राजा सूरजमल का जन्म सन् 1707 में भरतपुर में हुआ था। राजा बदन सिंह की मृत्यु के बाद राजा सूरजमल जी भरतपुर राज्य के सिंहासन पर विराजे। ये महान और वीर राजनीतिज्ञ दूरदर्शी और प्रतिभा संपन्न महानुभाव थे। इनका नाम न केवल भरतपुर राज्य के इतिहास में नहीं वरन् भारत के इतिहास में अपना विशेष महत्व रखता है। ये भारत के एक ऐतिहासिक महापुरुष हैं। जिन महानुभावों ने अपने वीरत्व व चतुराई से भारत के इतिहास को बनाया है, उनमें सूरजमल जी का आसन ऊंचा है।
राजा सूरजमल का इतिहास और जीवन परिचय
सूरजमल जी लम्बे चौड़े और बदन से बड़े हट्टे-कट्टे थे। श्याम रंग के होने पर भी वे बढ़े तेजस्वी दिखलाई पड़ते थे। आपको पुस्तक ज्ञान विशेष न था, पर संसार में सफलता प्रदान करने वाले व्यवहारिक ज्ञान की आप में कमी न थी। एक सुप्रख्यात् इतिहास- वेत्ता लिखता हे–“राजा सूरजमल जी की राज्यनैतिक क्षमता अद्भुत थी–उनकी बुद्धि बड़ी तीव्र और बड़ी साफ थी।” एक फारसी इतिहास-वेत्ता का कथन है;–“यद्यपि राजा सूरजमल किसानों की सी पोषाक पहनते थे ओर अपनी देहाती ब्रजभाषा बोलते थे, पर वे जाट जाति के प्लेटो थे। बुद्धिमत्ता और चतुराई में माल सम्बन्धी और दीवानी मामलों की व्यवस्था करने में राजा सूरजमल जी अपना सानी न रखते थे। उनमें उत्साह था, जीवन- शक्ति थी, काम के पीछे लगने का दृढ़ आग्रह था ओर सबसे बड़ी बात यह थी कि उनका मन एक लोहे की दीवार की तरह मजबूत था, जो हार खाना जानता ही न था। कूट-नीति और षडयन्त्रों की दृष्टि में वे मुगलों और मराठों से आगे पैर रखते थे। अपने पिता राजा बदन सिंह जी की जीवितावस्था में सूरजमल जी ने सब से प्रथम जो साहस“ पूर्ण कार्य किया, वह भरतपुर के किले पर अधिकार करना था। यह घटना इसवी सन् 1744 की है। इस समय यह किला मिट्टी का बना हुआ छोटा सा मकान था। राजा सूरजमल जी ने उसे एक विशाल और सुदृढ़ किले में परिणित कर दिया। कहना न होगा कि इस किले के पास भरतपुर शहर बसाया गया। सूरजमल जी का शासन न्यायपूर्ण था, अतएवं लोगों का उनकी ओर स्वाभाविक आकर्षण हुआ। अब हम राजा सूरजमल जी की कार गुजारी पर दो शब्द लिखना चाहते हैं।
राजा सूरजमल जी ओर जयपुर नरेश ईश्वरी सिंह जी
पाठक जानते हैं कि राजा बदन सिंह जी और सूरजमल जी के साथ जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंहजी का घनिष्ट संबन्ध था । जब महाराजा सवाई जयसिंह जी का देद्दान्त हो गया तो उनके बढ़े पुत्र राजा ईश्वरीसिंह जी राज्यासीन हुए। इस पर उनके छोटे भाई माधव सिंह जी ने झगड़ा उठाया और यह दावा किया कि सवाई जयसिंह जी जी शिशोदिया वंश की रानी से उत्पन्न होने के कारण वे ही राज्य के असली हकदार हैं। कहना न होगा कि माधव सिंह जी का पक्ष और भी कई राजाओं ने लिया। इन्दौर के मल्हार राव होलकर, गंगाधर ताँतिया, मेवाड़ के महाराणा, आदि ईश्वरी सिंह पर चढ़ आये। सूरजमल जी ईश्वरीसिंह जी ही को राज्य के असली वारिस समझते थे। अतएव उन्होंने अपनी जाट सेना सहित ईश्वरीसिंह जी का पक्ष ग्रहण किया। सन् 1749 में दोनों सेनाओं का बगेरू मकाम पर मुकाबला हुआ। एक ओर तो सात राजा थे और दूसरी ओर केवल राजा ईश्वरी सिंह जी और सूरजमल जी। कहने का मतलब यह कि बराबरी की जोड़ न थी। आमेर की फौज के अगले हिस्से के सेनापति सिकर के शिवसिंह जी थे। सूरजमल जी सेना के मध्य भाग को संचालित करते थे। पीछले भाग के सेनापतित्व का भार खुद