सती तीर्थो में राजस्थान का झुंझुनूं कस्बा सर्वाधिक विख्यात है। यहां स्थित रानी सती मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। यहां सती नारायणी के कुल में अब तक 12 सतियां हो चुकी है। सती नारायणी ही रानी सती के रूप में पूजी जाती है। झूंझुनू में रानी सती का मंदिर भक्तों के लिए श्रृद्धा का प्रमुख केंद्र है। इस मंदिर को रानी सती दादी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
रानी सती दादी मंदिर का महत्व को अगर देखा जाएं तो पौराणिक इतिहास से ज्ञात होता है की महाभारत के युद्ध में चक्रव्यूह में वीर अभीमन्यु वीर गति को प्राप्त हुए थे। उस समय उत्तरा जी को भगवान श्री कृष्णा जी ने वरदान दिया था की कलयुग में तू “नारायाणी” के नाम से श्री सती दादी के रूप में विख्यात होगी और जन जन का कल्याण करेगी, सारे दुनिया में तू पूजीत होगी।
रानी सती मंदिर झुंझुनूं के सुंदर दृश्य
रानी सती मंदिर का इतिहास
श्री नारायणी बाई या रानी सती के ससुर का नाम सेठ जालीराम था। वे बांसल गोत्रीय अग्रवाल थे। इनके पूर्वज कभी राजस्थान छोड़ कर दिल्ली जा बसे थे। किन्तु सेठ जालीराम व्यापार के सिलसिले में परिवार सहित हिसार जाकर रहने लगे थे। उस समय हिसार का नवाब झड़चन्द था। उसने सेठ जालीराम का सौजन्य और औदार्य देखकर उन्हें अपना दीवान बना लिया था। नवाब के दीवान बन जाने के बाद सेठ जालीराम का यश सौरभ चारों ओर बढ़ गया। हिसार की जनता नवाब की अपेक्षा दीवान की अधिक इज्ज्त करने लगी थी।
सेठ जालीराम के चांद सूरज की तरह दो पुत्र थे, एक का नाम तनधनदास और दूसरे का नाम कमलाराम था। सेठ के पैतृक गुणों के अलावा शौर्य वीर्य उनमें पर्याप्त था। वे अन्य सेठो की तरह मूंछ नीची करके जीने के आदि नहीं थे। सम्मान के साथ क्षणभर जीवित रहने में अपने जीवन की सार्थकता समझते थे। वे यर्थाथ में टूट भले ही जाये, पर झुके नहीं के प्रतीक थे।
रानी सती मंदिर झुंझुनूं के सुंदर दृश्यश्री तनधनदास का विवाह महम डोकवा के सेठ गुरसामलजी की सर्वगुण सम्पन्न पुत्री नारायणी बाई के साथ हुआ। चांद चकौरी का योग देखकर सेठ का परिवार ही पुलकित नहीं था, बल्कि आस पडोस भी उल्लासित हो गया था। अभी तनधनदास का मुकलावा (पत्नी का प्रथम बार ससुराल में आगमन की रस्म) भी नहीं हुआ था। कि सेठ जालीराम और नवाब झडचन्द में मन मुटाव हो गया।
सेठ जालीराम के पास अत्यंत सुंदर और शुभ लक्षणों से युक्त सुडौल एक घोडी थी। जिस पर सुबह शाम सेठ का लाडला बेटा तनधनदास सवारी किया करता था। उस घोडी की प्रशंसा दूर दूर तक फैली हुई थी। घोडा के व्यापारियों और राजा महाराजाओं ने मुंह मांगे मोल पर घोड़ी खरीदने की इच्छा प्रकट की पर सेठ ने पुत्र की इच्छा के विरुद्ध घोडी बेची नहीं।
नवाब का शहजादा घोडी लेने के लिए जिद कर बैठा। उसने अपने पिता से घोडी प्राप्त करने के लिए अनुरोध किया। पिता ने पहले तो अपने पुत्र को समझाया बुझाया पर शहजादा का उग्र हठ देखकर नवाब को झुकना पड़ा। नवाब ने सेठ जालीराम को बुलाकर शहजादे के हठ की बात बताई और चाहे जिस शर्त पर घोडी देने का आग्रह किया। सेठ जालीराम के सामने विकट समस्या खड़ी हो गई। इधर नवाब अपने शहजादे के हठ के लिए घोडी प्राप्त करने की जिद्द पर अड़ गया। उधर उस का बेटा तनधनदास अपनी घोडी को जीते जी किसी को नहीं देने के लिए अकड़ गया था। सेठ ने अपने पुत्र को समझाया बुझाया पर सेठ का बेटा टस से मस न हुआ। उसने घोडी की अपेक्षा अपने प्राण दे देना सरल समझा। अन्ततः सेठ को भी घोडी देने से इंकार कर देना पडा।
रानी सती मंदिर झुंझुनूं के सुंदर दृश्य
