
मैतेई समुदाय
वैसे तो मणिपुर में अनेक जातियां जनजातियां बस्ती है किन्तु मणिपुर प्रदेश के असली निवासियों को मैतेई कहा जाता है। जो हिन्दू धर्म से संबंध रखते हैं। वैसे तो इन लोगों की सक्लेंचीनी लोगों की भांति ही होती हैं परन्तु इन का डील डौल उनकी तरह नाटे कद का नहीं होता। अपितु यह भारत के अन्य आर्य वंशजों की भांति ही उच्च तथा बलिष्ठ शरीर के होते हैं। इनके मुख की बनावट चीनी लोगों से कुछ कुछ मिलती जुलती है परन्तु बहुत से लोग इनमें ऐसे भी हैं, जो हमारी तरह ही सरल मुखाकृति के भी है । कारण यह है, कि वास्तव में यह आर्यो के ही वंशज हैं, परन्तु सीमा प्रदेश के निवासी होने से बाहर की जातियों से भी इनका सम्बन्ध रहा है तथा उन से विवाह आदि सम्बन्ध स्थापित करने के कारण से, कुछ वंशों की मुखाकृतियां विदेशी लोगों से मिलने जुलने लगी है।
यहां पर बसने वाले मैतेई समुदाय के लोगों की मुख्य जीविका कृषि है। पर बहुत से लोग वनों में लकड़ी आदि काटने तथा ढोने का काम भी करते हैं। जगह जगह अनेक प्राकृतिक जल कुण्डों में लोगों ने मछली पकड़ने का व्यवसाय भी स्वीकार कर रखा है, क्योंकि मछली यहां का मनभाता खाजा है। मछली का सालन तथा सुगन्धित चावल साथ साथ खाने का इन्हें बड़ा चाव होता है। यही इन लोगों का सर्व प्रिय भोजन है।
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मैतेई समुदाय और उनका जनजीवन
स्त्रियों को छपे हुये रेशमी वस्त्र, ज़री के कढ़े़ हुए सुन्दर बेल बूटे दार मखमली कपड़े, रंग बिरंगी चादरें, तथा सोने के जेवर पहनने की राज्य की और से पूर्ण मनाही है। इसका यह अभिप्राय नहीं, कि वहां के लोगों को सामाजिक स्वतन्त्रता नहीं। यह क़ानून तो प्राचीन विद्वानों का बनाया हुआ है, जिसके अनुसार प्रजा की विलास प्रियता को दूर कर के उनके बीच, सुख शान्ति की स्थापना करना था। यह तो शास्त्रों में भी लिखा है, कि जो किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखेगा, वह किसी वस्तु का अधिकार भी नहीं मांगेगा। और जो व्यक्ति विलासी न होगा वह शरीर की शोभा बढ़ाने वाली वस्तुओं से कभी प्रीति नहीं रखेगा। प्रजा को विलास से बचाने के लिये तथा सुखी बनाने के लिये ही प्राचीन विद्वानों ने राज्य की ओर से क़ानून बनवाया था। आज अनेक वर्ष बीत जाने के पश्चात भी वही कठोर प्रतिबन्ध यहां की जनता का एक उच्च सामाजिक नियम बना हुआ प्रतीत होता है।
इन से स्पष्ट है, कि यहां के प्राचीन विद्वान आचरण की शुद्धि पर कितना अधिक बल देते थे। सच पूछो तो यही एक ऐसा मार्ग है, जिसके द्वारा संसार के प्रत्येक मनुष्य के जीवन को सुखी बनाया जा सकता है। मैतेई जाति के विद्वानों के लोग सदाचार को जीवन की सब से बड़ी सम्पत्ति मानते थे। धन होते हुये भी यहां अपव्यय पर कितनी रोक थी। वास्तव में आज के युग के मानव में यदि कोई जाति सच्चे सुख से युक्त है, तो वह केवल यही मैतेई हैं। इस प्रदेश में स्त्रियों के लिये ही विलास-युक्त वस्तुओं के प्रयोग की मनाही नहीं है, बल्कि पुरुषों के लिये भी ऐसी ही