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मेवाड़ का युद्ध

मेवाड़ का युद्ध – महाराणा कुम्भा और महमूद खिलजी का संग्राम

मेवाड़ का युद्ध सन् 1440 में महाराणा कुम्भा और महमूद खिलजी तथा कुतबशाह की संयुक्त सेना के बीच हुआ था। उस समय मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ थी। औरचित्तौड़ के महाराजा महाराणा कुम्भा थे। मेवाड़ का किला उन्हीं के अधीन आता था। मेवाड़ का इतिहास देखा जाए तो महाराणा कुम्भा सबसे शक्तिशाली महाराज हुए। मेवाड़ का युद्ध या संग्राम पर चर्चा करने से पहले हम इस महा संग्राम के पहले की कुछ कारणों के बारे में बाताएगे। जिसकी वजह से यह युद्ध हुआ।

राणा मोकल के समय का चित्तौड़

अपनी छोटी अवस्था में राणा मोकल चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा
था। उस समय उसके और चित्तौड़ के सामने जो भीषण परिस्थिति उत्पन्न हो गयी थी और जिसका निवारण, मोकल के सौतेले भाई राजकुमार चन्द्र ने किया था। राजकुमार चन्द्र की सहायता और उदारता से राणा मोकल ने सुख और संतोष के साथ अपनी छोटी अवस्था बिताकर, योवनावस्था में प्रवेश किया। वह अत्यंत होनहार और बहादुर था। आरम्भ से ही उसके जीवन में लोक प्रियता के गुण थे। उसके आचरणों में सरलता थी और वह अपनी प्रजा का शुभचिंतक था। यौवनावस्था में प्रवेश करने के बाद ही उसने शासन की बागडोर अपने हाथों में ली और बुद्धिमानी के साथ राज्य के सभी कार्यों का संचालन आरम्भ किया।

उन दिनों में भारत की राजनीतिक परिस्थितियों में भयानक परिवर्तन हो रहे थे। यहाँ पर उनके विषय में कुछ प्रकाश डालना आवश्यक है। मोहम्मद तुगलक के मरने के बाद, उसका चचेरा भाई फ़िरोजशाह तुगलक दिल्‍ली का सुलतान बनाया गया। उसके पिता का नाम राजब था और उसकी माँ एक राजपूत वंश की लड़की थी। जिस समय गुजरात में मोहम्मद तुग़लक की मृत्यु हुई। उस समय फिरोज़शाह उसके साथ था। उसके सुलतान बनाये जाने में बड़ा संघर्ष पैदा हुआ। लेकिन अन्त में उसी के पक्षवालों को सफलता मिली और वह सुलतान बनाया गया। आरम्भ के दो वर्ष उसने दिल्ली के राज्य की व्यवस्था में व्यतीत किये। उसने बुद्धिमानी के साथ राज्य का संचालन किया और जो लोग उसके विरोधी थे, उन पर उसने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। मोहम्मद तुगलक के समय में ही बंगाल दिल्ली की पराधीनता को तोड़कर स्वतंत्र हो गया था। लेकिन जब फिरोज़शाह दिल्‍ली का शासक बना तो उसने बंगाल को फिर अपने राज्य में मिलाने का प्रयत्न किया और सन्‌ 1353 ईसवी में उसने अपने साथ सत्तर हजार सैनिकों की एक सेना लेकर, बंगाल पर आक्रमण किया। वहाँ का अधिकारी शमसुद्दीन था। उसके साथ युद्ध हुआ। उसमें फिरोजशाह की जीत हुई, लेकिन उसने वहाँ का शासन शमसुद्दीन को ही सौंप दिया। पाँच वर्षों के बाद शमसुद्दीन के लड़के सिकन्दर ने विद्रोह किया और स्वतंत्र हो जाने की कोशिश की, उसका दमन करने के लिए फीरोजशाह सेना लेकर फिर बंगाल गया और सिकन्दर को पराजित किया। हार जाने के बाद उसने फिरोजशाह के साथ सन्धि कर ली।

फिरोज़शाह के हमले

फिरोजशाह स्वभाव का कट्टर था और हिन्दुओं के धर्म का विरोधी
था। बंगाल से लौटने के समय रास्ते में उसने उड़ीसा प्रदेश में जाज
नगर राज्य पर आक्रमण कर दिया। उसका राजा एक हिंदू था और उस राज्य में मन्दिरों की संख्या बहुत थी। उसमें अधिकांश मन्दिर अत्यन्त सम्पत्तिशाली थे। फिरोज शाह के आक्रमण का उद्देश्य उस राज्य को लूटना था। मुस्लिम सेना ने वहाँ पर आक्रमण करके मनमानी मन्दिरों की लूट की। हिन्दुओं के प्रसिद्ध मन्दिर जगन्नाथ जी को लूट कर और उसकी मूर्तियों को समुद्र में फेक कर सत्यनाश कर डाला। अन्त में घबराकर वहाँ के राजा ने फिरोजशाह तुगलक के साथ सन्धि कर ली। कई सौ हाथी उसने सुलतान को भेंट में दिये और प्रति वर्ष एक निश्चित संख्या में हाथियों के देने का वादा किया।