राजा ईश्वरीसिंह जी ने लिया था। बड़ा घमासान युद्ध हुआ। पहले दिन कोई अंतिम निर्णय प्रकट नहीं हुआ। किसी पक्ष की हार-जीत न हुईं । दूसरे दिन जयपुर की सेना के एक सेना लायक सिकर-अधिपति मारे गये। तीसरे दिन विजयीन्मत्त शत्रुओं ने फिर जोर से हमला किया। आमेर की फोज भरी मुकाबले के लिये तैय्यार हो गई। इस दिन सेना के आगे के भाग का सेनापतित्व सूरजमल जी को दिया गया। निरन्तर घोर वर्षा होते रहने पर भी इस दिन बड़ा ही भीषण और घमसान युद्ध हुआ। इस दिन ईश्वरी सिंह जी बड़े निराश हो गये। उनकी सेना पर कई तरफ से जोर के हमले होने लगे। बड़ी कठिन परिस्थिति हो गई। ऐसे समय में राजा ईश्वरी सिंह जी ने राजा सूरजमल जी को गंगाधर तांतिया की फौज पर हमला करने के लिये कहा। सूरजमल जी ने एक क्षण की भी देरी न करते हुए गंगाधर की फौज पर अकस्मात् हमला कर दिया। दो घण्टे तक बड़ा भीषण युद्ध हुआ। खून की नदियाँ बह चलीं । बूँदी के कवि सूरजमल ने अपने “वंश भास्कर में लिखा है कि सूरजमल जी ने अपने अकेले हाथों से विपक्षी दल के 50 आदमियों को मारा और 108 को घायल किया। सूरजमल जी की विजय हुई। घोर निराशा में आशा की प्रकाशमान किरणें चमकने लगीं। चौथ दिन फिर युद्ध हुआ और दो दिन तक चलता रहा इस वक्त विपक्षी दल की सेनाएँ थक गई। मराठों ने सुलह के लिये प्रस्ताव किया और माधव सिंह जी को इस वक्त अपने उन्हीं पांच परगनों से संतोष करना पड़ा, जो उन्हें दिये गये थे।
सूरजमल जी और मुग़ल
सम्राट अहमदशाह के जमाने में साइतखाँ, अमीर-उल उमरा, जुल-फिकर-जंग आगरा और अजमेर का शासक (Governor) नियुक्त किया गया। यह आगरा के आसपास के जाट मुल्क पर फिर से अधिकार करना चाहता था। उसने 15000 सवारों की एक अच्छी सुसज्जित सेना के साथ कूच किया। वह यथा समय राजा सूरजमल जी के राज्य के उत्तरीय हिस्से तक पहुँच गया। सूरजमल जी भी बेखबर नहीं थे। वे मुगल सेना की मति-विधि को खूब गौर से देख रहे थे। मुगल सेना के कुछ लोगों ने एक छोटे से किले के सैनिकों के साथ झगड़ा खड़ा कर दिया और उन्हें वहाँ से निकाल दिया। सादत खाँ ने इसे अपनी भारी फ़तह मान ली। उसने विजयोत्सव तक मनाना शुरु कर दिया। इसके बाद फिर वह आगे बढ़ा। सूरजमल जी अपनी सुसज्जित सेना सहित मौके पर उपस्थित हो गये। मुगल सेना बेतहाशा भागी, उसका पीछा किया गया। कहना न होगा कि बहुत सारे मुगल बुरी तरह से मारे गये। तत्कालीन एक फारसी इतिहासकार का कथन है–“जाट राजा ने अमीर-उल-उमरा को गिरफ्तार करने या मरवाने की दुष्कीर्ति प्राप्त करने की इच्छा प्राप्त न की। उसने मुगल केम्प को दो तीन दिन तक घेरे रहने में ही सन्तोष मान लिया। यह उसकी उदारता थी कि शक्ति के रहते हुए भी उसने अपने दुश्मन के साथ ऐसा अच्छा बर्ताव किया।” इसके पीछे दोनों दलों में सुलह दो गई। मुगल प्रतिनिधि को यह शर्ते स्वीकार करनी पड़ी कि वे या उनके मातहत जाट-देश में कोई पीपल का पेड़ न काटने पावे और न वे हिन्दू मन्दिरों को तोड़े’ या उनका अपमान करें। कहने की आवश्यकता नहीं कि मुगल साम्राज्य के अमीर-उल-उसमरा पर विजय प्राप्त करने से राजा सूरजमल जी का बहुत दबदबा छा गया। उनका आत्म-विश्वास बहुत बढ़ गया। इसके थोड़े ही समय बाद सूरजमल जी विजय पर विजय प्राप्त करते रहे इससे उनकी राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षाएँ बहुत बढ़ गई। वे अपने प्राप्त राज्य ही में सन्तुष्ट नहीं थे। वे दिल्ली के आसपास के प्रदेशों पर भी अपनी विजय पताका उड़ाना चाहते थे। इसके लिये वे उपयुक्त
