मोहम्मद गौरी का जन्म सन् 1149 ईसवीं को ग़ोर अफगानिस्तान में हुआ था। मोहम्मद गौरी का पूरा नाम शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी था। मोहम्मद गौरी सन् 1173 में ग़ोर का शासक बना। मोहम्मद गौरी ने अपने जीवनकाल में कई बार भारत पर आक्रमण किये। मोहम्मद गौरी के भारत में किए गए आक्रमणों में सबसे प्रसिद्ध तराइन का प्रथम युद्ध और तराइन का दूसरा युद्ध है जिसमें पृथ्वीराज चौहान के साथ भीषण संग्राम हुआ, और अंत में पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु हुई। इनका जिक्र हम अपने पिछले लेखों में कर चुके हैं। मोहम्मद गौरी एक शूरवीर था। उसने अपना सम्पूर्ण जीवन युद्ध में वीरता दिखाते हुए काट दिया। अंत में उसे लौटे से मौत के घाट उतार दिया गया। अपने इस लेख में हम यही जानेंगे की मोहम्मद गौरी की मृत्यु कब हुई थी, मोहम्मद गौरी को किसने मारा था? मोहम्मद गौरी की मृत्यु किसने की, मोहम्मद गौरी की मृत्यु कब और कैसे हुई? मोहम्मद गौरी की मृत्यु कहां हुई।
तराइन के दूसरे युद्ध के बाद मोहम्मद गौरी का अजमेर पर आक्रमण
तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को पराजित करके मोहम्मद गौरी की सेना ने अपने शिविर में लौटकर विश्राम किया और अपनी इस विजय की खुशी में उसने अनेक प्रकार की खुशियाँ मनायीं। उसके कई दिनों के बाद तुर्क सेना ने अजमेर में जाकर हमला किया। अब उसे किसी भारतीय राजा से आशंका न रह गयी थी। पृथ्वीराज चौहान की तरह दूसरा कोई राजा शक्तिशाली और स्वाभिमानवी था भी नहीं।
अजमेर को जीतने में मोहम्मद गोरी को अधिक देरी नहीं लगी।
उसके पतन के बाद ही तुर्क सेना वहाँ के वैभवशाली और सम्पन्न नगर को लूटना आरम्भ किया और बड़ी निर्दयता के साथ लुट-मार करने के बाद, तुर्क सेना ने अजमेर नगर में आग लगा दी और होली की तरह वह कितने ही दिनों तक जलता रहा।
अजमेर का विध्वंस और विनाश करने के बाद तुर्क सेना पुष्कर
की और रवाना हुईं और वहाँ पहुँच कर उसने वहाँ के प्रसिद्ध और
पवित्र मन्दिरों को लूटा। सोना, चाँदी और बहुमूल्य जावहारातो के रुप में वहाँ की सम्पति को लुटकर बाकी बचे हुये मन्दिरों को गिरा कर मिटी में मिला दिया गया।
पुष्कर से लौटकर गौरी की सेना ने झांसी, कोहराम, थानेश्वर
और दूसरे किलों पर अपना कब्जा कर लिया। उन किलों पर उसने अपनी सेनायें रखीं और गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को मोहम्मद गौरी ने दिल्ली के शासन का अधिकार सौंपा। कुछ दिनों तक वहाँ पर उसकी सेना ने विश्राम किया और इसके बाद, इस बार की यात्रा में लूटी हुई सम्पूर्ण सम्पति अपने साथ सुरक्षित लेकर वह ग़जनी लौट गया।
गज़नी में जाकर मोहम्मद गौरी ने करीब-करीब दो वर्ष तक
अपनी सेना के साथ विश्वाम किया और भारत में होने वाली अपनी