दिल्‍ली पहुँचने के बाद थोड़े ही दिनों में फिरोजशाह ने नगर कोट
पर आक्रमण किया और उसे जीतकर कई महीने तक उसकी सेना वहाँ पर लूट-मार करती रही। मुस्लिम सिपाहियों ने उस राज्य में भयानक अत्याचार किये। मन्दिरों और देवस्थानों को लूटकर गिरवा दिया और राज्य के रमणीक स्थानों को बरबाद कर डाला। जाजनगर और नगर कोट की विजय के लगभग दस वर्ष बाद, फिरोज शाह ने सिन्ध को जीतने का इरादा किया और एक लम्बी सेना लेकर सन् 1371 ईसवी में वह सिन्ध प्रदेश की तरफ रवाना हुआ। उसकी सेना में सब मिलाकर नब्बे हजार सवार थे, तीन सौ अस्सी हाथी थे और पैदल सैनिकों की संख्या एक लाख से ऊपर पहुँच गयी थी।

पंजाब और सिन्ध नदी पार कर अपनी विशाल सेना से साथ फिरोजशाह तुगलक ठट्टा-राज्य के करोब पहुँच गया। वहाँ का शासन दो सरदारों के हाथों में था। राज्य के बाहर उसने अपनी सेना का मुकाम किया और धीरे-धीरे उसने छः महीने से भी अधिक समय वहाँ व्यतीत कर दिया वहाँ के दोनों सरदारों ने अन्त में सन्धि कर ली और उसके बाद फिरोज शाह तुगलक वहाँ से लौटकर दिल्‍ली आ गया।

तैमूर लंग का आक्रमण

फिरोजशाह तुगलक के बाद, तुगलक वंश के कई एक सुलतान हुए। परन्तु वे सभी निर्बल और अयोग्य थे, इसलिए दिल्‍ली का शासन उनके अन्तिम दिनों में कमजोर पड़ गया था। उनकी अयोग्यता के कारण ही मन्त्री स्वच्छंद हो गये थे। कितने ही राज्य निर्भय और निडर होकर स्वतन्त्र हो गये थे और जो अभी तक दिल्ली के राज्य में शामिल थे, वे बड़ी उपेक्षा का व्यवहार करते थे। दिल्‍ली की तरफ से कोई भय न रह गया था। शासन की निबर्लता में अनेक प्रकार की अव्यवस्था चल रही थी। इस अयोग्यता और निर्बलता ने दिल्‍ली पर आक्रमण करने के लिए तैमूर लंग के सामने रास्ता खोल दिया।

तैमूर लंग का पिता तुर्को का सरदार था। तीस वर्ष की आयु में
वह स्वयं एक सरदार बन गया और तुर्को की एक सेना को लेकर
उसने दूसरे देशों पर आक्रमण करना आरम्भ कर दिया फ़ारस मैसो पोटामिया और अफ़गानिस्तान जीतकर उसने चीन भौर भारत को अपने अधिकार में लाने का इरादा किया। तैमूर लंग का पोता पीर मोहम्मद काबुल का सरदार था। सन्‌ 1397 ईस्वी में तैमूर ने उसे भारत पर आक्रमण करने को भेजा। उसने भारत में आकर मुलतान को घेर लिया और कुछ महीनों के बाद उसने वहाँ पर अपना अधिकार कर लिया।

तैमूर लंग अपनी सेना लेकर सन्‌ 1398 में भारत की और रवाना
हुआ। अटक के समीप आकर उसने सिन्ध नदी को पार किया। उसके बाद वह रास्ते में मिलने वाले गाँवों को लूटता और मार काट करता हुआ आगे बढ़ा। पानीपत के युद्ध-क्षेत्र को पार करता हुआ। धीरे-धीरे वह दिल्ली के नजदीक पहुँच गया। उन दिनों में सुलतान मोहम्मद तुग़लक का दिल्ली में शासन था। तैमूर लंग के भय से वह दिल्‍ली छोड़कर भाग गया। तैमूर लंग अपनी सेना के साथ दिल्‍ली की तरफ बढ़ा और बिना किसी भय के उसने नगर में प्रवेश किया। शक्तिशाली तैमूर लंग से भयभीत होकर वहाँ के समस्त अमीर, सरदार, शेख, काज़ी उलमा और मौलवियों ने उसका स्वागत किया और उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।राज्य के अमीरों, सरदारों और मन्त्रियों ने पैदा होने वाले संघर्ष और उत्पात को बचाने की कोशिश की। वे नहीं चाहते थे कि बिना किसी कारण को नगर बर्बाद किया जाये, लेकिन यह भयावह परिस्थिति अन्त में बच न सकी। तैमूर लंग के सैनिक खाने की सामग्री एकत्रित करने के लिए शहर में निकले। कहीं-कहीं पर लोगों ने देने से इनकार कर दिया। उसका परिणाम भयानक हो गया। तैमूर लंग के पन्द्रह हजार सैनिकों ने शहर में लूट-मार शुरू कर दी। एक तरफ से लोग लूटे गये और उनका कत्ल किया गया। उस सर्वनाश में दिल्‍ली का कोई रक्षक न था।

