मैसूर आंग्ल मैसूर युद्ध – हैदर अली, टीपू सुल्तान और अंग्रेजों की लड़ाई Naeem Ahmad, April 15, 2022February 28, 2023 भारतीय इतिहास में मैसूर राज्य का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है। मैसूर का इतिहास हैदर अली और टीपू सुल्तान जैसे शूरवीर शासकों के बलिदान से भरा हुआ है। हैदर अली से लेकर टीपू सुल्तान ने अपने शासन के दौरान अंग्रेज सेनाओं से अपनी मात्रभूमि की रक्षा के लिए की युद्ध लड़े, और अपनी वीरता साहस का लोहा मनवाया। हैदर अली और टीपू सुल्तान ने सन् 1767 से लेकर सन् 1799 तक कई बार अंग्रेजी सेना के साथ भीषण युद्ध किये। जो आज भी आंग्ल मैसूर युद्ध के नाम से जाने जाते हैं। अपने इस लेख में हम इन्हीं संघर्षों का उल्लेख करेंगे और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से जानेंगे:— प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध कब हुआ था? द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध कब हुआ था? तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध कब हुआ था? चौथा आंग्ल मैसूर युद्ध के कारण क्या थे? मैसूर का युद्ध कब और किसके बीच हुआ? तीसरे आंग्ल मैसूर युद्ध को रोकने के लिए टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के साथ कौन सी संधि की? मैसूर के कितने युद्ध हुए? मैसूर युद्ध के समय गवर्नर जनरल कौन था? आंग्ल मैसूर युद्ध के कारण क्या थे? द्वितीय मैसूर युद्ध कब और किसके बीच हुआ? तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध के समय भारत का गवर्नर कौन था? Contents0.1 हैदर अली और मैसूर की रियासत0.2 बेदनूर की रियासत पर अधिकार0.3 मराठों के साथ युद्ध1 प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध1.1 अंग्रेज़ों की पराजय1.2 मद्रास पर आक्रमण1.3 हैदर अली के साथ सन्धि2 द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध2.1 मैसूर का पूरिमपाक का संग्राम2.2 टीपू सुल्तान के साथ युद्ध2.3 टीपू सुल्तान के साथ सन्धि3 तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध3.1 अंग्रेजी सेना का आक्रमण3.2 श्रीरंगपट्टन का संग्राम4 हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- हैदर अली और मैसूर की रियासत किसी समय वली मोहम्मद नाम का एक साधारण मुसलमान फकीर हजरत बन्दा नवाज़ गेसूदराज की दरगाह में रहा करता था। दरगाह की आमदनी से ही वली मोहम्मद का खर्च चलता था। उसके एक लड़का था, जिसका नाम शेख मोहम्मद अली था। अपने जीवन काल में उसे बहुत ख्याति मिली थी। उसे लोग शेख अली भी कहते थे। उसके चार लड़के थे। सन् 1695 ईसवी में शेख अली की मृत्यु हो गयी। उसका बड़ा लड़का शेख इलियास अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ। सब से छोटे लड़के का नाम फतह मोहम्मद था। वह अरकाट के नवाब सआदतउल्ला खाँ की फौज में भरती हो गया और जमादार के पद पर काम करने लगा। फ़तह मोहम्मद के दो लड़के हुए। एक का नाम शहबाज और दूसरे का हैदर अली था। हैदर अली का जन्म लगभग 1722 ईसवी में हुआ था। जिस समय शहबाज़ और हैदर अली के जन्म न हुए थे, फतह मोहम्मद ने अरकाट के नवाब की नौकरी छोड़ दी थी और पहले उसने मैसूर की रियासत में नौकरी की। लेकिन उसके बाद, सीरा प्रान्त के नवाब दरगाह कुली खाँ के यहां जाकर उसने नौकरी कर ली थी। वहां पर वह बालापुर कलां के किले का किलेदार बना दिया गया था। दक्षिण के राजाओं की लड़ाइयों में वह मारा गया। उस समय शहबाज़ की अवस्था आठ साल की और हैदर अली की तीन साल की थी। उन्हीं लड़ाइयों के कारण फतह मौहम्मद का सब माल असबाब भी चला गया और उसके दोनों लडके अपनी विधवा माता के साथ अनाथ होकर रह गये थे। हैदर अली का चचेरा भाई, उसके