राठौड़ वंश की उत्पत्ति, संस्थापक और इतिहास

राठौड़ वंश

जोधपुर राज्य का राजघराना विख्यात राठौड़-वंश के हैं। राठौड़ वंश अत्यन्त ही प्राचीन है। राठौड़ वंश की उत्पत्ति के लिये भिन्न भिन्न इतिहासवेत्ताओं के भिन्न भिन्न मत हैं। राठौडों की ख्यात के लिखा है–इन्द्र की रहट (रीढ़ ) से उत्पन्न होने के कारण ये राठौड़ कहलाये। कुछ लोगों का कथन है कि उनकी कुल-देवी का नाम राष्ट्रश्यैना या राठाणी है, इसी से उनका नाम राष्ट्रकूट या राठौड़ पड़ा। कर्नल टॉड साहब को नाडोर के किसी जैन-जाति के पास राठौड़ राजाओं की वंशावली मिली थी, उसमें उनके मूल पुरुष का नाम युवनाश्व लिखा था। इससे उक्त साहब ने यह अनुमान किया कि राठौड़ सिथियन्स की एक शाखा है, क्योंकि यवनाश्व शब्द यवन और असि नामक दो शब्दों से बना है और असि नाम की एक शाखा सिथियन्स की थी, अतएव राठौड़ सिथियन्स है मिस्टर बेडन पावल ने Royal Asiatic society of Great Britain and London नामक प्रख्यात मासिक पत्र के सन्‌ 1899 के जुलाई मास के अंक में राजपूतों पर एक लेख लिखा था। उसमें आपने फरमाया था:— “उत्तर की ओर से सिथियन्स कई गिरोह बनाकर हिन्दुस्थान में आये थे। आगे जाकर उनकी हर एक शाखा का नाम अलग अलग पड़ गया।शायद उन्हीं में से रट, राठी या राठौड़ भी हैं जो अपना असली नाम भूल गये और पाछे से भाटों ने उनके साथ राम, कुश, हिरण्यकश्यप आदि की कथाएँ जोड़ दीं।” सम्राट सिकंदर का हाल लिखने वाले प्राचीन यूनानी लेखकों ने सिकंदर की चढ़ाई के समय में पंजाब-प्रान्त में अरट्ट नाम की एक जाति का उल्लेख किया है। शक संवत्‌ 880 में राष्ट्रकूट-राजा कृष्णराज तीसरे के करड़ा वाले दान पत्र में लिखा है कि यादव- वंश में रट नामक राजा हुआ। उसी के पुत्र राष्ट्रकूट के नाम से यह राष्ट्रकूट वंश प्रसिद्ध हुआ। इसी जाति की सहायता से प्रख्यात मौर्य वंशीय सम्राट चन्द्रगुप्त ने पाटलिपुत्र का राज्य विजय किया था। कुछ विद्वान अरट्ट को रट्ट, राष्ट्रकूट आदि का पर्यायवाची नाम मानते हैं। दक्षिण के राठौड़ो के कितने ही ताम्र-पत्रों में इनका यादव-वंशी होना लिखा है। हलायुध पंडित ने अपनी ‘कविरहस्य’ नामक पुस्तक में इन्हें चन्द्र-वंशी माना है। कन्नौज के अन्तिम राजा जयचन्द्र के पूर्वजों के कई ताम्र-पत्र मिले हैं, उनमें उन्हें सूर्यवंशी लिखा है। वर्तमान राठौड़ प्रायः अपने आपको सूर्यवंशी कहते हुए, अयोध्या के परम प्रतापी महाराजा रामचन्द्रजी के वंशज बतलाते हैं।