कानूनी धाराएं निर्धारित हैं। पर यह तो पुरानी बातें थीं, जब क़ानून की शक्ति से इस प्रतिबन्ध की रक्षा की जाती थी। आज तो बिना क़ानून के ही यहां के लोग इस प्राचीन क़ानून को अपना धर्म मान कर इस का अनुकरण करते चले आ रहे हैं। राजा, रानी तथा उनके अन्य घनिष्ट रिश्तेदारों को इस नियम के बन्धन में नहीं रहना पड़ता। वे यदि चाहें तो मन चाही वस्तु का उपयोग कर सकते थे। किसी प्रकार की भी अधिक कीमती वस्तुएं सेवन करने का उन्हें पूर्ण अधिकार होता था। मैतेई लोगों के बीच यदि राजघराने के सिवाये कोई कभी ऐसी वस्तुओं का सेवन कर भी ले, तो उसे ओछा, नीच कर्मी तथा समाज का शत्रु समझा जाता था। कृषि ही यहां के लोगों के जीवन का मुख्य आधार है, इसलिये पुरुषों के साथ साथ स्त्रियों को भी खेतों में काम करना पड़ता है। परन्तु इस क्षेत्र में लोगों को सिंचाई आदि के लिये हमारी तरह घोर परिश्रम नहीं करना पड़ता। फ़सल के प्रारम्भ में बीज बो देना, तथा जब तक खेती पक कर तैयार न हो जाये तब तक पशु पक्षियों तथा अन्य प्राकृतिक-आक्रमणों से उसकी रक्षा करना और फिर काट कर अपने जीवन यापन हेतु रख कर शेष धान बेच देना ही इन लोगों के वर्ष भर का कार्य है।
मैतेई समुदायखेती के कार्यो के काम करने के पश्चात भी वर्ष का पर्याप्त भाग इन लोगों को अवकाश रूप में पर्याप्त हो जाता है। इसलिये ऐसे समय में या तो यह लोग शिकार करते फिरते हैं और या वनों में काम करते हैं। शिकार खेलने के लिये यहां इतनी भारी संख्या में जंगली जानवर पायें जाते हैं, कि शिकारी लोग इस भूमि को शिकार के लिये ईश्वर की वरद भूमि समझते हैं। शेर, चीते, बारह सिंघे, जंगली बकरे, हिरन तथा बधेरों के मारे मणिपुर के जंगल भरे पड़े हैं। अवकाश के समय मैतेई स्त्रियों को भी व्यर्थ में समय नष्ट करने की आदत नहीं, अपितु ऐसे समय में वह कताई, बुनाई, सीना, पिरोना तथा कढ़ाई आदि शिल्प कार्यो में मन लगाती हैं। इन शिल्प-कलाओं में यह स्त्रियां पूर्ण रूप में दक्ष होती हैं।
मैतेई लोगों में एक बड़ी अनोखी प्रथा यह है, कि यह लोग अपनी अविवाहित कन्याओं के केश कान के आगे के भाग बिल्कुल घुटाये रखते हैं। विवाहित स्त्रियों के बाल नहीं कटाये जाते। कैशों को चोटी रूप में गूंथने का रिवाज मणिपुर की स्त्रियों में नहीं हैं, अपितु वह बालों को कंघी से संवार कर पीछे को खुला छोड देती हैं, और या बंगला फैशन के जूड़े की तरह पीछे बांध लेती है। इन के गोरे गोरे स्वच्छ चमकीले शरीर पर फहराती हुई केश राशियाँ निराली शोभा बखेरती हैं। बगला ढंग के मतवाले पुष्पाकृति जूड़े इतने सुशोभित होते हैं, कि देखने वाले इनका गुणगान किये बिना नहीं रह सकते। सिर के केश बढ़ाने का चाव पुरुषों में भी है। परन्तु मूछ तथा दाढ़ी कोई कोई ही रखता है। आज के फैशन में रंग कर कोई कोई व्यक्ति तो सिर के बाल भी कटवाने लगें हैं। बच्चों के अथवा लड़कों के सिर बिल्कुल घुटे हुए रखे जाते हैं।
