मीराबाई भक्तिकाल की एक ऐसी संत और कावित्रि हैं, जिनका सबकुछ कृष्ण के लिए समर्पित था। मीरा का कृष्ण प्रेम ऐसा था कि वह उन्हें अपना पति मान बैठी थीं। भक्ति की ऐसी चरम अवस्था कम ही देखने को मिलती है। अपने इस लेख में हम इसी परम भक्त मीराबाई का जीवन परिचय और कहानी को जानेंगे
मीराबाई का जन्म स्थान, माता पिता और मृत्यु
यह परम भक्त मीराबाई जीजोधपुर के मेड़ता राठौड़ रतनसिंह जी की इकलौती कन्या और मेड़ता ( मारवाड़ देश ) के राव दूदा जी की पोती थीं। इनका जन्म कुड़की नामक गांव में ( जो उन गाँवों में से है जो कि उनके पिता को गुजारे के लिये दूदा जी से मिले थे ) संवत् 1555 और 1560 विक्रमी के दर्मियान हुआ और उदयपुर ( मेवाड़ ) के ससोदिया राजकुल में महाराणा सांगा जी के कुवंर भोजराज के साथ संवत 1573 विक्रमी में ब्याही गई।
मीराबाई के देहान्त का समय का पता ठीक नहीं चलता। मुंशी देवी प्रसाद जी मुंसिफ राज जोधपुर ने मीराबाई के जीवन-चरित्र में एक भाट की जुबानी लिखा कि इनका देहावसान संवत् 1603 विक्रमी अर्थात् सन् 1546 ईसवी में हुआ परन्तु भक्तमाल से इन दो बातों का प्रमाण पाया जाता है। एक अकबर बादशाह तानसेन के साथ बाई के दर्शन को आया, दूसरा गुसांई तुलसीदास जी से आपका परमार्थी पत्र व्यवहार था। समझने की बात है कि अकबर सन् 1542 ई० में पैदा हुआ और सन् 1556 में तख़्त पर बैठा और गुसांई’ तुलसीदास जी सन् 1533 ई० में ( संवत् 1489 विक्रमी ) में पैदा हुए तो यदि मीरा बाई के देहान्त का समय 1546 ई० में माना जाय तो अकबर की उम्र उस समय चार बरस की होती है और गुसाईं जी की चौदह बरस की, जो कि न तो अकबर को साथ दर्शन की उमंग उठने की अवस्था मानी जा सकती और न गुसांई जी की भक्ति ओर कीर्ति की प्रसिद्धि का समय कहा जा सकता। इसलिये हमको भारतेन्दु श्री हरिश्चन्द्र जी स्वर्गवासी का अनुमान कि मीराबाई ने संवत् 1620 से 1630 विक्रमी के दर्मियान शरीर त्याग किया ठीक जान पड़ता है जैसा कि उन्होंने उदयपुर दरबार की सम्मति से निर्णय किया था और कवि वचन सुधा की एक प्रति में छापा था।
भक्त मीराबाई की कहानी
मीराबाई विवाह हो जाने पर अपने पति के साथ चित्तौड़ चली गई और उनके पति का देहावसान विवाह होने से दस बरस के भीतर हो गया परन्तु इनको इस महा विपत्ति का विशेष दुख नहीं हुआ वरन् भगवत भजन में और अधिक चित्त को लगा कर प्रीत प्रतीत की दृढ़ता के साथ भक्ति में तत्पर हुई और संत रेदास जी को अपना शुरू धारण किया। हस बात को संत रेदास जी की वाणी में उनका जीवन परिचय लिखने के समय हम पक्के तौर पर निश्चित नहीं कर सके थे परन्तु अब मीराबाई के कई पदों के पढ़ने से उसका विश्वास होता है।