राठौड़ वंश की प्राचीनता

भारत के अत्यन्त प्राचीन राजवंशों में से राठौड़ वंश भी एक है।
महाभारत में जिन अराष्ट्रों’ का उल्लेख है, कुछ विद्वानों के मतानुसार वह रट्ट, राष्ट्रकूट या राठौड़ ही का प्राचीन नाम है। ईस्वी सन्‌ के 250 वर्ष पूर्व सम्राट अशोक ने शिला-लेखों के रुप में जो अनेक धार्मिक घोषणाएं प्रकट की थीं, उनमें जूनागढ़, मानसरा, शाहाबादगढ़ी आदि के शिला-लेखों सें ‘राष्ट्रिक’ शब्द का उल्लेख आया है। इनके अतिरिक्त बौद्ध-धर्म ग्रन्थ दीपवंश में लिखा है कि बौद्ध-साधु ‘मोगली पुत्र’ महारट्ट लोगों को उपदेश देने गये थे। भांजा, बेडसा और करली की गुफाओं के लेखों में-जो इस्वी सन्‌ की दूसरी की हैं–लिखा है कि मुख्य दानी महारट्ट या महारट्टानी थे। इन सब बातों से यह स्पष्टतया प्रकट होता है कि राठौड़ वंश एक प्राचीन-वंश है और एक समय इसका प्रताप दूर दूर देशों तक फैला हुआ था।

प्राचीन समय में राठौड़ वंश का प्रताप

कई प्रख्यात पुरातत्व-वेत्ताओं ने अनेक शिला लेखों और ताम्र- पत्रों की सहायता से यह प्रकट किया है कि एक समय इनका प्रताप सारे भारत में फैला हुआ था। ठेठ दक्षिण में एडम्सब्रिज से लेकर उत्तर में नेपाल तक तथा पश्चिम में मालवा, गुजरात से लेकर पूर्व में बिहार, बंगाल और हिसालय तक इनका प्रबल आतंक छाया हुआ था। अब सवाल यह उठता है कि राठौड़ उत्तर से दक्षिण में गये या दक्षिण से उत्तर मे आये। अभी तक जितने शिला-लेख या तामपत्र मिले हैं उन सब का अनुसंधान कर डा० फ्लिट ने पता लगाया है कि वे उत्तर से दक्षिण में गये ओर फिर दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़े। राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज के पुत्र इन्द्रराज को चालुक्य वंशीय राजा जयसिंह ने विक्रम संवत्‌ 550 के लगभग शिकस्त देकर दक्षिण में अपना अधिकार जमाया। इतने पर भी राष्ट्रकूट वहीं बेलगांव आदि स्थानों में जमे रहे। इसके बाद राष्ट्रकूट गोविन्दराज के पोते और कर्कराज के पुत्र दूसरे इन्द्रराज ने चालुक्यवंशीय राज्य-कन्या से विवाह किया, जिससे दन्तिदुर्ग पैदा हुआ। यह बड़ा प्रतापी हुआ। इसने संवत्‌ 810 ईस्वी सन्‌ 753 से कुछ पहले सोलंकी राजा कीर्तिवर्मा ( दूसरे ) से उसके राज्य का बड़ा भाग छीन कर फिर से दक्षिण में राठौड़ों का राज्य स्थापित किया। इसने उत्तर में लाटदेश ( दक्षिण गुजरात ) तक का सारा प्रदेश विजय कर राजाधिराज’ तथा परमेश्वर! की महान सम्मान सूचक उपाधियाँ धारण की। दक्षिण के सोलंकियों की मुख्य सम्मान सूचक पदवी बहुभा थी। इस पदवी को भी राठौड़ों ने धारण कर ली। इसी से राठौड़ों के राज्य-काल में जो अरब मुसाफिर भारत में आये थे उन्होंने राठौड़ों को ‘बलहरा’ लिखा है। यह बल्लम राज के लौकिकरुप’ बलहराय का बिगड़ा हुआ रूप है।