नारी का स्थान मैतेई समुदाय में पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक उच्च तथा स्वतन्त्र समझा जाता है। परदे का रिवाज यहां की स्त्रियों में बिल्कुल भी नहीं है। पुरुषों से बात चीत करते हुये अन्य भारतीय प्रदेशों की नारियों की भांति इन्हें झिझक नहीं लगती। यहां तक कि इस क्षेत्र में स्त्रियां बड़े बड़े व्यापार चलाती हैं। इसके अतिरिक्त इस प्रदेश के बाज़ारों तथा ग्राम की हाटों में दुकानों को चलाने वाली अधिकतर स्त्रियां ही पायी जातीं हैं।ग्राहकों में भी अधिक संख्या स्त्रियों की ही दिखाई पड़ती है। जिस निपुणता से यह नारियां क्रय-विक्रय करती हैं उसे देख कर आश्चर्य होता है। प्रकृति के सौन्दर्य की तरह यहां की स्त्रियां रूप तथा गुणों से युक्त हैं। भले ही यह वनों में वास करने वाली सुन्दरियां हैं, परन्तु फिर भी इन की बोल चाल, रहन-सहन, खाना-पीना, तथा परस्पर व्यवहार इतना सरल होता है, कि कहते नहीं वन पड़ता। इस प्रदेश में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक विकास हुआ है।
आज हम अपने आप को इन लोगों को आदिवासियों के समान जंगली कह कर उन की अपेक्षा भले ही कर दें, परन्तु यदि हम उनके गौरवपूर्ण प्रतीत की ओर दृष्टिपात करें, तो यह स्पष्ट हो जायेगा, कि कभी उनकी सभ्यता भी संसार की एक श्रेष्ट-सभ्यता थी। और अतीत ही क्यों ? आज भी उन के जीवन में कहीं कहीं ऐसी विशेषताएं हैं कि जिन के समक्ष हमें झुकना पड़ेगा। यह सत्य है, कि अनेकों बातें उनके आचरण में इस प्रकार की हैं, जो आज के सभ्य समाज से कहीं अधिक उच्च तथा महान आदर्श रूप में दिखाई पड़ती हैं।
इस प्रदेश के निवासियों को कानों में चांदी आदि धातुओं की बालियाँ पहनने का बड़ा चाव होता है। यह बालियाँ स्त्री तथा पुरुष सभी के कानों में सुशोभित दीख पड़ती हैं। स्त्रियां इससे अधिक और तो कोई आभूषण नहीं पहनती, परन्तु नाक के दोनों ओर के नथनों में स्वर्ण आथवा चाँदी की लौंगें पहनने का अधिक रिवाज है। नाक में दोनों ओर पहनी गई लौंगों को देख कर दक्षिणी भारत अथवा मद्रास आदि प्रदेशों की नारियों की याद आने लगती है, क्योंकि उन प्रदेशों की नारियां भी नाक के दोनों नथनों में लौंगें पहनती हैं। पर दक्षिणी भारत के शहरों में तो आधुनिक फैशन की समर्थक देवियों ने इस प्राचीन प्रथा का त्याग कर दिया है।
सामाजिक दृष्टि से मैतेई समुदाय के जीवन को तीन भागों से बांटा गया है। इसी के अनुसार उनकी आय-व्यय, खाना-पीना, ओढ़ना पहनना, उठना बैठना चला करता है। सत्र से पहला भाग राजा, तथा बहुत अमीर लोगों का होता है। लोग अपने सामने एक रक्त- वर्ण ऊनी वस्त्र रखा करते हैं यही इन लोगों की पहचान है। द्वितीय भाग उन लोगों का होता है, जो न तो बहुत अमीर ही हैं और न ही अत्यंत निर्धन। ऐसे लोगों पर विलासी जीवन का सुख लूटने की पाबन्दी समझी जाती थी, परन्तु राज्य की आज्ञा प्राप्त कर लेने के पश्चात् यदि लोग चाहें, तो नियत सीमा तक विलासमय जीवन बिता सकते हैं, इन लोगों की मुख्य पहचान यह है कि यह अपने समक्ष हरे रंग का ऊनी वस्त्र रखते हैं। सब से अन्त में तीसरा भाग गरीब लोगों का होता है। किसी प्रकार का भी विलासी