चाचा शेख इलियास का लड़का हैदर साहब इन दिनों में मैसूर के राजा के यहां फौज में नायक था। हैदर अली अपने भाई और मां के साथ उसके यहां चला गया और वहीं पर रहने लगा। वहीं पर उसने घोड़े की सवारी, निशाने बाजी और युद्ध करने की सभी बातें सीखी। बड़े होने पर दोनों भाइयों ने राजा मैसूर की सेना में नौकरी कर ली। मैसूर की हिन्दू रियासत दिल्ली सम्राट का आधिपत्य मानती थी और अपने बाकी अधिकारों में वह स्वतंत्र थी। दक्षिण के सूबेदार निजामुल मुल्क के साथ उसका बराबरी का सम्बन्ध था। किसी पर किसी का आधिपत्य न था। मैसूर का राजा शासन में अयोग्य था और अपनी कायरता के ही कारण वह अपने राज्य में नाम के लिए राजा था। राज्य के समस्त अधिकार वहां के प्रधान मन्त्री के हाथ में थे। इन दिनों में नन्दीराज वहां का प्रधान मन्त्री था और उसने हैदरअली की योग्यता तथा वीरता लड़ाई में देखी थी। इसलिए प्रसन्न होकर उसने हैदर अली को सन् 1755 ईसवी में डिण्डीगल का फौजदार बना दिया था। हैदर अली ने फ्राँसीसियों की सेनिक व्यवस्था और उनकी लड़ाई का तरीका देखा था, इसलिए उसने अपने यहां फौज को इन सभी बातों की शिक्षा देने और युद्ध करने का तरीका सिखाने के लिए फ्रॉँसीसी अफसरों को अपने यहां नौकर रखा।अपनी योग्यता और वीरता के कारण कुछ दिनों में हैदर अली मैसूर रियासत का प्रधान सेनापति हो गया। इसके बाद कुछ ही दिनों में उस रियासत के मन्त्रियों में आपसी संघर्ष पैदा हो गये। उस समय हैदर अली मैसूर का प्रधान मन्त्री हो गया। बेदनूर की रियासत पर अधिकार मैसूर के राजा की अयोग्यता और कायरता के कारण उसके प्रत्येक सामन्त विद्रोही हो रहे थे और मैसूर के राजा का प्रभाव उस पर कुछ काम न करता था। हैदर अली ने प्रधान मन्त्री होने के बाद, उन विद्रोही सामंतों पर नियंत्रण करने के लिए अपनी एक सेना भेजी। उसने सभी विद्रोहियों को परास्त करके अधीन बनाया और उसके बाद राज्य में शान्ति की प्रतिष्ठा हुई। इन्हीं दिनों में बेदनूर का राजा भी मैसूर राज्य के साथ विद्रोही हो गया था । इस रियासत में राजा के साथ प्रजा ने भी बगावत कर रखी थी। हैदर अली स्वयं अपनी सेना लेकर वहां गया और वहां के विद्रोहियों का दमन किया, उस रियासत पर अधिकार करके उसने राजाराम नामक एक आदमी को वहां का अधिकारी बना दिया। बेदनूर के किले में हैदर अली को नगद रुपये के साथ-साथ सोना चाँदी औरर जवाहरात मिले, उनकी कीमत सब को मिलाकर बारह करोड़ रुपये से कम न थी। इस सम्पत्ति का उपयोग हेदर अली ने मैसूर राज्य के अनेक सुधारों में किया और बहुत सा धन सेना में इनाम के तौर पर बाँटा गया। हैदर अली ने बेदनूर का नाम बदलकर हैदर नगर रखा। उसने मैसूर राज्य की सीमा को बढ़ाने ओर वहां की सुव्यवस्था को दृढ़ करने का काम किया। मराठों के साथ युद्ध इन दिनों में मराठों की शक्तियां दक्षिण में बढ़ रही थीं, इसलिए उसके साथ हैदर अली का संघर्ष पैदा होना स्वाभाविक था। मराठों ने चार बार मैसूर पर आक्रमण किया। लेकिन इन हमलों से मैसूर को बड़ी क्षति नहीं पहुँची। हैदरअली ने अपने राज्य का कुछ इलाका देकर शांत किया। उसके बाद हैदर अली और मराठों में सन्धि हो गयी। प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध मैसूर में हैदर अली की बढ़ती हुई शक्तियां देख कर कम्पनी के अंग्रेजों को डर होने लगा था। वे किसी स्वतन्त्र भारतीय राजा की उन्नति को देखना नहीं चाहते थे। हैदर अली को बरबाद करने के लिए वे अनेक प्रकार के उपाय सोचने लगे। हैदर अली में स्वाभिमान था वह किसी प्रकार अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार करने के लिए तैयार न था। इसलिए दोनों ओर से संघर्ष बढ़ने लगा। अंग्रेंजी सेना ने सन् 1767 ईसवी में मैसूर के बारामहल के इलाके