मैसूर राज्य का इतिहास – History kingdom of Mysore Naeem Ahmad, November 7, 2022March 28, 2024 भारतवर्ष के देशी राज्यों में मैसूर राज्य अत्यन्त प्रगतिशील समझा जाता है। यहाँ के सुशिक्षित और प्रजा-प्रिय नरेश की कृपा से मैसूर का शासन आदर्श और दिव्य हो गया था। वह यूरोप के किसी सभ्य देश के शासन से टक्कर ले सकता था। प्रजा के अन्तःकरण को ज्ञान के प्रकाश से आलौकित करने के लिये शासन कार्य में उसे योग्य अधिकार देकर उसमें नागरिकत्व और मनुष्यत्व के भावों का संचार करने के लिये विविध प्रकार के उद्योग धंधों का विकास कर प्रजा की आर्थिक दशा सुधारने के लिये मैसूर रियासत ने जो दिव्य कार्य किये हैं वे भारतीय राजाओं के लिये आदर्श रूप हैं। मैसूर ने अपने आदर्श-शासन से संसार को यह दिखला दिया है कि भारतवासी उपयुक्त अवसर मिलने पर उत्तम से उत्तम शासन-पद्धति का अविष्कार एवं विकास कर सकते हैं। मैसूर राज्य एक इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस पर भारतवासी योग्य अभिमान कर सकते हैं। अब हम मैसूर राज्य का इतिहास एवं उसकी शासन-पद्धति पर कुछ प्रकाश डालना चाहते हैं। मैसूर राज्य का इतिहास – History kingdom of Mysore मैसूर राज्य का प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवशाली और मनोरंजक है। जिस भूमि पर आजकल मैसूर राज्य स्थित है, उसका वर्णन रामायण और महाभारत में भी कई जगह आया है। ऐतिहासिक युग में मैसूर का प्राचीन इतिहास मौर्य साम्राज्य से शुरू होता है। प्राचीन जैन ग्रंथों से और विविध शिलालेखों से यह प्रतीत होता है कि भारतीय ऐतिहासिक युग के सर्व प्रथम महाप्रतापी सम्राट चन्द्रगुप्त की अंतिम अवस्था मैसूर प्रान्त में स्थित श्रवण बेलगोला में व्यतीत हुईं थी। श्रवण बेलगोला के शिलालेखों में महाराजा चन्द्र गुप्त और उनके जैन गुरू भद्रबाहू स्वामी का बहुत कुछ उल्लेख है। सुप्रख्यात बौद्ध सूत्र महावंश से पता चलता है कि संसार में भगवान बुद्धदेव का दया और अहिंसा का दिव्य संदेश फेलाने वाले अमर-कीर्ति सम्राट अशोक ने अपने कुछ धर्म प्रचारकों को बौद्ध-धर्म फेलाने के लिये महीश मण्डल ( मैसूर ) भेजा था। सम्राट अशोक के शिलालेखों से यह प्रतीत होता है कि इसवी सन् के पूर्व की तीसरी सदी में इस प्रान्त का अधिकांश प्रतापी मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत था। इसके पश्चात् इसवी सन् के पूर्व की दूसरी सदी से लगाकर ईसवी सन् की तीसरी सदी के प्रारंभिक काल तक इस प्रान्त पर आंध्र था शतवाहन राज्य की विजय-ध्वजा उड़ रही थी।याओसांग त्योहार क्यों और किस राज्य मनाया जाता हैतीसरी सदी के मध्य और अन्तिम काल में इस प्रांत पर भिन्न भिन्न तीन राजवंशों के राज्य थे। इसके उत्तरीय पश्चिमीय हिस्से पर कदंब राज्य-वंश राज्य करता था। और पूर्वीय और उत्तरी हिस्से पर क्रम से पल्लव ओर गंगा राज्य वंश का झंडा फहराता था। कदंब वंश स्वदेशी था। उसकी राजधानी बाणाबसी थी, जो इस वक्त मैसूर की सीमा से कुछ ही दूर है। सातवीं सदी के प्रारंभिक काल में इस राज्य-वंश का अन्त हो गया और इसके स्थान पर महा प्रतापी चालुक्य राज्य-वंश का सितारा चमकने लगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह राज्य वंश भारत के अत्यन्त गौरवशाली राज्य वंशों में से है और भारतवर्ष के इतिहास में इसका विशेष स्थान है। प्रायः सारे दक्षिण भारत पर इसकी विजय ध्वजा उड़ती थी। इसने तीसरी सदी से लगाकर बारहवीं सदी तक अपना अस्तित्व कायम रखा। हां, इस अर्से में इन्हें अपने पड़ोसी राजा पल्लवों के साथ कई युद्ध करने पड़े थे। इनमें कभी इनकी विजय होती थी तो कभी पल्लवों की। आठवीं सदी में इनका सितारा फीका पड गया ओर दक्षिण हिन्दुस्तान में राष्ट्रकूटों के प्रबल पराक्रम की विजय दुंदुभी बजने लगी। न केवल दक्षिण हिन्दुस्तान में वरन ठेंठ चीन की ख्रीमा तक राष्ट्रकूट साम्राज्य का झगडा बढने लगा। नौवीं सदी के कई अरब प्रवासियों ने राष्ट्र कूटों के प्रबल प्रताप ओर उनके गौरवशाली उल्लेख किये हैं। हमने जोधपुर के इतिहास में इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। ईसवी सन 772 में चालुक्य वंश ने अपना खोया हुआ राज्य फिर से प्राप्त किया। इस समय उनका गौरव और प्रताप फिर से चमकने लगा। इन्होंने नये युग में प्रवेश कर अपने महान कार्यों से भारतवर्ष के इतिहास को प्रकाशमान किया। इस समय से लगाकर दो सौ वर्षों तक इनका प्रताप ज्यों का त्यों बना रहा। पल्लव लोग, जो इस समय मैसूर राज्य के पूर्वीय और उत्तरीय हिस्से के स्वामी थे क्रमश: अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे। उनकी राजधानी कंजीवरम थी। शिलालेखों से प्रतीत हुआ है कि नोवीं और दसवीं सदी में कोलर, बंगलोर, चितलद्गग ओर तमकूर जिलों पर इनका प्रभुत्व था। प्रतापी गंगा-वंश