अवसर देख रहे थे।
राजा सूरजमल भरतपुर राज्यबल्लभगढ़ के जाटों को फरीदाबाद का फौजदार बड़ा तंग करता था। इससे उन्होंने राजा सूरजमल जी की सहायता मांगी। यहां पर प्रसंगवात बल्लभगढ़ के जाट जमींदार के लिये दो शब्द लिख देना अनुपयुक्त न होगा। गोपाल सिंह नामक एक जाट बल्लभगढ़ से तीन मील की दूरी पर सिही नामक ग्राम में आकर बसा था। यह मथुरा-दिल्ली सड़क पर लूट मार कर धनवान बन गया था। उसने तैगांव के गुजरों से सहायता प्राप्त कर आसपास के गावों के राजपूत चौधरी को मार डाला था। फरीदाबाद के मुगल शासक मुर्तजाखां ने उसे इस अपराध में दंड देने के बदले उसे फरीदाबाद परगना का चौधरी नियुक्त कर दिया था। उसे उक्त परगनों की रेव्हेन्यू पर एक आना लेने का हक भी प्राप्त हो गया था। गोपाल सिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र चरणदास उत्तराधिकारी हुआ। उसने जब यह देखा कि आसपास के जिलों में मुगल सत्ता निर्बल हो रही है, तब उसने उन जिलों की आमदनी मुगल शासक के पास भेजना बन्द कर दिया। इतना ही नहीं उसने मुगल सत्ता को मानने से भी इन्कार किया। इस पर वह गिरफ्तार कर जेल में बन्द कर दिया गया। थोड़े ही दिन बाद उसके पुत्र बलराम ने उक्त मुगल शासक का कुछ दमपटटी देकर धोखे से अपने बाप को छुड़ा लिया। इसके बाद दोनों बाप बेटे भागकर भरतपुर चले गये। उन्होंने सूरजमल जी जाट की सहायता प्राप्त कर मुगल शासक मुर्तजा खां को मार डाला।
मुगल सम्राट के वजीर ने बलराम ओर राजा सूरजमल जी जाट को उक्त परगनों से अपना अधिकार हटा लेने के लिये बारम्बार लिखा। पर उसे हमेशा कोरा जवाब मिला। इस पर वह बहुत क्रोधित हुआ और उसने जाटों के नाश करने का दृढ़ संकल्प किया। इसवी सन् 1749 के जनवरी मास में वह जाटों के खिलाफ रण मैदान में उतर पड़ा। राजा सूरजमल जी ने भी इसके लिये तैयारी कर ली। उन्होंने सिही के जाटों को शक्ति भर सहायता करने का निश्चय किया। उन्होंने डीग और कोंहमीर के किलों को रक्षक स्थान बनाकर इसवी सन् 1749 में वज़ीर के खिलाफ कूच किया। कहना न होगा कि भाग्य ने राजा सूरजमल जी का साथ दिया। इसी समय वज़ीर को अवध के पास रोहिलों के जबरद॒स्त बलवे का सामाचार मिला। इससे वह जाटों को ज्यों का त्यों छोड़कर उधर चला गया। उसने बलवा दबा कर रुहिलों से छिने हुए मुल्क पर निगरानी रखने के लिये अपने नायब नवलराय को नियुक्त कर दिया। इसके बाद वजीर ने जाटों के खिलाफ फिर फौज भेजी। जाटों को लड़ने के लिये प्रस्तुत पाकर खुद वजीर भी उनके खिलाफ रवाना हुआ। वह खिजिराबाद तक पहुँचा ही था कि उसे यद समाचार मिला कि अहमद खाँ बंगेश के हाथों से नवलराय मारा गया है। इससे वजीर ने इस समय राजा सूरजमल जी के साथ समझोता कर लेना ही ठीक समझा। एक मराठा वकील के मार्फत समझौता हो गया। राजा सूरजमल जी को वजीर की ओर से खिल्तत मिली। दोनों में इसी समय अच्छी मैत्री हो गई।
पहले जहाँ सूरजमल जी नवाब वज़ीर के शत्रु थे, अब वही उसके