तैमूर लंग के तातारी सैनिकों ने आजादी के साथ दिल्ली में जो
अत्याचार किये, वहाँ के निवासियों को इस प्रकार के दृश्य देखने का यह पहला मौका था। विदेशी आक्रमणाकारियों के द्वारा इस प्रकार के भीषण दृश्य, भारत के दूसरे बहुत-से स्थानों और नगरों में बार-बार हो चुके थे। लेकिन दिल्‍ली के शक्तिशाली राजाओं के कारण, उस राज्य को सुरक्षित रहने का मौका मिला था। तैमूर लंग ने उसे नष्ट कर दिया। एक साधारण विरोध के अपराध में अत्याचारों के नाम पर नृशंसता, अमानुषिक निर्दयता भर पराकाष्ठा में कुछ बाकी नहीं रखा गया। चिरकाल से दिल्‍ली की एकत्रित चिर सम्पत्ति खूब लूटी गयी। तलवारों से काट-काटकर सभी प्रकार के लोगों का संहार किया गया। इन भीषण दृश्यों के उपस्थित होने का कारण यह हुआ कि दिल्ली राज्य का शासक वर्तमान सुलतान अयोग्य और कायर था।उसकी अयोग्यता का दन्ड वहाँ की प्रजा को भोगना पड़ा।

रामपुर का युद्ध

दिल्‍ली में तैमूर लंग के पहुँचते ही वहाँ का सुलतान मोहम्मद
तुग़लक भयभीत हो उठा था। पहले उसने तैमूर लंग का मुकाबला
करने का विचार किया था और उसने अपनी सेना की तैयारी की थी। लेकिन बाद में उसका साहस हट गया और अपनी सेना को लेकर वह दिल्‍ली से चला गया। इन दिलों में चित्तौड़ का राणा मुकुल समर्थ हो चुका था और वह स्वयं राज्य का संचालन कर रहा था। दिल्‍ली में होने वाले परिवर्तन उसके नेत्रों से छिपे न थे। वह जानता था कि इस प्रकार की आँधी किसी भी समय मेवाड़ में पहुँच सकती है। इसके लिए उसके हृदय में किसी प्रकार का हम न था। वह एक शूरवीर राजपूत था और किसी भी संघर्ष का सामना करने के लिए वह तैयार था।

इसी अवसर पर उसे मालूम हुआ कि दिल्‍ली के सुलतान मोहम्मद
तुगलक ने तैमूर लंग के साथ युद्ध नहीं किया और वह अपनी सेना के साथ दिल्‍ली से चला गया है। इसके कुछ दिनों के बाद ही उसे खबर मिली कि सुलतान मोहम्मद दिल्‍ली की एक बड़ी सेना के साथ मेवाड़ की तरफ आ रहा है, वह चित्तौड़ में हमला करना चाहता है। यह सुनते ही राणा मुकुल ने अपनी सेना की तैयारी की और सुलतान की सेना के साथ युद्ध करने के लिए वह रवाना हो गया। रास्ते में उसे सुलतान की सेना के आने का समाचार मिला। निर्भीकता के साथ शत्रु का सामना करने के लिए वह बराबर आगे बढ़ा। सुलतान की सेना उधर ने चली आ रही थी। राणा मोकल की सेना ने अरावली के एक प्रान्त में पहुँचकर रामपुर नामक स्थान में शत्रु का सामना किया।

दोनों सेनाओं का युद्ध आरम्भ हुआ सुल्तान मोहम्मद, तैमूर लंग
का बदला राणा मोकल से लेना चाहता था। मेवाड़ की राजपुत सेना ने मुस्लिम सेना के साथ भीषण युद्ध किया और अंत में उसे पराजित किया। सुलतान की सेना संग्राम में ठहर न सकी। उसके बहुत से सैनिक मारे गये और आखीर में हार कर उसे युद्ध के क्षेत्र से भागना पड़ा। राणा मोकल ने बहुत दूर तक सुलतान की सेना का पीछा किया और दिल्‍ली राज्य के साँभर नामक प्रदेश को उसने अपने अधिकार में कर लिया। रामपुर के मैदान में सुलतान अपने सैनिकों की एक गहरी हानि उठाकर, अपनी बची हुई सेना के साथ वह भाग कर निकल गया।

मेवाड़ का उत्थान

सुलतान अपनी अयोग्यता और कायरता के लिए प्रसिद्ध हो रहा
था। उसको कायर समझकर ही तैमूर लंग ने भारत में आकर दिल्‍ली पर आक्रमण किया ओर बिना युद्ध के ही उसने वहाँ पर अपना अधिकार कर लिया। डरपोक सुलतान अपनी सेना के साथ भागकर गुजरात की तरफ चला और रास्ते में मेवाड़ पर आक्रमण करने के उद्देश्य से उसने राणा मोकल के साथ युद्ध किया और बुरी तरीके से पराजित हुआ। यदि उसने राणा के साथ रामपुर का युद्ध न किया होता तो, उसका सॉभर का राज्य राणा मोकल के हाथ में न आता। अनेक कमजोरियों के साथ बहुत दिनों से दिल्‍ली का शासन चल रहा था। तैमूर लंग ने आकर उसे और भी निर्बल बना दिया। भारत के जो छोटे-छोटे राज्य उसमें शामिल थे, वे धीरे-धीरे स्वतंन्त्र होने लगे। चारों तरफ अशान्ति और अव्यवस्था बढ़ने लगी। दिल्लीं के शासकों का जो आतंक बहुत दिनों से चला आ रहा था, वह बहुत कुछ नष्ट हो गया और जो बाकी रह गया था, वह भी धीरे-धीरे मिटता जा रहा था फीरोज शाह तुग़लक के समय में जो राज्यदिल्ली में शामिल थे, उनमें बहुत-से स्वतन्त्र हो गये थे।