इसवी सन् के आरंभिक काल से दसवीं सदी तक मैसूर के एक बड़े हिस्से पर राज्य कर रहा था। गंगा राज्य-वंश जैन धर्मानुयायी था। उसकी राजधानी तलकाद थी। आठवीं सदी में इस राज्य-वंश में श्री पुरुष और नौवीं सदी में सत्यवाक्य नामक महा प्रतापशाली नृपति हुए। इनके समय राज्य उन्नति और समृद्धि के उच्चासन पर विराजमान था। इस समय इस प्रतापशाली राज्य वंश की गति-विधि बड़ी तेजी के साथ चहुँ ओर हुईं और इस राज्य वंश के एक राजा ने बढ़ते बढ़ते ठेठ दक्षिण में पंड्या वंश के नृपति वर्गुण पर विजय प्राप्त की। पर इस विजय का फल चिरस्थायी न रहा। क्योंकि इसके कुछ ही समय बाद राष्ट्रकूटों ने इन पर विजय प्राप्त कर इन्हें अपने आधीन कर लिया। गंगा वंशीय राजा सत्यवाक्य हो ने श्रवण बेलगोला की सुविशाल जैन मूर्ति की स्थापना की थी।चेदि कहां है – चेदि राज्य का इतिहासग्यारहवीं सदी में मैसूर प्रान्त में चोल नामक अति शक्तिशाली राजवंश का उदय हुआ। इस वंश में बड़े प्रतापशाली राजा हुए। चोल वंश अति प्राचीन राजवंश था। सम्राट अशोक के समय से इसके अस्तित्व का पता लगता है। ये तामिल देश के निवासी थे, पर दसवी सदी तक इनकी विशेष ख्याति नहीं हुई। इस वंश में रानु राजा सन् 984 से 1016 तक और उनके पौत्र राजेन्द्र चोल हुए। ये दोनों बड़े पराक्रमी हुए। इन्होंने सन् 1004 में गंगा वंशीय राजा को परास्त कर मैसूर राज्य के सारे दक्षिणी प्रान्त पर अधिकार कर लिया। इन्होंने अपने राज्य वंश का खूब विस्तार किया ओर एक समय सारे दक्षिणी हिन्दुस्तान पर इनकी विजय-ध्वजा उड़ने लगी। पर इनकी सत्ता अधिक दिन तक कायम न रही। इन्हें मैसूर प्रान्त के उत्तर पश्चिम में स्थित चालुक्य वंश से हमेशा लड़ना पड़ता था। इसका परिणाम यह हुआ कि इस समय कई छोटे राज्यों का उदय हुआ, जिनमें से कुछ ने चोल वंश का पक्ष ग्रहण किया और कुछ ने चालुक्य वंश का बाजू ली।इन छोटे छोटे राज्यों में होईसलास नामक एक स्वदेशी वंश का उदय हुआ। ग्यारहवीं सदी में इस वंश का सितारा खूब चमका। ये लोग मूलतः मंजराबाद प्रदेश के निवासी थे और द्वारसमुद्र इनकी राजधानी थी। पहले ये चालुक्यों के सामन्त थे। इनमें इसवी 1104 में विष्णुवर्धन नामक एक प्रतापी राजा हुआ। उसने इस राज्य-वंश को खूब चमकाया। उसने अपने राज्य की नींव मजबूत पाये पर रखी। इसने चोलों पर विजय प्राप्त कर गंगावदी और नोलंबावदी पर अधिकार कर लिया। सारा मैसूर राज्य उसके विजयी झंड़े के नीचे आ गया। इतना ही नहीं सलेस, कोयम्बटूर, बेलारी और धारबार जिले भी उसके विशाल राज्य में शामिल हो गये। विष्णुवर्धन के समय में रामानुजाचार्य हुए, जिन्होंने वशिष्टाद्वैत मत चलाया। विष्णुवर्धन के पौत्र वीरबल्लाल ने अपने राज्य का प्रताप और भी बढ़ाया और उसके समय में इस प्रतापी राज्य वंश का झंडा उत्तर में कृष्णा नदी तक फहराने लगा। उसके वंशज भी प्रतापी निकले और उन्होंने दक्षिण में त्रिचनापल्ली तक अपने राज्य का विस्तार किया। पर उदय के बाद अस्त और अस्त के बाद उदय होन का नेर्सगिक नियम इस प्रतापी राज्य-वंश पर भी लगा और चौहदवीं सदी के आरंभ में होइसलास राज्य पर मुसलमानों के हमले हुए और इस राज्य-वंश का अन्त हो गया। यह राज्यवंश बड़ा प्रतापी था और बेलुर आदि के सुविशाल और भव्य मन्दिर इस राज्य वंश के प्रताप का आज भी दिग्दर्शन करवा रहे हैं। इसके पश्चात् मैसूर राज्य का संबन्ध विजय नगर के साम्राज्य से हुआ। विजय नगर का साम्राज्य कितना शक्तिशाली हो गया था, इस पर विशेष लिखने की यहाँ आवश्यकता नहीं। एक तरह से सारे दक्षिण हिन्दुस्तान पर इसका प्रतापी झंडा उड़ने लगा था। प्रारंभ ही में जो देश इस साम्राज्य के विजयी झण्डे के नीचे आये उनमें मैसूर भी एक था। यद्यपि दक्षिण हिन्दुस्तान पर विजय नगर साम्राज्य का झंडा उड़ रहा था, पर वहां कई छोटे छोटे राज्य थे। जो उक्त साम्राज्य के आधीन थे ओर उसे खिराज देते थे। इनमें से कुछ राज्यों ने विजय नगर साम्राज्य के अन्त हो जाने के पहले ही स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। मैसूर के उत्तर काल का इतिहास इसी प्रकार के एक राज्य से सम्बन्ध रखता है। मैसूर राज्य मैसूर राज्य का यदुवंशी वंशमैसूर का राज-वंश यदुवंशीय क्षत्रिय है। विजयनगर साम्राज्य के प्रारंभिक काल में इस वंश के दो पुरुष दक्षिण में आये मैसूर से दक्षिण पूर्व की ओर कुछ मील की दूरी पर हडीनाड़ नामक ग्राम में इन्होंने अपना राज्य स्थापित किया। किस्मत ने इनका साथ दिया और सोलहवीं सदी में मैसूर के आस पास के प्रदेशों पर इनका झंडा उड़ने लगा। विजय नगर साम्राज्य की गिरती हुई अवस्था ने इनसे उत्थान को बड़ी सहायता पहुँचाई। तालीकोट के युद्ध के बाद तो इन्होंने उक्त साम्राज्य को खिराज देना भी बन्द कर दिया। इसवी सन् 1578 में राजा उड़ियार मैसूर के राज्य सिंहासन पर विराजे। आपका प्रताप भी खूब चमका। सन 1610 में आपने श्रीरंगपट्टम पर अधिकार कर लिया और दूर दूर तक अपना विजयी झंडा उड़ाया। इनके समय में मैसूर महत्वशाली राज्य गिना जाने लगा था। की छोटे छोटे राज्य इनके अधीन हो गए। कर्नल विक्स लिखते हैं :- राजा उडियार अपने प्रजा प्रेम के लिए विशेष विख्यात है। आपका आपके मातहतों के साथ कड़ा व्यवहार था और प्रजा के प्रति आप बड़े क्षमाशील थे।