मित्र बन गये। इतना ही नहीं उन्होंने नवाब वजीर की उस चढ़ाई में भी योग दिया, जो उसन अहमदखां बंगेश और रोहिलों केखिलाफ की थी। सन् 1750 की 23 जुलाई को 70000 अश्वारोही सेना के साथ नवाब वजीर, अहमदखां बंगेश और रोहिलों के खिलाफ़ रवाना हुआ। राजा सूरजमल जी ने अपनी जाट सेना की सहायता से अदमदखाँ की राजधानी फर्खाबाद पर अधिकार कर लिया। सन् 1750 की 13 सितंबर को पथारी मुकाम पर बड़ी भीषण लड़ा हुई। वजीर ने हाथी पर बैठकर अपनी सेना का मध्य भाग संभाला था। राजा सूरजमल जी सना की बाँयी बाजू को संचालित कर रहे थे। राजा सूरजमल जी ने शत्रु पर भीषण आक्रमण कर दिया। इसमें शत्रु पक्ष के कोई 6000 या 7000 पठान मारे गये। रुस्तमखाँ अफ्रीदी और अन्य रोहिला सेना-नायक बुरी तरह भागे। कहने की आवश्यकता नहीं कि राजा सूरजमल जी के कारण नवाब वजीर की विजय हुईं। अहमद खाँ बंगेश इतने पर भी निराश न हुआ। उसने पलाश के झाड़ों के नीचे फिर अफ़ग़ान सेना को जमा कर वजीर की सेना पर अकस्मात् रूप से हमला कर दिया। इस समय वज़ीर की एक गम्भीर सैनिक भूल के कारण अफगानों को कुछ सफलता मिल गई। नवाब वजीर सख्त घायल हुआ और उसी अवस्था में वह अपने केम्प में लाया गया। दूसरे ही दिन उसने मुगल राजधानी की ओर पीछे हटने की तैयारी की। इस समय अफगानों ने प्राय उसके सारे मुल्क पर अधिकार कर लिया। इलाहाबाद लूट लिया गया। अगर लखनऊ के नागरिक जोर का मुकाबला न करते तो वह भी लूट लिया जाता। इस हार की खबर ज्यों ही दिल्ली पहुँची कि नवाब वजीर के शत्रुओं ने उसके खिलाफ बादशाह के कान भरने शुरू किये। वे नवाब वजीर की बरख्वास्ती के लिये पडयंत्र करने लगे। पर यथा समय नवाब वजीर के दिल्ली पहुँच जाने पर इन पड्यन्त्रकारियों की तमाम कारवाई निष्फल हुई नवाब वजीर ने राजा सूरजमल आदि अपने हितैषियों को रुहेलों पर फिर से हमला करने के विषय पर विचार करने के लिये बुलाया। इतना ही नहीं उसने मल्हारराव होलकर की फौज को प्रति दिन 25000 रुपया और सूरजमल जी की जाट सेना को प्रतिदिन 15000 रुपया वेतन पर कर लिया। इन सब तैयारियों के साथ उसने अहमद खां बंगेश पर चढ़ाई की। फरुखाबाद लूटा जाकर बहुत कुछ नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया। सारा रुहेला देश तलवार और आग से बर्बाद कर दिया गया। कहने की आवश्यकता नहीं कि नवाब वजीर की विजय हुईं। उसने इस विजय के समाचार बादशाह तक पहुँचाये।
नवाब वजीर के दिल्ली से रवाना होने के कोई एक मास बाद ही
मुगल साम्राज्य को एक विपत्ति का सामना करना पड़ा।अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर हमला किया। सन् 1751 की 18 फरवरी को उसने लाहौर में प्रवेश किया। दिल्ली पर भी उसका हमला होने का भय होने लगा। इसी समय मुगल सम्राट ने राजा सूरजमल जी को 31000 जाट ओर 9000 घोड़ों का मसनब प्रदान कर उनकी इज्जत की। सम्राट ने वजीर को मल्हारराव होलकर के साथ अतिशीघ्र दिल्ली आने के लिये कई सन्देश भेजे। वज़ीर की गेर हाजिरी में एक खोजा ने कमजोर दिल बादशाह के दिल पर कबजा कर रखा था। उसने बादशाह को अहमदशाह दुर्रानी की शर्ते स्वीकार करने को दबाया। बादशाह ने दुर्रानी को लाहौर और मुलतान देकर उसे वापस लौट जाने के लिये कहा। जब वजीर दिल्ली लौटा तो उसे बादशाह के इस कार्य पर बड़ा क्रोध आया। उसने बादशाह को इस कार्य में प्रवृत्त करने वालों को दण्ड देने का निश्चय किया। उक्त खोजा एक भोज के समय वजीर के यहाँ बुलाया गया और जहर देकर मार डाला गया।
यह बात सम्राट अहमदशाह और उनकी माता को अच्छी न लगी।