इन दिनों में राणा मोकल ने अपने राज्य की बड़ी उन्नति की थी।
मेवाड़ के जिन स्थानों पर दूसरे राजाओं का आधिपत्य था, राणा मोकल ने उनको जीतकर अपने अपने राज्य में मिला लिया था। राज्य के विस्तार के साथ-साथ उसने अपनी सेना में भी बहुत वृद्धि कर ली थी। चित्तौड़ से लेकर मेवाड़ तक राणा मुकुल ने अनेक मन्दिरों और देव स्थानों का निर्माण कराया था। इन दिनों में इस राज्य ने अपनी आर्थिक ओर राजनीतिक परिस्थितियों में भी बड़ी उन्नति की थी।

राणा मोकल की मृत्यु

राणा मोकल के तीन पुत्र और एक लड़की थी। लड़की का नाम
लालबाई और बड़े लड़के का नाम राणा कुम्भा था। लालबाई का विवाह गागरोन के एक सरदार के साथ हुआ था। उस सरदार के राज्य पर मालवा वालों ने जब हमला किया तो राणा मुकुल ने अपनी एक राजपुत सेना उस सरदार की सहायता के लिए भेजी थी। इन्हीं दितों की बात है। मादेरिया का पहाड़ी इलाका चित्तौड़ के राज्य में शामिल था। वहाँ के पहाड़ी लोगों ने चित्तौड़ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। जब राणा मोकल को इसकी खबर मिली तो वह अपनी सेना लेकर विद्रोह को दबाने के लिए मादेरिया की तरफ चला गया।

मेवाड़ का युद्ध
मेवाड़ का युद्ध

राणा मोकल के पूर्वजों में क्षत्रसिह का सम्बन्ध किसी नीच कुल की
स्त्री के साथ था। उस स्त्री के दो पुत्र पैदा हुए थे। वे मोकल के चाचा होते थे। उनकी माता नीच कुल में उत्पन हुई थी। इसीलिए वे राजवंश में किसी सम्मान के अधिकारी न थे। शिशोदिया वंश के सभी लोग उनसे घृणा करते थे। मुकुल के स्वभाव में उदारता थी। वह चाहता था कि राज्य में इन्हे कोई काम दे दिया जाय, जिससे उनका निर्वाह हो सके। लेकिन उन दोनों की रुचि सेना मे काम करने की थी। इसलिए बहुत दिनों से राणा मोकल किसी अवसर की खोज में था। जब वह पहाड़ी इलाके में विद्रोह को शान्त करने के लिए जाने लाग तो उसने अपनी सेना में उन दोनों को भी साथ में ले लिया। उनमें छोटे भाई को मोकल छोटे चाचा और बड़े भाई को बड़े चाचा कहा करता था।

जिन दिनों में मादेरिया में विद्रोह चल रहा था और उसको दबाने के लिए अपनी सेना से साथ राणा मोकल वहाँ पर गया था, साथ में उसके दोनों चाचा भी थे। एक दिन सायंकाल अपने सरदारों के साथ मोकल बाते कर रहा था। उन बातों से मोकल के दोनों चाचा अप्नसन्न हो गये और अपने अपमान का बदला लेने के लिए दोनों ने प्रतिज्ञा कर ली। इसी के फलस्वरुप, एक दिन रात को उन दोनों ने राणा मोकल को सोते हुए काट डाला। इस दुर्घटना के पहले ही उन दोनों भाइयों ने अपनी एक योजना बना ली थी, वे जानते थे कि राणा मोकल का बड़ा लड़का कुम्भा अभी बालक है, इसलिए वे दोनों चित्तौड़ के राज्य पर अधिकार कर लेना चाहते थे। राणा मोकल की ह॒त्या करके वे दोनों भाई घोड़ों पर बैठकर चित्तौड़ की तरफ रवाना हुए। इस दुर्घटना का समाचार राजकुमार कुम्भा को मिल चुका था। उसने मन्त्रियों से मिलकर सिंहद्वार पर मजबूत इन्तजाम कर दिया था। इसलिए दोनों भाई चित्तौड़ में पहुँचकर असमर्थ हो गये और वे भीतर प्रवेश न कर सके। इसके बाद विद्रोही होकर कुछ समय तक चित्तौड़ में अधिकार करने की कोशिश करते रहे।

राजकुमार कुम्भा अपने संकट का कोई उपाय न देखकर घबरा उठा और उसने मारवाड़ के राठौर राजपूतों से सहायता माँगी। बालक कुम्भा के संकटों को सुनकर राठोर राजपूतों ने अपनी अपनी सहायता का पूरा वादा किया और प्रतिज्ञा की कि जब तक हम लोग चित्तौड़ के सिंहासन पर बालक कुम्भा को नहीं बिठा लेंगे और कुम्भा युवावस्था में पहुँच कर योग्य और समर्थ नहीं हो जायगा, तब तक बालक कुम्भा और चित्तौड़राज्य के हम लोग रक्षक रहेंगे।