शहजादा हर सम्भव उपाय से घोडी प्राप्त करने के प्रयास में जुटा रहा और तनधनदास घोडी की निगरानी में पूर्ण सावधान रहने लगा। नवाब के शहजादे ने कोई दाल गलती न देखी तो कहा जाता हैं कि एक रात नवाब का शहजादा भेष बदलकर सेठ की घुड़शाला में घुस गया। लुकते छुपते वह घोडी खोलने ही वाला था, कि घोडी हिनहिना ऊठी। सेठ का बेटा सावधान था। उसने जब घोड़ी का हिनहिनाना सुना तो वह भाला लेकर घुड़शाला की ओर झपटा। शहजादा भागकर छिपने का प्रयास कर ही रहा था। कि तनधनदास ने पूरे जोर से अपना भाला फेककर मारा। शहजादा वहीं ढेर हो गया। शहजादे का मृत शरीर देखकर सेठ जालीराम और उनके दोनों बेटे नवाब के भावी भय से आशंकित हो गए तथा रातों रात हिसार छोड़कर वे झूंझुनू की ओर चल पड़े।
शहजादे की मृत्यु की खबर सुनकर नवाब आपे से बाहर हो गया। उसने सेठ जालीराम को सपरिवार पकडऩे के लिए अपनी सेना भेज दी। किन्तु सेठ का परिवार नवाब की सेना की पकड़ में आने से पहले ही झुंझुनूं पहुंच चुका था। उस समय झुंझुनूं और हिसार के नवाबों के बीच काफी तनातनी थी। इस कारण हिसार के नवाब की सेना झूंझुनू में प्रवेश कर सेठ जालीराम के परिवार को पकड़ लेने का साहस न कर सकी वह निराश होकर वापिस लौट आई। इस घटना के थोडे समय बाद ही तनधनदास के पत्नी को घर लाने का मुहूर्त आ गया। इधर तनधनदास अपनी पत्नी को लाने के लिए पहुंचा कि नवाब के गुप्तचरो ने नवाब को सुचना दे दी। नवाब बदला लेने के अवसर की खोज में था। उसने तनधनदास को वापिस लौटते समय पकड लेने के लिए अपनी सेना की टुकडी भेज दी।
रानी सती मंदिर झुंझुनूं के सुंदर दृश्यतनधनदास अपनी पत्नी नारायणी देवी को साथ लिए एक विरान जंगल से गुजर रहा था। कि नवाब की सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया, बड़ा भयानक युद्ध हुआ, दोनों ओर से अनेक वीर मारे गए। तनधनदास बड़ी वीरता से लड़ा, उसने अनेक सैनिकों को मौत के घाट उतारा, सेठ पुत्र की युद्ध में निपुणता देखकर नवाब के सैनिक हक्के बक्के रह गए। किसी सैनिक ने छिपकर पिछे से तनधनदास पर आक्रमण किया। जिसके फलस्वरूप तनधनदास मारा गया। अपने पति को मरा देखकर श्री नारायणी देवी भी चण्डी का रूप धारण कर युद्ध क्षेत्र में कूद पड़ी, उसने अनेक सैनिकों का संहार किया। श्री नारायणी देवी के प्रचंड रूप को देखकर नवाब के बचे कुचे सैनिक भाग खडे हुए। अंत में युद्ध भूमि में रानी और राणा जाति के गायक को छोडकर कोई शेष नहीं रहा। सैनिकों के भाग जाने पर श्री नारायणी देवी का चंडी रूप सतीत्व में परिवर्तित हो गया। उसने राणा से कहा मैं पति के शव को लेकर यही सती हो जाऊंगी, तुम चिता तैयार करो। देवी की आज्ञा पाकर राणा ने चिता तैयार की, श्री नारायणी देवी अपने पति के शव को गोद में लेकर चिता पर चढ़ गई, सतीत्व का स्मरण किया की चिता स्वतः धधक उठी। सती का इछलौलिक शरीर भस्म हो गया वह दिव्य रूप में प्रकट होकर राणा से बोली तुम मेरी भस्मी लेकर झुंझुनूं चले जाओ जहां घोडा रूके वही मेरी भस्मी रख देना, मेरे घरवाले मेरा देवल स्मारक बना देंगें। मैं वहां रानी सती के रूप में अपने भक्तों का योगदान वहन करूंगी।
रानी सती की भस्मी लेकर घोडी पर चढ़कर राणा चल पड़ा, घोडी झुंझुनूं के निकट पहुंच कर रूक गई। जहां घोडी रूकी थी उसी स्थान पर सती के घरवालों ने रानी सती के मंदिर का निर्माण करवा दिया। यद्यपि श्री नारायणी देवी सन् 1352 मे मार्ग शीर्ष कृष्णा नवमी मंगलवार को सती हुई थी। परंतु भाद्र कृष्ण अमावस्या को सतियों की विशेष पूजा का विधान होने के कारण रानी सती की पूजा भी इसी तिथि को की जाती है। कुछ लोगों की मान्यता है कि सेठ जालीराम के परिवार में अंतिम तेरहवीं सती गूजरी सती भाद्र कृष्ण अमावस्या को हुई थी। इस कारण इन 13 सतियों की सामूहिक पूजा उपासना इसी दिन की जाती है। झुंझुनूं में रानी सती का विशाल मंदिर है। अनेक धर्मशालाएं है। राजस्थान एव अन्य प्रदेशों के धर्म प्राण अग्रवालों ने मुक्त हस्त से दान देकर सती के स्थल को लोक तीर्थ का रूप देने में कोई कसर नहीं रहने दी है। सचमुच झुंझुनूं रानी सती के देवल के कारण लोक तीर्थ बन गया है। भाद्र कृष्ण अमावस्या के दिन झुंझुनूं में सती के दर्शनार्थियों की इतनी अधिक भीड़ होती है कि पावं रखने को भी स्थान रिक्त नहीं मिलता।
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