पर आक्रमण किया। कर्नाटक का नवाब मोहम्मद अली हैदर अली से मित्रता रखता था। लेकिन अंग्रेजों ने उसे तोड़ कर अपने पक्ष में कर लिया और उसे यह प्रलोभन दिया कि विजय के बाद, बारामहल का इलाका उसे दे दिया जायगा। अंग्रेजों के साथ मोहम्मदअली के मिल जाने पर हैदरअली ने निजाम के साथ सन्धि की और दोनों में यह तय हो गया कि निजाम और हैदरअली की सेनाये कर्नाटक और अंग्रेजी इलाकों पर हमला करें और मोहम्मद अली को नवाबी के आसन से हुटा कर हैदर अली के लड़के टीपू को कर्नाटक का नवाब बनाया जाय। युद्ध की तैयारियां शुरू हो गयी। निजाम की तरफ से उसका वजीर रुकनुद्दौला अपने साथ पचास हजार सेनिकों की फौज लेकर रवाना हुआ। इसी बीच में हैदर अली के साथ अंग्रेजों का पत्र व्यवहार चल रहा था,फिर भी एक विशाल अंग्रेंजी सेना लेकर जनरल स्मिथ युद्ध के लिए रवाना हुआ और बनियमबाड़ी, कावेरीपट्टम आदि कई एक मैसूर के दुर्गो पर उसने अधिकार कर लिया। यह जानकर हैदर अली अपने साथ साठ हजार बहादुर सैनिकों की सेना लेकर अंग्रेजों के साथ युद्ध करने के लिये रवाना हुआ। उसके साथ ही निजाम की फौज भी युद्ध करने के लिए आयी।युद्ध आरम्भ होने के पहले ही अंग्रेज अधिकारियों ने निजाम की फौज को मिला कर अपनी ओर कर लिया और हैदर अली को इस बात का कुछ भी पता न चला। इसके बाद दोनों ओर से सेनायें युद्ध के लिए बढ़ीं और घमासान मार-काट आरम्भ हो गयी। लड़ाई के कुछ ही समय बाद हैदर अली को रुकनुद्दौला और उसकी सेना पर सन्देह पैदा हुआ अंग्रेंजी सेना के साथ छोटी-बड़ी कई एक लड़ाईयां हुई और उसमें निजाम की फौज के धोखा देने के कारण हैदर अली की पराजय हुईं। अंग्रेंजी सेना ने मैसूर राज्य का बहुत सा इलाका अपने अधिकार में कर लिया। हैदर अली को समय की परिस्थितियां प्रतिकूल मालूम हुईं। नवाब मोहम्मद अली अंग्रेजों के साथ था और निजाम की सेवा भी दगा कर रही थी। मराठों के साथ मैसूर की पहले से ही शत्रुता थी। इसलिए अंग्रेजों के साथ हैदर अली ने सुलहनामा की बातचीत शुरू कर दी। उसकी विरोधी परिस्थितियां अंग्रेजों से छिपी न थी। इसलिए अंग्रेजों ने सन्धि करने से इन्कार कर दिया। इस दशा में हैदर अली ने अपने भरोसे पर युद्ध करने की तैयारी की और मैसूर से अंग्रेजी सेना को बाहर निकालने के लिए उसने एक जोरदार फौज के साथ अपने सेनापति फ़ज़लुल्लाह खाँ को रवाना किया और उसके बाद हैदर अली स्वयं एक दूसरी सेना के साथ युद्ध के लिए चला। अंग्रेज़ों की पराजय मैसूर के जिन किलों पर अंग्रेजी सेना ने अधिकार कर लिया था, हैदर अली ने उन पर आक्रमण करके उनको अपने अधिकार में लेना आरम्भ कर दिया कवेरीपट्टम के किले पर अंग्रेजी फौजे एकत्रित थीं। हैदरअली ने अपनी सेना के साथ वहां जाकर उस किले को घेर लिया और शत्रुओं पर उसने गोलें बरसाने शुरू कर दिये। कई घन्टे तक लगातार गोलों की मार से अंग्रेजी सेना का साहस टूट गया। उसने युद्ध से पीछे हटकर सन्धि के लिए सफेद झंडा फहराया। हैदरअली ने उस किले पर अधिकार कर लिया और लड़ाई बन्द कर दी। किले के भीतर जो अंग्रेजी सेना मौजूद थी, उस पर आक्रमण न करके उसे हथियार छोड़ कर मद्रास चले जाने की उसने आज्ञा दे दी। अंग्रेजों की इस पराजय से उनके बहुत से हथियार, गोले-बारूद और घोड़े हैदर अली के अधिकार मे आ गये और अंग्रेजी सेना के सिपाही और अफसर जान बचाकर वहांसे भाग गये। कावेरीपट्टम का किला हैदर अली के अधिकार में आ चुका था बाकी किलों पर भी उसने अपना अधिकार कर लिया। आंग्ल मैसूर युद्ध मद्रास पर आक्रमण इन दिनों में हैदरअली के बड़े लड़के फतह अली की अवस्था 18 वर्ष की थी। अपने पिता के साथ वह लड़ाई में मौजूद था। जनरल स्मिथ को मैसूर को सीमा से बाहर निकालने के लिए हैदर अली वहीं पर मौजूद रहा और टीपू सुल्तान