राणा मुकुल के दोनों चाचा चित्तौड़ के शत्रु बन गये थे। कुछ
विरोधियों और विद्रोहियों को लेकर उन्होंने एक छोटी-सी सेना बना ली थी और उसके बल पर वे चित्तौड़ पर अधिकार करना चाहते थे। वे समझते थे कि कुम्भा अभी बालक है और उसका कोई सहायक नहीं हो सकता। मंत्री और सरदार हमारे घरेलू झगड़ों में चुप रहेंगे। इन परिस्थितियों में उन दोनों ने चित्तौड़ पर अधिकार करने का पूरा इरादा कर लिया था और एक छोटी-सी सेना बनाकर उन लोगों ने चित्तौड़ को तरह-तरह से हानि पहुँचाना आरम्भ कर दिया था।

मारवाड़ के राठौर राजा ने कुम्भा की सहायता करने का वचन दिया था और उसके बाद ही उसने अपनी एक बड़ी सेना एक अपने सरदार नेतृत्व में चित्तौड़ की सहायता के लिए रवाना कर दी। यह राठौर सेना चित्तौड़ में आकर ठहरी और वहाँ की सेना के साथ मिल कर विद्रोहियों का पता लगाना आरम्भ किया। अन्त में मालूम हुआ कि विद्रोही लोग डर के मारे अरावली पर्वत पर चले गये हैं और पाई नामक एक सुरक्षित स्थान पर रह कर चित्तौड़ पर आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं। वे अपनी तैयारी कर के वहीं से निकला करते हैं और चित्तौड़ राज्य में इधर-उधर हमला करके फिर वहीं पर लौट कर चले जाते हैं।

राठौर सरदार ने मेवाड़ और चित्तौड़ के राजपूतों की एक सेना
तैयार की और उसमें चुने हुए सात हजार सैनिकों को ले कर वह अरावली पर्वत की तरफ चला। साथ में बालक कुम्भा भी था। पहाड़ के अनेक स्थानों में उन विद्रोहियों का पता लगाया और अन्त में पाई नामक स्थान में अचानक पहुँच कर राजपुतों ने विद्रोहियों पर आक्रमण किया। मुकुल के दोनों चाचा जान से मारे गये और विद्रोहियों का एक तरफ से संहार किया गया।इसके बाद चित्तौड़ में होने वाले उत्पात एक साथ बन्द हो गये। मेवाड़ की राठौर सेना ने बहुत दिनों तक चित्तौड़ में रह कर बालक कुम्भा को सहायता की। इन दिनों में मेवाड़ और चित्तौड़ में कोई नयीघटना नहीं पैदा हुई।

मेवाड़ का गौरव

राणा मोकल के मारे जाते के बाद मेवाड़ को संकटों के बादलों ने
एक साथ घेर लिया था। राणा कुम्भा राज्य का अधिकारी था, लेकिन वह बालक था और राज्य के उत्तरदायित्व के योग्य न था। इस दशा में चित्तौड़ के सामने एक बड़ी कठिनाई थी। राणा मोकल ने अपने शासन काल में मेवाड़ की जो उन्नति की थी, वह सहज ही मिट्टी में मिलती हुई दिखाई दे रही थी। कितने ही राजा चित्तौड़ पर आक्रमण करने का मौका देख रहे थे। वे मेवाड़ और चित्तौड़ को जीत कर अपने राज्य में मिला लेना चाहते थे।

संकट के इन दिनों में राणा कुम्भा को मारवाड के राठौर राजा की सहायता मिली। विद्रोहियों का नाश हुआ और किसी आक्रमणकारी राजा ने हमला करने का साहस नहीं किया। संकट के उन दिनों का भी अन्त हुआ। आयी हुई कठिनाइयाँ एक-एक करके सब खतम हो गयीं और कुम्भा ने अपनी छोटी आयु को पार कर युवावस्था में प्रवेश किया। राज्याभिषेक की तैयारियाँ की गयीं और सन्‌ 1419 ईसवी में राणा कुम्भा मेवाड़ के सिंहासन पर बैठा।

राणा कुम्भा के हाथों में मेवाड़ के शासन के आते ही राज्य की
अवस्था बदलने लगी। उसने पिछले कितने ही वर्ष दुर्भाग्य के घने अन्धकार में बिताए थे और मुस्लिम आक्रमणकारियों के अत्याचारों के कारण बहुत बुरे दिनों का सामना किया था। आज उन दिनों का अन्त हो गया था। राणा कुम्भा एक बुद्धिमान और दूरदर्शी शासक था। उसने अपने राज्य को सम्हालने और शक्तिशाली बनाने की कोशिश की। वह समझता था कि आज की भयानक परिस्थितियों में निर्बल राज्य किसी प्रकार जीवित नहीं रह सकते। युद्ध करने की शक्ति ही किसी भी देश और राज्य को स्वतन्त्र रहने का अवसर देती है।

राणा कुम्भा को अपनी कोशिशों में सफलता मिली राज्य की
शक्तियाँ दिन प्रतिदिन बढ़ने लेगी। क्षीणता और निर्बलता का अन्त
हुआ। बढ़ती हुई प्रतिष्ठा के कारण, चित्तौड़ का सौभाग्य लगातार
उन्नत होने लगा। राणा कुम्भा ने अपने पूर्वजों के शासन काल का भी अध्ययन किया, जिसकी प्रबल शक्तियों के कारण शत्रुओं ने कभी चित्तौड़ की ओर आँख उठाकर देखने का भी साहस न किया था और उससे अपने उन पूर्वजों को भलीभांति समझने की कोशिश की, जिनकी कमजोरी के कारण प्रसिद्ध चित्तौड़ की सत्ता आग में जल कर राख हो गयी थी।

