राजा मानसिंहआमेर के कच्छवाहा राजपूत राजा थे। उन्हें ‘मानसिंह प्रथम’ के नाम से भी जाना जाता है। राजा भगवन्तदास इनके पिता थे। वह अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे। उन्होने आमेर के मुख्य महल का निर्माण कराया। राजा मानसिंह का जन्म 21 दिसंबर 1550 को आमेर में हुआ था। बिहारीमल जी के बाद उनके पुत्र भगवान दास जी आमेर की गद्दी पर बिराजे। आपनेदिल्ली सम्राट के साथ खूब ही मित्रता बढ़ा ली। सम्राट अकबर के आप दिली दोस्त हो गये थे। आपने काबुल और गुजरात को जीत कर मुगल साम्राज्य में मिलाया। पंजाब प्रान्त के तो आप सूबेदार भी रहे थे। भगवानदास जी के कोई पुत्र नहीं था अतएव उन्होंने अपने भाई के लड़के मानसिंह को दत्तक ले लिया। सन् 1619 में राजा मानसिंह जी अपने पिता के साथ आगरा गये थे। तभी से सम्राट अकबर का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो गया था। उसने उनकी वीरता पर प्रसन्न होकर उन्हें सेनाध्यक्ष की पदवी प्रदान की। राजा मानसिंह जी इस पदवी के संभव योग्य थे। थोड़े ही समय में उन्होंने मुग़ल साम्राज्य के प्रधान स्तम्भों की सूची के सिरे पर अपना नाम लिखवा लिया। सचमुच मानसिंह जी का सेनापतित्व और उनकी योग्यता इतनी बढ़ी चढ़ी हुईं थी कि वे अकबरी नव रत्नों में परमोज्वल हीरक समझे जाते थे। उस समय मुगल-साम्राज्य में उनके समान रण-कुशल सेनापति कोई नहीं था। राजा मानसिंह जी की तलवार की चमक से अफ़गानिस्तान के कट्टर अफ़गानों की भी आँखें झप जाती थीं। उनकी विजय वाहिनी की लौह झन्कार हिरात से ब्रह्मपुत्र तक और काश्मीर से नर्मदा तक सुनाई पड़ती थी।
राजा मानसिंह का इतिहास – आमेर के राजा का इतिहास
संवत् 1629 में जब सम्राट अकबर गुजरात विजय करने के लिये गये थे तब वे राजा भगवानदास जी और मानसिंह जी को भी साथ लेते गये थे। सम्राट जब सिरोही से आगे डीसा दुर्ग पहुँचे, तब समाचार मिला कि शेरखां फौलादी अपनी सेना और परिवार के साथ ईडर जा रहा है। बादशाह ने सेना सहित कुँवर मानसिंह जी को उसका पीछा करने के लिये भेजा। बादशाह डीसा दुर्ग से पाटन पहुँचे होंगे कि ये भी अफ़गानों को परास्त कर बहुत से लूट के माल के साथ वहां पहुँच गये। इसी वर्ष के अन्त में गुजरात के सुल्तान मुजप्फर शाह ने पाटन में अपना राज्य बादशाह को सौंप दिया। गुजरात प्रान्त के कुछ मिर्जे थोड़े से सैनिकों के साथ सूरत दुर्ग से निकल कर अपनी सेना से मिलने आ रहे थे जिन्हें पकड़ने की इच्छा से बादशाह ने उनका पीछा किया। सनोल ग्राम में मुठभेड़ हो गई। बादशाह के पास केवल डेढ़ सौ सैनिक थे और शत्रु एक सहस्त्र के लगभग थे। दोनों सेनाओं के बीच महीन्द्री नदी थी, इसलिये बादशाह ने राजा मानसिंह जी को हरावल नियत करके पार उतरने की आज्ञा दी। कुल शाही सवार नदी पार हो गये, जिन पर गुजराती मिर्जों के मुखिया मिजो इब्राहीम ने धावा किया। शाही सेना पीछे हट गई, पर दोनों ओर नागफनी के झंखाड़ होने के कारण शत्रु के तीन ही सवार आगे बढ़ सकते थे। इधर स्वयं बादशाह, राजा भगवानदास ओर कुँवर मानसिंह जी सब के आगे थे। इस समय राजा मानसिंह जी ने अदूभुत वीरता के साथ बादशाह की प्राण रक्षा करते हुए शत्रु को मार भगाया।