को पाँच हजार सवारों के साथ मद्रास की तरफ भेजा। उसके मद्रास पहुँचते ही वहां की अंग्रेज काउन्सिल के अधिकारी वहां से भाग गये। नवाब मोहम्मद अली भी वहां मौजूद था, वह अपने घोड़े पर बैठ कर वहां से भाग गया। टीपू सुल्तान ने वहां पर अंग्रेजों के कुछ हिस्सों पर अधिकार कर लिया। त्रिनमल्ली नामक स्थान पर हैदर अली ने जनरल स्मिथ का सामना किया। निजाम की सेना अभी तक हैदर अली के साथ थीं। उसने युद्ध में धोखा दिया ओर उसके विश्वासघात के कारण, हैदर अली की सेना को पीछे को ओर हटना पड़ा। त्रिनमल्ली में पराजित होने के बाद हैदर अली ने फिर तैयारी की और वनियम बाड़ी के किले पर हमला किया। पराजित होने की अवस्था में अंग्रेजों ने सफेद झंडा दिखाया। हैदर अली ने उस किले पर कब्जा कर लिया और अंग्रेजों को छोड़ दिया। हैदर अली के साथ सन्धि बम्बई की अंग्रेजी सेना के साथ मेंगलोर में टीपू सुल्तान का एक भयानक संग्राम हुआ। उसमें अंग्रेजों की हार हुई और अंग्रेज सेनापति के साथ साथ, उसके 46 अंग्रेज अफसर, छः सौ अस्सी अंग्रेज सैनिक और छः हजार हिन्दुस्तानी सिपाही कैद कर लिए गये। अंग्रेजी सेना के अस्त्र शस्त्र और युद्ध की बहुत सी सामग्री टीपू सुल्तान के अधिकार में आ गयीं। मंगलोर के किले और नगर पर हैदरअली का कब्जा हो गया। इसके बाद टीपू सुल्तान की सेना बंगलोर की ओर रवाना हुई। वहां पर जनरल स्मिथ और करनल वुड की सेनाओं के साथ युद्ध हुआ। अन्त में अंग्रेजों को यहां पर भी पराजय हुई। अब अंग्रेज सेनापतियों और नवाब मोहम्मद अली में इतनी ताकत न रह गयी थी जो वे हैदर अली के साथ आगे युद्ध करते। अंग्रेज दूतोंने हैेदर अली के पास जाकर सुलह की प्रार्थना की। कुछ शर्तों के साथ सन्धि हो गयी और हैदर अली ने अंग्रेजों का जीता हुआ हिस्सा उनको लौटा दिया। नवाब मोहम्मद अली का एक प्रान्त कारूड़ का सूबा सन्धि के अनुसार अंग्रेजों को दिया गया। इस सन्धि के साथ ही नवाब मोहम्मद अली के साथ भी सन्धि हुई। उसमें निश्चय हुआ कि नवाब मोहम्मद अली छ: लाख रुपये वार्षिक मैसूर को दिया करेगा। द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध हैदर अली के साथ अंग्रेजों की सन्धि के अभी बहुत थोड़े दिन बीते थे, मराठों ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया। सन्धि के अनुसार हैदर अली ने अंग्रेजों से सहायता की माँग की। लेकिन मद्रास की अंग्रेज काउन्सिल ने सहायता देने से इनकार कर दिया। इस अवस्था में हैदर अली ने मैसूर का कुछ इलाका देकर मराठों के साथ सन्धि कर ली। लेकिन अंग्रेजों पर उसका सन्देह पैदा हो गया। सन् 1778 ईसवी में मराठों के साथ टीपू सुल्तान ने फिर युद्ध किया और सन्धि में दिया हुआ मैसूर का इलाका उसने मराठों से जीत लिया। उसके बाद हैदर अली और मराठों में सन्धि हो गयी। ईस्ट इंडिया कम्पनी और नवाब मोहम्मद अली के साथ हैदर अली की जो सन्धि हुई थी, वह कुछ दिन भी न चल सकी। अंग्रेजों ने एक भी शर्ते को पूरा नहीं किया और नवाब मोहम्मद अली अंग्रेजों का अनुयायी था। कुछ ही दिनों में अंग्रेजों ने हैदर अली के विरुद्ध विष उगलना श्रारम्भ कर दिया। जो राजा मैसूर के सामन्त थे, वे मैसूर के खिलाफ विद्रोही किये जाने लगे। यह जानकर हैदर अली ने अंग्रेजों पर हमला करने का इरादा किया। अंग्रेजों की चालों और साजिशों से मराठे भी ऊब चुके थे। इसलिये नाना फड़नवीस ने अंग्रेजों से उनकी दगाबाजियों का बदला लेने के लिए हैदर अली से सन्धि कर लेना बहुत आवश्यक समझाऔर अपना दूत गनेशराव को भेजकर उसने हैदरअली से सन्धि की बातचीत की। सन् 1780 ईसवी में हैदरअली और मराठों के बीच सन्धि हो गयी और उन्होंने मिलकर भारत से अंग्रेज़ो को निकालने का विचार किया। नवाब मोहम्मद अली अंग्रेजों का साथी