राणा कुम्भा की दूरदर्शिता

राणा कुम्भा के शासन काल में मेवाड़ ने फिर एक बार अपनी उन्नति कर ली थी और राणा कुम्भा ने बहुत सजग और सावधान रह कर राज्य का शासन आरम्भ किया था। फिर भी उसे बहुत दूर पश्चिम की तरफ उठने वाली आंधियों का आभास होता था। उसे मालूम होता था कि पश्चिम में किसी भी समय कोई प्रलयकारी तुफान उठ सकता है और वह भारत में पहुँच कर यहाँ के राजाओं को लूट-मार कर मिट्टी में मिला सकता है। भारत में इन तूफानों के पहुँचने का कारण यहाँ के राजाओं की निर्बलता है। इनकी शक्तियाँ इतनी छोटी और निर्बल हैं, जो अपनी रक्षा नही कर सकतीं।

राणा कुम्भा बराबर यह सोचा करता था कि आक्रमणाकारियों के
अत्याचारों से बचने का एक ही उपाय है और वह यह कि अपने राज्य की शक्तियों को विशाल और विस्तृत बनाया जाये अपने इसी उद्देश्य को लेकर राणा कुम्भा ने अपने राज्य का विस्तार किया था और चित्तौड़ के राणा समरसिंह की संग्रामभूमि कग्गर नदी के किनारे तक उसने चित्तौड़ का झंडा फहरा दिया था। पश्चिम से आने वाले आक्रमणकारियों का ही भय राणा कुम्भा को न था। वह भारतीय राजाओं और बादशाहों से भी सशंकित रहा करता था। इस देश में कितने ही राज्य “मुसलमानों के चल रहे थे और वे हिन्दू राजाओं के शत्रु थे। अवसर पाने पर वे राजपूतों के राज्य पर आक्रमण करते थे और उनको विध्वंस करके अपने राज्य में मिला लेते थे। राणा कुम्भा बड़ी सावधानी के साथ इन संकटों की तरफ देखा करता था और समय पड़ने पर अपनी शक्तिशाली सेना को लेकर युद्ध” करने के लए वह बराबर तैयार रहता था।

मालवा और गुजरात के मुस्लिम राज्य

दिल्‍ली राज्य के कमजोर पड़ने के विवरण पिछले पृष्ठों में लिखे
जा चुके हैं। उसकी अधीनता के बंन्धनों को तोड़ कर कितने ही राजा और नवाबों ने अपने राज्यों को स्वतन्त्र बना लिया।था। उनके साथ-साथ विजयपुर, गोलकुंडा, मालवा, गुजरात, जौनपुर और कालपी के राज्य भी स्वतन्त्र हो गये थे। दिल्‍ली राज्य से अलग होने वाले राज्यों में मालवा और गुजरात के राज्य अधिक शक्तिशाली थे। मालवा में महमूद खिलजी और गुजरात में कुतुबशाह का शासन था। स्वाधीन होने के बाद इन दोनों मुस्लिम राज्यों ने अपनी उन्नति प्रारम्भ की और बड़ी तेजी के साथ उन्होंने अपने राज्यों का विस्तार किया। जो निर्बल राजा और सरदार उनको दिखायी पड़े, उन पर हमला करके और उनको जीतकर उन्होंने अपने राज्य में शामिल कर लिया। उन दोनों राज्यों की यह नीति बहुत दिनों तक चलती रही।

मेवाड़ का राणा कुम्भा मालवा और गुजरात की इन चालों को
सावधानी के साथ देख रहा था। महमूद खिलजी की हरकते उससे
छिपी न थीं । हुसंग गौरी के बेटे को मार कर जिस प्रकार वह मालवा राज्य के सिंहासन पर बैठा था, राणा कुम्भा इस दुघर्टना को भली-भाँति जानता था। सन्‌ 1437 ईसवी से कुम्भा ने अपने राज्य का विस्तार बढ़ाना आरम्भ किया था और उसी वर्ष सिरोही के राजा पर आक्रमण करके उसने आबू का राज्य छीनकर अपने अधिकार में कर लिया था।महमूद खिलजी, राणा कुम्भा के वैभव को सहन न कर सका। उसने राणा के साथ संघर्ष पैदा किया। उसमें राणा की जीत हुई और उसने महमूद को मालवा-राज्य के भीतर घुस कर सारंग तक पराजित किया। आबू का राज्य राणा के अधिकार में आ जाने के कारण, मालवा और. गुजरात के दोनों राज्यों को एक बड़ी क्षति पहुंची।