18 वें वर्ष में बादशाह ने राजा मानसिंह जी को सैन्य ईडर के रास्ते
से डूंगरपुर भेजा। यहाँ के तथा आस पास के राजाओं ने विद्रोह किया था जिनका दमन करने के लिये ही यह सेना भेजी गई थी। इन्होंने वहां पहुँच कर उन लोगों को पूर्णतया पराजित किया। और उन लोगों से बादशाह की आधीनता स्वीकार करा लेने पर ये आज्ञानुसार उदयपुर होते हुएआगरा चले। जब ये रास्ते मेंउदयपुर की सीमा पर पहुँचे तब इन्होंनेमहाराणा प्रताप सिंह जी को अपना आतिथ्य करने के लिये कहलाया। वे उस समयकुम्भलगढ़ दुर्ग में थे पर राजा मानसिंह जी के स्वागत के लिये उदयसागर झील तक आकर उन्होंने वहां भोजन का प्रबन्ध किया। राणा भोजन के समय स्वयं नहीं आये और अपने पुत्र को अतिथि-सत्कार करने के लिये भेज दिया। मानसिंह जी इसका अर्थ समझ गये थे तब भी एक बार और कहलाया, पर सब निष्फल हुआ। अन्त में इन्होंने भोजन नहीं किया और मेवाड़ पर चढ़ाई करने की धमकी देकर चले गये। बादशाह के पास पहुँचते ही इन्होंने सब बातें कुछ नमक मिर्च लगाकर कह दीं। इस पर बादशाह बड़े क्रोेधित हुए और चढ़ाई करने की आज्ञा दे दी श। सुल्तान सलीम, राजा मानसिंह जी और महावत ख़ां के आधीन एक भारी-सेना मेवाड़ पर भेजी गई। प्रसिद्धहल्दीघाटी के मैदान में युद्ध हुआ। महाराणा की बड़ी इच्छा थी कि मानसिंह जी से इन्द्व युद्ध करें, पर उस घमासान में ऐसा अनुकूल अवसर प्राप्त न हो सका। युद्ध के धक्कम धक्का में महारणा प्रताप, शहजादा सलीम के हाथी के पास पहुँच गये और उस पर उन्होंने अपना बर्छा चलाया। यदि महावत खां और अम्बारी का लोह स्तंभ बीच में न होता तो अकबर बादशाह को अवश्य पुत्र-शोक उठाना पड़ता। सलीम का हाथी भाग निकला। दोनों ओर के वीर जी तोड़कर लड़ने लगे। इस अवसर पर राजा रामशाह ग्वालियरी ने स्वामी-भक्ति का उच्च आदर्श दिखलाया। जब उनने देखा कि मुसलमान सेना बड़े वेग से राणा पर टूट पड़ी है, तब उन्होंने राणा के छत्रादि राज-चिन्हों को बलातू छीन कर दूसरी ओर का रास्ता लिया। मुसलमानी सेना महाराणा को उस ओर भागता देखकर उधर ही टूट पड़ी जिससे अत्यन्त घायल राणा प्रताप सिंह जी को युद्ध स्थल से निकल जाने का अवसर मिल गया। रामशाह अपने पुत्रों सहित वीर गति को प्राप्त हुए। अन्त में महाराणा की सेना को अगणित मुग़ल सैन्य के आगे पराजित होना पड़ा। यह युद्ध श्रावण कृष्ण 7 संवत् 1632 को हुआ था।
