भारत के आजाद होने से पहले की बात है। राजस्थान कई छोटे बडे राज्यों में विभाजित था। उन्हीं में एक राज्य मेवाड़ भी था। मेवाड़ की राजधानी उदयपुर थी। राजस्थान में राज्य का शासन राजा के हाथ में होता था। उस समय मेवाड़ की गद्दी पर राणा अड़सीजी आसीन थे। उनके दो पुत्र थे। एक का नाम हमीर सिंह था और दूसरे का नाम भीम सिंह। मूक बना कालचक्र सब देखता रहा। होनी टली नहीं। राणा अड़सीजी अपनी प्रजा को छोडकर हमेशा हमेशा के लिए चले गए। अड़सीजी के निधन के बाद राज्य पर मुसीबत के बादल घिर आए। उनके दोनों पुत्र अभी छोटे ही थे। राज्य में चोरी चकारी धडल्ले से चल रही थीं। राज्य में चूड़ावत और शक्तावत दो ऐसे सरदार थे, जो एक दूसरे के जानी दुश्मन बन गए थे। राणाजी के बाद राज्य का शासन रानी सरदार कंवर ने संभाला। उस राज्य के नियम कानून दूसरे राज्यों से भिन्न थे। वहां परदे की प्रथा थी। रानी अपने चेहरे पर परदा रखती थी। पुरूष अधिकारियों से बातचीत नहीं करती थी। उनकी बातचीत का माध्यम एक दासी थी। रानी की उस दासी का नाम रामप्यारी था।
जब कोई व्यक्ति रानी से मिलने जाता, तब रामप्यारी उसका सवाल लेकर रानी के पास जाती। उन्हें सवाल बताती फिर रानी जो जवाब देती, उस जवाब को लेकर रामप्यारी उस व्यक्ति के पास आती और उसे रानी का जवाब सुनाती। रामप्यारी अपना कार्य चित्त लगातार करती थी।
दिन महीनों में, महीने सालों में परिवर्तित होते गए। रामप्यारी राज्य के कार्यों में हाथ बटाने लगी। रानी को अपने सुझाव बताने लगी। इससे प्रसन्न होकर रानी ने उनकी तरक्की कर दी। अब राम प्यारी को रानी ने प्रमुख दासी का पद दे दिया। राम प्यारी को रहने के लिए एक आलीशान हवेली मिली। राज्य में उसका आदर सत्कार बढ़ गया। उन्होंने अधिकांश प्रजा पर अपना विश्वास जमा लिया और अपने विश्वासपात्रों का एक अलग गुट बनाया। राम प्यारी ने सुरक्षा के लिए सेना तैयार कर ली। उनकी सुरक्षा सेना रामप्यारी का रसाला के नाम से प्रसिद्ध हुई।
दासी रामप्यारी का मेवाड़ राज्य के लिए योगदान की कहानी
मराठों द्वारा चोरी चकारी बंद नहीं हुई थी। राज्य की परेशानियां बढ़ गई थी। राजकोष खाली हो गया था। इस वजह से सिपाहियों को समय पर वेतन मिलना बंद हो गया। मराठों ने लूटपाट करके परगने अपने कब्जे में कर लिए थे। इससे इससे मेवाड़ की इज्ज़त को धक्का लगा। अब मेवाड़ रूपये पैसे से भी पिछड़ गया था। ऐसे समय में रानी ने दासी से विचार विमर्श किया।
मेवाड़ में एक राज्य कुरावड़ था। कुरावड़ का प्रधान चूड़ावत था। उसकी शक्तावत से जमती नहीं थी। रानी ने उन दोनों को एकजुट करने का प्रयास किया। उन्होंने इस कार्य का जिम्मा दासी रामप्यारी को दिया। दासी की कदर दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। रामप्यारी राज्य के अफसरों को अपने आदेशानुसार चलाने लगी थी। अफसर उनकी पैरवी में लगे रहते थे। अफसरों को ऊंचे पद का लालच था, इसलिए वे दासी की पैरवी करते थे।
चूड़ावत और शक्तावत में एकता नहीं थी, इसलिए मराठों ने मेवाड़ के परगने अपने कब्जे में कर लिए थे। रानी ने दासी के परामर्श से इसका हल निकाला। दासी ने अपनी तेज बुद्धि का उपयोग किया। उसने सोचा जब तक चूड़ावत और शक्तावत एकजुट नहीं होगें, तब तक मराठों से हमारे परगने स्वत्रंत नहीं हो सकते, इसलिए उन दोनों को एकजुट करना है, ताकि वे मराठों का सामना कर सकें। इससे हमारे राज्य की एकता और मजबूत होगी और हम मराठों का डटकर मुकाबला कर सकेंगे। दासी ने चूड़ावत को प्रधान (रावत) के पद से हटवा दिया। उसके स्थान पर सोमचन्द गांधी को नया प्रधान बनाया गया। यह भेड़चाल चूड़ावत को अच्छी न लगी। उसने सोमचन्द से मन मुटाव कर लिया। शक्तावत अब सोमचन्द के पक्ष में हो गए। सोमचन्द ने राजनीति से काम लिया। उसने शक्तावत से सहयोग प्राप्त किया। इससे सोमचंद का दल और मजबूत हो गया। शक्तावतों में जालमसिंह प्रमुख थे। उनका कोटर नामक स्थान पर राज्य था। शक्तावतों में मोहकम सिंह भी प्रमुख थे। उनका भींडर नामक स्थान पर राज्य था।
