You are currently viewing राणा सांगा और बाबर का युद्ध – खानवा का युद्ध
राणा सांगा और बाबर का युद्ध

राणा सांगा और बाबर का युद्ध – खानवा का युद्ध

राणा सांगा और बाबर का युद्ध सन् 1527 में हुआ था। यह राणा सांगा और बाबर की लड़ाई खानवा में हुई थी, इसलिएभारत के इतिहास में राणा सांगा और बाबर के इस युद्ध को खानवा के युद्ध के नाम से भी जाना जाता है, इसमें राजपूत राणा सांगा की हार हुई थी। अपने इस लेख में हम इसी इतिहास प्रसिद्ध युद्ध का वर्णन करेंगे।

राणा सांगा और बाबर

इस स्थान पर प्रसंगवशात्‌ हम राणा सांगा और बाबर के जीवन पर एक तुलनात्मक दृष्टि डालना उचित समझते हैं। क्योंकि हमारे खयाल से इन दोनों महापुरुषों के जीवन में बहुत कुछ साम्य है। राणा सांगा और बाबर ये दोनों ही भारत में अपने समय के प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। जिस प्रकार राणा सांगा एक साधारण राजपूत न थे, उसी प्रकार बाबर भी साधारण व्यक्ति न था। दोनों एक ही ढंग के और एक ही अवस्था के थे। राणा सांगा का जन्म 1482 में ओर बाबर का 1483 में हुआ था। दोनों वीर थे ओर दोनों ही ने मुसीबत के मदरसों में तालीम पायी थी। बाबर का पूर्व जीवन दुःख निराशा और पराजय में व्यतीत हुआ था। फिर भी उसमें अदम्य उत्साह, भारी महत्त्वाकांक्षा कर्म शीलता ओर निजी वीरता का काफ़ी समावेश था। विपरीत परिस्थितियों के धक्के खा खाकर इतना मज़बूत हो गया था कि कठिन से कठिन विपत्ति के समय में भी उसका धैर्य विचलित न होता था। उसका जीवन उत्तर की जंगली जातियों और तुर्किस्तान तथा ट्रान्स आक्सियाना की क्रूर, उपद्रवी और विश्वासघाती जातियों में व्यतीत हुआ था। इसके बलवान शरीर, अदम्य साहस और बेशकिमती तजुरबे ने ही मनुष्यता और सभ्यता में उन्नत राजपूत जाति का मुकाबला करने में सहायता की। बाबर का आचरण शुद्ध था, वह एक सच्चा सुसलमान था, हमेशा हँस मुख ओर प्रसन्न रहा करता था। राजनैतिक मामलों को छोंडकर दूसरी बातों में वह उदार भी था । व्यक्तिगत योग्यता और नेतृत्व की दृष्टि से वह उन तमाम सरदारों और नेताओं से-जो उसके पूर्व भारत में आ चुके थे—अधिक बुद्धिमान और शक्तिशाली था। साहस, दृढ़ता और शारीरिक पराक्रम में वह महाराणा के समान ही था। पर शुरता, वीरता, उद्धारता आदि गुणों में वह महाराणा संग्रामसिंह से कम था, पर इसके साथ ही स्थिति के अनुभव में, सहन शीलता और धैर्य में वह महाराणा सांगा से बढ़कर भी था। लगातार की पराजय और क्रमागत दुखों की लड़ी ने बाबर को धैर्यवान, स्थिति-परीक्षक और धूर्त बना दिया। भयंकर संकटो की अग्नि में पड़ कर उसकी विचार शक्ति तप्तसुवर्ण की तरह शुद्ध हो गई थी और इस कारण वह मानवीय हृदय और मनुष्य के मानसिक विकारों के परखने में निपुण हो गया था। पर इसके विरुद्ध महाराणा सांगा में लगातार सफलता के मिलते रहने से और विपत्तियों की बौछार न पड़ने से इन गुणों का समावेश न हो पाया। लगातार की विजय से उनके हृदय में आत्म विश्वास, साहस और आशावाद का संचार हो गया। जिसके कारण वे परिस्थिति का रहस्य समझने में और लोगों के मनोभावों के परखने में कुछ कमजोर रह गये ओर इन्हीं गुणों की कमी के कारण शायद उनकी यह इतिहास-विख्यात पराजय हुई। महाराणा सांगा महावीर और शूर नेता थे; तो बाबर अधिक राजनीतिज्ञ,अधिक चतुर और कुशल सेनापति था। सांगा की ओर प्रतिष्ठा, वीरता, साहस और सेना की संख्या अधिक थी; तो बाबर की ओर युद्ध नीति, चतुरता और धार्मिक उत्साह का आधिक्य था। मतलब यह कि भारत के तत्कालीन इतिहास में ये दोनों ही व्यक्ति महापुरुष थे।