बचपन ही से मीराबाई को परमार्थ की और रुचि और गिरधरलाल जी का ईष्ट था। इस ईष्ट का प्रत्यक्ष कारण इन की माता कही जाती हैं कि जिन से इन्होंने पड़ोस में एक कन्या का विवाह होते देखकर पूछा था कि मेरा दुल्हा कौन है तो इनकी माता ने हंस कर गिरधरलाल की मूरत को बतलाया था। कहीं कहीं ऐसी भी कथा प्रसिद्ध है कि इस मूरत को मीराबाई के बाप के घर आने का संजोग यह हुआ कि एक बार वहां एक साधू ठहरा था जिसकी पूजा में यह मूरत थी। मीराबाई ने उस मूरत का नाम पूछा और फिर साधू से उसको मांगा। साधू ने देने से इनकार किया। इस पर मीराबाई ने ऐसा हठ किया कि दो तीन दिन तक भोजन दी नहीं किया तब उनके माता पिता ने उस साधू को बहुत कुछ देकर विनय पूर्वक राजी करना चाहा परन्तु साधु बोला कि हम अपने
ईष्ट देव से कदापि अलग न होंगे। रात को साधू जी की मूरत ने स्वप्न दिया कि यदि तुम अपना भला चाहते हो तो हम को उस लड़की के पास रहने दो। बेचारा साधु सवेरा होते ही गिरधरलाल जी की मूरत को मीराबाई के पिता के घर पहुंचा आया।
भक्त मीराबाईएक कथा के अनुसार मीराबाई पिछले जन्म में श्रीकृष्ण चन्द्र की सखियों में थीं जिनकी प्रचंड भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने वरदान दिया था कि कलयुग में हम निज रूप से तुम्हारे पति होंगे जिसका इशारा राग सावन के नवें शब्द की कडी नंबर 2 और 3 में है इनकी शब्दावली मंगा कर पढें।
जब मीराबाई विधवा हो गई और भगवत भजन और साधू सेवा बेधड़क निरंतर करने लगीं तो उनके देवर महाराणा विक्रमाजीत को ( जो अपने भाई महाराणा रतन सिंह के बाद चित्तौड़ की राजगद्दी पर बैठे थे ) इनके यहां साधुओं की भीड़ भाड़ का लगा रहना न सुहाया और दो भरोसे की सहेली चम्पा और चमेली नामक को इनके पास तैनात किया कि इनको समझाती और साधूओ के पास बैठने से रोकती रहें, पर मीराबाई के संग के प्रताप से थोड़े ही दिनों में उन पर भी भक्ति का रंग चढ़ गया और मीराबाई के प्रयोजन की सहायक बन गई। यही दशा और सहेलियों और दासियों की हुई जो मीराबाई जी के बरजने और उन पर चौकसी रखने के काम पर नियत की गई। अंत को राणा ने यह कठिन काम अपनी सगी बहिन ऊदा बाई ( मीरा बाई की ननद ) को सौंपा और वह कुछ समय तक अपने कर्तव्य को बड़ी तत्परता से निभाती गई। दिन में कई बार मीराबाई के महल में जाकर उनको हर प्रकार से समझौती देती और रोक टोक करती थीं। थोड़े से पद जिन में मीराबाई ने इन विरोधियों की चर्चा की है चुन कर इनके ग्रंथ में इकट्टे कर दिये गये हैं उन्हीं में मीराबाई और ऊदा बाई का प्रश्नोत्तर भी है।
जब ऊदा बाई के समझाने का मीराबाई पर कुछ भी असर नहीं हुआ तब राणा ने झुंझला कर किसी मंत्री की सलाह से मीराबाई के पास विष का कटोरा भगवत चरणामृत के नाम से भेजा। ऊदा बाई जो इस भेद को जानती थीं उन्होंने मोह वश मीराबाई से सब हाल कह दिया और उनको उसके पीने से रोकना चाहा पर मीराबाई ने बड़ी दृढ़ता से उत्तर दिया कि जो पदार्थ भगवत चरणामृत के नाम से आया है उसका परित्याग करना भक्ति के प्रण के विरुद्ध और उसे सिर पर चढ़ा कर बड़े उत्साह के साथ पी गई। कोई कोई लिखते हैं कि इसी जहर से मीराबाई ने प्राण त्याग किया परन्तु कई पुस्तकों ओर खुद मीराबाई के ऐसे पदों सेजिनके छेपक होने का संदेह नहीं है यही प्रमाण मिलता है कि विष का मीराबाई पर उलटे यह असर हुआ कि दूना नशा भगवत प्रेम का चढ़ गया, और कहते है कि उस विष का असर द्वारका में रणछोड़ जी की मूरत पर पड़ा जिसके मुंह से झाग निकलने लगा।