राजा मानसिंह जीवर्षा के कारण मेवाड़ का युद्ध रूक गया था पर उसके व्यतीत होते ही वह फिर आरंभ हो गया। बादशाह स्वयं ससैन्य अजमेर पहुँचे और कुंवर मानसिंह जी को सेना देकर मेवाड़ भेजा।महाराणा फिर परास्त होकर कुम्भलमेर दुर्ग में जा बेठे। शाहबाज खाँ ने इस दुर्ग को भी घेर लिया। शाहबाज खाँ के साथ राजा भगवानदास, राजा मानसिंह आदि सरदार भी गये थे। देवात् दुर्ग की एक बड़ी तोप के फट पड़ने से मेगज़ीन में आग लग गई। बादशाही सेना घबरा कर पहाड़ी पर चढ़ गई। फाटक पर राजपूतों ने बड़ी वीरता से उन्हें रोका पर घमासान युद्ध के पश्चात् वे वीर गति को प्राप्त हुए। दुर्ग पर इनका अधिकार हो गया और गाजी खाँ वहां नियुक्त कर दिया गया। कुम्भलमेर दुर्ग के टूटने पर मानसिंह जी ने मांडलगढ़ और गोघूंदा दुर्गों को जा घेरा। यहां महाराणा रहते थे। वे तीन सहसत्र राजपूतों के साथ इन पर इस तरह टूट पढ़े कि मुगल-हारावत नष्ट भ्रष्ट हो गया। हाथियों से युद्ध होने लगा, जिसमें मानसिंह जी का हाथीवान मारा गया। पर मानसिंह जी विचलित नहीं हुए। हाथी को सँभालते हुए वे युद्ध करते रहे। इतने पर भी युद्ध बिगड़ता ही जा रहा था कि इतने ही में एक मुगल सरदार यह कहता हुआ आया कि बादशाह आ गये हैं। इससे मुग़ल सेना का उत्साह बढ़ गया और महाराणा परास्त हो गये। गोघुँदा विजय हो गया और उदयपुर पर भी इन्होंने अधिकार कर लिया। बादशाह की आज्ञा आ जाने पर राजा मानसिंह जी लौट आये।
बिहार और बंगाल के कुछ मुग़ल सरदारों ने इन प्रांन्तों में विद्रोह
मचा रखा था। उन्होंने अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हकीम को, जो कि काबुल में स्वतंत्रता पूर्वक रहता था, लिख भेजा कि यदि आप भारत पर चढ़ाई करें तो हम लोग आपका साथ देने को तैयार हैं। मिर्जा के सरदारों ने भी जब उन्हें उकसाया तो उसकी मुगल सम्राट बनने की इच्छा प्रबल हो उठी। उसने एक सरदार को सेना सहित आगे भेजा। यह सेना अटक तक आ पहुँची पर वहां के जागीरदार यूसुफ खाँ कोका ने उसे रोकने की बिलकुल चेष्टा न की। बादशाह ने यूसुफ खां को बुला लिया और उसके स्थान पर कुँवर मानसिंह जी भैजे गये। इन्होंने सियालकोट पहुँच कर युद्ध की तैयारी की और एक सरदार को अटक दुर्ग दृढ़ करने के लिय भेजा। मिर्जा हकीम ने भी अपने भाई मिर्जा शादमान को एक सहस्त्र सेना के साथ भेजा, जिसमे अटक दुर्ग घेर लिया। कुँवर मानसिंह जी इस समय सिन्ध नदी पार करने में कुछ हिचकिचा रहे थे तभी अकबर ने शायद यह दोहा उन्हें लिख भेजा था।
सबे भूमि गोपाल की यामें अटक कहां।
जाके मन में अटक है सोईं भटक रहा ॥
अटक के घेरे का समाचार सिलते ही राजा मानसिंह जी वहां जा पहुँचे। घोर युद्ध हुआ। राजा मानसिंह जी के भाई सूर्यसिंह जी के हाथ से शादमान मारा गया। इसी समय मिर्जा हकीम भी सेना सहित घटना स्थल पर आ पहुँचा, पर शाही आज्ञा आ चुकी थी अतएव मिर्जा आगे बढ़ने से नहीं रोका गया। मानसिंह जी लाहौर लौट आये पर मिर्जा ने वहां भी दुर्ग को घेर कर युद्ध आरंभ किया। बादशाह सेना सहित ज्यों ज्यों लाहौर की ओर बढ़ने लगे त्यों त्यों मिर्जा पीछे हटने लगा। इस कार्य में मिर्जा के बहुत से सैनिक रास्ते में आने वाली नदियों में बह गये। बादशाह की आज्ञा पाकर राजा मानसिंह जी पेशावर ओर सुल्तान मुराद काबुल पहुँचा। मानसिंह जी जब खुद काबुल पहुँचे तो मिर्जा हक़ीम का सामा फरेदू्खाँ सेना के पिछले भाग पर छापा मार कर बहुत सा सामान लूट ले