विजय की खुशियाँ मनाई। इसके बाद उसने फिर इस देश में चढ़ाई करने का इरादा किया और जिस कन्नौज के राजा जयचन्द ने भारत में आकर पृथ्वीराज पर आक्रमण करने का उसे परामर्श दिया था, उस पर हमला करने, उसके राज्य को लूटने और अपने अधिकार में कर लेने का निर्णय किया। इस आधार पर उसने फिर अपनी सेना को तैयार किया और गज़नी से रवाना होकर वह भारत में आया। सन् 1194 ईसवीं में उसने अपनी शक्तिशाली सेना को लेकर कन्नौज पर श्राक्रमण किया। जयचन्द ने अपनी सेना को लेकर उसका मुकाबिला किया। अपनी निर्बलता को वह स्वयं जानता था और उसकी सहायता करने वाला भी कोई न था जो मोहम्मद गौरी की इस विशाल सेना का मुकाबला कर सकता था, और अब वह पृथ्वीराज चौहान भी नहीं था, जिसने एक बार मोहम्मद गौरी को तराइन के पहले युद्ध में भीषण पराजय देकर मरणासन्न अवस्था में भारत से भागने के लिये विवश किया था, वह वीर पृथ्वीराज चौहान, जयचन्द के देशद्रोह के ही कारण आज संसार में न था। आज जयचन्द की सहायया कौन करता। जिन छोटे-छोटे राजाओं और नरेशों से जयचन्द का कन्नौज राज्य घिरा हुआ था, वे स्वयं तुर्के सेना के हमलों से घबरा रहे थे और अपनी सुरक्षा के लिए भगवान से प्रार्थना कर रहे थे। जयचन्द की सहायता कौन करता।
कन्नौज के राजा जयचन्द को पराजित करके महोम्मद गौरी की तुर्क सेना ने कन्नौज राज्य और उसके नगर को भली प्रकारों से लूटा। राज्य का खजाना और उसकी बहूमुल्य सम्पत्ति अपने कब्जे में कर के उसने राज्य का विध्वंस किया। इसके बाद उसने वहाँ की लूटी हुई सम्पत्ति को दस हजार ऊँटों पर लाद कर फिर गज़नी चला गया।

मोहम्मद गौरी की मृत्यु कब और कैसे हुई थी
पृथ्वीराज को परास्त करने के बाद, भारत के आक्रमणों में मोहम्मद गौरी को भयभीत होने का कोई कारण न रह गया था। इस देश के कितने ही किलों में मुस्लिम सेनायें पड़ी थीं और दिल्ली के एक विस्तृत राज्य का शासन गौरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक के अधिकार में दे दिया था। अब तो मोहम्मद गौरी का एक सीधा-सा काम यह था कि वह अपनी एक सेना के साथ गजनी से रवाना होता और भारत में पहुंच कर लूट धन एकत्रित करता और उसे लाद कर वह अपने साथ गज़नी ले जाता। उसने एक बार नहीं अनेक बार ऐसा ही किया और प्रत्येक बार वह जितना धन भारत से अपने साथ गजनी ले जा सकता, ले जाता।
इन्हीं दिनों में मुस्लिम शासन के विरुद्ध भारत के गक्कर लोगों ने
विप्लव किया। भारत में फैलने वाले मुस्लिम शासन के अत्याचारों से ऊब कर उन लोगों ने संगठित होकर तुर्कों के साथ युद्ध करने का निश्चय किया। उन दिनों में मुलतान और उसके आस पास गक्कर लोगों की घनी आबादी थीं। तुर्को के विरुद्ध क्रान्ति और युद्ध करने के लिए स्थान स्थान पर उन लोगों की सलाहें होने लगीं। साहस और सावाधानी के साथ उन लोगों ने स्वतंत्रता की आवाजें उठायी।
थोड़े दिनों में ही स्वतंत्रता की लहरे मुलतान और उसके आस पास
दूर तक गक्करों में फैल गई गयी। प्रत्येक गक्कर स्वतंत्रता के इस युद्ध के लिए अपनी तैयारी करने लगा और यह विप्लव उन दिलों में गक्कर विप्लव के नाम से प्रकट हुआ। संगठित होकर गक्करों ने अपने बीच में राजा का निर्वाचन किया और निर्वाचित नरेशों के नेतृत्व में उन्होंने कार्य करना आरम्भ किया।
इन दिनों में मोहम्मद गौरी की शक्तियां मध्य एशिया के विरोधी