राणा कुम्भा ने अपनी वीरता और बुद्धिमत्ता के द्वारा अपने वैभव
की उन्नति की थी। सन्‌ 1437 ईसवी के बाद, दो वर्षो में राणा कुम्भ ने अपने राज्य का अधिक विस्तार किया। उसने मेवाड़ में आबू से नागौर तक, मध्य राजपूताना में अजमेर तक उत्तर-पूर्व में अम्बेर तक और दक्षिण-पूर्व में मांडलगढ़ से गागरौन तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। राणा कुम्भा का यह वैभव महमूद खिलजी को किसी प्रकार सहन न हुआ। उसके बढ़ते हुए राज्य-वैभव को रोकने के लिए महमूद ने उसके साथ युद्ध आरम्भ किया। पहली बार उसने आक्रमण किया और अपनी सेना को लिए हुए वह चित्तौड़ के पास तक पहुँच गया। लेकिन बाद में पराजित होने पर वह लौट आया। उसके बाद उसने दूसरी बार फिर आक्रमण किया और भरतपुर के पास बयाना के किले पर उसने कब्जा कर लिया। लेकिन उसके बाद वह फिर हारा और राणा कुम्भ ने रणथम्भौर, टोडा और डीडंवाणा को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।

महमूद खिलजी के साथ होने वाली इन दोनों लड़ाइयों में गुजरात
का बादशाह कुतुब शाह युद्ध में शामिल नहीं हुआ था। लेकिन वह
महमूद खिलजी की सहायता करता रहा और राणा कुम्भ की पराजय के लिए उसने कितने ही कारण पैदा किये। राणा कुम्भा ने इन्हीं कारणों से नागौर पर आक्रमण किया था और उसे लेकर अपने राज्य में मिला लिया था। नागौर में गुजरात के बादशाह कुतुब॒शाह के उत्पात देखकर राणा ने वहाँ का गढ़ नष्ट करवा डाला और नागौर में आग लगवा कर उसे जला कर खाक कर दिया। इसका बदला लेने के लिए कुतुबशाह ने मेवाड़ पर एक बार, चढ़ाई की लेकिन बुरी तरह हार खाकर उसको वहाँ से भागना पड़ा।

मेवाड़ का युद्ध
मेवाड़ का युद्ध

महमूद खिलजी और कुतुब॒शाह को जब कोई उपाय राणा कुम्भा को दबाने और पराजित करने का न मिला तो उन दोनों ने आपस में परामर्श किया और मिलकर राणा से युद्ध करने का निश्चय किया। अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए दोनों ने सन्धि कर ली और इसके बाद वे राणा कुम्भा के विरुद्ध आक्रमण करने की तैयारी करने लगे। महमूद खिलजी दो बार युद्ध में पराजित हो चुका था और गुजरात का कुतुबशाह भी अपनी शक्तियों की परीक्षा ले चुका था। दोनों ने पराजित अवस्था में संगठित होकर राणा कुम्भा से लड़ने और अपनी शत्रुता का बदला लेने की चेष्टा की।

मेवाड़ पर आक्रमण और युद्ध

मालवा और गुजरात के दोनों बादशाहों ने अपनी सैनिक, तैयारी
शुरू कर दी और निकट भविष्य में चित्तौड़ पर आक्रमण करने का
उन्होने निश्चय किया। उनको मालुम था कि राणा कुम्भ किसी प्रकार कमजोर नहीं है। वे चित्तौड़ की शक्तिशाली सेना से अपरिचित न थे। इसीलिए कुछ दिनों तक वे अपनी-अपनी सेनाओं में सैनिकों की वृद्धि करते रहे और सन्‌ 1440 ईसवीं में मालवा तथा गुजरात के बादशाह अपनी अपनी फौजें लेकर मेवाड़ की तरफ रवाना हो गये। राणा कुम्भ को खबर मिली कि मालवा और गुजरात की सेनायें युद्ध के लिए आ रहीं हैं। वह प्रसन्नता के साथ अपनी तैयारी में लग गया और सेना को तैयार होने का उसने आदेश दिया। राणा कुम्भा को युद्ध के समाचार से कोई हर्षविस्मय नहीं पैदा हुआ। ऐसा मालूम हुआ, मानों वह युद्ध का रास्ता ही देखे रहा था।

राणा कुम्भ ने मुस्लिम सेनाओं को पराजित करने के लिए अपनी पूरी तैयारी की चौदह सौ हाथियों के साथ उसने सवारों और पैदल
सैनिकों को एक लाख की संख्या में तैयार किया और अपनी इस शक्तिशाली सेना को लेकर वह युद्ध के लिए रवाना हुआ। मालवा और गुजरात की दोनों मुस्लिम सेनायें मेवाड़ नगर के निकट पहुँच चुकी थीं। मुस्लिम सेनाओं के करीब पहुँच कर राणा कुम्भा ने मुकाम किया और अपनी राजपूत सेना को विश्राम करने की आज्ञा दी। दोनों ओर की सेनाओं के बीच लगभग तीन मील का फासला था। सवेरा होते-होते दोनों तरफ युद्ध की तैयारियाँ हुई भर मेवाड़ के निकटवर्ती एक लम्बे-चौड़े मैदान में सेनायें पहुँच गयी। अपने भयानक हाथी पर बैठे हुए राणा कुम्भा ने कुछ समय तक युद्ध क्षेत्र का निरीक्षण किया दोनों ओर की सेनायें तैयार खड़ी थीं। मुस्लिम सेनाओं की ओर एक बार देख कर राणा कुम्भा ने अपनी सेनाओं को युद्ध के लिए आदेश दिया। एक साथ दोनों ओर की सेनायें, एक-दूसरे की तरफ बढ़ी। उसके बाद संग्राम आरम्म हो गया।

