद्वान और इतिहासज्ञ तथा मेवाड के ”हिन्दुवा-सूरज” महाराणा ने इससे पहले कभी ऐसे अच्छे नाटक नही देखे थे’ ओर उनका इनसे भरपूर मनोरंजन हुआ था। चौडे चौगान दर्शको ओर श्रोत्ताओ की भीड से घिरे तख्तों या पाटो पर ”देवर-भाभी” और दूसरे तमाशे देखने के शौकीन जयपुर वालो के लिए कलकत्ता के स्टार थिएटर की प्रतिकृति-रामप्रकाश का रंगमच-वास्तव मे अपूर्व मनोरंजन का साधन था, जिसने इस शहर की ख्याति दूर-दूर तक फैला दी थी। इस नाट्यशाला के सिनेमाघर बन जाने से इस मंच के ऐतिहासिक अवशेष भी नही रहे हैं, हां इमारत का अग्र भाग अब भी वैसा ही है जैसा कविराजा श्यामलदास ने देखा था।
रामप्रकाश थिएटर की सबसे बडी उपलब्धि यही थी कि इसके रंगमच पर स्त्री-पात्रो का अभिनय करने वाली औरते “सचमुच” औरते ही थी। यह उन्नीसवी सदी के सातवें-आठवें दशक मे एक अद्भुत और अनहोनी-सी बात थी। भारत में परम प्रसिद्ध और अत्यन्त लोकप्रिय होने वाले पारसी रंगमच की स्थापना सन् 1864 ई में हुई थी। उस समय स्त्री का पार्ट करने के लिये लडके ही रखे जाते थे। इससे पहले भी नौटंकी, रासलीला आदि मंडलियो मे स्त्री-पात्रो के लिये लडको को ही सजाया जाता था। भारत की ही क्या बात, रोम और यूनान की प्राचीन सभ्यताओं तक में नाटक ने स्त्री-पात्रों के लिये पुरुष ही पैदा किये थे और इग्लैण्ड मे भी इसी परम्परा का पालन किया जा रहा था। 9वीं सदी के मध्य मे शैक्सपीयर के नाटकों को लेकर जो प्रारम्भिक विदेशी कम्पनियां भारत आई थी, वे भी स्त्री-पात्रों के रूप में पुरुष कलाकारों को ही अपने साथ लाई थी।
भारत मे स्थापित होने वाली आरम्भिक पारसी कम्पनियों मे न्यू एल्फ्रेड कम्पनी सबसे प्रसिद्ध ओर दीर्घजीवी हुईं। पूरे 52 साल यह चली। इसके अपने कारण थे। एक तो यही कि भारतीय जनता की धार्मिक भावनाओं का पूरा-पूरा लाभ उठाते हुए इसने अधिकतर धार्मिक आख्यानों को अपने नाटकों के लिये चुना। सनातनी जनता यह नाटक जहां खूब पसन्द करती थी, वहा यह कभी स्वीकार नही कर सकती थी कि कोई वारागना अथवा मगलामुखी सीता, राधा या पार्वती की भूमिका मे उसके सामने आये। कुछेक कम्पनियों मे जो महिलाये तब अभिनेत्रिया बनी थी, वे सभी पेशेवर थी। न्यू एल्फ्रेड कम्पनी ने इन पेशेवर औरतों को कभी काम नही दिया और अपने पुरुष-पात्रों को ही नारी बनाकर सफलता की कई सीढ़िया चढ गईं। उस जमाने मे स्त्री-पात्रों का अभिनय करने वालो मे पंजाब मे गुजरानवाला का निवासी ‘जंगली”’ , जौनपुर का महबूब हुसैन, अहमदाबाद के पास कडी गांव का लल्लूभाई “छोकरी”, जालंधर का गुलामुद्दीन ‘लेडी” और कलकत्ते की कोयल” मास्टर निसार के नाम वैसे ही लोकप्रिय थे जैसे अपने समय की रेखा, हेमा मालिनी और जीनत अमान है।
सच तो यह है कि रंगमच पर सचमुच की औरते 1900 ई के बाद ही आना शुरू हुई। यह प्राय सभी पेशेवर थी। पेशेवर कहने से उस जमाने मे आशय यह था कि वे कुलशील की मर्यादा से बाहर और बाजारू थी। इनमे यहूदी पेशेवर गोहर, कराची की असली अरबी पेशेवर जमीलाबाई और शरीफाबाई का बडा दौर-दोरा रहा। ‘बुलबुले बंगाल” जहांआरा बेगम उर्फ कज्जन और मास्टर निसार की जोडी मे वाक्-चित्र आरम्भ होने पर पहले नायक- नायिका के रूप मे रजतपट पर आई। इसके साथ ही पारसी रंगमच की परम्परा की भारत मे इतिश्री हो गई।