देशों की ओर लग रही थीं। यह अवसर देख कर तेजी के साथ गक्कर लोग संगठित हुए और एक बड़ी संख्या में शत्रों से सुसज्जित होकर वे लाहौर की तरफ रवाना हुए। वहाँ के मुसलमानों पर जा कर उन्होंने हमला किया। एक तरफ से वहाँ के मुसलमानों का कत्ल किया गया और लाहौर के किले में तेजी के साथ गक्कर सेना ने पहुँच कर तुर्क सेना को घेर लिया। कुछ समय तक उस किले में तुर्की सेना ने युद्ध किया अन्त में उसकी पराजय हुई और गक्कर सेना ने तुर्के सेना को काटकर खत्म कर दिया। इसके बाद, गक्कर सेना के सैनिकों ने स्वतंत्रत रूप से घूमना शुरू कर दिया और जहाँ कहीं कोई मुसलमान मिलता, उसको वे जान से मार डालते। कुछ ही समय के बाद, सिन्ध और सतलुज नदियों के बीच मुसलमानों का नाम मिट गया।
गक्कर के इस विप्लत का समाचार मध्य एशिया के किसी स्थान में मोहम्मद गौरी को मिला और सुना कि मुलतान में गक्कर जाति के लोगों ने संगठित होकर सतलुज से ले कर सिन्धु नदी तक मुसलमानों का नाश किया है। मोहम्मद गौरी अपनी सेना ले कर वहाँ से लौट पड़ा और भारत की तरफ रवाना हुआ। कुतुबुद्दीन ऐबक ने भी यह समाचार पाते ही अपनी सेना के साथ रवाना होकर गक्करों पर हमला किया और उसी मौके पर गौरी भी अपनी सेना ले कर वहाँ आ गया।
एक और गक्करों की संगठित सेना थी दूसरी ओर मोहम्मद गौरी की विशाल और शक्तिशाली सेना के साथ कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना भी थी। इस अपार मुस्लिम सेनाओं के सामने गक्कर सैनिकों की संख्या कुछ भी न थी। फिर भी बहादुर गक्करों ने स्थान-स्थान पर जमकर युद्ध किया। तुर्क सवारों की तलवारों से हजारों गक्कर जान से मारे गये और उनके खून की स्थान-स्थान पर नालियाँ बहीं। लेकिन गक्करों ने पराजय स्वीकार नहीं की। उन लोगों ने निश्चय कर लिया कि जब तक गक्कर जाति का एक आदमी भी बाकी रहेगा, युद्ध बराबर जारी रहेगा।
स्वाधीनता के लिए बलिदान होने वाले गक्करों का युद्ध उस विशाल तुर्क सेना के साथ आखिरकार कब तक चल सकता था। गक्करों की संख्या लगातार कम होती गयी और युद्ध में गक्कर कमजोर पड़ते गये। बहुत थोड़ी संख्या में रह जाने के बाद गक्कर युद्ध से भागे और मोहम्मद गौरी की विजय हुई। गक्करों को चारों तरफ पराजित कर के और उन्हें भगा कर मोहम्मद गौरी ने अपनी सेना के साथ लौट कर सिन्धु नदी को पार किया और दूसरी तरफ जाकर, नदी के किनारे से कुछ ही फासले पर सन् 1206 ईसवीं के गर्मी के दिनों में उसने मुकाम किया। बहुत दिनों की लगातार यात्रा और युद्ध के कारण तुर्क सेना थक गयी थी।
गर्मी की रात थी, महीनों की यात्रा और युद्ध की थकावट थी।
रात को ठंडी हवा के चलते ही गौरी की सेना गहरी नीद में आ गयी। ठीक आधी रात को एक गक्करों का लम्बा गिरोह सिन्धु नदी के पानी में उतरा और उसके गहरे जल को पार कर दूसरी तरफ निकल गया। बाहर एक ऊँचाई पर खड़े होकर उस गिरोह के लोगों ने तुर्क सेना के मुकाम की ओर देखा। रात को तेज और शीतल वायु में उन्हें तुर्क सेना गहरी नींद में सोती हुई मालुम हुईं।
उस गिरोह के आदमियों ने अपने स्थान पर क्षण-भर खड़े रह कर