राजा कान्तिरव वाडियारराजा वाडियार के बाद राजा कान्तिरव मैसूर के राज्य सिंहासन पर विराजे। आप भी अपने पिता की तरह तेजस्वी और प्रतापी थे। युद्ध में वीरत्व प्रकट करने के लिए आपकी सविशेष ख्याति थी। आप बड़े बुद्धिमान थे। शारीरिक दृष्टि से आप बड़े सुदृढ़ थे। बीजापुर के मुसलमान जनरल दुल्लाखां ने जब श्रीरंगपटनम पर आक्रमण किया, तब आपने बड़ी ही बहादुरी के साथ उसका आक्रमण विफल कर दिया था। इस समय शत्रु की सेना का नाश कर दिया गया तथा उसका सामान तक लुट लिया गया था। राजा कान्तिरव ने अपने राज्य में टकसाल खोली थी, और अपने नाम के सोने के सिक्के ढलवाए थे। ये सिक्के इनकी मृत्यु के बाद तक चलते रहे थे। इन्होंने मागदी आम के राजा पर विजय प्राप्त की थी और उससे बहुत सा युद्ध कर वसूल लिया था।राजा चीकदेव वाडियारराजा कान्तिरव के बाद चीकदेव उडियार मैसूर राज्य के सिंहासन पर बैठे। इनके शासन काल में राज्य उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा। जिस समय आपने मैसूर राज्य मुकुट को धारण किया था उस समय भारत वर्ष में राज्य क्रांति हो रही थी। मराठा साम्राज्य का उदय हो रहा था। इसी समय दक्षिण हिन्दुस्तान के कर्नाटक आदि प्रदेश में मुग़ल और स्थानीय मुसलमानों में की तरह के झगड़े हो गए थे। राजा चीकदेव ने इस अवसर का लाभ उठाकर चारों ओर अपना राज्य फैलाना शुरू कर दिया। सन् 1687 में इन्होंने बैंगलोर पर अपना अधिकार कर लिया, त्रिचनापल्ली पर घेरा डाल दिया। आपने अपने राज्य का बहुत विस्तार किया। सुविशाल प्रदेश आपके झंडे के नीचे आ गया। इन्होंने अपने राज्य में पत्र व्यवहार की सुविधा के लिए डाकखाने की पद्धति आरंभ की। इन्होंने राज्य शासन में अनेक सुधार किए। तथा राज्य की आर्थिक स्थिति को भी उन्नति के उच्च शिखर पर पहुंचाया। जिन दिनों देश में सर्वव्यापी अशांति फैले रही थी। जब दक्षिण में राज्य सत्ता के लिए मराठों और मुगलों में भीषण संघर्ष हो रहा था। ऐसे समय में राज्य को शांतिमय उपायों से उन्नति के उच्च आसन पर पहुंचा देना उक्त राजा साहब जैसे प्रतिभा सम्पन्न पुरूषों का ही काम था। सन् 1704 में आपका देहान्त हो गया। मैसूर के इतिहास में आपका नाम बड़े गौरव से स्मरण किया जाता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि चीकदेव उडियार अपने पीछे एक विशाल राज्य, परिपूर्ण खजाना और शासन की एक उत्तम व्यवस्था छोड़कर गए थे।18वीं सदी में मैसूर राज्यइसके बाद ही उक्त मैसूर राज्य के गिरने के दिन आ गये। अठ्ठारहवीं सदी उक्त राज्यवंश के लिये बड़ी अशुभ निकली। भारतीय इतिहास के पाठक जानते हैं कि अठारहवीं सदी में क्रान्तिकारी युग प्रवृत्त हो रहा था। कर्नाटक में मुसलमानी ताकत जोर पकड़ रही थी। महाराष्ट्र लोग चारों ओर महाराष्ट्र साम्राज्य को पताका फहराने में लगे हुए थे । मुगल साम्राज्य पतनावस्था की ओर अभिमुख हो रहा था। मुगल सम्राट का एक सरदार निजाम उल-मुल्क दक्षिण में आकर अपना नया राज्य स्थापित करने की धुन में था। उन्होंने यहाँ आकर तत्कालीन भरावनगर ( वर्तमान हैदराबाद ) में निवास किया और अपनी कर्तबगारी से गोलकुन्डा के विनाश पाये हुए राज्य के आवशेष पर अपनी प्रबल सत्ता कायम की। कहने का मतलब यह है कि उस समय दक्षिण में राज्यसत्ता के लिये लालचियों में बड़ा ही प्रबल और खूनी संघर्ष हो रहा था। इसमें अंग्रेजों और फ्रेंचों ने भी हिस्सा लिया था। ऐसे संघर्ष-मय समय में अपनी राज्यसत्ता कायम रखने के लिये बड़े प्रबल आत्मा की आवश्यकता थी। दुःख के साथ कहना पड़ता है कि ऐसे कठिन समय में मैसूर की राज्यसत्ता बड़े ही कमजोर हाथ में थी। मैसूर के तत्कालीन महाराजा कृष्ण राजा उडियार उन सब गुणों से विहीन थे, जो एक राज्यकर्ता को सफल बनाने में सहायक होते हैं। इससे उनके कलालेवंश के दो मंत्रियों ने, जिन्हें उन्होंने राज्य का सर्वोधिकारी बनाया था, राज्य की अधिकांश सत्ता अपने हाथ में ले ली। राजा नाम मात्र के रह गये।