राणा सांगा और बाबर का युद्ध

बाबर को जितना डर महाराणा सांगा का था, उतना किसी का भी नहीं था। इसलिये वह राणा को पराजित करने के लिये कई दिलों से तैयारी कर रहा था। अन्त में ११ फ़रवरी सन्‌ 1527 के दिन बाबर, राणा सांगा से मुकाबला करने के लिये आगरा से रवाना हुआ। कुछ दिनों तक वह शहर के बाहर ठहर कर अपनी फौज ओर तोपखाने को ठीक करने लगा। उसने आलमखाँ को ग्वालियर एवं मकन, कासिमबेग, हमीद और मोहम्मद जैतून को ‘संबल भेजा और वह स्वयं मेढाकुर होता हुआ फतहपुर सीकरी पहुँचा। यहां आकर वह अपनी मोर्च बंदी करने लगा।

राणा सांगा और बाबर का युद्ध
राणा सांगा और बाबर का युद्ध

इधर महाराणा सांगा भी बाबर का मुकाबला करने के लिये चित्तौड़ पहुँचे। इब्राहीम लोदी के खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने की इच्छा से उनका भाई मुहम्मद लोदी भी राणा की शरण में आ गया था। इसके अतिरिक्त और कई अफगान सरदारों से– जो कि बाबर को हिन्दुस्तान से निकालना चाहते थे, राणा सांगा को सहायता मिली थी। राणा सांगा की फौज के रणथम्भौर पहुंचने का समाचार जब बाबर को मिला तो वह बहुत डर गया। क्योंकि राणा सांगा के बल और विक्रम से वह पूर्ण परिचित था। वह अपनी दिनचर्यामें भी लिखता है कि “ सांगा बड़ा शक्तिशाली राजा था और जो बड़ा गौरव उसको प्राप्त था, वह उसकी वीरता और तलवार के बल से ही था।” अस्तु, जब उसने सुना कि राणा सांगा बढ़ते चले आ रहे हैं तो उसने तोमर राजा सिलहदी के द्वारा संधि का प्रस्ताव भेजा, पर राणा ने उसे स्वीकार नहीं किया और कंदर के मज़बूत किले पर अधिकार करते हुए वे बयाना की ओर आगे बढ़ने लगे। रास्ते में हसनखाँ मेवाती नामक अफ़गान भी 10000 सवारों के साथ महाराणा सांगा की सेना में आ मिला। बाबर अपनी दिनचर्या में लिखता है:— “ जब उसकी सेना में यह खबर पहुँची कि राणा सांगा अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ शीघ्रता से आ रहा है तो हमारे गुप्तचर न तो बयाने के किले में पहुँच सके और न वहां की कुछ खबर ही वे पहुँचा सके। बयाने की सेना कुछ दूर तक बाहर निकल आईं। शत्रु उस पर टूट पड़ा और वह भाग निकली। तब महाराणा सांगा ने बयाना पर अधिकार कर लिया।


इसके पश्चात्‌ महाराणा की सेना और आगे बढ़ी और 21 फरवरी 1527 को उसने बाबर की आगे वाली सेना को बिलकुल नष्ठ कर दिया। यह समाचार बाबर को मालूम हुआ तो वह विजय की ओर से पूरा निराश हो गया ओर आत्मरक्षा के लिये मोर्च बन्दी करने लगा।