सम्राट ने अपनी माता के अनुरोध से नवाब वजीर को अपने पद से खारिज कर दिया। इतना ही नहीं उसकी इस्टेट तक जप्त कर ली गई। इस पर बादशाह और वजीर में झगड़ा हो गया। बादशाह का अन्याय वजीर को बहुत अखरा और उसने दिल्ली पर घेरा डाल दिया। इसी समय उसने अपनी सहायता के लिये सूरजमल जी जाट को बुलवा भेजा। वजीर के दुष्मन अफगान नवयुवक गाजीउद्दीन की अधीनता में शाही फौज से जा मिले। इतने ही में सूरजमल जी जाट अपनी सेना सहित आ पहुँचे। उन्होंने उस समय दिल्ली की बहुत बुरी हालत कर डाली। वह बुरी तरह लूटी गई। अभी तक “जाट गर्दी” नाम से यह लूट मशहूर है। बादशाही सेना को भी इन्होंने शिकस्त दी। इसका परिणाम यह हुआ कि बादशाह के घुटने टिक गये। उसने नवाब सफदरजंग वज़ीर से सुलह का अनुरोध किया। उसे अवध ओर इलाहाबाद का फिर से वायसरॉय बना दिया। कहने का अर्थ यह है कि सूरजमल जी ने अपने एक मित्र को नाश होने से बाल-बाल बचा दिया।
पानीपत का युद्ध
हिन्दुस्थान के इतिहास में परिवर्तन करने वाले पानीपत के युद्ध के
विषय में पाठकों ने बहुत कुछ पढ़ा होगा। मराठों के सेनापति भाऊ साहब ने उक्त युद्ध निश्चित करने के लिये आगरा में एक सभा की थी। इस सभा में राजा सूरजमल जी भी निमन्त्रित किये गये थे। इस समय राजा सूरजमल जी ने एक बड़ा ही महत्वपूर्ण भाषण दिया, उसका सरांश यह है:—“मैं केबल जमीदार हूँ। आप एक महान नृपति हैं। पर इस समय मुझे जो ठीक मालूम होता है, उसे में स्पष्ट रूप से कहता हूँ। आपको यह बात अवश्य ही स्मरण रखनी चाहिये कि यह युद्ध एक महान मुसलमान सम्राट के खिलाफ है। इसमें कई मुसलमान राजा उसके साथ हैं। शत्रु बड़ा चालाक और धूर्त है।
आपको इस युद्ध के संचालन में बड़ी सावधानी से काम लेना चाहिये। युद्ध यह एक शतरंज का खेल है। पता नहीं पासा किस और उलट जावे। अतएवं मेरी राय में आप अपनी महिलाओं को तथा अनावश्यक सामान को चंबल के उस पार झांसी या गवालियर भेज दीजिये ओर फिर आप कई अनावश्यक झंझटों से मुक्त होकर शत्रु का मुकाबला कीजिये। अगर अपनी विजय हो गईं तो लूट का बहुत सा समान अपने को मिल जायगा। अगर युद्ध का परिणाम हम लोगों के विरुद्ध हुआ तो हम, स्त्रियों बच्चों के संकट से बरी होने के कारण, आसानी से भाग सकेगें। अगर 5आप अपने स्री बच्चों को इतना दूर भेंजना अनुचित और अव्यवहारिक समझे तो में अपने लोहे जेसे मजबूत किलों को आपके लिये खाली कर दूँगा वहाँ आप उन्हें सुरक्षित रूप से रख दीजिये। वहाँ उनके लिये सब प्रकार का प्रबन्ध हो जायेगा। आप अपने स्त्री बच्चों ओर अनावश्यक सामानों से मुक्त होकर शत्रु का मुकाबला कीजिये। युद्ध के संबंध में भी में एक बात सूचित करना आवश्यक समझता हूँ, वह यह कि आमने-सामने युद्ध करने के बजाय गनीमी लड़ाई से शत्रु को तंग कीजिये। उस पर इधर उधर से गुप्त हमले कीजिये। गुप्त आक्रमणों द्वारा उसे चारों ओर से तंग कीजिये। इससे शत्रु परेशान होकर अपने देश को लौट जायगा। उन्होंने महाराष्ट्र सेनापति भाऊ साहब को यह भी सूचित किया कि फौज की एक टुकड़ी पूर्व को ओर और दूसरी लाहौर की ओर भेजी जाये। इससे अहमदशाह दुर्रानी की फौज के लिये खाद्य सामग्री आने का मार्ग बन्द हो जावे।” राजा सूरजमल जी यह सलाह देकर बेठे न रहे, उन्होंने अब्दाली के कट्टर दुश्मन सिक्ख तथा बनारस के राजा बलवन्त सिंह से इस आशय का पत्र व्यवहार करना शुरू किया कि वे पंजाब और अवध से शत्रु सेना के लिये आने वाली खाद्य सामग्री में बाधा डालने का प्रयत्न करें।