जीवन यह लोग नहीं बिता सकते। और यदि चेष्टा भी करें, तो समाज के द्रोही समझे जाते हैं। क्योंकि ऐसा करने से उनकी रही सही आर्थिक दशा के भी बिगड़ जाने का भय होता है। इन लोगों की पहचान यह है, कि यह लोग अपने समक्ष सरल साधारण सूती वस्त्र रखते हैं। इस प्रकार से आर्थिक सन्तुलन स्थापित करने के लिए यहां के पूर्वजों ने कितना उच्च कोटि का सामाजिक विधान बनाया है। जिससे इनके पूर्वजों की महानता को विस्मृत नहीं किया जा सकता।
अब प्रश्न यह उठता है, कि मैतेई समुदाय के वह पूर्वज कोन थे ? जिनके आदर्शो की पूजा करने को जी चाहता है, और जिन्होंने मणिपुर समान स्वर्ग-भूमि में अपना वास रखा और यहां एक श्रेष्ठ तथा उच्च कोटि की सभ्यता की स्थापना की जिनके अस्तित्व ने यहां सोने पर सुहागे का सा काम किया। जिन पूर्वजों ने इस प्रदेश को अग्नि से तप कर निखर पड़ने वाले स्वर्ण के समान शुद्ध तथा श्रेष्ठ भूमि बना दिया था, वास्तव में उन को जानने के लिये कौन उत्सुक नहीं होगा। आप यह जान कर गर्व अनुभव करेंगे, कि वह महान आत्मायें हमारे ही पूर्वज प्राचीन आर्य थे। वही आर्य जिन की सर्वश्रेष्ठ सभ्यता जगत प्रसिद्ध है, वास्तव में मैतेई लोग यहां के आदिवासी नहीं। कुछ कारणों से इन लोगों ने हम से पिछड़ कर तथा अन्य आदिवासिथों का सम्पर्क पा कर हम से संकोच करना आरंभ कर दिया इसीलिये अन्य भारतवासियों ने इन की ओर अधिक ध्यान न दे कर इन्हें आदिवासी समझ लिया, और चिरकाल से समझते आ रहे हैं। महाभारत के श्रेष्ठ ग्रंथ में इस प्रदेश का प्रमाण मिलता है। तथा उसमें भी यहां आर्य राज्य की झलक दिखाई गई है। उसे एक प्रकार से पृथ्वी का स्वर्ग बताया गया है, तथा वहां आर्यो के ही वास का उल्लेख किया गया है।
इतिहासकारों का मत है, कि मणिपुर का प्राचीन नाम मनिद्रपुर था। तथा अन्य कथाओं से भी यह पता चलता है। प्राचीन ग्रंथों से पता चलता है, कि महाभारत में प्रसिद्ध नायक धनुष-धारी अर्जुन ने महाराजा द्रुपद की शर्त पूरी कर के राजकुमारी द्रौपदी से विवाह रचाया। और एक तरह से द्रौपदी पर पांचों पांड़वों का अधिकार निश्चित हुआ। परन्तु एक ही समय द्रौपदी सभी भ्राताओं के पास नहीं रह सकती थी। इस लिये देवर्षि नारद की सम्मति से यह निश्चय किया गया, कि जब तक एक भ्राता द्रौपदी के साथ एकान्त में रहेगा, तब तक अन्य किसी भी भ्राता को उनके स्थान पर जाने का अधिकार नहीं होगा। जो भी भ्राता इस नियम को तोड़ेगा, उसे बारह वर्ष तक वन में रहना पड़ेगा।
एक समय जब युधिष्ठिर द्रौपदी से बातें कर रहे थे, और अर्जुन
महल के बाहर टहल रहे थे, तभी एक ब्राह्मण ने आकर अर्जुन से कहा कि कुछ दुष्ट लुटेरों ने मेरी गायें छीन ली हैं। तुम दौड़ कर उन्हें बचाओ। अर्जुन सहायता करने के लिये अपने सस्त्र लाने दौड़े, परन्तु तभी उन्हें ज्ञात हुआ, कि जिस कमरे में धर्मराज बैठे द्रोपदी से बातें कर रहे हैं। उसी में उसके अस्त्र शस्त्र पड़े हैं। यह सोच कर अर्जुन बड़े परेशान हो गये। क्योंकि यदि वह ब्राह्मण की रक्षा न करें, तब उन्हें पाप का भय होता है और यदि कमरे में जाते हैं, तो नियम टुटता है। पर कर्तव्य के समक्ष उन्होंने नियम को तुच्छ समझा ओर तुरन्त कमरे में से सस्त्र ला कर ब्राह्मण की गायें छुड़ा लाये। परन्तु नियम का उल्लंघन करने पर शेष भ्राताओं ने अर्जुन को अपने से अलग कर दिया।
