राजस्थान की राजधानी और गुलाबी नगरी जयपुर के चांदनी चौक के उत्तरी-पश्चिमी कोने मे रसोवडा की ड्योढी से ही महाराजा रामसिंह द्वितीय द्वारा निर्मित राजराजेश्वरी माता मंदिर मे जाने का खुर्रा है। श्री राजराजेश्वरी मंदिर जयपुर का प्रसिद्ध और प्रमुख मंदिर है। महाराज रामसिंह शिव-भक्त थे और वे नित्य शंकर जी का पूजन और दर्शन करते थे।
राजराजेश्वरी मंदिर जयपुर
महाराजा के लिये प्रतिदिन चौडा रास्ता स्थित विश्वेश्वर शिव मंदिर मे जाना शक्य नही था। अत उन्होंने जनानी और मर्दानी ड्योढियों के बीच अपने कमरे के पास ही सवत् 1921 में माता राजराजेश्वरी मंदिर बनवाया था। मंदिर क्या है, एक छोटा सा मकान है जिसमे शमशान-वासी शिव राजमहलो के बीच ही अचल हो गये हैं। किन्तु, राजराजेश्वर का सेवा-श्रृंगार तथा नाम तथा गुण है, एकदम राजसी। महाराजा रामसिंह के समय के कुछ दीर्घाकार सुनहरी कलम के चित्र भी राजराजेश्वरी मंदिर की शोभा बढाते हैं।
राजराजेश्वरी मंदिर जयपुरवैसे राजराजेश्वरी मंदिर जनता के लिये आज भी खुला नही है, केवल शिवरात्रि और अन्नकूट को ही इसका द्वार जनता के लिये खोला जाता है। रामसिंह स्वयं तो इस मंदिर मे प्रतिदिन दर्शन करता ही था, उसके समय मे जयपुर आने वाले बडे-बडे मेहमान भी इस मंदिर मे जाकर भेट चढाना नही भूलते महाराज रामसिंह के एक समकालीन कवि राधावल्लभ ने शायद राजराजेश्वरी मंदिर के निर्माण एवं पाटोत्सव पर ही यह छंद कहा था:–
झरत गग धमकत मृदग झुल्लत भूजग गल।
गरल सग लोचन सुरग, मोचन अनग खल।।
दमक अग दिवखत अभग चकक््खत सुभग फल।
डमरु चग बीना मृदग बज्जत उमग तल।।
वल्लभ” विरचि नित उच्चरत छन्द वृन्द आनन्द धर।
पावन पत्थ तुव गत्थ को, जयाति राज-राजेसुवर।।
महाराजा माधोसिंह के समय के प्रसिद्ध कविवर और जयपुर की “कवि मण्डल” संस्था के जन्मदाता गौरी लाल के पिता मन्नालाल कान्यकुब्ज ने भी राजराजेश्वरी मंदिर की महिमा इस प्रकार बताई है:–
सीस पर गग सोहे, भाल बिच चन्द सोहे
गरे मे गरल सोहे, पन्नग सुहाये है।
अंग में विभूति सोहे, गौरी अरधग सोहे
भूत प्रेत संग सोहे, मन्न कवि गाये है।।
देव ओ अदेव सोहे वर सब लैन-लैन सोहे
मांगत ही देत दान ऐसे शिव पाये हैं।
क्रम सवाई जयसिंह जू के नन्दन के
राजेश्वरनाथ निसिद्योसक सहाये हैं।।
इस शिव मंदिर मे एक ‘राजराजेश्वरी यंत्र’ भी है। इसकी पूजा के लिये महाराजा ने पण्डित नाथ नारायण को नियुक्त किया था। नाथ नारायण सवाई जय सिंह के समय के विद्वान पण्डित घासीराम का वंशज था। उसकी एक सुन्दर संस्कत कृति “गायत्री कल्पलता” की पाण्डुलिपि बहराजी ने देखी है और उसके कुछ
श्लोक भी उद्धृत किये हैं।
राजराजेश्वर जी का मंदिर उस धर्मसभा के कारण भी जयपुर मे बहुत विख्यात है जिसे महाराजा रामसिंह ने “मोद मंदिर” के नाम से स्थापित किया था। जयपुर वाले इसे ”मौज मंदिर” बोलते है। बहराजी के अनुसार इस धर्मसभा का इतिहास पुराना है। मिर्जा राजा जयसिंह ने आमेर मे एक पण्डित सभा स्थापित की थी जिसमें धर्मशास्त्र के उच्च कोटि के विद्वान सदस्य थे। धर्म शास्त्रीय विवादी मे इस पण्डित सभा का निर्णय देश भर मे मान्य होता था। जब छत्रपति शिवाजी के राज्यारोहण का विचार हो रहा था तो आमेर की पण्डित सभा की सम्मति भी मांगी गई थी और सभा ने कहा था कि पहले यज्ञोपवीत संस्कार हुए बिना राज्यारोहण नही हो सकता। तदनुसार शिवाजी का लगभग 44 वर्ष की आयु मे ‘मौन्जी संस्कार” किया गया था।
यही पण्डित सभा रामसिंह द्वितीय के समय मे मोद मंदिर बनी और आज भी यह नाम के लिये तो चल ही रही है। जयपुर मे रामसिंह ने ही अदालतें स्थापित की थी और मोद मंदिर का महत्व भी बहुत बढ गया था।हर अदालत मे एक पण्डित अथवा धर्म शास्त्री की भी गद्दी होती थी और धर्मशास्त्र सम्बन्धी मामलो मे न्यायाधीश उसकी राय अवश्य लेते थे। मोद मंदिर की पूरी सभा राजराजेश्वरी जी के मंदिर मे ही होती थी। अब तो जमाना जहा आ गया है, उसमे मोद मंदिर की पूछ ही क्या रह गईं है।
हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—-