कभीलखनऊ की मुर्गा की लड़ाई दूर-दूर तक मशहूर थी। लखनऊ के किसी भी भाग में जब मुर्गा लड़ाई होने वाली होती तो एक दो दिन पहले से ही शहर भर में लोगों को खबर हो जाती थी। मुर्गाबाजी के दिन सैकड़ों की भीड़ जमा होती थी। घड़ी भर में हजारों रुपयों की बाजियां लग जाया करती थीं।
मुर्गा लड़ाने वाले, लड़ाने के उद्देश्य से जिन मुर्गों को पालते उन्हें खूब खिलाते-पिलाते और रोज सुबह-बाकायदा उन्हें लड़ने की ट्रेनिंग देते। वैसे तो हर मुर्गा में लड़ने की प्रवृत्ति होती है मगर जो मुर्गा लड़ाये जाते थे वह दूसरी ही नस्ल के होते थे। यह नस्ल असील नस्ल के नाम से जानी जाती थी। यह मुर्गे बड़े ही फूर्तीले और तेज तर्रार होते जिनका रंग लाल होता था।
असील मुर्गों के बारे में लोगों का कहना है कि यह नस्ल हिन्दोस्तान में अरब से आयी थी। इस मुर्गों की नस्ल बढ़ाने, उनको रखने और लड़ाई के लिए तैयार करने के स्थान को कारखाना कहा जाता था। मुर्गाबाज़ अपने मुर्गों की देख-भाल, उन्हें लड़ाई की कला सिखाने के लिए उस्ताद रखते थे। यह उस्ताद उनके सारे जिस्म की जोरदार मालिश करते अपने मुँह में पानी भरकर फूहार मुर्गे के सारे शरीर पर मारते। लड़ाई से पूर्व मुर्गों की चोंच नुकीली बनायी जाती थी।
बड़े प्यार से दाने हथेली पर या बर्तन में रखकर उन्हें खिलाया जाता। मुर्गेबाजी अक्सर चहारदिवारी से घिरे मैदान में या लम्बे-चौड़े हाल में होती थी। लड़ने वाले दोनों मुर्गों को ‘जोड़ा’ कहा जाता था। जब यह लड़ाई शुरू होती तो दोनों मुर्गों के मुर्गेबाज अपने-अपने मुर्गो का हौसला बुलन्द करने के लिए चिल्लाते–हाँ बेटा काट, फिर वहीं काट-शाबास हाँ बेटा शाबाश आदि।
मुर्गा की लड़ाई
जब दोनों मुर्ग लड़ते-लड़ते जब लहु-लुहान हो जाते तो दोनों पक्षों की सहमति से यह लड़ाई कुछ समय के लिए रोक दी जाती थी। जिसे पानी माँगना’ कहते थे। मुर्गों के खून निकलने वाले स्थान को पोंछा जाता सारे जिस्म पर पानी की फुहार मारी जाती। नवाब शुजाउद्दौला को मुर्गा की लड़ाई देखने का बड़ा शौक था वह अक्सर मुर्गा की लड़ाई का आयोजन करवाते थे।नवाब आसफुद्दौला औरनवाब सआदत अली खां उनसे बढ़कर मुर्गाबाज़ी के शौकीन निकले। लखनऊ की मुर्गाबाज़ी ने गौरी चमड़ी वालों के दिलों-दिमाग पर अपना अच्छा खासा प्रभाव डाला था।
जनरल क्लाड मार्टीन अपनी कोठी कासटे्शिया’ (ला-मार्टीनियर) में अक्सर मुर्गाबाज़ों को बुलाते और लड़ाई के बाद जिस पक्ष का मुर्गा जीतता वह अच्छे-खासे इनाम का हकदार होता। नवाब सआदत अली खाँ और मार्टीन साहब बढ़कर मुर्गे लड़ाया करते थे। मुर्गा की लड़ाई में हार-जीत का निर्णय होने में कभी-कभी छः सात दिन तक लग जाते थे। मेजर स्वारिस, फज्ले अली, हुसैन अली, नवाब मुहम्मद अली तक खाँ, आगा बरहानुद्दीन, मीर इमदाद अली, सैय्यद, मीरन साहब, नौरोज अली, मियाँ जान, कादिर जीवन खाँ, मियाँ दाराब अली खाँ आदि मशहूर मुर्गाबाज थे।
लखनऊ के कई अन्य रईस जिनमें– वजीरगंज के जाकिर हुसेन उर्फ मुगल साहब, ड्योढ़ी आगामीर के नवाब नजीर अली खाँ, नबाड़ी के हादी अली खाँ और– दूरियागंज के नवाबों को मुर्गाबाज़ी का बड़ा शौक रहा। इन्होंने अपने मुर्गों को लड़ाने की कला सिखाने के लिए उस्ताद रखे थे। जिन्हें वह अच्छा-खासा पैसा भी देते थे।
मीर मूंगा, मुस्तफा हुसन, छंगा, मिर्जा जान, सीतल, मुन्ने आदि बड़े मशहूर मुर्गाबाज़ माने जाते थे। आमतौर पर यह लड़ाईयां मुहल्ला कटरा अबू तुराब खाँ में नवाब तजमुल हुसैन खाँ की बारादरी, काजमन के करीब अहाता बुरहानुलमुल्क में होती थीं।
उस वक्त में मुर्गा की लड़ाई की लोकप्रियता का अन्दाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुर्गा लड़ाने से पहले लोग मनौतियां मांगते और जब उनका मुर्ग जीत जाता तो वह हर हालत में उन्हें पुरा करते। हारने वाले पक्ष का मुर्गाबाज़ दो-चार रोज मारे शर्म के लोगों के सामने आने से कतराता था।