गया। मानसिंह जी वहीं ठहर गये। सामने ही पर्वत की ऊँचाई पर मिर्जा हकीम सेना सहित मोर्चा बांधे डटा हुआ था। घोर युद्ध के उपरान्त मानसिंह जी ने उसे परास्त कर दिया। दूसरे दिन उसी स्थान पर फरेदू्खाँ भी परास्त कर दिया गया और काबुल पर मानसिंह जी ने अधिकार कर लिया। पीछे से बादशाह ने आकर मिर्जा हक़ीम को काबुल का अध्यक्ष और मानसिंह जी को सीमान्त प्रदेश पर नियुक्त कर दिया। मानसिंह जी मे बड़ी ही योग्यता के साथ सीमान्त प्रदेश की लड़ाकू जातियों का दमन किया।
सन् 1585 में राजा मानसिंह जी की धर्म बहिन का विवाह सुल्तान
सलीम के साथ हुआ। इसी समय काबुल से मिर्जा मुहम्मद हकीम की मृत्यु का समाचार आया अतएव मानसिंह जी काबुल भेज दिये गये। इन्होंने अपने सुप्रबन्ध से वहां की प्रजा को ऐसा प्रसन्न कर लिया कि फरेदूखाँ आदि विद्रोहियों की दाल न गल सकी। मानसिंह जी काबुल में एक वर्ष तक रहे। पर इतने ही समय में आपने वहां शान्ति स्थापित कर दी। इसके बाद आप अफ़रीदी अफ़गानों का दमन करने के लिये भेजे गये। इस कार्य में भी आपको अच्छी सफलता मिली। सन् 1588 में बादशाह ने मानसिंह जी को बिहार के सूबेदार के पद पर नियुक्त किया। बिहार के मुगल सरदारों का विद्रोेह यद्यपि दमन किया जा चुका था तथापि उसका कुछ अंश कहीं कहीं सुलग रहा था। मानसिंह जी ने वहां पहुँचते ही बिलकुल शान्ति फैला दी। हाजीपुर के जमींदार राजा पूर्णमल का दमन करके आपने उसकी पुत्री का विवाह अपने भाई के के साथ करवा दिया। बिहार में शान्ति स्थापित कर लेने पर आपकी इच्छा उड़ीसा विजय करने की हुईं। बिहार प्रान्त के अन्दर आपने रोहतासगढ़़ नामक शहर का जीर्णोद्धार करवाया। वहां का अम्बर निर्मित सिंहद्वार और बड़ा तालाब आज भी आपकी कीर्ति के स्मारक हो रहे हैं।
उड़ीसा प्रान्त के राजा प्रतापदेव को उसके पुत्र वीर सिंह देव ने विष देकर मार डाला। प्रताप देव के एक सरदार मुकुन्द देव ने इस अवसर पर स्वामि-भक्ति का ढोंग रचकर अपना अधिकार कर लिया। उड़ीसा राज्य को इस गड़बड़ी की खबर जब बंगाल के सुल्तान सुलेमान किरानी को मिली तो उसने सेना सहित आकर उस प्रान्त पर अपना अधिकार कर लिया। बंगाल से निकाले जाने पर अफगान इसी प्रान्त में आकर बसे थे। इनका सरदार कतलू खाँ था। राजा मानसिंह जी ने उड़ीसा विजय करने के लिये जो सेना भेजी थी उसने जहानाबाद नामक ग्राम में आकर छावनी डाल दी। इसी समय कतलू खाँ ने अपनी सेना धारपुर आदि स्थानों को लूटने के लिये भेजी। मानसिंह जी ने अपने पुत्र जगत सिंह जी को सेना सहित कतलू खां पर भेजा। पहले तो अफगान परास्त होकर दुर्ग में जा बेठे और सन्धि का प्रस्ताव करने लगे, पर तुरन्त ही नई अफगान सेना के आ जाने के कारण उन्होंने रात्रि में मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया। जगत सिंह जी कैद कर लिये गये। पर इसी समय कतलू खाँ की मृत्यु हो गई। अफगान सरदार ख्वाज़ा इसा खां ने जगत सिंह जी को मुक्त करके उन्हीं से सन्धि की प्रार्थना की। राजा मानसिंह जी ने कतलू खां के पुत्रों को उनके पिता का राज्य दे दिया। राजा साहब के सदय व्यवहार से कृतज्ञ होकर अफगानों ने पवित्र तीर्थ जगन्नाथपुरी को उन्हें सौंप दिया।