मेवाड़ के युद्ध-क्षेत्र में राजपूतों की सेना इतनी बड़ी सेना थी कि
मालवा और गुजरात की दोनों फौजें मिलाकर भी उसके बराबर न
होती थीं। युद्ध के मैदान में राणा कुम्भा के भयानक लड़ाकू हाथियों ने बहुत दूर तक स्थान घेर लिया था। युद्ध आरम्भ होने के कुछ ही समय बाद, चित्तौड़ के चौदह हजार हाथियों ने मोटी जंजीरों की जो भयानक मार शुरू कर दी तो मुस्लिम सेनायें बहुत दूर तक पीछे की ओर हट गयीं। राजपूत सेना उनको दबाकर आगे बढ़ गयी फिर तीन बजे दोपहर तक दोनों ओर से भीषण मार होती रही।

मेवाड़ के संग्राम महमूद खिलजी की पराजय

दोपहर को तीन बजे के बाद राजपुत सेना ने पीछे हटना शुरू
किया। वह जितना ही पीछे की ओर हटती जाती थी, मुस्लिम सेनायें उतना ही आगे की ओर बढ़ती हुईं चली आ रही थी। राजपूत सेना एक मील पीछे हट गयी और मुस्लिम सेना के निकट आ जाने पर समस्त राजपुतों ने एक साथ तलवारों की मार शुरू कर दी मुस्लिम सेना ने भी बाणों और तीरों की मार बन्द करके, तलवारों की मार शुरू की। जब तक मुस्लिम सैनिक बाणों की वर्षा करते रहे, राजपुत सैनिक उस समय तक बराबर पीछे हटते गये और उसके बाद एक साथ अपनी तलवारें निकाल कर राजपूतों ने वह भीषण मार शुरू की, जिससे थोड़े समय में ही मालवा और गुजरात के बहुत-से सैनिक मारे गये। पीछे हटते हुए मुस्लिम सैनिकों ने भागना शुरू कर दिया। यह दृश्य देख कर राणा कुम्भा ने विजय का झंडा फहराते हुए राजपूतों को ललकार कर मुस्लिम सेनाओं का पीछा करने की आज्ञा दी। राजपूत सेना के पीछा करते ही मालवां और गुजरात की दोनों फौजों ने तेजी के साथ भागना शुरू किया और अपनी छावनी की सम्पूर्ण रसद और सामग्री छोड़ कर भागते हुए मेवाड़ की सीमा से वे बहुत दूर निकल गयी। राजपूतों ने दूर तक उनका पीछा किया। लगभग सात हजार मुस्लिम सैनिक भागते हुए मारे गये और बहुत से सैनिकों को राजपूत कैद करके अपने साथ में ले आये। उनमें मालवा का बादशाह महमूद खिलजी भी था।

मुस्लिम सेनाओं का बहुत दूर तक पीछा करके लौटने पर राजपूत
सेना ने मुस्लिम शिविर में जाकर लूट की और जितना सामान
मिला, सब पर उसने अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद विजयी राजपूत सेना अपना झडा फहराती हुई चित्तौड़ में लौट कर आ गयी और पकड़े गये मुस्लिम सैनिकों के साथ साथ महुमूद खिजली को चित्तौड़ में मजबूत कैदखाने में बन्द करवा दिया। कुछ दिनों के बाद मुस्लिम सैनिकों को छोड़ दिया गया परन्तु महमूद खिलजी को छः महीने तक कैद में रखा गया और उसके बाद बिका किसी शर्त अथवा जुर्माना के उसको भी छोड़ दिया गया।

कैद से छूटने के बाद महमूद खिलजी ने राणा कुम्भा के साथ
मित्रता कर ली। इसके कुछ दिनों के बाद, दिल्‍ली के बादशाह के साथ राणा कुम्भा का युद्ध हुआ, उसमें मालवा का बादशाह महमूद खिलजी राणा की तरफ के युद्ध में गया था और उसने दिल्‍ली की मुस्लिम सेना के साथ युद्ध किया था। उस युद्ध में राणा कुम्भा की विजय हुई थी पर उसके परिणाम स्वरूप, महमूद और राणा कुम्भा की मित्रता अधिक मजबूत तथा स्थायी हो गई थी। राणा कुम्भा के समय में चित्तौड़ की सैनिक शक्ति बड़ी प्रबल हो गयी थी और चित्तौड़ राज्य ने अपनी बड़ी उन्नति की थी। चित्तौड़ और मेवाड़ में बहुत से किले थे जो शत्रुओं को पराजित करने के लिए बनवाये गये थे। उन सब किलों की संख्या चौरासी थी और इन चौरासी किलों में बत्तीस किले राणा कुम्भा ने बनवाये थे जो बहुत ही मजबूत थे।

पचास वर्ष तक राणा कुम्भ ने बड़ी योग्यता और वीरता के साथ
चित्तौड़ में शासन किया। इसके बाद ऊदा अथवा उदयसिह नामक
राणा के पुत्र ने बुढ़ापे में अपने पिता की हत्या की। सन्‌ 1473 ईसवी में चित्तौड़ के राज्य को हरा-भरा छोड़ कर राणा कुम्भा नें स्वर्गलोक की यात्रा की।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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