राजा सूरजमल जी ने महाराष्ट्र सेनापति सदाशिवराव भाऊ को युद्ध के सम्बन्ध में जो राय दी थी उसका एक खबर से सब ने समर्थन किया। सब ने यह कहा कि शत्रु के दाँव को बचाकर भाग जाना ओर फिर मौका आते ही धोखे से शत्रु पर हमला कर “ शठं प्रति शाठय ” की नीति को स्वीकार करना ही सफलता का राज मार्ग है। अभिमान में चूर होकर अनुपयुक्त अवसर में शत्रु का मुकाबला कर कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर लेना मूर्खतापूर्ण कार्य होगा।” यह बात सबको पसन्द आ गई। पर प्रधान सेनापति भाऊ ने इस राय को ठुकरा दिया। उन्होंने अपने लिये–पेशवा के भाई के लिये-इस काम को शान के खिलाफ समझा। उन्होंने इस समय ताना मारकर मल्हारराब होलकर और सूरजमल जी आदि का अपमान किया। इससे सूरजमल जी को बहुत बुरा मालूम हुआ। पर कुछ महाराष्ट्र मुत्सद्दियों के समझाने बुझाने से उन्होंने लड़ाई में योग देना स्वीकार किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि राजा सूरजमल जी अपने मित्र गाज़ीउद्दीन और 8000 जाट सेना के साथ महाराष्ट्रों से मिल गये। इसवी सन् 1760 में मित्र सेनाएँ दिल्ली पहुँची और उन्होंने उस पर घेरा डाल दिया। गाजीउद्दीन ने बड़ी सर गर्मी के साथ दिल्ली पर अधिकार कर लिया ओर मराठों ने नगर को लूटा। इस समय मराठों के हाथ इतनी लूट लगी कि उनमें कोई गरीब न रहा। गाज़ीउद्दीन ने बादशाही खानदान के एक आदमी को तख्त पर बैठा दिया और खुद वज़ीर का काम करने लगा। पर यह बात महाराष्ट्र सेनापति भाऊ को अच्छी न लगी। उन्होंने नारोशंकर नामक एक महाराष्ट्र को राजा बहादुर की उपाधि से विभूषित कर उसे वजीर के पद पर नियुक्त कर दिया।इसका राजा सूरजमल जी ने बड़ा विरोध किया। होलकर और सिन्धिया ने भी इनका साथ दिया। पर महाराष्ट्र सेनापति भाऊ ने इनकी एक न सुनी इससे सूरजमल जी को बहुत बुरा लगा। इस अपमान कारक स्थिति में ज्यादा दिन रहना उनके लिये असह्य हो गया । वे अब वहाँ से खिसकने की कोशिश करने लगे और ‘आखिर मौका पाकर वहाँ से खिसक ही गये। इसके बाद पानीपत के युद्ध का जैसा परिणाम हुआ, पाठक जानते ही हैं। इसमें मराठों का पूर्ण पराभव हुआ। उनकी बढ़ती हुई शक्ति क्षीण हो गयी। समूची
मराठी सेना नष्ट हो गई। उसके प्रायः सब बड़े बड़े वीर काम आये।
राजा सूरजमल जी की उदारता
पानीपत के युद्ध से जब कुछ बचे बचाये मराठे सरदार या सैनिक
दक्षिण की ओर लौटे तो रास्ते में सूरजमल जी का मुल्क पड़ा।सूरजमल जी के साथ उन्होंने पहले जैसा व्यवहार किया था, उसका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। पर उदार हृदय सूरजमल जी ने इस महा संकट के समय में विपत्तियों से जजरित महाराष्ट्र लोगों के साथ बड़ी दी सहायता का व्यवहार किया। उन्होंने उनका बड़ा आदरातिथ्य किया। उनके लिये अन्न, वस्त्र और औषधि प्रभृति का प्रबन्ध किया। इस वक्त यदि सूरजमल जी अपने बेर का बदला लेने में उद्यत हो जाते तो शायद पानीपत की दुःख कथा सुनाने के लिये एक आदमी भी न बचता। तमाम मुसलमान और महाराष्ट्र लेखकों ने सूरजमल जी की इस सहायता और उदारता को मुक्तकंठ से स्वीकार किया है। एक तत्कालीन फारसी लेखक लिखता है– “मराठे जब सूरजमल जी के राज्य में घुसे तो उन्होंने हिन्दु-धार्मिक भावों से प्रेरित होकर उनकी रक्षा करने के लिये अपनी फौजें भेजीं। उन्हें अन्न वस्त्र बांटकर उनके दुःखों को दूर किया। भरतपुर राज्य में रानी साहिबा ने इन भागे हुए दुः:खित मराठों के प्रति बड़ा ही दया-पूर्ण व्यवहार किया। आठ दिन तक