था हैदरअली अपनी सेना के साथ कर्नाटक की ओर चला। वहां के किले की रक्षा में अंग्रेंजी सेना थी और उसका अधिकारी सेनापति कारबी था। शूरबीर मराठों की सेना को साथ लेकर हैदरअली ने कर्नाटक के किले पर 10 जुलाई सन् 1780 ईसवी को हमला किया। उस युद्ध में अंग्रेजों की हार हुई। हैदर अली ने कर्नाटक के किले पर अधिकार किया और उसकी समस्त सामग्री और सम्पत्ति पर उसने कब्जा कर लिया। उसके बाद हैदर की सेना की राजधानी अरकाट की तरफ रवाना हुई। नवाब मोहम्मद अली वहां से भागकर मद्रास चला गया। मैसूर का पूरिमपाक का संग्राम 10 अगस्त 1780 ईसवी को हैदर अली की एक सेना मद्रास पहुँच गयी। हैदर अली स्वयं अपनी सेना के साथ अरकाट के पास था। 10 सितम्बर को अंग्रेजी सेनाओं के साथ हैदर अली का पुरिमपाक के मैदान में भयानक युद्ध हुआ। उस लड़ाई में अंग्रेजों को भयानक हानि उठाकर पराजित होना पड़ा। उसके बाद भी कई एक छोटी बड़ी लड़ाईयां अंग्रेजों ने हैदर अली के साथ लड़ीं और उनमें भी उनको लगातार हार हुई। उन लड़ाइयों को जीतकर हैदर अली ने अपनी विजयी सेना के साथ जाकर आरकाट को घेर लिया और तीन महीने तक वहां पर बराबर युद्ध हुआ। अन्त में विजयी होकर हैदर अली ने आरकाट के नगर और किले पर अधिकार कर लिया। आरकाट को विजय करने के पहले और पीछे हैदर की सेना ने अनेक स्थानों पर अंग्रेजी सेनाओं को पराजित किया और चित्तौड़ तथा चन्दरगिरि के किलों को जीतकर नवाब मोहम्मद अली के भाई अब्दुल बहाव खाँ को कैद कर लिया । थोड़े दिनों के युद्ध में ही टीपू सुल्तान ने महामण्डलगढ़, केलाशगढ़ और सातगढ़ के किलों को विजय कर उन पर अधिकार कर लिया। हैदर अली को इस लगातार विजय का आरम्भ उस समय हुआ था, जब नाना फड़नवीस के साथ उसने सन्धि कर ली थी। और सुलह की शर्तो’ के अनुसार, अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए मराठों की बहादुर सेनाओं ने हैदर अली के साथ रहकर अंग्रेजी सेनाओं से युद्ध किया था। 6 दिसम्बर सन् 1782 की रात को आरकाट के दुर्ग में हैदरअली की मृत्यु हो गयी। आरनी की विजय के बाद हैदरअली की कमर में फोड़ा पैदा हुआ था और उसका कष्ट बढ़ जाने के बाद उसे आरकाट के किले में आ जाना पड़ा था। वहीं पर उसकी मृत्यु हो गयी। हैदर अली के मर जाने के बाद, अंग्रेजों को भारत से निकालने के लिए नाना फड़नवीस की जो योजना थी, वह निर्बल पड़ गयी। टीपू सुल्तान के साथ युद्ध सन् 1786 ईसवी के सितम्बर में कार्नवालिस भारत में तीसरा गवर्नर जनरल होकर आया और आने के बाद थोड़े ही दिनों में उसने टीपू सुल्तान के साथ युद्ध करने की तैयारी की। वह भारत में अंग्रेजी शासन को मजबूत बनाने के लिए आया था। अमेरिका की संयुक्त रियासतें अभी कुछ वर्ष पहले तक इंग्लैण्ड की अधीनता में थीं। उन रियासतों के निवासी यूरोप के अनेक देशों से अमेरिका में जाकर बसे थे और उनके द्वारा वहां की अलग-अलग बसी हुईं रियासतें, अमेरिका की संयुक्त रियासतें कहलाती थीं। उन सभी रियासतों ने मिलकर अपनी आजादी के लिए इंग्लेंड के साथ युद्ध किया ओर भयंकर रक्तपात के बाद उन रियासतों को सदा के लिए स्वतन्त्रता मिली। 4 जुलाई सन् 1776 इसवी को उनकी स्वाधीनता की घोषणा की गयी। इन संयुक्त रियासतों के स्वाधीन हो जाने से इंग्लैड की बड़ी हानि हुई थी और कार्नवालिस भारत को अधीन बनाकर इग्लैड के उस हानि की पूर्ति करना चाहता था। सन् 1784 में टीपू सुल्तान के साथ कम्पनी की एक सन्धि हुई थी। उस सन्धि को ठुकरा कर कम्पनी के अधिकारियों ने उसके साथ युद्ध की तैयारियां कर दीं। युद्ध होने के पहले टीपू से मराठों को तोड़ने और अलग करने की कोशिशें की गयी। जून सन् 1790 ईसवी में अंग्रेजों की एक फौज जनरल मीडोज़ के सेनापतित्व में मद्रास से मैसूर पर हमला करने के