मैसूर राज्य में नई शक्ति का उदयइसी समय हैदरअली के रूप में मैसूर में एक नयी शक्ति का उदय हुआ। मैसूर राज्य के पुराने कागज-पन्नों से मालूम होता है कि हैदरअली का आसफखां नामक एक पूर्वज अर्बस्तान से अपनी स्त्री बच्चों को लेकर हिंदुस्तान में आया था। उसने बीजापुर राज्य में नौकरी कर ली। उसका एक वंशज कोलार गया और वहीं वह मर गया। उसके तीन लड़के थे। इनमें से सबसे बड़े लड़के ने सिरा के नवाब के यहाँ एक फौजी अफसर के पद पर नौकरी कर ली। हैदर अली का पिता अपने दोनों लड़कों पर बहुत कर्ज छोड़ कर मरा था। हैदर अली का चाचा अपने भतीजे को लेकर एक बड़े अधिकारी के मार्फत तत्कालीन मैसूर नरेश की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने महाराजा से प्रार्थना की कि अगर हुजूर हमारा कर्ज चुका देगें तो हम आजन्म प्रमाणिकता-पूर्बक हुजूर की बन्दगी करेगें। महाराजा ने यह प्राथना स्वीकार कर ली। उन्हें दस हजार मैसूरी रुपये प्रदान कर दिये, जिनसे उन्होंने अपना कर्ज चुका दिया।विजयनगर साम्राज्य का इतिहास, स्थापना और पतनसन् 1749 में पूर्वोउक्त सर्वोअधिकारी ने देवनहाजी पर जो घेरा डाला था। उसमें हैदर अली ने अपना पराक्रम दिखला दिया था। इस समय में हैदर अली ने हस्तगत किते हुएं अकबरी मोहरों से लादे हुए तेरह ऊट महाराजा को नजर किये। महाराजा ने इनमें से तीन ऊंट वापस हैदर अली को प्रदान कर दिए। इसके अतिरिक्त एक समय बराबर तनख्वाह न मिलने के कारण मैसूर की फौज बागी हो गई। हैदर अली इसे फिर ठीक रास्ते पर ले आया और उसने शांति स्थापित की। इससे खुश होकर महाराजा ने उसे डिंडीगुल का फौजदार नियुक्त किया और उसे बहादुर और नवाब की पदवियों से विभूषित किया। इसके दक्षिण हिन्दुस्तान में जो अव्यवस्था और गड़बड़ हुई, उसमें हैदर अली को चमकने का सुअवसर मिला। वह अपनी कर्तबगारी, चालाकी और बहादुरी से मैसूर का कर्तधर्ता बन गया। उसने मैसूर पर होने वाले मराठों के कई आक्रमणों को विफल किया। उसने मैसूर राज्य की सीमा को बहुत बढ़ाया। इस वक्त वहीं मैसूर का वास्तविक शासक था। सब काम हैदर अली के साथ में था। राजगद्दी पर बैठे रहना यही बस एक काम नामधारी महाराजा का काम रह गया था।हैदर अली और ब्रिटिश सरकारहैदर अली को ब्रिटिश सरकार के साथ भी युद्ध करना पड़ा था। सन् 1769 में और इसके बाद सन् 1781-82 हैदर अली और ब्रिटिश सरकार का युद्धक्षेत्र पर मुकाबला हुआ था। इससे दूसरे युद्ध में अर्थात सन् 1782 में युद्ध संचालन का कार्य करते हुए चित्तुर मुकाम पर उसकी मृत्यु हो गई। टीपू सुल्तान मैसूर सम्राटहैदर अली के बाद टीपू सुल्तान उसका उत्तराधिकारी हुआ। बुद्धिमत्ता, राजनितिज्ञता और दूरदर्शीता में टीपू सुल्तान अपने पीता हैदर अली से बहुत नीचे दर्जे पर था। किंतु धर्मांधता, असहिष्णुता आदि दुर्गुणों में वह हैदर अली से बढ़ चढ़कर था। इससे अतिशिघ्र वह लोगों में अप्रिय हो गया। टीपू सुल्तान ने अधिकार सूत्र को हाथ लेते ही मैसूर के राजा के रहे सहे नाममात्र के अधिकार भी छीन लिए। हैदर अली उक्त राजवंश के लिए जो दिखावटी सम्मान प्रकट करता था, वह भी टीपू सुल्तान ने बंद कर दिया। इतना ही नहीं उसने उक्त राजवंश पर अनेक प्रकार के अत्याचार करने भी शुरू कर दिये। इससे मैसूर की विधवा राजमाता ने टीपू सुल्तान के खिलाफ अंग्रेजो के साथ गुप्त नीति से लिखा पढ़ी भी शुरू कर दी। इसका परिणाम यह हुआ कि उनकी सन् 1782 में अंग्रेजों के साथ संधि हो गई। सन् 1796 में जब मैसूर के महाराजा चामराज वाडियार का स्वर्गवास हुआ, तो टीपू सुल्तान ने उनके पुत्र का राज्याभिषेक रोक दिया। इस पर बड़ा असंतोष फ़ैला। टीपू सुल्तान के अत्याचारों से लोग बड़े तंग आ गए थे। अंग्रेज़ों और मराठों से भी उसकी सख्त दुश्मनी हो गई थी। सन् 1799 में ब्रिटिश मराठे और निजाम ने मिलकर श्रीरंगपटनम पर आक्रमण किया। टीपू सुल्तान बड़ी बहादुरी से लड़ता हुआ इस युद्ध में मारा गया।महाराजा कृष्णराज वाडियारहम ऊपर कह चुके हैं कि टीपू सुल्तान ने मैसूर के राजपरिवार के साथ बड़ा ही निर्दय व्यवहार किया था। उसने मृत राजा के पुत्र-कृष्णराज वाडियार को जो उस समय लगभग दो वर्ष के थे, महल से निकाल कर महल लूट लिया था। इतना ही नहीं, इन बालराजा की माता तथा उनके सगे सम्बन्धियों के आभूषण तक उसने छीन लिये थे। इसी समय से ये लोग मैसूर के पास एक झोपड़े में रहने लगे थे। सन् 1799 में जब श्रीरंगपट्टम अंग्रेजों के हाथ आया, तब भी ये झोपड़े ही में रहते थे। इसके बाद मैसूर के इतिहास ने नया ही रंग पकड़ा। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉड वेलेस्ली ने विजय में प्राप्त किये हुए मुल्क को अपने तथा निजाम के बीच बाँट कर शेष 49 लाख रुपया वार्षिक आमदनी के मुल्क पर स्वर्गीय राजा के पुत्र उपरोक्त महाराजा कृष्णराज उडियार को उत्तराधिकारी बना दिया। सर बेरी क्रोज श्रीरंगपट्टम के रेजिडेन्ट नियुक्त हुए। इसके अतिरिक्त वहाँ के फ़ौजी अधिकार कर्नल ऑथर वेलेस्ली को दिये गये। शासन- सूत्र-सचालन का भार टीपू सुल्तान के दूरदर्शी प्रधान पुर्णिया पर रखा गया। 