मीरा बाई की एक प्रसिद्ध कथा हैं कि एक दिन मीराबाई जी कीर्तन कर रही थीं कि ऊदा बाई पहुंची तो मीरा जी ने यह पद रच कर गाया “जब से मोहि नंद नंदन दृष्टि पडयौ माई” और कुछ ऐसी दया दृष्टि की कि ऊदा बाई के चित में इनकी महिमा समा गई और इनको गुरू धारण किया। तब एक स्त्री ने राणा के सामने बिड़ा उठाया कि में मीराबाई को ठीक कर दूंगी पर उसके सामने आते ही मीरा जी ने कुछ ऐसा चमत्कार किया कि वह तन मन से उनकी दासी ही बन गई और राणा के महल का जाना छोड़ दिया। सच हैं भक्तों के दर्शन और सतसंग की ऐसी ही महिमा है जैसा कि संत कबीरदास साहिब ने कहा है–
पारस में अरु संत में, बड़ो अंतरों जान।
वह लोहा कंचन करे, यह कर आप समान॥
कहते हैं कि एक बार उदा बाई ने बड़ी दीनता और प्रेम से हठ किया कि हमको गिरधर लाल जी का प्रत्यक्ष दर्शन करा दो। मीराबाई ने उनकी सच्ची उमंग देख कर आज्ञा की कि चम्पा चमेली आदि सहेलियों को लेकर गिरधरलाल की पहुनाई की सामग्री तैयार करो। जब सब भोग आदिक ठीक हो गया तब मीराबाई उन लोगों के बीच में बैठ गई और विरह और प्रेम के
पद बना कर गाने लगीं। जब कई घंटे मीरा जी को कीर्तन करते बीत गये और उनकी विरह और बेकली असह्य हो गई तो आधी रात को श्रीकृष्ण ने साक्षात् प्रकट हो कर उनको गले लगा लिया ओर बोले कि तुम क्यों ऐसी अधीर हो गई, फिर सब के सामने मीरा जी के साथ भोजन करने लगे। पहरेदारों ने किसी मनुष्य की बोली सुन कर राणा को सोते से जगा कर सूचना दी कि मीराबाई के महल में कोई पुरुष आया है ओर उससे हंसी दिल्लगी हो रही है। राजा क्रोध में भर कर तलवार खींचे दौड़ा ओर महल में घुस कर इधर उधर ढूँढने लगा, पर जब कोई पुरुष दिखाई न दिया तो खिसिया कर मीराबाई से पूछने लगा। मीराबाई बोली कि मेरे परम मित्र गिरधरलाल जी तो तुम्हारी आंखों के सामने विराजमान हैं मुझसे क्यों पूछते हो। राणा ने चारों ओर दृष्टि फैला कर देखा पर सिवाय प्रेमी स्त्रियों के कोई दिखाई न पड़ा, थोड़ी देर पीछे पलंग पर बड़ा भयानक नरसिंह रूप दरसा जिसको देखते ही राणा थरथरा कर भूमि पर गिर पड़ा, फिर सुधि संभाल कर यह कहता हुआ भागा कि हमारे कुल देव एकलिंग जी हैं उनका ईष्ट क्यों नहीं करतीं तुम्हारे ईष्ट की तो बड़ी डरावनी सूरत है।
इन चमत्कारों को देखने पर भी राणा ने अपनी हठ नहीं छोड़ी ओर एक दिन कई नागिन पिटारी में बन्द करके मीराबाई के पास पूजा के फूल और हार के नाम से भेजा। जब मीराबाई ने पिटारी को खोला तो शालिग्राम की मूरत ओर फूलों के सुगंधित हार निकले। फिर भी राणा उपाधि उठाता ही रहा और मीराबाई की भक्ति में विध्न डालता रहा तब मीराबाई जी ने घबरा कर गुंसाई तुलसीदास जी को यह पद लिख कर भेजा–
श्री तुलसी सुख निधान, दुख-हरन ग़ुसाई।
वारहि बार प्रनाम करूँ, अब हरो सोक समुदाई॥
घर के स्वजन हमारे जेते, सबन उपाधि बढ़ाई।
साधु संग अरु भजन करत, मोहिं देत कलेस महाई॥