राठौड़ वंश
राठौड़ वंश

दन्तिदुर्ग ( पांचवें ) के निःसंतान मरने पर उसका चाचा कृष्णराज
उत्तराधिकारी हुआ। इसने सोलंकियों का रहा सहा राज्य भी विजय कर लिया। इसने राहप नामक राजा को भी पराजय किया था। सुप्रख्यात एलोरा (दक्षिण) की गुफा में पर्वत को काटकर ‘कैलशा नामक, जो भव्य मन्दिर बना हुआ है, वह इन्हीं के कला- प्रेम का आदर्श नमूना है। कृष्णराज के बाद उनका पुत्र गोविन्द राज राज्याधिकारी हुआ। यह बड़ा विलास प्रिय था। इसलिये इसके छोटे भाई ध्रुवराज ने इसका राज्य छीन लिया। ध्रुवराज ने निरुपम! और ‘धारावर्ष’ की पदवियाँ धारण की। इसने गौड़ों पर विजय प्राप्त करने वाले वत्सराज परिहार को परास्त कर मारवाड़ में भगा दिया था। इसने उत्तर में अयोध्या और दक्षिण में काँची तक विजय प्राप्त की थी। ध्रुवराज के बाद गोविन्दराज ( तीसरा ) राज्य-सिंहासन पर बैठा। इसने ‘जगतुंग और ‘प्रभूतवर्ष का खिताब धारण किया। यह महा प्रतापी था। इसने युवराज पद पर रहते हुए ही बहुत सी लड़ाईयों में विजय प्राप्त की थी। इसने दक्षिण के बारह राजाओं की संयुक्त सेना पर भी अपूर्व विजय प्राप्त की थी। दक्षिण के लाट-देश से लगाकर करीब करीब रामेश्वर तक का सारा प्रदेश इसके अधिकार में था। इस्वी सन्‌ 815 तक इसने राज्य किया।

गोविन्द राज ( तीसरे ) के बाद उसका पुत्र अमोध वर्ष व राज्य- सिंहासन पर बेठा। ‘वीर नारायण’ ‘नृप तुंग आदि इसकी उपाधियाँ थीं। इसमे बाल्यावस्था ही में राज्य पाया था। इसकी सोलंकी राजा विजयादित्य से कई लड़ाईयाँ हुई थीं। इसने मान्यखेट ( मालखेड़, निजाम राज्य ) को अपनी राजधानी बनाया था। इसने लगभग 63 वर्ष तक राज्य किया। यह स्वयं बड़ा विद्वान था और विद्वानों का बड़ा सम्मान करता था। इसकी बनाई हुई प्रश्नोत्तर रत्न तालिका, नामक एक छोटी सी पुस्तिका होने पर भी रत्नलमाला’ के समान कंठ में धारण करने योग्य है। प्राचीन समय में इस पुस्तक का तिब्बती भाषा में भी अनुवाद हुआ था। इसने ‘कविराजमार्ग, नामक एक ग्रन्थ कनाड़ी भाषा में भी लिखा था। यह जैन विद्वानों का बड़ा सम्मान करता था। अदिपुराण तथा पाश्वोभ्युद्य आदि जेन ग्रन्‍थों के कर्ता जिनसेन सूरी का यह शिष्य भी था। ईस्वी सन 934 तक इसका विद्यमान होना पाया जाया है।

अमोध वर्ष के बाद कृष्णराज दूसरा राज्य-सिंहासन पर बैठा। इसने गंगा तट के मुल्कों पर चढ़ाईयाँ की। इस्वी सन्‌ 911 तक के इसके लेख मिलते हैं। इसके बाद इन्द्रराज, अमोघ वर्ष ( दूसरा ) गोविंद, अमोघवर्ष (तीसरा) आदि आदि राजा क्रम से हुए। इनके समय में कोई विशेष घटनाएँ नहीं हुई। हाँ अमोघ वर्ष ( तीसरा ) का पुत्र कृष्णराज ( तीसरा ) प्रतापी हुआ। इससे देंतिंग और वप्पुरा को मारा। गंगा-वंशीय रायमल को पदष्युत कर उसके स्थान पर व्यूतग को राजा बनाया। पल्लव वंशी अन्तिम राजा को हराया। तकोल की लड़ाई में चोल के राजा राजादित्य को मारा और चेरी देश के राजा सहस्त्राजुर्न को जीता। इसके ईस्वी सन्‌ 940 से 961 तक के लेख मिलते हैं।