लिए रवाना हुईं। उसकी सहायता के लिए करनल मेक्सवेल के अधिकार में बंगाल से एक अंग्रेजी फौज भी आयी थी। अपनी सेना लेकर टीपू सुल्तान मुकाबले के लिए रवाना हुआ। कई स्थानों पर दोनों ओर की सेनाओं में लड़ाईयां हुई। अंग्रेजी सेनायें टीपू सुल्तान के मुकाबले में ठहर न सकी। उनके बहुत से आदमी मारे गये ओर वे युद्ध के मैदान से मद्रास की ओर भागी। टीपू सुल्तान ने कर्नाटक के कई प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। टीपू सुल्तान के साथ सन्धि अंग्रेजी सेनाओं की इस पराजय का समाचार सुनकर कार्नवालिस स्वयं युद्ध के लिए तैयार हुआ। 12 दिसम्बर सन् 1790 को वह अपने साथ एक शक्तिशाली सेना लेकर कलकत्ता से मद्रास की तरफ चला। निज़ाम ओर मराठों के साथ कम्पनी ने सन्धि कर ली थी। इसलिए मराठों के साथ न देने के कारण, टीपू सुल्तान की शक्ति कमजोर पड़ गयी। फिर भी उसने साहस नहीं तोड़ा। कार्नवालिस की सेना के साथ टीपू सुल्तान का भयानक युद्ध हुआ। लेकिन बाद में टीपू सुल्तान को युद्ध से पीछे हटना पड़ा। अंग्रेजी सेना ने बैंगलोर पर कब्जा कर लिया। मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टन में थी। अंग्रेजी सेना ने वहां पर चढ़ाई की। टीपू सुल्तान अपनी कमजोरी को समझता था। उसने अंग्रजों के साथ सन्धि कर लेना चाहा और दूत भेजकर उसके लिए उसने कोशिश की। लेकिन कार्नवालिस ने सन्धि करने से इन्कार कर दिया। अब युद्ध के सिवा टीपू सुल्तान के सामने कोई रास्ता न था। जिन मराठों की सहायता पर उसने किसी समय अंग्रेजों के छक्के छुटा दिये थे, वे मराठे आज उसके साथ न थे। निजाम भी अंग्रेजों का ही साथ दे रहा था। मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टन को अंग्रेजी सेना ने घेर लिया। उसी मौके पर जनरल मीडोज़ ने अपनी सेना लेकर सोमरपीठ के मशहूर बुर्ज पर आक्रमण किया। उसकी रक्षा के लिए टीपू सुल्तान की जो सेना वहां पर थी, उसने अंग्रेजी सेना के साथ युद्ध किया। दोनों ओर के बहुत से आदमी मारे गये। उस बुर्ज में मैसूर की सेना का अध्यक्ष सैयद गफ़्फ़ार था। उसके मुकाबले में मीडोज़ पराजित होकर अपनी सेना के साथ वहां से भागा। वह इस समय बहुत हताश हो चुका था। कम्पनी के साथ मराठों की सन्धि से टीपू सुल्तान बहुत कमजोर पड़ चुका था। इसलिए उसने मराठों के साथ फिर से सन्धि का प्रस्ताव किया। नाना फड़नवीस के बीच में पड़ने से दोनों दलों में सन्धि की मन्जूरी हुई। टीपू का आधा राज्य अंग्रेजों, मराठों और निजाम में बाँटा गया। तीन करोड़, तीस हजार रुपये की अदायगी दंड-स्वरूप टीपू सुल्तान पर लादी गयी और इस अदायगी के समय तक के लिए टीपू सुल्तान को अपने दो बेटे, अब्दुल खालिक जिसकी आयु दस वर्ष की थी और मईजुद्दीन जिसकी आयु आठ वर्ष की थी, रहन करके अंग्रेजों की सुपुर्दगी में देने पड़े। इस प्रकार मैसूर के दूसरे युद्ध का अन्त हुआ और सन् 1792 ईसवी में इन शर्तों को स्वीकार करके टीपू को श्रीरंगपट्टन में सन्धि करनी पड़ी। तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध सन् 1792 ईसवी में अंग्रेजों, मराठों और निजाम के साथ टीपू सुलतान की सन्धि हो चुकी थी और उस सन्धि की शर्तों को उसे अपनी विवशता ओर निर्बलता में मन्जूर करना पड़ा था, उसके सामने दूसरा कोई रास्ता न था। रुपये की अदायगी में टीपू ने एक करोड़ रुपये उसी समय दिये थे और बाकी रुपयों की अदायगी के लिए, बेटों को रहन पर दे देने के बाद भी, उसे दो साल का समय मिला था। इसके बाद भी कम्पनी के अधिकारी टीपू को मिटा देने की कोशिश करते रहे। एक ओर अंग्रेज अधिकारी टीपू के साथ युद्ध करने के बहाने ढूंढ रहे थे, और दूसरी और उन्हीं दिनों में उसके पास स्नेह और सहानुभूति भरे पत्र भेजे जा रहे थे। शत्रु