19 वीं सदी के उदय के साथ साथ मैसूर राज्य में शान्ति का साम्राज्य हुआ। इसी समय से खास मैसूर नगर को राजधानी का सम्मान प्राप्त हुआ। सन् 1800 में वहां का राज्य-प्रासाद फिर से बनवाया गया। पुरणिया ने 12 वर्ष तक प्रधान मन्त्री का काम किया। उसने मैसूर दरबार की ओर से अंग्रेजों को मराठों के खिलाफ़ कई युद्धों में बड़ी सहायता पहुँचाई। उसने राज्य की आमदनी भी बढ़ाई। सन् 1811 में इसके शासन का अन्त हुआ ओर महाराजा को राज्याधिकार प्राप्त हुए। कहा जाता है कि इस समय राज्य का खज़ाना लबालब भरा हुआ था। पर इन राजा साहब के समय में राज्य में बड़ी गड़बड़ फेल गई। एक प्रान्त में शासन की अव्यवस्था के कारण बलवा तक हो गया। इससे ब्रिटिश सरकार ने राज्य का शासन- भार अस्थायी रूप से अपने हाथ में ले लिया और इसके कार्य- संचालन के लिये दो कमिश्नरों का एक बोर्ड स्थापित किया। इसी समय सरकार ने इस नीति की घोषणा कर दी कि यथासम्भव शासन-संचालन में देश के रीति रिवाज़ों का अवश्य खयाल रखा जायगा। कुछ दिनों के बाद संयुक्त कमिश्नरों की पद्धति असुविधा जनक प्रतीत हुई और इससे सन् 1834 के अप्रैल मास में अकेले कर्नल मॉरिसन पर मैसूर के शासन-सूत्र-संचालन का भार रखा गया। आप इसी साल अंग्रेज सरकार की कौन्सिल के सदस्य होकर कलकत्ते चले गये और आपके स्थान पर कर्नल मार्क क्युबन की नियुक्ति हुई। यहाँ यह स्मरण रखना आवश्यक है कि इनके सिवा मैसूर में ब्रिटिश सरकार की ओर से रेजिडेन्ट भी रहता था। सन् 1843 तक वहां रेसिडेन्ट की जगह बराबर बनी रही। उसी साल यह जगह तोड़ दी गई। कमिश्नर को पहले पहल माल और फौजदारी के सब अधिकार प्राप्त थे। पर कुछ अर्से के बाद दीवानी, फौजदारी के मामलों में फेसला करने के लिये एक अलग ज्युडिशियल कमिश्नर की नियुक्ति हुईं। शासन सम्बन्धी कुछ और भी परिवर्तन किये गये। इस समय शासन सम्बन्धी कई दोष दूर किये गये। राज्य की आमदनी भी बढ़ाई गई। अंग्रेजी और देशी शिक्षा के प्रचार में भी सहायता पहुँचाई गई। इस बीच में मैसूर के महाराजा ने अंग्रेज सरकार से रियासत का कारोबार वापस उन्हें सौपने के लिये अनुरोध किया। एक भारत व्यापी घटना ने इसके लिये अनुकूल अवसर उपस्थित कर दिया। पाठक जानते हैं कि सन् 1857 में सारे भारत वर्ष में विद्रोह की प्रचंड ज्वाला भभक उठी थी। अंग्रेजी राज्य खतरे में जा गिरा था। ऐसे कठिन समय में तत्कालीन मैसूर नरेश ने अंग्रेज सरकार की बड़ी सहायता की। मैसूर के कमिश्नर सर मार्क क्युबॉन ने अंग्रेज सरकार को एक पत्र लिखकर उस बहुमूल्य सहायता की बड़ी प्रशंसा की थी, जो महाराजा ने ऐसे विकट समय में अंग्रेज सरकार को दी थी। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉड केनिंग ने एक खलीता भेजकर महाराजा ने दी हुईं अपूर्व सहायता की मुक्तकण्ठ से स्वीकार करते हुए अंग्रेज सरकार की ओर से उन्हें हार्दिक धन्यवाद दिया था। सन् 1861 में सर मार्क क्युबॉन ने अवसर ग्रहण किया । आपके स्थान पर मेजर ब्राउनिंग नामक एक सज्जन की नियुक्ति हुईं। इसी समय पहले पहल मैसूर राज्य में बंगलोर और मैसूर नगरों में स्युनिसिपलिटी की स्थापना हुई। सन् 1865 में तत्कालीन मैसूर नरेश ने निःसन्तान होने के कारण अपने निकट सम्बन्धी के एक लड़के को दत्तक लिया। इनका नाम चाम राजेन्द्र वाडियार रखा गया। इसके एक साल बाद 74 वर्ष की अवस्था में तत्कालीन मैसूर नरेश का शरीरान्त हो गया।महाराजा चाम राजेन्द्रमहाराजा कृष्णराज के पश्चात् चाम राजेन्द्र गद्दीनशीन हुए। आपकी शिक्षा का प्रबन्ध ब्रिटिश ऑफिसरों की निगरानी में किया गया। सन् 1877 में श्रीमती विक्टोरिया के साम्राज्ञी पद धारण करने के उपलक्ष्य में दिल्ली में जो दरबार हुआ था उसमें वायसराय का निमन्त्रण पाने पर आप भी शरीक हुए थे। सन् 1875 में वर्षा की कमी के कारण मैसूर राज्य में भीषण अकाल पड़ा था। इस समय मैसूर की भूखी प्रजा के लिये अन्नदान की सुयोग्य व्यवस्था की गई थी। कहा जाता है कि इस समय इस कार्य में मैसूर राज्य पर कोई अस्सी लाख का कर्ज हो गया था। इस समय आर्थिक अभाव के कारण राज्य के प्रत्येक विभाग में बहुत कुछ कमी की गई थी। सन् 1881 की 25 वीं मार्च मैसूर राज्य निवासियों के लिये बड़े ही आनन्द ओर हर्ष का दिन था। इस दिन उनके प्रिय महाराजा को मैसूर राज्य का शासन-भार वापस सौंपा गया था। सारी प्रजा में अपूर्व आनन्द छा गया था। राज्य भर में अभूतपूर्व समारोह हुआ था। श्रीमान् महाराजा साहब ने इसी समय मि० सी० रंगाबार्लू सी० आई० ई० को दीवान बनाने की घोषण की थी। इसी समय आपने दीवान की अध्यक्षता में एक कोंसिल बनाने की स्वीकृति भी दी थी। इस कौसिल में दो अवसर प्राप्त अति अनुभवी राज्याधिकारी भी रखे गये थे। शासन-सुधार में प्रजा को उन्नति की घुड़दौड़ में आगे बढ़ाने में तथा कानून आदि बनाने में सलाह देना इस कौंसिल का प्रधान उद्देश्य रखा गया था।