रामप्रकाश थिएटर जैसे रंगमच का संस्थापक महाराजा रामसिंह 1880 ई में तो स्वर्गवासी हो गया था। यह जानकर बडा विस्मय और आश्चर्य होता है कि जब बम्बई, कलकत्ता और अन्यत्र भी स्त्री-पात्रों की भूमिका स्त्रियां नही करती थी, तब जयपुर की तवायफें इस रंगमच पर तरह-तरह की भुमिकाये अभिनीत कर वाहवाही लूट रही थी। एक चन्दाबाई सौरूवाली थी, जिसे महाराजा “मोलाना” कहकर सम्बोधित करते ओर ग्रीनरूम मे जाकर स्वयं उसके पंख लगाते मेक-अप कराते। वह प्राय सब्ज परी की भूमिका करती थी। इसी श्रृंखला मे दो और तवायफों के नाम है-नन्ही और मुन्ना। दोनो बहिनें थी और लश्कर से यहां आई थी। इनकी लम्बी-चौडी हवेली घाट दरवाजा बाजार मे नवाब के चौराहे पर थी आज तक पास-पडोस के लोग बताते है। अब यह किसी मुसलमान जौहरी ने खरीद ली हैं। महाराजा रामसिंह के जमाने में जयपुर के नये-नये नाटकघर मे इन दोनो बहिनों ने भी नाटकों मे सफल अभिनय किया था और रंगमच के दोनो ओर इनके चित्र भी दीवार पर अंकित थे। कविराजा श्यामलदास ने अपने “वीर विनोद ‘ में जिन नाटकों की जी भर तारीफ की है उनमे नन्ही-मुन्ना को भी उन्होने अवश्य देखा होगा।
लेखक को जयपुर के प्रधानमत्री कान्ति चन्द्र मकर्जी के हाथ के लिखे कौंसिल के कार्य-विवरण मे रामप्रकाश थिएटर सम्बन्धी अनेक दिलचस्प इन्द्राज मिले है। 30 नवम्बर, 1880 के कार्य- विवरण मे लिखा है कि जयपुर कालेज के प्रिंसिपल ने, जो तब शिक्षा विभाग का अध्यक्ष भी होता था, एक रुपये आधा आने की मजदूरी उन दो स्लेटों और स्लेट-पेन्सिलों के लिए मांगी थी जो दिवगंत महाराजा (रामसिंह) के आदेश से महल मे भेजी गई थी। कौंसिल ने यह मजदूरी तब दी जब दिवगंत महाराजा के विश्वस्त सेवक किशनलाल चेला ने यह रिपोर्ट दी कि महाराजा ने ही ये स्लेट-पेन्सिले भेजने का हुक्म दिया था और ये रामप्रकाश थियेटर मे काम करने वाली किन्ही अभिनेत्रियों को दी गई थी। इससे नाटकघर के काम मे इस महाराजा की व्यक्तिगत दिलचस्पी प्रकट होती है। अभिनेत्रियों को कथोपकथन कण्ठस्थ कराने के लिये शायद ये स्लेट-पेन्सिले दी गई थी।
रामप्रकाश थिएटर मे कई तमाशे हो चुकने के बाद रामसिंह ने शायद अनुभव किया था कि इसके आर्केस्ट्रा को आधुनिक रूप दिया जाना चाहिए। भारतीय वाद्य तो थे ही, कछ पाश्चात्य वाद्य यंत्र भी मंगवाना उचित समझा गया। कातिचन्द्र मकर्जी ने 15 नवम्बर, 1880 की कॉसिल की बैठक के विवरण मे लिखा है “बैंडमास्टर मिस्टर बाकर की 4 अक्टूबर, 1880 की अर्जी आयी जिसमे 581 रुपये दो आने छ पाई की मंजूरी मांगी गयी है। यह रकम वाद्य यंत्रो की कीमत है, जो स्वर्गीय महाराजा ने इग्लैण्ड से खरीदवा कर मंगवाये थे। इसमे बम्बई से जयपुर तक का इन वाद्यों को लाने का रेलभाडा भी शामिल है (बाकर एक जर्मन नागरिक था जो उस समय रियासत का बैड-मास्टर था। )। चूंकि इन वाद्यों की खरीद का आर्डर स्वय स्वर्गीय महाराजा ने रामप्रकाश थियेटर के लिये दिया था, कौंसिल ने इस रकम की मजूरी दे दी और मोहतमिम खजाना तथा मसरिम मैगजीन को इस सम्बन्ध मे आवश्यक निर्देश जारी किये। साथ ही बैंड-मास्टर बाकर से यह पूछने का भी फैसला किया कि ये वाद्य उसके अधीन बैंडो मे काम आ-सकेंगे या नही?”