को धोखे में रखने के लिए राजनीति की यह एक भयानक चाल थी। टीपू सुल्तान से युद्ध करने के लिए अंग्रेजों को अभी तक कोई बहाना न मिला था। इसलिए वेल्सली ने उसे लिखा कि आपके दरबार में अंग्रेज अफसर मेजर डबटन भेजा जायगा। वह शांति कायम रखने के लिए अपनी आवश्यकतानुसार, आपसे कुछ जिले माँग लेगा। इसके बाद वेल्सली कलकत्ता से रवाना हुआ और 31 दिसम्बर सन् 1798 ईसवी को वह मद्रास पहुँच गया। टीपू सुल्तान मजबुर था और अपनी बेबसी में अंग्रेजों की धमकियां सुनकर दर्द भरी आहें ले रहा था। वह साफ-साफ कुछ कह न सकता था। 9 जनवरी सन् 1799 को टीपू के पास वेल्सली का एक पत्र पहुँचा उसमें लिखा था– “आप अपने समुद्र के किनारे के सब नगर और बन्दरगाह अंग्रेजों के सुपुर्द कर दें।” यह पत्र भेजकर चौबीस घन्टे के भीतर जवाब माँगा गया था। वास्तव में यह माँग न थी, युद्ध के लिए तैयार होने की सूचना थी। 3 फरवरी 1799 ईसवी को अंग्रेजी सेना टीपू सुल्तान के राज्य पर आक़्रमणकरने के इरादे से रवाना हुई। इस बीच में टीपू अंग्रेंजों की माँग को पूरा करने के लिए भी तैयार था और किसी प्रकार सिर पर आने वाले संकट को वह बचाना चाहता था। उसकी प्रार्थनाओं की वेल्सली ने कुछ परवा न की और 22 फरवरी सन् 1799 ईसवी को टीपू के विरुद्ध युद्ध करने की घोषणा कर दी गयी। मरता क्या न करता टीपू सुल्तान को युद्ध के लिए तैयार होना पड़ा। अंग्रेजी सेना का आक्रमण अंग्रेज़ों के साथ युद्ध करने के लिए टीपू सुल्तान ने अपनी एक सेना अपने ब्राह्मण मन्त्री पूनिया के सेनापतित्व में रवाना की। रायकोट नामक स्थान से कुछ दूरी पर एक मैदान में दोनों सेनाओं का मुकाबला हुआकम्पनी की सेना ने तेजी के साथ आक्रमण किया और उसी मौके पर सेनापति पूर्निया को मिलाने की भी कोशिश की गयी। सेनापति पूर्निया टीपू की निर्बलता को जानता था। अपने प्राण बचाने के लिए वह अंग्रेजों के साथ मिल गया। उसी मौके पर टीपू की एक दूसरी सेना युद्ध के लिए पहुँच गयी। उसका संचालन स्वयं टीपू सुल्तान कर रहा था। अंग्रेजी सेना का सेनापति जनरल हेरिस था। वह॒ मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टन की और बढ़ रहा था। टीपू सुल्तान की सेना के अनेक अफसर युद्ध नहीं करना चाहते थे। इसलिए वे धोखा देकर टीपू को एक दूसरे ही रास्ते पर ले गये। लेकिन कुछ समय के बाद ही टीपू को इस दगाबाजी का पता चल गया। वह अपनी सेना के साथ बड़ी तेजी में वहां से रवाना हुआ और गुलशनाबाद के पास पहुँच कर उसने अंग्रेजी सेना को आगे बढ़ने से रोका। दोनों ओर से युद्ध आरम्भ हो गया। उस मार-काट में दोनों सेनाओं के बहुत से सैनिक औरर अफसर मारे गये। टीपू ने अपने सेनापति कमरुद्दीन को सेना के साथ आगे बढ़ने और शत्रु पर जोरदार आक्रमण करने की आज्ञा दी। वह अंग्रेजों के साथ पहले से ही मिला हुआ था। अनेक प्रलोभन देकर अंग्रेजों ने उसे तोड़ लिया था। कमरुद्दीन अपनी सेना के साथ आगे बढ़ा और घुमकर उसने टीपू की सेना पर आक्रमण किया। इस समय अपने सेनापति के विश्वासघात के कारण टीपू सुल्तान के अचानक बहुत से आदमी मारे गये औरर उसे युद्ध में पराजित होना पड़ा। लेकिन पीछे हटकर टीपू ने युद्ध को जारी रखा। इसके बाद उसे समाचार मिला कि बम्बई की एक अंग्रेजी सेना को लेकर जनरल स्टुअर्ट श्रीरंगपट्टन पर आकमण करने आ रहा है। तुरन्त हेरिस के मुकाबले में अपनी एक फौज छोड़ कर टीपू सुल्तान वहां से रवाना हुआ। बड़ी तेजी से चल कर टीपू ने बम्बई की सेना को मार्ग में ही जाकर रोका और उस पर भयानक हमला किया। बहुत देर तक घमासान युद्ध करने के बाद उसने अंग्रेजी सेना को पराजित किया और जनरल स्टुअर्ट की सेना को इधर उधर भागने के लिए मजबुर कर दिया। टीपू सुल्तान उसके बाद श्रीरंगपट्टन की तरफ रवाना