मैसूर में प्रतिनिधि सभामहाराजा ने अधिकार प्राप्त करते ही मैसूर के शासन को एक सभ्य ओर उन्नत शासन बनाने का दृढ़ संकल्प किया था। कौंसिल के अतिरिक्त आपने प्रजा के चुने हुए प्रतिनिधियों की एक सभा संगठित की। कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत वर्ष में यह पहली ही प्रतिनिधि सभा थी। यह प्रतिनिधि सभा स्थापित कर आपने शासन-सूत्र-संचालन में लोगों का सहयोग प्राप्त करने का मार्ग खोल दिया। आपने यह दिखला दिया कि सरकार और प्रजा के हित एक हैं। अगर भारत वर्ष की प्रतिनिधि संस्थाओं का इतिहास लिखा जायगा तो उसमें मैसूर राज्य का नाम बड़े गौरव के साथ स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाना चाहिये, क्योंकि उसी ने सबसे पहले इस महान तत्व को स्वीकार कर संसार को यह दिखला दिया कि भारतवर्ष में प्रतिनिधि संथाएँ किस प्रकार अपूर्व सफलता प्राप्त कर सकती हैं। इस प्रतिनिधि सभाकी प्रथम बैठक सन् 1881 के दशहरे के शुभ मुहूर्त में हुई। इसी समय से प्रति दशहरे के दिन बराबर इसके अधिवेशन हो रहे हैं। ऐसे अवसर पर मैसूर के विद्वान दीवानों के जो व्याख्यान होते हैं, उनमें उन्नतिशील नीति का पद पद पर दिंग्दर्शान होता है। प्रजा के प्रतिनिधिगण अनेक प्रजा-हितकारी प्रश्नों को इसके सामने रखते हैं और उन पर बड़ा ही मनोरंजक वादानुवाद होता है। बजट पर भी बहस करने का अधिकार प्रजा को दिया है। मैसूर की प्रजा प्रतिनिधि सभा एक ऐसी संस्था है, जिसके लिये प्रत्येक भारतवासी योग्य अभिमान कर सकता है।बीकानेर राज्य का इतिहास – History of Bikaner stateमहाराजा चाम राजेन्द्र वाडियार के समय राज्य प्रगतिपथ पर खूब आगे बढ़ा। भारतीय राज्य मण्डल में वह सूर्य सा चमकने लगा। उसकी आर्थिक अवस्था भी प्रशंसनीय रूप से बढी। यहां यह बात स्मरण रखना चाहिये कि राज्य की आमदनी गरीब प्रजा का रक्त चूस कर या उस पर नये नये कर बैठाकर या पुराने करों में वृद्धि कर नहीं बढ़ाई गई। राज्य की औद्योगिक सम्भावनाओं का विकास कर तथा ओद्योगिक और कृषि के विकास के लिये अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न कर राज्य की आर्थिक स्थिति का सुधार किया गया। नई रेलवे लाइन निकाली गई” । आबपाशी का खुब प्रचार किया। कई प्रकार के औद्योगिक कारखाने खोले गये। हर एक शासन विभाग में यथा सम्भव खर्च की कमी की गई। हर प्रकार विभिन्न उपजाऊ पद्धतियों से राज्य की आर्थिक उन्नति करने की सुव्यवस्था की गई। मैसूर में सोने की खान है। उसमें से सोना निकालने के उद्योग को सुसंगठित किया गया। इससे भी खूब आमदनी बढ़ी। महाराजा के दस वर्ष के शासन में अर्थात सन् 1881 से 1891 तक मैसूर की जनसंख्या भी प्रति सैकड़ा 18 बढ़ गई। यह भी राज्य की सुख समृद्धि का एक प्रत्यक्ष प्रमाण था। श्रीमान प्रजाप्रिय महाराजा चाम राजेन्द्र उडियार 14 वर्ष राज्य कर सन् 1894 के दिसम्बर मास में कलकत्ता में स्वर्गवासी हुए। आप ही आधुनिक मैसूर के निर्माता थे। आपके शासन में मैसूर राज्य को उल्लेखनीय गौरव और सम्मान प्राप्त हुआ। युरोप के सभ्य देशों के मुकाबले में उसका शासन गिना जाने लगा।महाराजा कृष्णुराजा वाडियार ( द्वितीय )श्रीमान् महाराजा चाम राजेन्द्र वाडियार के स्वर्गवासी होने पर उनके बड़े पुत्र महाराजा श्री कृष्णराजा वाडियार राज्य-सिंहासन पर विराजे। उस समय आप नाबालिग होने से कौन्सिल ऑफ रिजेन्सी मुकर्र की गई। आपकी विदुषी माता रिजेन्ट नियुक्त की गई। रिजेन्सी कौन्सिल ने सात वर्ष तक मैसूर के राज्यशासन का योग्यता पूर्वक संचालन किया। इसने भी मैसूर की औद्योगिक और शिक्षा सम्बन्धी उन्नति के लिये प्रशंसनीय प्रयत्न किया। चाम राजेन्द्र वाटर वर्क्स बैंगलोर, मैसूर नगर का वाणी विलास वाटर वर्क्स, कावेरी पॉवर वर्क्स (जिसके द्वारा बिजली उत्पन्न की जाती है) आदि कितने ही औद्योगिक कारखाने इस रिजेन्सी कौंसिल के प्रय॒त्नों का फल है।मैसूर नरेश कृष्णराजा वाडियार की शिक्षामैसूर के महाराजा श्रीमान श्रीकृष्ण राजा वाडियार की शिक्षा का प्रबन्ध सुयोग्य हाथों में दिया गया था। आपने अपनी अपूर्व प्रतिभा के कारण न केवल उच्च श्रेणी की शिक्षा ही प्राप्त की वरन् राज्यशासन संचालन का खासा अनुभव भी प्राप्त कर लिया आपने राज्य के भिन्न भिन्न प्रान्तों में घूम कर लोगों की स्थिति का, औद्योगिक और शिक्षा सम्बन्धी- सम्भावनाओं का अध्ययन किया। सन् 1900 में काठियावाड़ के वाण नगर के राणा विनयसिंह की कन्या के साथ आपका शुभ विवाह सम्पन्न हुआ। सन् 1902 में श्रीमान् को अठारह वर्ष की उम्र में पूर्ण राज्याधिकार प्राप्त हुए। इस शुभ अवसर पर भारत के भूतपूर्व वायसरॉय लॉर्ड कर्जन भी पधारे थे। इसी साल श्रीमान् सप्तम एडवर्ड के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में दिल्ली में जो दरबार हुआ था उसमें भी श्रीमान पधारे थे।