रामप्यारी दासी
अब रामप्यारी राजनीति मैं कुशल हो गई थी। वे चतुर मनोवैज्ञानिक बन गई थी। चूडावतो को मनाना उनके लिए कठिन कार्य था। लेकिन कठिन कार्य को करने में उनकी दिलचस्पी और अधिक होती थी। वह व्यक्ति का रूख देखकर अनुमान लगा लेती थी कि वह किस तरह मानेगा। हर व्यक्ति को मनाने का उनके पास मनोवैज्ञानिक उपाय था। दासी अपनी सुरक्षा सेना लेकर सलूम्बर पहुंची।
सलूम्बर चूडावतो का प्रमुख ठिकाना था। वहां का कार्यभार प्रधान भीमसिंह जी संभाले हुए थे। दासी निःसंकोच भीमसिंह से मिली। वे बडे आत्म विश्वास से पेश आई। उन्होंने भीमसिंह से चूड़ावतों की प्रशंसा की। दासी ने अपने शब्दों में कहा– आप लोगों ने जो इतिहास बनाया था, मै उसे याद दिलाने आई हूँ। अगर आप को याद है, तो यू समझिए कि मै उसे अपनी जुबान से दोहराने आई हूँ।
चूड़ावत ने हमेशा मेवाड़ की रक्षा की है। जननी जन्मभूमि के लिए अपना बलिदान दिया है। वह इतिहास के पन्नों में अमर रहेगा। आज ऐकता मेवाड़ की एक जटिल समस्या है। ये हमारी समस्या है, आप की समस्या है। हमारी फूट इस बात की गवाह है कि आज हम कमजोर है। इसकी एक वजह है, हमारी एकता का छिन्न भिन्न होना। अगर हम कमजोर न होते तो मराठे हमारे परगनों पर कब्जा नहीं कर सकते थे। मै इसमें चूड़ावत का कोई दोष नहीं मानती। चूड़ावत बेदाग है, निष्कलंक है। उनके माथे पर न कोई कलंक है न कोई दाग। चूड़ावत की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है।
दासी की बातो के तीर ने भीमसिंह को मौन कर दिया। वे एकाग्रचित्त होकर सारी बातें सुनते रहे। उनकी भावनाएं उभर कर सामने आई। दासी ने चूड़ावत के सोए हुए देश प्रेम को जगाते हुए कहा — याद किजिए अपने पूर्वज चूडाजी को। जिन्होंने इस राज्य को अपने हाथ से राणाजी को सौंपा था। उस समय यहां फूल खिला करते थे। आज वे फूल मुरझा चुके है। पानी के बिना सूख रहे है। आज चूड़ावत की वह पीढी जिंदा नहीं है, जो अपने खून से इन फूलों को सींचती थी। फूलों की जो क्यारी हरी भरी थी, वो आपके रूठने के कारण सूख रही है। इसी वजह से मेवाड़ की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हैं।मराठे इसका फायदा उठा रहे है। वे हमारे परगनों पर कब्जा कर रहे है। हमें मेवाड़ की प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करना है। इसमें आपका सहयोग चाहिए। आज जो सहयोग देगे, वह इतिहास के सुंहरे पन्नों पर लिखा जाएगा। मै देख रही हूँ चूड़ावत जी की संतान लूटपाट देख रही है। और चुपचाप बैठी है। हमारी जो अगली पीढी आयेगी, वह इस उदासी को कभी माफ नहीं करेगी। बेकार बैठने से काम नहीं चलेगा। हमें एकजुट होना पडेगा। एकजुट होकर ही हम मराठों का सामना कर सकेंगे।