भ्राताओं से अलग हो कर अर्जुन नियमानुसार 12 वर्ष के लिये
वनवास भोगने चल दिये। यह सब कष्ट अर्जुन ने सहर्ष भोगना स्वीकार किया। बड़े बड़े कष्ठ सहे, परन्तु इसका उन्हें तनिक भी खेद न हुआ। इसी प्रकार काफी दिन बीत गये। और इन दिनों में भारत-श्रेष्ठ अर्जुन वनों की धूल छानते हुए, न जाने कहां से कहां जा पहुँचे। वन में एक दिन अर्जुन एक नदी में स्नान करने के लिये उतरे कि नाग कन्या “उलूपी” भी वही कहीं निकट ही जल-विहार कर रही थी। उसने जब इस श्रेष्ठ तथा सुन्दर प्राणी को देखा, तो मोहित हो गई, तथा किसी भी प्रकार इन्हें प्राप्त करने का निश्चय किया और तुरन्त स्नान मग्न अर्जुन की टांग पकड़ कर जल के भीतर ही भीतर खींचती हुई उन्हें अपने महलों में ले गई। अर्जुन ने भी जब उलूपी को देखा, तो वह उन्हें परम सुन्दरी प्रतीत हुई, और वह उस से प्रेम करने लगे। अर्जुन समान वीर के असीम प्रेम ने उलूपी को पागल बना दिया, और उसने प्रसन्न होकर अर्जन को वरदान दिया, कि अब आपको किसी भी जलचर प्राणी से भय नहीं रहेगा। कुछ वर्ष बिताने के पश्चात अर्जुन मनीद्रपुर पहुँचें तथा वहां के राजा चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा से विवाह कर लिया। परन्तु विवाह से प्रथम राजा ने अर्जुन से एक प्रतिज्ञा कराई थी, जिसके अनुसार उसके होने वाले पुत्र पर राजा ने अपना अधिकार निश्चित किया था। कारण यह था, कि उसके अपना कोई पुत्र न था। इसलिये चित्रांगद के गर्भ से उत्पन्न अर्जुन पुत्र ही मनीद्रपुर का प्रथम आर्य राजा हुआ।
मनीद्रपुर के इस प्रथम सम्राट का नाम वीर वभ्रुवाहन था। वभ्रुवाहन के पश्चात सुप्रबाहू, तथा पाखंगम्बा आदि राजा हुये। पाखंगम्बा ने ही नाग देश पर विजय प्राप्त करके नाग-राज से नाग-मणि प्राप्त की थी। तभी से इस प्रदेश का नाम मणिपुर पड़ गया। हो सकता है कि नाग-देश भी उस समय आज के नागा प्रदेश को ही कहा जाता हो। क्योंकि यह प्रदेश मणिपुर के निकट ही स्थित है।
मणिपुर प्रदेश में ‘सिलचार’ नामी एक रेलवे स्टेशन भी हैं। यहां आ कर भारतीय रेलवे लाइन समाप्त हो जाती है। मणिपुर प्रदेश में और आगे जाने के लिये, मोटरों द्वारा पहुँच जाता है। परन्तु अधिकतर भाग पहाड़ी होने के कारण सड़कों का प्रबन्ध नहीं, इसलिये बहुत से स्थान ऐसे भी हैं, जहां पैदल चल कर जाना पड़ता है। “इम्फाल’ इस प्रदेश का सब से बड़ा नगर तथा राजधानी है। वैसे तो इस नगर का नाम इम्फाल ही अधिक प्रचलित है, परन्तु यहां के मेयेगण, उसे अपनी प्रादेशिक भाषा में सेना कैथल कहते हैं। यह नगर पर्वत खण्ड पर बसाया गया है। आर्य-सभ्यता के समर्थकों के साथ यहां आज के यूरोपियन-सभ्यता के पुजारी भी प्रायः दिखाई देते हैं। यहां के लोग अपना भोजन अधिकतर मिट्टी के पात्रों में ही बनाते हैं। कहते हैं, कि धातुओं के बने बर्तनों में पकाने से खाद्य-पदार्थ का सारा मिठास तथा शक्ति नष्ट हो जाती है, परन्तु आजकल कुछ लोग धातु के बर्तनों में ही खाना पकाने लगे हैं। यह सब फैशन तथा यूरोपियन ढंग में घुल मिल जाने का प्रभाव है।