तत्कालीन मैसूर नरेश और राज्य की प्रशंसनीय प्रगतितत्कालीन मैसूर नरेश एक आदर्श शासक थे। प्रिय प्रजा को हर तरह से योग्य बनाना, उसमें नागरिकत्व ओर मनुष्यत्व के भावों का संचार करना, ज्ञान की उज्वल ज्योति से उसके हृदयाकाश को प्रकाशमान करना उसकी मानसिक, आर्थिक और शारीरिक उन्नति में तन मन धन से पूर्ण सहयोग देना राज्य शासन में उसका पूर्ण सहयोग प्राप्त कर उसके हितों की रक्षा करना तत्कालीन उन्नतिशील मैसूर नरेश का प्रधान ध्येय रहा है। यही कारण है कि भारतीय राज्य-मण्डल में मैसूर का नाम सूर्य सा चमक रहा है।मैसूर नरेश लाखों प्रजा के हित को अपना हित समझते थे। प्रजा कल्याण ही उनका एक मात्र दद्देश्य था। हमारे आर्य ग्रंन्थों में एक आदर्श नृपति के जो गुण कहे गये हैं, वे सम्पूर्ण रूप से नहीं तो भी बहुत कुछ तत्कालीन मैसूर नरेश में चरितार्थ होते थे। उस समय देखते हैं कि हमारे बहुत से भारतीय नृपतिगण कर में वसूल किये हुए प्रजा की कठिन कमाई के धन को जिस बेरहमी के साथ अपने ऐशो आराम में उड़ाते थे, और प्रजा को केवल अपने विषय वासना की तृप्ति के लिये माने हुए बैठे हैं। इस प्रकार की लज्जा जनक और शोचनीय स्थिति से तत्कालीन मैसूर नरेश बहुत दूर थे। मैसूर राज्य का अधिकांश द्रव्य प्रजा की हितकामना में–उन्नति के विविध क्षेत्रों में आगे बढ़ाने में–उसके ह्रदय को ज्ञान की दिव्य किरणों से प्रकाशमान करने में व्यय होता है। अगर हमारे वर्तमान भारतीय राजनेता ऐसे आदर्श शासक का अनुकरण करने लगें तो हमारा विश्वास है कि वे संसार के सामने भारत के मुख को बहुत कुछ उज्ज्वल कर सकते हैं और भारतवासियों पर लगाये जाने वाले इस अभियोग को दूर कर सकते हैं कि भारतीय शासन-कला में प्रवीण नहीं होते तथा स्वभाविक तौर से ही वे प्रतिनिधि-तत्व के आदी नहीं होते।मैसूर नरेश के कार्यप्रजा के विकास के लिये मैसूर नरेश ने जो अनेक कार्य किये हैं उन सबका उल्लेख स्थानाभाव के कारण करने में असमर्थ हैं। आपने मैसूर राज्य-शासन को एक उतन्नतिशील और सभ्य शासन बनाकर एक आदर्श नृपति होने का परिचय दिया। आपने विविध उपायों के द्वारा लोगों की स्थिति को सुधारा। राज्य में रहे हुए साधनों का विकास कर तरह तरह के उद्योग धंधों को उत्तेजन दिया। रेलवे का खूब विस्तार किया गया। राज्य की ओर से अपना एक स्वतन्त्र विश्वविद्यालय खोला गया। भारतवर्ष के देशी राज्यों में मैसूर ही एक ऐसा राज्य है, जहाँ विश्वविद्यालय था। किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिये स्थान स्थान पर सहकारी समितियां स्थापित की गई। ओद्योगिक क्षेत्र में भी राज्य ने अपने कदम बहुत कुछ आगे बढ़ाये। भद्रावती में लोहे का एक सुविशाल कारखाना खोला गया। धारा सभा स्थापित की गई। राज्यशासन में लोगों का और भी अधिक सहयोग प्राप्त करने की व्यवस्था की गई। सन् 1917 में शासन को और भी उदार बनाया गया। धारा सभा और प्रतिनिधि सभा के अधिकार और भी अधिक व्यापक और विस्तृत किये गये। कहने का मतलब यह है कि इन महाराजा के समय में राज्य की विभिन्न शाखाओं में अच्छी उन्नति की गईंमैसूर राज्य में शिक्षा की उन्नतिहम ऊपर कह चुके हैं कि प्रजा के अन्तःकरण को ज्ञान की किरणों से प्रकाशमान करना तत्कालीन मैसूर नरेश के शासन का मुख्य ध्येय रहा है। आपने अपने यहाँ एक उच्च श्रेणी का विश्वविद्यालय स्थापित कर रखा था।यहाँ एम० ए० तक की शिक्षा दी जाती है। विज्ञान में एम० एस०-सी० तक यहाँ पढ़ाई होती है। ऑक्सफोर्ड और लंदन के विश्वविद्यालयों ने मैसूर विश्वविद्यालय को उपनिवेशों के तथा भारत के अन्य विश्वविद्यालयों की तरह स्वीकार किया है। सन् 1917 में ब्रिटिश साम्राज्य के विश्वविद्यालयों की जो क्रांग्रेंस हुई थी, उसमें उक्त विश्वविद्यालय की ओर से 9 प्रतिनिधि आमन्त्रित किये गये थे। यह विश्वविद्यालय जगत के सन्मान्य विद्वानों को निमन्त्रित कर विभिन्न विषयों पर व्याख्यान करवाता है। इससे लगा हुआ एक सुविशाल ग्रन्थालय है, जिसमें विभिन्न भाषाओं के तथा विभिन्न विषयों के हजारों महत्वपूर्ण ग्रंन्थ हैं। भौतिक’ शास्त्र, रसायन शास्त्र, जीवशास्र, वनस्पतिशास्त्र, गणितशास्त्र, इतिहास, तत्वज्ञान, अर्थ शास्र-आदि विभिन्न शात्रो की अन्वेषण के लिये भी यहाँ विशेष प्रबंध है।कलकत्ता विश्वविद्यालय की कमीशन द्वारा सूचित किये हुए शिक्षा सम्बन्धी कई सुधार किये जाने का आयोजन किया जा रहा है।भरतपुर राज्य का इतिहास – History of Bhartpur stateसन् 1880 और 1881 की मैसूर को शासन की रिपोर्ट देखने से प्रतीत होता है कि उक्त साल वहाँ 10341 शिक्षा सम्बन्धी संस्थाएँ थीं। इनमें 328290 विद्यार्थी शिक्षा लाभ करते थे। यहाँ यह बात विशेष रुप से ध्यान देने योग्य है कि इन विद्याथियों में 55998 लड़कियों की संख्या थी। यहाँ लड़कों के लिये 17 अंग्रेजी हाई स्कूल तथा लड़कियों के लिये 2 हाई स्कूल्स थे। यहाँ वर्नाक्युलर हाईस्कूल भी हैं, जिनमें केवल देशी भाषा द्वारा पढ़ाई होती है।