इससे अनुमान होता है कि रामसिंह की मृत्यु के बाद रामप्रकाश थिएटर में किसी ड्रामा का मंचन नही हो रहा था और आयातित वाद्यो का वहा कोई उपयोग होने की सूरत नही रही थी, किन्तु स्वर्गीय महाराजा के आर्डर का सम्मान करते हुए इन वाद्यों की कीमत का चुकारा करा दिया गया और यह भी देखा गया कि यह व्यर्थ ही न पडे रह जाये, जहा भी इनका उपयोग हो सकता हो, किया जाये। इसी प्रकार उस जमाने मे स्टेट कौंसिल के सामने 8 अप्रेल, 1879 से 30 सितम्बर, 1880 तक का एक हिसाब पेश हुआ। यह बम्बई के केबीनेट-मेकर जमशेद जी नौरोजी का था जिसने रामप्रकाश थिएटर और नये बिलियार्ड रूम के लिये साज-सामान और फर्नीचर भेजा था।
ऊपर कहा जा चुका है कि महाराजा रामसिंह ने कुछ पारसियो को भी यहां बुलाकर थियेटर मे नौकर रखा था। सितम्बर, 1880 में महाराजा की मृत्यु हो जाने के बाद दिसम्बर मे प्रधानमत्री ठाकुर फतह सिंह ओर रेबेन्यू मैम्बर कांतिचन्द्र मुकर्जी के मौखिक निर्देश से इन पारसियो की छुट्टी कर दी गई। कातिचन्द्र मुकर्जी ने इसका ब्यौरा इस प्रकार दिया है:– “मोहतमिम कारखाना की 6 नवम्बर, 1880 की केफीयत मे बताया गया है कि ठाकुर फतहसिंह जी और बाबू कांतिचन्द्र मुकर्जी की हिदायत के मुताबिक बम्बई से आये हुए पारसियो की बकाया तनखाह उनकी नौकरी करने के दिन तक चुका दी गई है, उन्हे रेल-भाडा भी दिया गया है। खजाने के हिसाब मे अब इस रकम का समायोजन होना है। जो इन सबके योग 1558 रुपये की रकम का समायोजन करने की इजाजत कौंसिल ने दे दी।
रामप्रकाश थिएटर तब नगर-प्रासाद का ही भाग माना जाता था ओर इसे ‘महल रामप्रकाश नाटकघर’ कहा जाता था। तब महल की तरह ही यहां के भी कायदे थे। इम्तियाज अली नामक चेला इस महल का अंतिम प्रभारी था। दो संस्कृत नाटकों के मंचन के उल्लेख के बिना रामप्रकाश थिएटर का यह वृत्तान्त अधूरा रहेगा। जयपुर मे 1936 से तो सिनेमा का युग आरंभ हो गया था, फिर भी 1931 के अक्टूबर ओर 1940 मे इसी नाटकघर के मंच पर अभिनीत ‘उत्तर रामचरितमु’ ओर ‘पाण्डव विजय’ नाटक विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जयपुर का भारत-विख्यात महाराजा संस्कृत कॉलेज महामहोपाध्याय पण्डित गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी की अध्यक्षता मे प्रगति के नये सोपान चढ़ रहा था कि 1931 मे महाराजकुमार भवानी सिंह का जन्म हुआ। पिछले दो राजाओ के गोद आने के बाद राज महल मे इस जन्म से सारी रियासत में ही बडा हर्ष मनाया गया। संस्कृत कॉलेज के छात्रों ने इस उपलक्ष मे भवभूति-राचित ‘उत्तर रामचरितम्’ का मंचन किया। स्वय महाराजा मानसिंह यह कह कर नाटक देखने आये थे कि वे आधा घंटे बैठेगे, किन्तु उन्हे इस संस्कृत नाटक मे ऐसा रस आया कि पूरे समय बैठे रहे और अन्त मे दो हजार रुपये का पुरस्कार भी प्रदान करने की घोषणा की। महाराजा ने इस संस्कृत नाटक के मंचन को जयपुर नगर के इतिहास मे ‘एक नई बात” माना।
इस नाटक मे चन्द्रकेतु की भूमिका वैदिक साहित्य के प्रख्यात विद्वान् स्वर्गीय पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने की थी और पंडित प्रभुनारायण शर्मा ‘सहृदय’ को ‘नाट्याचार्य’ की उपाधि मिली थी। 1940 मे अभिनीत ‘पाण्डव विजय जयपुर के तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजा ज्ञाननाथ ने देखा था। यह मंचन भी बडा सफल रहा था और राजा ज्ञाननाथ ने जयपुर से विदा होकर इन्दौर जाने के बाद वहा एकअवसर पर कहा था कि ऐसा अभिनय मैंने पहले कभी नही देखा था। ‘इस नाटक की तैयारी मे दो हजार रुपए व्यय हुए थे और यह सारा खर्चा टिकटों की ब्रिकी से ही पूरा पड़ गया था।
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