एर्सकिन साहब लिखते हैं कि मुग़लों के साथ राजपूतों की गहरी
मुठभेड़ हुईं, जिसमें मुगल अच्छी तरह पीटे गये। इस पराजय ने उन्हें अपने लिये शत्रु की प्रतिष्ठा करना सिखाया। कुछ दिन पूर्व मुग़ल सेना की एक टुकड़ी असावधानी से किले से निकल कर बहुत दूर चली आई। उसे देखते ही राजपूत उस पर टूट पढ़े और उसे वापस किले में भगा दिया। उन्होंने वहाँ जाकर अपनी सेना में राजपूतों के वीरत्व की बड़ी प्रशंसा की जिस से मुगल लोग और सी भयभीत हो गये। उत्साही, शूर, योद्धे ओर रक्तपात के प्रेमी राजपूत जातीय भाव से प्रेरित होकर अपने वीर नेता की अध्यक्षता में शत्रु के बढ़े से बड़े योद्धा का सामना करने को तैयार थे और अपनी आत्म प्रतिष्ठा के लिये जीवन विसर्जन करने को हमेशा प्रस्तुत रहते थे। स्टेनली लेनपूल लिखते हैं कि “राजपूतों की शूरवीरता और प्रतिष्ठा के उच्चभाव उन्हें साहस और बलिदान के लिये इतना उत्तेजित करते थे जितना कि बाबर के अर्द्धसभ्य सिपाहियों के ध्यान में भी आना कठिन था। बाबर के अग्रभाग के सेनापति मीर अब्दुल अजीज ने सात आठ मील तक आगे बढ़कर चौकियाँ कायम की थीं पर राजपूतों की सेना ने उन्हें नष्ट कर दिया।

इस तरह राजपूतों की निरन्तर सफलता, उनके उत्साह, उनकी
आशातीत सफलता ओर उनकी सेना की विशालता-जो क़रीब सवा लाख होगी, को देखकर बाबर की सेना में समष्टिरूप से निराशा का दौर दौरा हो गया। इससे बाबर को फिर एक बार सुलह की बात छेड़ना पड़ी। इस अवसर में उसने अपनी मोर्चे बन्दी को और भी मजबूत किया। इतने में काबुल से चला हुआ 500 स्वयं सेवकों का एक दल उसकी सेना में आ मिला, पर बाब॒र की निराशा और बैचेनी बढ़ती ही गई। तब उसने अपने गत जीवन पर दृष्टि डालकर उन पापों को जानना चाहा, जिनके फल स्वरूप उसे यह् दु:ख उठाना पड़ रहा था। अन्त में उसे प्रतीत होने लगा कि उसने नित्य मदिरापान का स्वभाव डालकर अपने धर्म के एक मुख्य सिद्धान्त को कुचल डाला है। उसने उसी समय इस संकट से बचने के लिये इस पाप के को तिलांजलि देने का विचार किया। उसने मदिरापान की कसम ली ओर शराब पीने के सोने चाँदी के गिलासों और सुराहियों को उसने तुड़वा कर उनके टुकड़ों को गरीबों में बंटवा दिया। इसके अतिरिक्त मुसलमानी धर्म के अनुसार उसने दाढ़ी न मुडवाने की प्रतिज्ञा की।

पर इन कामों से सब लोगों की निराशा घटने के बदले अधिकाधिक बढ़ती ही गई। वह अपनी दिनचर्या में लिखता है:— इस समय पहले की घटनाओं से क्‍या छोटे ओर क्या बड़े सब ही भयभीत हो रहे थे। एक भी आदमी ऐसा नहीं था, जो बहादुरी की बातें करके साहस वर्द्धित करता हो। वजीर जिनका फर्ज ही नेक सलाह देने का था, और अमीर जो राज्य की सम्पत्ति को भोगते आ रहे थे, कोई भी वीरता से न बोलता था, और न उनकी सलाह ही दृढ़ मनुष्यों के योग्य थी। अन्त में अपनी फौज में साहस और वीरता का पूर्ण अभाव देखकर मैंने सब अमीरों ओर सरदारों को बुलाकर कहा— सरदारों और सिपाहियों ! प्रत्येक मनुष्य जो इस संसार में आता है, वह अवश्य मरता है। जब हम यहाँ से चले जायगे तब एक निराकार ईश्वर ही बाकी रह जायगा। जो कोई जीवन का भोग करेगा, उसे जरूर ही मौत का प्याला पीना पड़ेगा। जो इस दुनियां में मौत की सराय के अन्दर आकर ठहरता है, उसे एक दिन जरूर बिना भूले इस घर से विदा लेनी होगी। इसलिये अप्रतिष्ठा के साथ जीते रहने की अपेक्षा प्रतिष्ठा के साथ मरना कहीं उत्तम है। परमात्मा हम पर प्रसन्न हैं, उसने हमें ऐसी स्थिति में ला रखा है कि यदि हम लड़ाई में मारे जाये तो शहीद होंगे ओर यदि जीते रहे तो विजय प्राप्त करेंगे। इसलिये हम सबको मिलकर एक स्वर से इस बात की शपथ लेना चाहिये कि देह में प्राण रहते कोई भी लडाई से मुँह न मोड़ेगा और न युद्ध अथवा मारकाट में पीठ दिखावेगा।