इस सन्धि के दी वर्ष उपरान्त इसा खाँ की मृत्यु हो गई। नये अफगान सरदारों में मुगल सेना से युद्ध करने की इच्छा प्रबल हो उठी। उन्होंने जगन्नाथपुरी लूट ली और बादशाह के राज्य में उप द्रव मचाना शुरू किया। इस अत्याचार का विरोध करने के लिये राजा मानसिंह जी सेना सहित चढ़ दौड़े। एक ही युद्ध में आपने अफगानों को पूर्णतया परास्त कर दिया और सारे उड़ीसा पर अपना अधिकार कर लिया। पराजित अफगानों ने भाग कर कटक के राजा रामचन्द्र के प्रसिद्ध दुर्ग सारंगगढ़़ में आश्रय लिया। राजा मानसिंह जी की शक्ति से चौंथिया कर राजा रामचन्द्र ने आत्मसमर्पण कर दिया। उड़ीसा मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। कूच विहार के राजा लक्ष्मीनारायण ने मुगल स्वाधीनता स्वीकार्यथ राजा मानसिंह जी से भेंट की। इस कारण उसके आत्मीय दूसरे नरेशों ने चिढ़कर उस पर चढ़ाई कर दी। लक्ष्मीनारायण ने राजा मानसिंह जी से सहायता माँगी। मानसिंह जी ने सहायता पहुँचा कर वहाँ शान्ति स्थापित करवा दी। इस उपकार के बदले में राजा लक्ष्मीनारायण ने अपनी बहिन का विवाह राजा मानसिंह जी के साथ कर दिया। कुछ ही समय बाद कूच विहार में पुनः झगड़ा उत्पन्न हुआ। इस बार भी हिजाज खाँ नामक सेनापति को भेजकर मानसिंह जी ने शान्ति स्थापित करवा दी।
सन् 1598 में जब बादशाह ने दक्षिण जाने की तैयारी की तब
मेवाड़ पर सेना भेजने की इच्छा से राजा मानसिंह जी को बंगाल से बुला लिया। मानसिंह जी के स्थान पर उनके ज्येष्ठ पुत्र जगतसिंह जी नियुक्त किये गये। पर आगरा पहुँचते ही जगत सिंह जी की मृत्यु हो गई अतएव उनके पुत्र मोहन सिंह जी उनके स्थान पर नियुक्त कर दिये गये। सन् 1602 में मानसिंह जी रोहतासगढ़़ पहुँचे। यहां पर शरीफाबाद सरकार के अन्तर्गत शेरपुर नामक स्थान के पास आपने अफगानों को पूर्ण पराजय दी। आपने सेना भेजकर अफगानों के आधिनस्त नगरों पर अधिकार कर लिया। बचे बचाये अफ़गान उड़ीसा के दक्षिण में भाग गये। आमेर के राजा मानसिंह जी ढाका पहुँच कर सूबेदारी करने लगे। सुल्तान सलीम के स्वभाव में कुछ विद्रोह के भाव प्रकट हो चुके थे। विद्रोही पुत्र के पास के प्रान्त में मानसिंह जी का रहना अकबर को अच्छा न लगता था। उसने तुर्किस्तान पर हमला करने के कार्य में मंत्रणा लेने के बहाने मानसिंह जी को आगरा बुला लिया। अकबर ने उनकी योग्यता से प्रसन्न होकर उन्हें सात हज़ारी सवार का मन्सब प्रदान किया। इसके पहले किसी हिन्दू या मुसलमान सरदार को ऐसा सम्मान सूचक मन्सब प्राप्त नहीं हुआ था। कुछ दिन दरबार में रहकर मानसिंह जी बंगाल लौट गये। वहां सन् 1604 तक आपने न्यायपरता और नीति कुशलता के साथ शासन किया। इसी बीच उसमान ने फिर विद्रोह कर ब्रह्मपुत्र नदी पार की। शाही थानेदार बाजबहादुर ने उसे रोकना चाहा, पर न रोक सका। राजा मानसिंह जी यह सुनते ही रातों रात कूचकर वहां पहुँचे और शत्रु को परास्त कर भगा दिया। बाजबहादुर को फिर नियुक्त करके आप ढाका लौट आये। जब उसने नदी पार कर अफगानों के राज्य पर अधिकार करने का विचार किया तब अफगानों ने तोप आदि से रास्ता रोका। मानसिंह जी ने सहायतार्थ चुनी हुई सेना भेजी पर जब शाही सेना फिर भी नदी पार न कर सकी तब ये स्वयं गये और हाथी पर सवार हो नदी पार करने लगे।