मैतेई जाति के लोगों के जीवन में एक चीज़ बड़ी महत्वपूर्ण है। जिस पर समाज की ओर से पूर्ण स्वतन्त्रता है, और वह है नृत्य। यहां के कला से भरपूर नृत्य जगत-प्रसिद्ध हैं। यहां विवाह से पहले कन्याओं को नृत्य सिखाना उतना ही आवश्यक समझा जाता है, जितना कि गृहस्थ के अन्य कार्य सिखाना, गृहस्थ जीवन में नृत्य को एक श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। परन्तु इस प्रदेश में इसे व्यवसाय रूप में प्रयोग करना, तथा बाज़ारों आदि में प्रदर्शित करने के लिये पूर्ण सामाजिक प्रतिबन्ध है। भारतीय नृत्य-कला आज भी इन लोगों के पास सुरक्षित हैं, जिस पर हमें सदा गर्व रहेगा। विवाह आदि अवसरों पर जब स्त्रियां अपनी सखियों के बीच इस कला का शास्त्रीय-रीति से प्रदर्शन करती हैं, तो अपनी इस भारतीय गौरव पूर्ण कला के सामने जगत की अन्य नृत्य कलाएं फीकी प्रतीत होती हैं।
यहां के सभी जन अधिकतर हिन्दू धर्म को ही मानने वाले हैं, तथा अपने देवताओं में पूर्ण श्रद्धा रखते हैं। इन लोगों का सब से बड़ा धार्मिक त्यौहार “लाई हरोबा’ है, जिसे ये लोग बड़ी धूमधाम से मनाते हैं तथा उसके उत्सव में श्रद्धा पूर्वक भाग लेते हैं। इस त्यौहार के दिन किसी भी आदमी पर किसी भी प्रकार की पाबन्दी नहीं रहती। हर एक व्यक्ति को सर्व प्रकार की सामाजिक स्वतन्त्रताएं प्राप्त होती है। इस अवसर पर ग़रीब भी सोने चांदी के अलंकार, अमूल्य वस्त्र तथा अन्य विलास पूर्ण वस्तुओं का उपभोग कर सकता है। परन्तु केवल उसी दशा में जब कि वह उसे पाने में समर्थ हो। स्त्रियों के नृत्य प्रदर्शनों पर भी किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं रहता। इस अवसर पर अमीर लोगों की स्त्रियां एक अनोखे प्रकार की टोपी पहनती हैं, जिसे पहनने से उसकी शोभा निखर उठती है। नगर में इस त्यौहार से सम्बन्धित सभी तरह के खेल तमाशों का प्रबन्ध राज्य की ओर से होता है। नौकाओं की दौड़ें होती है, जिसमें विजयी होने वालों को राज्य की ओर से बड़े बड़े पुरस्कार दिये जाते हैं। इस अवसर पर मणिपुर निवासियों के हृदय में एक नई उमंग होती है। वर्ष भर के रुके हुए अरमान इस दिन निकाले जाते हैं , स्त्रियों के श्रृंगार को देख कर कामदेव भी भूम उठते हैं।
यह हैं मणिपुर प्रदेश तथा उसके दूर स्थित मैतेई समुदाय के निवासियों की कहानी। जो स्वर्ग प्रदेश के निवासी हैं। जिनके पूर्वज हमारे ही पूर्वज थे। किन्तु आज वह हम से कितने भिन्न हो गये हैं। कितने अनोखे ? पर आज विश्व में उन्नति का सिंहनाद बज उठा है। और वह दिन दूर नहीं, जब वह हमें अपना समझ कर हम में मिल जायेंगे। भारत को ही अपनी मातृ-भूमि समझ कर उसी के लिये जियेंगे, और उसी के लिये मरेगें।
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