उपरोक्त वृतान्त से पाठकों को राठौड़ वंश के अपूर्व गौरव और अद्वतीय प्रताप का दिग्दर्शन हुआ होगा। अब हम राठौड़ वंश के उस प्राचीन प्रताप के विषय में अरब प्रवासियों के मत उद्धृत करते हैं। सुलेमान नामक एक अरबी प्रवासी ने ‘सिल्सिलु तवारिख’ नामक एक पुस्तक ईस्वी सन् 851 में लिखी है। उसमें उसमे ‘बलहराओं’ के विषय में लिखा है, पृथ्वी के चार बड़े राजाओं में से बलहरा ( राठौड़ ) भी एक है, जो हिन्दुस्थान के राजाओं में सब से बढ़कर है। दूसरे राजा उसका आधिपत्य स्वीकार करते हैं और उसके वकीलों का बड़ा आदर करते हैं। वह अपनी फौज की तनख्वाह अरब लोगों की तरह बराबर चुकाता है। उसके पास बहुत से हाथी घोड़े और बेशुमार दौलत है। उसका सिक्का तातारी द्रिहम है, जो ताल में दिरहम से दय्योढा है।

उसके सिक्को पर वह संवत्‌ लिखा है, जब कि उसने पहले पहल राज्य किया था। हर एक राजा अपना सन् अपन जुलुस से लिखते है। उन सब की पदवी ‘बलहरा’ है जिसका अर्थ “महाराजाधिराज’ है। उसका राज्य चीन की सरहद से लेकर कोकण तक समुद्र के किनारे किनारे हैं। बलहरा का पड़ोसी गुजरात का राजा है,जिसके पास सवारों की अच्छी फौज है।” यह वृतान्त राजा अमोघवर्ष प्रथम के समय का लिखा हुआ है । इब्निखुर्दाद ने ईस्वी सन 912 में “किताबुल्म सालिक बुल ममालिक” नामक पुस्तक लिखी है। उसमें वह लिखता है–

“हिन्दुस्तान में सब से बड़ा राजा बलहरा है। इस की अँगुठी पर
यह ख़ुदा हुआ रहता है कि, “जो काम दृढ़ता के साथ प्रारंभ किया जाता है वह सफलता के साथ समाप्त होता है। अल्मसऊदी ने ईस्वी सन्‌ 944 में ‘मुरुजुल जहब’ नामक ग्रंथ लिखा था, उस में वह कहता है– “इस समग्र हिन्दुस्तान के राजाओं में सबसे बड़ा मानकेर ( मान्यखेट ) नगर का राजा बलहरा (राठौड़) है। हिन्दुस्तान के बहुत से राजा उसे अपना स्वामी मानते हैं। उसके पास असंख्य हाथी और लश्कर है। लश्कर विशेष कर पैदल है, क्योंकि उस की राजधानी पहाड़ों में है।’

मध्य-प्रदेश के मुलताई गाँव में राष्ट्रकूट राजा युद्ध शूर का एक लेख शक संवत 631 कार्तिक शुक्ल 17 का मिला है। मि० फ्लिट का मत है कि बारहवीं सदी के शुरु तक वहाँ राष्ट्रकूटों का राज्य था। हमने ऊपर राठौड़ वंश के प्राचीन गौरव पर एतिहासिक दृष्टि से प्रकाश डालने की चेष्टा की है। अब वर्तमान जोधपुर राज्य के राठौड़ राज्य की उत्पत्ति और विकास पर कुछ लिखने की आवश्यकता है। जोधपुर राज्य के राजवंश का सीधा संबंध कन्नौज के राठौडों से था। जोधपुर राजवंश के मूल पुरुष कन्नौज से मारवाड आये थे कन्नौज के राठौड़ के कई शिलालेख ओर ताम्रपत्र, मिले हैं। उन्हीं के आधार से जोधपुर राजवंश के प्राचीन पूर्वज कन्नौज के अधिपतियों के इतिहास पर कुछ ऐतिहासिक प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है।

कन्नौज के ताम्रपत्र में यशोविग्रह से लेकर हरिश्चंद्र तक के दस राजाओं के नाम लिखे हैं। वि० सं० 1148 का ( चन्द्रदेव के समय का ) एक ताम्रपत्र चन्द्रावती में मिला है। उसमें लिखा है कि सूयवंश में कई राजाओं के हो जाने के बाद यशोविग्रह राजा हुए। यशोविग्रह के बाद उनके पुत्र महिचन्द्र राजगद्दी पर बिराजे। इनका दूसरा नाम महिनल अथवा महिषा भी था।

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