कोई चालीस हजार आदमियों को भोजन दिया गया। ब्राह्माणों को दूध, पेड़े तथा अन्य मिठाइयाँ बाँटी गई। आठ दिन तक सबका बड़ा सत्कार किया गया। सबके लिये आराम का काफी प्रबन्ध किया गया। सब नगर-निवासियों के नाम एक घोषण प्रकट कर उनसे यह अनुरोध किया गया कि महाराष्ट्र सैनिकों के साथ अच्छा से अच्छा व्यवहार किया जावे ओर उन्हें हर तरह का आराम पहुँचाया जावे। किसी को किसी तरह की तकलीफ न होने पावे। इस प्रकार इस दिव्य कार्य में सूरजमल जी ने दस लाख रुपया खर्च कर अपनो उच्चाशयता और उच्च श्रेणी के मानवी भावो का परिचय दिया। उन्होंने हजारों आदमियों के प्राणों को बचा दिया। मराठी सेना का एक शमशेर बहादुर नामक सेनापति कुहमीर किले में घायल होकर आया था। सुरजमल जी ने उसकी बड़ी सेवा की, पर उसने भाऊ के वियोग के असह्य दु:ख में ‘हाय हाय करके प्राण विसर्जन कर दिये। (सरदेसाई का पानीपत प्रकरण 260 ) सूरजमल जी ने मार्ग-व्यय के लिये रुपये बांटकर महाराष्ट्र सेनिकों को ग्वालियर के लिये सुरक्षित रूप से रवाना कर दिया।
सुरजमल जी ओर नरोशंकर
फ्रान्कालिव नामक एक इतिहास-बेत्ता ने लिखा है कि दिल्ली का
मराठा शासक नरोशंकर वापस लौटते समय मार्ग में लूट लिया गया ओर इस लूट में राजा सूरजमल जी का गुप्त हाथ था, पर यह बात बिलकुल गलत है। श्रीयुत् सरदेसाई ने अपने “मराठी रियासत” नामक सुविख्यात ग्रंथ में लिखा हैः– “नरोशंकर के एक मराठा साथी ने इस विषय पर समुचित प्रकाश डाला है। उसके कथनानुसार नरोशंकर तीन चार हज़ार फौज के साथ दिल्ली से भागा था। रास्ते में उसकी मल्हारराव होलकर के साथ भेंट हुईं। मल्हारराव के पास इस समय कोई आठ दस हजार फौज थी। भरतपुर राज्य में सूरजमल जी ने नरोशंकर और उसके सब साथियों की बड़ी ही खातिर की। वे वहाँ पन्द्रह दिन तक ठहरे। सूरजमल जी ने बड़ी नम्रनता के साथ यहाँ तक कहा कि यह राज्य आपका है–हम आपकी सेवा करने के लिये तैयार हैं। आप यहाँ खुशी से ठहरिये। सूरजमल जी जैसे आदमी बहुत कम हैं। उन्होंने अपने विश्वासपात्र सरदारों के साथ नरोशंकर आदि सबको सकुशल ग्वालियर पहुँचा दिया”। सुप्रख्यात् मद्दाराष्ट्र मुत्सददी नाना फडनवीस ने अपने एक पत्र में लिखा है:— “सूरजमल जी के व्यवहार से पेशवा के हृदय को बहुत ही शांति-लाभ हुआ।” उपरोक्त प्रमाणों से फ्रान्कलिन द्वारा सूरजमल जी पर लगाये गए झूठे कलंक का साफ साफ प्रक्षालन हो जाता है। दुःख है कि बिना किसी ऐतिहासिक प्रमाण के फ्रान्कलिन ने अक्षम्य दुष्टता की और सफ़ेद को काले के रूप में दिखाने का नीच प्रयत्न किया है।
राजा सूरजमलजी को विजय
पानीपत युद्ध में विजय प्राप्त कर अहमदशाह ने दिल्ली में प्रवेश
किया। जब उसने सुना कि राजा सूरजमल जी ने पानीपत से लौटे हुए मराठों को आश्रय दिया तो वह क्रोध से आग बबूला हो गया वह सूरजमल जी पर चढ़ाई करने का मंसूबा बाँधने लगा। जब सूरजमल जी ने यह बात सुनी तो उन्होंने नागरमल नामक एक विश्वासपात्र आदमी को अहमदशाह के पास उसका गुस्सा शांत करने के लिये भेजा। इसका कोई परिणाम न हुआ। सूरजमल जी ने भी शाह की विशेष पर्वाह न की। क्योंकि वे जानते थे कि युद्ध से थका हुआ शाह अब विशेष साहसिक प्रयत्न न करेगा। उन्होंने बड़ी हिम्मत के साथ पानीपत के प्रसिद्ध विजेता शाह के दिल्ली में होते हुए भी आगरा को पादाक्रान्त कर उस पर अधिकार कर लिया। यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यह