अफ़गान यह साहस देखकर भागे और मानसिंह जी सारीपुर तथा विक्रमपुर विजय कर लौट आये।
सन् 1605 में जहांगीर बादशाह हुए। इन्होंने राजा मानसिंह जी को
द्वितीय बार बंगाल के सूबेदार बनाये। परन्तु एक वर्ष भी नहीं होने पाया था कि वे वापस बुला लिये गये। बंगाल से लौटने पर मानसिंह जी ने रोहतासगढ़ के विद्रोह का दमन किया। सन् 1608 में आपने स्वदेश जाने की छुट्टी मांगी। छुट्टी मिल जाने पर आपने कुछ दिन अपने राज्य में जाकर शान्ति सुख भोग किया। खाँनजहां आदि बादशाही सरदार दक्षिण में अपनी वीरता का परिचय दे रहे थे, पर उससे कुछ लाभ नहीं हो रहा था। यह, देख जहांगीर ने नवाब अबुर रहीम खानखाना और राजा मानसिंह जी को दक्षिण भेजा। यहां पर सन् 1614 में मानसिंह जी ने संसार त्याग किया। जहांगीर लिखता है कि “ यद्यपि मानसिंह के सब से बड़े पुत्र जगतसिंह का पुत्र मोहनसिंह राज्य का वास्तविक अधिकारी था तथापि मैंने उस बात का विचार न कर के मानसिंह के पुत्र भाऊसिंह को, जिसने मेरी शाहज़ादगी में बड़ी सेवा की थी, मिर्जाराजा की पदवी और चार हज़ारी सवार का मन्सब देकर जयपुर का राजा बनाया। राजा मानसिंह जी बड़े मिलनसार और अच्छे स्वभाव के पुरुष थे। बातचीत में भी आप कुशल थे। आप प्रसिद्ध दानी भी थे। आपने एक लाख गायों का दान दिया था। आपके दान पर हरनाथ कवि ने यह दोहा कहा है:—
बलि बोह कीरति लता, कर्ण कियो द्वैपात ।
सींच्यों मान महीप ने, जब देखी कुम्हलात ॥
इस दोहे पर राजा मानसिंह जी ने उन्हें हाथी खिलअत आदि बहुत कुछ इनाम दिया था। मानसिंह जी स्वयं कवि थे और कवियों का मान करते थे। आपने कवियों द्वारा “मान चरित्र” नामक एक ग्रंथ बनवाया है जिसमें आपके जीवन का विवरण दिया गया है। राजा मानसिंह जी कई बार काशी में आये ओर प्रत्येक बार एक एक कीर्ति स्थापित कर गये। इन में मान मंदिर और मान सरोवर घाट आदि प्रसिद्ध हैं। सन् 1590 में महाराजा मानसिंह जी ने वृन्दावन में गोविन्देव का विशाल मन्दिर बनवाया और गिरिराज के पास
मानसी गंगा के घाटों और सीढ़ियों का निर्माण भी कराया था।
मानसिंह जी उत्तर देने में भी बड़े पटु थे। आपका रंग सांवला और
और शरीर बड़ा बेडौल था। जब आप प्रथम बार दरबार में आये तब बादशाह ने हँसी में आपसे पूछा कि “जिस समय खुदा के यहां रुप-रंग बंट रहा था उस समय तुम कहां थे !” मानसिंह जी ने उत्तर दिया कि मैं उस समय वहां नहीं था, पर जिस समय वीरता और दान शीलता बँटने लगी, तब मैं आ पहुँचा और उसके बदले में इसी को मांग लिया।
हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—