इनकी संख्या 7 है। इनमें एक लड़कियों के लिये था। अंग्रेजी मिडिल स्कूल्स की संख्या 316 थी, जिनमें 13 लड़कियों के लिये थे। प्राईमरी ( प्राथमिक ) स्कूल्स की तो यहाँ भरमार थी। उनकी संख्या 8800 थी इनमें 594 लड़कियों के लिये हैं। पाठक सुनकर आश्चर्य करेंगे कि मैसूर में 21 औद्योगिक शिक्षालय,दो इन्जीनियरिंग स्कूल्स, चार व्यापारिक शिक्षालय, 57 संस्कृत विद्यालय और 2 कृषि विद्यालय थे। गूँगे और बहरों को शिक्षा देने के लिये भरी यहाँ 2 विद्यालय थे। व्यवहारिक कामों की शिक्षा के लिये 273 शिक्षालय थे। इनके अतिरिक्त यहाँ कई कॉलेज थे, जिनमें उच्च शिक्षा दी जाती थी।अछुतों के शिक्षालयमैसूर के उन्नतिशील राज्य में जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, गरीबों के झोपड़ों से लगा कर अमीरों के महलों तक में ज्ञान की दिव्यकिरणों का प्रकाश पहुँचाया जाता था। अन्य स्थानों में अछूत लोग जहाँ पशुओं से भी बदतर समझे जाते थे, मैसूर राज्य में उनके लिये भी शिक्षा का समूचित प्रबंध था। सन् 1980-81 की रिपोर्ट देखने से प्रतीत होता है कि वहाँ उस साल अछूतों की शिक्षा के लिये कोह 739 विद्यालय थे, जिनमें 17150 विद्यार्थी शिक्षा लाभ करते थे। इनके लिये कई छात्रालय भी थे।इनमें से योग्य विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति भी मिलती थी। उक्त शासन-रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि प्राइमरी ग्रेड के अछूत विद्यार्थियों के लिये 250 छात्रवृत्तियां, लोअर सेकन्डरी ग्रेड के लिये 100 और अंग्रेजी कांवेंट के लिये 184 छात्रवृत्तियां दी गई थी। सन् 1920-21 में अछूत विद्यार्थियों को छात्रवृतियाँ देने में मैसूर राज्य ने करीब 93648 रुपये खर्च किये।मैसूर की रात्रि-पाठशालाएँजो लोग दिन में मजदूरी करते हैं, जिन्हें अपने उदरनिर्वाह के कार्य के कारण दिन में स्कूल जाने का समय नहीं मिलता उनकी शिक्षा के लिये मैसूर की उन्नतिशील सरकार ने रात्रि-पाठशालाएँ खोल रखी थी। सन् 1920-21 में इस प्रकार की रात्रि-पाठशालाओं की संख्या 2614 थी और जिनमें 43235 विद्यार्थी शिक्षा लाभ करते थे।मैसूर राज्य में छात्रवृत्तियांउन्नतिशील मैसूर राज्य योग्य विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियां देकर उनका उत्साह बढ़ाने में भी अच्छी रकम खर्च करता था। सन् 1920-21 में इस राज्य ने विभिन्न विद्यार्थियों को छात्रवृतियां देने में 2386000 रुपये व्यय किये। कई विद्यार्थी बड़ी बड़ी छात्रवृत्तियां देकर युरोप अमेरिका आदि देशों में भी शिक्षा प्राप्त करने के लिये भेजे गये थे।संस्थाओं को उदार सहायताजो सज्जन सर्वत्राधारण के चन्दे से था खानगी द्रव्य से मैसूर राज्य में शिक्षा सम्बन्धी संस्थाएं खोलते थे, उन्हें राज्य की ओर से समुचित सहायता मिलती थी। इस्वी सन् 1920-21 में इस प्रकार की खानगी शिक्षा संस्थाओं को राज्य की ओर से 696351 रुपयों की सहायता दी गई। इससे पाठक जान सकते हैं कि खानगी संस्थाओं उत्तेजन देने में भी मैसूर की उन्नतिशील रियासत कितनी दत्त-चित्त रहती थी।मैसूर राज्य में बॉय स्काउटमैसूर राज्य में बॉय स्काउट संस्था ने भी अच्छी तरक्की की थी। वहाँ राज्य में कई स्थानों पर स्काउट के पहले पहल केन्द्र खुले हुए थे। मैसूर राज्य भर में सन् 1920-21 में कोई 2000 स्काउट थे। कहने का मतलब यह है कि मैसूर राज्य शिक्षा प्रचार की विविध शाखाओं में बड़ी तेजी से प्रगति कर रहा है। पाठक सुनकर प्रसन्न होंगे कि यह राज्य प्रति साल कोई 5000000 रुपया शिक्षा-प्रचार में व्यय करता था। सन् 1920-21 में इसने 4809885 रुपया शिक्षा प्रचार में खर्च कर एक आदर्श राज्य होने का गौरव प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त वहाँ ग्रंन्थकारों को उत्तेजन देने के लिये भी बजट में 5000 प्रतिसाल की मंजूरी रखी गई थी। इससे वहाँ प्रति साल कई अच्छे अच्छे और अन्वेषणात्मक ग्रंथ प्रकाशित होते थे।मैसूर रियासत में पुरातत्वराज्य की ओर से एक पुरातत्व विभाग भी खुला हुआ था। यह विभाग बड़ी तरक्की कर रहा था। प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों, शिलालेखों, सिक्कों आदि का परीक्षण कर इसने कई ऐतिहासिक विषयों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। इस विभाग द्वारा कई महत्वपूर्ण ग्रंन्थ प्रकाशित हुए हैं।समाचार पत्रसन् 1920-21 में मैसूर से 16 समाचार पत्र, 50 मासिक पत्र प्रकाशित होते थे। अब तो इनकी संख्या और भी अधिक बढ़ गई होगी। जो रियासतें समाचार पत्रों से छूत की बीमारियों की तरह डरती थी, उन्हें आँख उठाकर उन्नतिशील मैसूर राज्य की ओर देखना चाहिए था।।हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—-[post_grid id=’12754′]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत की प्रमुख रियासतें हिस्ट्री