इस भाषण से उत्साहित होकर क़रीब 20000 वीरों ने कुरान हाथ
में ले लेकर कसम खाई। पर बाबर को इस पर भी विश्वास न हुआ और उसने सिलहिदी को सुलह का पैग़ाम लेकर फिर राणा के पास भेजा। बाबर ने इस शर्त पर महाराणा सांगा को कर देना स्वीकार किया कि वह दिल्ली ओर उसके अधीनस्थ प्रान्त का स्वामी बना रहे। पर महाराणा सांगा ने इसको भी स्वीकार न किया । इससे सिलहिद्दी बहुत अप्रसन्न हुआ और उसने भविष्य में महाराणा के साथ किस प्रकार विश्वासघात कर इसका बदला लिया यह आगे जाकर मालूम होगा। अस्तु !

जब बाबर संधि से बिलकुल निराश हो गया तो अन्त में उसने जी
तोड़ कर लड़ाई करना ही निश्चित किया। यदि इसी अवसर पर महाराणासुस्ती न करके उस पर आक्रमण कर देते तो मुग़ल वंश कभी दिल्ली के सिंहासन पर प्रतिष्ठित न होता और आज भारत के इतिहास का रूप ही दुसरा नजर आता। पर जब दैव ही अनुकूल में हो तो सब का किया हो ही क्या सकता है। हाँ, भारत के भाग्य में गुलाम होना बदा था।

बाबर ने सब प्रोग्राम निश्चित कर अपने पड़ाव को वहाँ से हटा कर
दो मील आगे वाले मोर्चे पर जमाया। 12 मार्च को बाबर ने अपनी सेना ओर तोपखाने का इन्तिजाम किया और उसने चारों ओर घुमकर सब लोगों को दिलासा दे दे कर उत्तेजित किया। प्रातकाल साढ़े नौ बजे युद्ध आरंभ हुआ। राजपूतों ने बाबर की सेना के दाहिने और मध्य भाग पर तीन आक्रमण किये। जिसके प्रभाव से वे मैदान छोड़ कर भागने लगे। इस पर अलग रखी हुई सेना उसकी मदद के लिये भेजी गई और राजपूतों के रिसालों पर तोपें दागना प्रारंभ हुई, पर बीर राजपूत इससे भी विचलित न हुए । वे उसी बहादुरी के साथ युद्ध करते रहे। इतने ही में दगाबाज सिलदहिद्दी अपने 35000 सवारों को लेकर सांगा का साथ छोड़ बाबर से जा मिला। पर इसका भी राजपूत-सैन्य पर कुछ विशेष प्रभाव न पड़ा, वह पूर्ववत ही लड़ती रही। इन सब घटनाओं के साथ ही एक घटना और हो गई, जिसने सारे युद्ध के ढंग को ही बदल दिया। वह समय बहुत ही निकट आ चुका था कि जब बाबर की फौज भागने लगती, पर इसी बीच किसी मुगल सैनिक का चलाया हुआ तीर महाराणा सांगा के मस्तक पद इतने ज़ोर से लगा कि जिससे वे बेसुध हो गये। बस, इस समय में महाराणा का बेसुध,हो जाना ही हिन्दुस्तान के दुर्भाग्य का कारण हो गया।यद्यपि कुछ लोगों ने चतुराई के साथ उनके रिक्तस्थान पर सरदार आज्जाजी को बिठा दिया, पर ज्यों ही राजपूत सेना में महाराणा सांगा के घायल होने का समाचार फैला त्योंही वह निराश हो गई, ओर उसके पैर उखड़ने लगे। इधर अवसर देखकर मुग़लों ने ज़ोरशोर से आक्रमण कर दिया, फल वही हुआ जो भारत के भाग्य में लिखा था। राजपूत सेना भाग निकली और सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध सरदार मारे गये।

राजपूतों की इस हार पर गंभीरतापूर्वक मनन करने से यही फल निकलता है कि उनके इस पराजय का कारण उनकी वीरता की कमी न थी, परन्तु इसका कारण हमारी सैनिक कायदों की वह कमजोरी थी, जिसने कई बार हमको पहले भी धोखा दिया। इसी सैनिक पद्धति से सिंध के राजा दाद्दिर की–जो किसी भी प्रकार मुहम्मद कासिम से कम न था–पराजय हुई। इसी पद्धति के कारण पंजाब के शक्तिशाली राजा आनन्दपाल के भाग्य का निपटारा हुआ। आनन्दपाल भी महमूद गजनवी से किसी प्रकार कम न था पर सन्‌ 1008 के पेशावर वाले युद्ध में उनका हाथी बेकाबू होकर भाग गया और इसी के कारण उनकी पराजय हुईं। इसी नाशकारी पद्धति के कारण प्रसिद्ध राणा सांगा और बाबर के युद्ध में राणा सांगा की भी यह पराजय भारत को देखनी पड़ी।