कुछ सोचा। वे नंगे बदन थे और अपने हाथों में तेज भाले और तलवारों को लिए हुए थे। उन आदमियों ने अपने स्थान से धीरे धीरे चलता शुरू किया। वे बड़ी सावधानी के साथ तुर्क सेना की ओर रवाना हुए। उन सभी आदमियों के सामने कुछ फासलें पर एक मजबूत और ऊंचा आदमी चल रहा था। जो तुर्क सैनिक पहरे पर थे, वे भी शिथिल और निद्रिंत हो रहे थे । निद्राभिभूत तुर्क सेना पर एक साथ वे सभी लोग बिजली की तरह टूट पड़े और सब से पहले पहरे पर जो तुर्क मिले, उनको काट कर फेंक दिया। सोये हुए तुर्क सैनिकों के बीच में लेटे हुए मोहम्मद गौरी के निकट पाँच गक्कर पहुँच गये, मोहम्मद गौरी के ऊपर दो तातारी पंखा कर रहे थे और अधनिद्रिंत अवस्था में कूल रहे थे। पाँचों गक्करों ने एक साथ मोहम्मद गौरी पर आक्रमण किया और उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। और इस तरह मोहम्मद गौरी की मृत्यु हो गई। बात की बात में बहुत से तुर्क सवार लेटे हुए मारे गये।
उसके बाद जागते ही जो तुर्क उठ कर अपनी तलवार को इधर-उधर देखना शुरू करता, उसी समय वह तलवार के घाट उतार दिया जाता। तुर्क सैनिकों के सम्हलते-सम्हलते गक्करों ने उनको एक बड़ी संख्या में काट कर फेंक दिया। इसके बाद आक्रमणकारी वहाँ से तेजी के साथ भागे और रात के अन्धकार में बड़ी सावधानी के साथ नदी के पानी में उतर कर, तेजी से तैराते हुए वे दूसरी तरफ निकल गये।
कुछ तुर्क सवारों ने मोहम्मद गौरी के निकट जा कर देखा। उसके
शरीर के बहुत से टुकड़े हो गये थे और इस प्रकार 15 मार्च सन् 1206 में मोहम्मद गौरी की मृत्यु हो चुके थी। आक्रमणकारी और कोई न थे, स्वतन्त्रता पर बलिदान होने वाले गक्करों का एक गिरोह था, जिसने इस प्रकार साहस करके मोहम्मद गौरी को मृत्युलोक में भेज दिया, जहाँ से लौटकर वह फिर कभी न आये।
सन् 1206 ईसवी में मोहम्मद गौरी अपने अन्यायों और अत्याचारों का अत्यन्त भारी बोझ सिर पर लाद कर संसार से बिदा हो गया। दिल्ली के राज्य का अधिकारी गौरी का अत्यन्त विश्वास पात्र कुतुबुद्दीन ऐबक भी अधिक दिनों तक जीवित न रहा। मोहम्मद गौरी की मृत्यु के चार वर्ष बाद, सन् 1210 ईसवी में उसकी भी मृत्यु हो गयी। बहुत छोटी अवस्था में वह तुर्किस्तान के गुलामों के बाजार से खरीद कर खुरासान लाया गया था। वहीं पर उसका पालन-पोषण हुआ और कुछ शिक्षा भी दी गयी। इसके बाद जब वह बड़ा हुआ तो बेचने के उद्देश्य से वह व्यापारियों के एक काफिले के साथ गज़नी भेजा गया था। मोहम्मद गौरी ने वहां के बाजार में उसे खरीद कर अपने यहाँ रख लिया और अपनी सेना में उसे भर्ती कर लिया। इसके बाद एक अत्यन्त शूरवीर सैनिक की हैसियत से उसने गौरी की सेना में काम किया। थोड़े ही दिनों में अपनी वीरता के कारण वह गौरी की सेना का एक प्रसिद्ध सेनापति हुआ और अन्त में दिल्ली के प्रसिद्ध राज्य का वह शासक बनाया गया।
मोहम्मद गौरी और कुतुबुद्दीन ऐबक दोनों के जीवन का गहरा
सम्पर्क रहा । गौरी के हमलों में उसकी सफलता का श्रेय कुतुबुद्दीन ऐबक को था और कुतुबुद्दीन को गुलामी से उठाकर सेनापति और शासक बनाने का श्रेय यह मोहम्मद गौरी को मिला। दोनों के जीवन का एक साथ उत्थान हुआ और एक साथ अन्त हुआ।
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