भीमसिंह ने दासी की बातों पर गंभीरता से विचार किया और उदयपुर पहुंचने का वचन दे दिया। इस प्रकार दासी ने चूड़ावत को मना लिया। उन्हें चूड़ावत पर भरोसा था कि वह आपसी शत्रुता को भूल जाएंगे तथा अपने साहस का परिचय देगें। राज्य को लूटपाट से भी बचाएगे और मराठों पर आक्रमण करेंगे। कोटा के शासक ने मेवाड़ का साथ देने की हामी भर ली। कुरावड़ के चूड़ावत सरदार भी मेवाड़ के साथ हो लिए। इससे कुछ राजद्रोहियो को जलन हुई। उन्होंने चूड़ावत को भडकाना शुरू कर दिया। राजद्रोही मेवाड़ को एकजुट देखना नहीं चाहते थे। इसलिए वे चूड़ावत को भडका रहे थे। राजद्रोही चाहते थे कि मेवाड़ में फूट पडी रहे और वे उनकी फूट का फायदा उठाते रहे।
राजद्रोहियो ने चूड़ावत को अलग होने का पाठ पढाया — शक्तावत, सोमचंद के सहयोगी है। उन्हीं के सहयोग से सोमचंद प्रधान बना था। उसने रामप्यारी दासी की अगुवाई में तुम्हारे लिए जाल बिछाया है। मेवाड़ से वह तुम्हारा सफाया कराना चाहता है। तुम्हारी हत्या कराने की यह एक चाल है। चूड़ावत उनके बहकावे मे आ गए। वे अपने ठिकाने की ओर लौटने लगे।
यह समाचार सुनकर दासी की बोलती बंद हो गई। उनके सारे किये कराए पर पानी फिर गया, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। दासी फौरन रानी के पास गई। उसने रानी को बताया — राजद्रोहियो ने चूड़ावत को भड़का दिया है। चूड़ावत गलतफहमी के शिकार हो गए है। उनकी गलतफहमी आप ही दूर कर सकती है। आप मेरे साथ चलें। चूड़ावत को समझाएं। आप उनकी मां के समान है। वे आपके बेटे के समान है। बेटे को मनाने में आपको कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
रानी को दासी की बातें ठीक लगी उसने सोचा — जमा जमाया खेल मै नहीं बिगड़ने दूंगी। मै रानी मां हूँ, पूरे राज्य की मां हूँ, अपने बेटों को मनाकर ही मै चैन लूंगी। उनकी गलतफहमी को दूर करूंगी। रानी मां दासी के साथ पलांणा गाँव पहुंची। वे चूड़ावत सरदारों के पास गई। उन्होंने विनती करते हुए कहा — तुम्हारी मां आज तुम्हारे सामने खडी है। ये मां तुम्हें मनाने आई है। एक बार मेरी बात पर गौर करना, जो मै कहने जा रही हूँ। फिर जो आपकी मर्जी में आए वहीं करना।
रानी बोली — विश्वास सबसे बड़ी चीज है। तुम मेरे बेटे हो। मै तुम्हारी मां हूँ। क्या मां बेटे का यही विश्वास है! राजद्रोही तुम्हें भड़का दे और तुम हमसे अलग हो जाओ। मुझ पर विश्वास रखो। तुम्हारे साथ अन्याय नहीं होगा। मै जा रही हूँ विश्वास हो तो आ जाना। अन्यथा मां यही समझेगी कि बेटे के मन में पाप है।
रानी वापस अपनी गद्दी पर आ बैठी। उनके पीछे चूड़ावत सरदार भी आए। दासी ने रानी के हाथ में गंगाजली दी, फिर उस गंगाजली को उठाने के लिए कहा। दासी का मानना था कि इससे चूड़ावत को और विश्वास होगा और उनके मन का संदेह बिल्कुल ही मिट जाएगा।
दासी की मांग पर रानी ने गंगाजली उठाई। उन्होंने भगवान एकलिंग की कसम खाते हुए कहा — मेरे दो बेटे है। एक चूड़ावत और दूसरा शक्तावत। मै दोनों को एक समान प्यार करती हूँ। दोनों ही मेरी आंखों की पुतली है। मै उन्हें विश्वास दिलाना चाहती हूं कि मेरे मन में कोई खोट नहीं है।
चूड़ावत को रानी पर विश्वास हो गया। उसने एकजुट होकर मेवाड़ का साथ दिया। उसने अपनी एकता दिखाई। इस तरह मेवाड़ राज्य का संकट समाप्त हुआ। चूड़ावत ने मरीठो पर आक्रमण किया और मेवाड़ के परगने वापस अपने अधिकार में ले लिए।
दासी रामप्यारी ने मेवाड़ की प्रतिष्ठा को अपने सहयोग से बरकरार रखा। उन्होंने इस कार्य में लाजवाब भूमिका निभाई। वह राजघराने की एक दासी थी, दासी होकर भी उन्होंने राज्य का बहुत हित किया। इस दिशा मे उन्होंने सराहनीय प्रयास किया। आज न तो वह दासी है और न रामप्यारी का रिसाला। जो है मेवाड़ की ख्याति और उस दासी का अमर नाम इतिहास के सुनहरे पन्नों मे दर्ज है।
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