मूर्च्छित महाराणा सांगा को ले जाने वाले लोग जब ‘बसवा’ नामक ग्राम में पहुँचे तब महाराणा को चेत हुआ। उन्होंने जब सब लोगों से अपने इस प्रकार लाये जाने की बात सुनी तो उन्हें बड़ा क्रोध और खेद हुआ। उसी समय उन्होंने प्रतिज्ञा की कि बिना बाबर को पराजित किये जीते जी चित्तौड़ ने जाऊंगा। इसके पश्चात्‌ स्वस्थ होने के निमित्त कुछ समय तक महाराणा सांगारणथम्भौर में रहे। इस स्थान पर टोडरमल चाँचल्या नामक एक व्यक्ति ने एक ओजपूर्वक कविता सुनाकर महाराणा को प्रोत्साहित किया। जिससे वे फिर युद्ध के लिये तेयार हो गये। उन्हें युद्ध के लिये इस प्रकार प्रस्तुत देख उनके विश्वास घातक मंत्रियों ने जो कि अब युद्ध करना न चाहते थे, उन्हें विष दे दिया। इस कारण संवत्‌ 1584 के वैशाख में महाराणा सांगा देहान्त हो गया। मृत्यु-समय उनकी देह पर करीब 80 जख्म थे। राणा संग्रामसिंह के साथ ही साथ भारत के राजनितिक रंगमंच पर हिन्दू साम्राज्य का अन्तिम दृश्य भी पूर्ण हो गया। यहीं से हिन्दू साम्राज्य के नाटक की यवनिका का पतन हो गया। जिस देश के अन्दर आज़ादी के निमित्त युद्ध करने वाले बहादुर देश सेवक को विष दे दिया जाये, जिस देश में सिलहिद्दी के समान विश्वासघातक उत्पन्न हो जाये, वह देश यदि चिरकाल के लिये गुलाम हो जाये तो क्‍या आश्चर्य? जिसके कारण राणा सांगा और बाबर की लड़ाई में राणा सांगा हार गए।

हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—

झेलम का युद्ध
झेलम का युद्ध भारतीय इतिहास का बड़ा ही भीषण युद्ध रहा है। झेलम की यह लडा़ई इतिहास के महान सम्राट Read more
चंद्रगुप्त मौर्य और सिकंदर का युद्ध
चंद्रगुप्त मौर्य और सिकंदर का युद्ध ईसा से 303 वर्ष पूर्व हुआ था। दरासल यह युद्ध सिकंदर की मृत्यु के Read more
शकों का आक्रमण
शकों का आक्रमण भारत में प्रथम शताब्दी के आरंभ में हुआ था। शकों के भारत पर आक्रमण से भारत में Read more
हूणों का आक्रमण
देश की शक्ति निर्बल और छिन्न भिन्न होने पर ही बाहरी आक्रमण होते है। आपस की फूट और द्वेष से भारत Read more
खैबर की जंग
खैबर दर्रा नामक स्थान उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान की सीमा और अफ़ग़ानिस्तान के काबुलिस्तान मैदान के बीच हिन्दुकुश के सफ़ेद कोह Read more
अयोध्या का युद्ध
हमनें अपने पिछले लेख चंद्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस का युद्ध मे चंद्रगुप्त मौर्य की अनेक बातों का उल्लेख किया था। Read more
तराईन का प्रथम युद्ध
भारत के इतिहास में अनेक भीषण लड़ाईयां लड़ी गई है। ऐसी ही एक भीषण लड़ाई तरावड़ी के मैदान में लड़ी Read more
मोहम्मद गौरी की मृत्यु
मोहम्मद गौरी का जन्म सन् 1149 ईसवीं को ग़ोर अफगानिस्तान में हुआ था। मोहम्मद गौरी का पूरा नाम शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी Read more
चित्तौड़ पर आक्रमण
तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के साथ, चित्तौड़ के राजा समरसिंह की भी मृत्यु हुई थी। समरसिंह के तीन Read more
मेवाड़ का युद्ध
मेवाड़ का युद्ध सन् 1440 में महाराणा कुम्भा और महमूद खिलजी तथा कुतबशाह की संयुक्त सेना के बीच हुआ था। Read more
पानीपत का प्रथम युद्ध
पानीपत का प्रथम युद्ध भारत के युद्धों में बहुत प्रसिद्ध माना जाता है। उन दिनों में इब्राहीम लोदी दिल्ली का शासक Read more
बयाना का युद्ध
बयाना का युद्ध सन् 1527 ईसवीं को हुआ था, बयाना का युद्ध भारतीय इतिहास के दो महान राजाओं चित्तौड़ सम्राज्य Read more
कन्नौज का युद्ध
कन्नौज का युद्ध कब हुआ था? कन्नौज का युद्ध 1540 ईसवीं में हुआ था। कन्नौज का युद्ध किसके बीच हुआ Read more
पानीपत का द्वितीय युद्ध
पानीपत का प्रथम युद्ध इसके बारे में हम अपने पिछले लेख में जान चुके है। अपने इस लेख में हम पानीपत Read more
पंडोली का युद्ध
बादशाह अकबर का चित्तौड़ पर आक्रमण पर आक्रमण सन् 1567 ईसवीं में हुआ था। चित्तौड़ पर अकबर का आक्रमण चित्तौड़ Read more
हल्दीघाटी का युद्ध
हल्दीघाटी का युद्ध भारतीय इतिहास का सबसे प्रसिद्ध युद्ध माना जाता है। यह हल्दीघाटी का संग्राम मेवाड़ के महाराणा और Read more
सिंहगढ़ का युद्ध
सिंहगढ़ का युद्ध 4 फरवरी सन् 1670 ईस्वी को हुआ था। यह सिंहगढ़ का संग्राम मुग़ल साम्राज्य और मराठा साम्राज्य Read more
दिवेर का युद्ध
दिवेर का युद्धभारतीय इतिहास का एक प्रमुख युद्ध है। दिवेर की लड़ाई मुग़ल साम्राज्य और मेवाड़ सम्राज्य के मध्य में Read more
करनाल का युद्ध
करनाल का युद्ध सन् 1739 में हुआ था, करनाल की लड़ाई भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। करनाल का Read more
प्लासी का युद्ध
प्लासी का युद्ध 23 जून सन् 1757 ईस्वी को हुआ था। प्लासी की यह लड़ाई अंग्रेजों सेनापति रॉबर्ट क्लाइव और Read more
पानीपत का तृतीय युद्ध
पानीपत का तृतीय युद्ध मराठा सरदार सदाशिव राव और अहमद शाह अब्दाली के मध्य हुआ था। पानीपत का तृतीय युद्ध Read more
ऊदवानाला का युद्ध
ऊदवानाला का युद्ध सन् 1763 इस्वी में हुआ था, ऊदवानाला का यह युद्ध ईस्ट इंडिया कंपनी यानी अंग्रेजों और नवाब Read more
बक्सर का युद्ध
भारतीय इतिहास में अनेक युद्ध हुए हैं उनमें से कुछ प्रसिद्ध युद्ध हुए हैं जिन्हें आज भी याद किया जाता Read more
आंग्ल मैसूर युद्ध
भारतीय इतिहास में मैसूर राज्य का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है। मैसूर का इतिहास हैदर अली और टीपू सुल्तान Read more
आंग्ल मराठा युद्ध
आंग्ल मराठा युद्ध भारतीय इतिहास में बहुत प्रसिद्ध युद्ध है। ये युद्ध मराठाओं और अंग्रेजों के मध्य लड़े गए है। Read more
1857 की क्रांति
भारत में अंग्रेजों को भगाने के लिए विद्रोह की शुरुआत बहुत पहले से हो चुकी थी। धीरे धीरे वह चिंगारी Read more
1971 भारत पाकिस्तान युद्ध
भारत 1947 में ब्रिटिश उपनिषेशवादी दासता से मुक्त हुआ किन्तु इसके पूर्वी तथा पश्चिमी सीमांत प्रदेशों में मुस्लिम बहुमत वाले क्षेत्रों Read more
सारंगपुर का युद्ध
मालवा विजय के लिये मराठों को जो सब से पहला युद्ध करना पड़ा वह सारंगपुर का युद्ध था। यह युद्ध Read more
तिरला का युद्ध
तिरला का युद्ध सन् 1728 में मराठा और मुगलों के बीच हुआ था, तिरला के युद्ध में मराठों की ओर Read more

Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

Leave a Reply