मुगल साम्राज्य की दूसरी राजधानी थी। यह विजय उन्हें बीस दिन में प्राप्त हुई। यहाँ उन्हें 50 लाख की लूट हाथ लगी। शाह के दिल्ली से रवाना होने के पाँच दिन पहले यह खबर मिली कि सूरजमल जी की फौजों ने अकबराबाद के किलेदार को किला खाली करने के लिये मजबूर किया और उन्होंने उसमें प्रवेश कर दिया। इस काम से शाह ज्यादा चींचपड़ न करे इसलिये सूरजमल जी ने उसके पास एक लाख रुपया और पाँच लाख का इकरारनामा भेज दिया। यह इकरारनामा धूर्त शाह को धोखा देने के लिये था। इसका सूरजमल जी ने अमल नहीं किया। “शर्ट प्रति शाब्यं’ की सफल राजनीति का उन्होंने अनुकरण किया।
हरियाणा पर विजय
पानीपत के खूनी युद्ध के बाद कुछ समय के लिये उत्तरीय हिंदुस्तान में शांति छा गई थी। युद्ध की विभीषिका से घबराकर लोग कुछ समय तक दम लेना चाहते थे। सिक्खों की तेजी से बढ़ती हुईं शक्ति ने अहमदशाह के आक्रमण में जबरदस्त बाधा उपस्थित कर दी थी। उधर दक्षिण में मराठे हैदरअली और निजाम के साथ युद्ध में लगे हुए थे। इस परिस्थिति का फायदा उठाकर राजा सूरजमल जी ने एक अति शक्तिशाली जाट राज्य स्थापित करने का विचार किया। उन्होंने रावी नदी से लगाकर जमना तक अपना विजय झंडा फहराना चाहा। उन्होंने अब्दाली और रुहेलों के राज्य के बीच जाट राज्य की एक जबरदस्त और मजबूत दिवार खड़ी कर देना चाहा। इस वक्त दिल्ली के निकटस्थ हरियाणा ग्राम पर जबरदस्त मुसलमान जागीरदारों का अधिकार था। ये सूरजमल जी के पथ में कंटक रूप थे। इसका कारण यह था कि इनका मकाम जाट और सिक्ख राज्यों के बीच होने से ये इन दोनों के मिल जाने में बाधक रूप होते थे। सूरजमल जी ने अपने पथ से इस जबरदस्त कंटक को हटा देना चाहा। उन्होंने अपने बड़े पुत्र जवाहिर सिंह को हरियाणा जिला विजय करने के लिये तथा अपने छोटे पुत्र नाहरसिंह को दुआब पर अधिकार करने के लिये भेजा। पर जवाहर सिंह को इसमें सफलता न हुईं। अब खुद सूरजमल जी अपनी सेना और तोपखाने के साथ वहाँ आ पहुँचे। दो महीने के घेरे के बाद उन्होंने हरियाणा जिले के फरुखनगर पर अधिकार कर लिया। वहाँ का बलूची जागीरदार गिरफ्तार करभरतपुर भेज दिया गया। इस समय रेवाड़ी, हरसारु, रोहतक आदि पर सूरजमल जी की ध्वजा पताका फहराने लगी। ये स्थान राजा नवल सिंह के समय तक भरतपुर राज्य में थे। दुःख है कि बलूची लोगों से युद्ध करते हुए वीरवर सूरजमल जी सन् 1763 में वीर गति को प्राप्त हुए।
सूरजमल जी की विशाल राज्य-सत्ता
सूरजमल जी ने अपने बाहुबल से विशाल राज्य सम्पादन कर लिया था। भरतपुर राज्य के अतिरिक्त आगरा, धौलपुर, मेनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, एटा, मेरठ, रोहतक, फरुखनगर, मेवात, रेवाड़ी, गुडगाँव और मथुरा आदि जिलों पर आपका एक-छत्री राज्य था। इसके सिवाय आप अपनी मृत्यु के समय लगभग 100000000 रुपया खज़ाने में छोड़ गये थे। आपकी सेना भी जबरदस्त थी। उसमें 5000 घोड़े, 60 हाथी, 15000 अश्वारोही सेना, 25000 पेदल सेना, और 300 तोपें थीं। राजा सूरजमल जी जाट जाति के एक प्रकाशमान रत्न थे। उनकी प्रतिभा, उनकी दूरदर्शिता, प्राप्त अवसर से लाभ उठाने की उनकी अद्भुत तत्परता, उनका शौर्य आदि कितने ही गुण उनको महान बनाने में सहायक हुए हैं। उन्होंने हिन्दुस्तान के इतिहास में निस्सन्देह अपना विशेष स्थान कायम कर लिया है।
हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—-