हुआ। श्रीरंगपट्टन का संग्राम इस समय तक जनरल हेरिस की सेना श्रीरंगपट्टन के करीब पहुँच चुकी थी। अंग्रेजी सेना ने राजधानी के किले और नगर पर गोले बरसाने शुरू कर दिये। टीपू सुल्तान के सेनापति और सरदार युद्ध नहीं करना चाहते थे। उनको अपनी विरोधी परिस्थितियों का ज्ञान हो चुका था। उनके दिल टूट चुके थे। उन सब ने टीपू को अंग्रेजों से सन्धि करने की सलाह दी। लेकिन टीपू सुल्तान ने इस सलाह को मंजूर नहीं किया। बम्बई की अंग्रेंजी सेना भी वहां पर पहुँच गयी। युद्ध प्रारम्भ हो गया। अंग्रेजों के अपमानपूर्ण व्यवहारों से टीपू सुल्तान बहुत ऊब चुका था। वह अब लड़ कर मर जाना पसन्द करता था। जीवन की इस निराश अवस्था में उसने भयानक संग्राम किया। लेकिन अपने विश्वासी शूरमाओं की दगाबाजियों का उसके पास कोई उपाय न था। जिनके बल-भरोसे पर युद्ध करके वह एक बार अंग्रेजों को परास्त करने का हौसला रखता था, वे सब अंग्रेजों के जाल में फंस चुके थे और उन्हें जो प्रलोभन दिये गये थे, उनको पाने के लिए वे सब के सब टीपू सुल्तान का अन्त चाहते थे। इस दशा में युद्ध का जो नतीजा हो सकता था, उसे टीपू खूब समझ रहा था। उसकी सारी शक्तियां अंग्रेंजों के हाथों में चली गयी थीं। इसलिए जो युद्ध उसने आरम्भ किया था, वह युद्ध उसके जीवन का अन्तिम युद्ध हो रहा था। टीपू सुल्तान ने अन्त में भली प्रकार समझ लिया कि मेरे आदमी अब खुल कर मेरे साथ दगा कर रहे हैं। वह निराश हो गया। इसी दशा में उसने देखा कि श्रीरंगपट्टन का मजबूत किला शत्रुओं के हाथों में चला गया। उसने वहा से निकलने की कोशिश की लेकिन उसको निकल कर बाहर जाने का रास्ता नहीं मिला। अंग्रेजी सेना किले में प्रवेश कर चुकी थी और टीपू के बहुत से आदमी मारे जा चुके थे। जो बाकी थे, वे अंग्रेजों के साथ मिले हुए थे। टीपू ने आखीर समय तक युद्ध किया। उसका शरीर अब॒ थक चुका था। उसके हाथ लगातार निकम्मे होते जाते थे। वह अपने मरने का समय निकट समझ रहा था। फिर भी उसने अपने सरदारों ओर शूरवीरों को ललकार कर शत्रुओं को मारने का आदेश दिया। इसी समय एक गोली टीपू की छाती में बाई ओर आकर लगी। वह बुरी तरह से घायल हो गया। उसके बाद दूसरी गोली उसके दाहिनी और छाती में लगी। टीपू का घोड़ा घायल हो कर जमीन पर गिर गया। टीपू सुल्तान के गिरने में अब देर न थी। इसी समय तीसरी गोली उसके सिर में लगी। टीपू सुल्तान अचेत हो कर जमीन में गिर गया और सदा के लिए इस संसार को छोड़ कर वह चला गया। उसका मृत शरीर लाशों के ढेर में पड़ा था। लेकिन वीर आत्मा टीपू सुल्तान अब इस संसार में न था। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—- झेलम का युद्ध - सिंकदर और पोरस का युद्ध व इतिहास झेलम का युद्ध भारतीय इतिहास का बड़ा ही भीषण युद्ध रहा है। झेलम की यह लडा़ई इतिहास के महान सम्राट Read more चंद्रगुप्त मौर्य और सिकंदर का युद्ध - सेल्यूकस और चंद्रगुप्त का युद्ध चंद्रगुप्त मौर्य और सिकंदर का युद्ध ईसा से 303 वर्ष पूर्व हुआ था। दरासल यह युद्ध सिकंदर की मृत्यु के Read more शकों का आक्रमण - शकों का भारत पर आक्रमण, शकों का इतिहास शकों का आक्रमण भारत में प्रथम शताब्दी के आरंभ में हुआ था। शकों के भारत पर आक्रमण से भारत में Read more हूणों का आक्रमण - हूणों का इतिहास - भारत में हूणों का शासन देश की शक्ति निर्बल और छिन्न भिन्न होने पर ही बाहरी आक्रमण होते है। आपस की फूट और द्वेष से भारत Read more खैबर की जंग - खैबर की लड़ाई - महमूद गजनवी और अनंगपाल का युद्ध खैबर दर्रा नामक स्थान उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान की सीमा और अफ़ग़ानिस्तान के काबुलिस्तान मैदान के बीच 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