बालपने तें मीरा कीन्हीं, गिरधर लाल मिताई।
सो तो अब छूटत नहिं क्यों हूँ, लगी लगन बरियाई ॥
मेरे मात पिता के सम हौ, हरि भक्तन सुखदाई।
हम को कहां उचित करियों है, सो लिखियो समुझाई॥
इस पत्र के उत्तर में गुसाई तुलसीदास जी ने एक पद और एक सवैया लिख भेजा था–
पद:–
जा के प्रिय न गम बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम सनेही॥
तज्यो पिता प्रह्लाद विभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुर तज्यो, कंत व्रत-वनिता, भये सब मंगलकारी ॥
नातो नेह राम सो मनियत, सुहृद सुसेव्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आंख जो फूटै, बहुतक कहों कहाँ लौ॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित, पूज्य प्रान तें प्यारों ।
जा सों होय सनेह राम पद, एतो मतो हमारो॥
सवैया:–
सो जननी सो पिता सोई भ्रात, सो भामिन सो सुत सो हित मेरो।
सोई सगो सो सखा सोई सेवक, सो गुर सो सुर साहिब चेरो॥
सो तुलसी प्रिय प्रान समान, कहाँ लौ बताइ कहौ बहुतेरो।
जो तजि गेह को देह को नेह, सनेह सों राम को होय सबेरो।।
इस उत्तर के पाने पर मीराबाई ने चित्तौड़ छोड़ने का मनसुबा पक्का किया और ऊदाबाई को आज्ञा की कि तुम यहीं बनी रहो और आप गेरुआ वस्त्र पहिन कर रात के समय चम्पा चमेली आदि सेविकों के साथ अपने मायके मेड़ता को आई। यहां यह बड़े आदर सत्कार से रखी गई। परन्तु साधुओं के आने जाने की थोड़ी बहुत देखभाल और मुहाँचाई यहां भी होती रही जिससे मीरा जी का मन इस जगह भी न लगा और कुछ दिन बाद वृन्दावन को सिधारी। वृन्दावन में साधुओं और भक्तों का दर्शन करती हुई मीराबाई जीव गुंसाई के स्थान पर उनके दर्शन को गई परन्तु जीव गुंसाई ने उनको बाहर ही कहला भेजा कि हम स्त्रियों से नहीं मिलते। इस पर मीराबाई जी ने जवाब दिया कि वृन्दावन में में सब को सखी रूप जानती थी और पुरुष केवल गिरधरलाल जी को सुना था पर आज मालूम हुआ कि उनके और भी पट्टीदार हैं। इन प्रेम रस में मिले हुए वचन को सुन कर गुंसाई जी अति लज्जित हुए और नंगे पैर बाहर आकर मीरा जी को बड़े आदर और भाव से अपने स्थान में ले गये।
कुछ समय वृन्दावन में रह कर मीराबाई द्वारका को आई और रणछोड़ जी के दर्शन और साधुओं की सेवा में मगन रहने लगीं। परन्तु जब से उन्होंने चित्तौड़ छोड़ा राणा विक्रमाजीत पर बड़े संकट आये। गुजरात के बादशाह सलामत सुल्तान बहादुर (औवल) ने चढ़ाई करके चितौड़ लूट लिया और राणा ने बूँदी देश को भाग कर जान बचाई। चित्तौड़ की गद्दी पर उनके छोटे भाई उदयसिंह बैठे सो वह भी विपत पर विपत ही उठाते रहे। अब इन लोगों को मीराबाई सरीखी भक्त की महिमा जान पड़ी कि भक्तों के चरण जहां जहां पधारते हैं वहां कष्ट और उपाधि पास नहीं फटक सकते, तब मंत्रियों की सलाह से कई प्रतिष्ठित ब्राह्मणों को इसके लिवा लाने को द्वारका भेजा गया। परन्तु मीराबाई ने राणा और उनके मंत्रियों के दुर्मति के विचार से चित्तौड़ जाना अंगीकार न किया, तब ब्राह्मणों ने धरना दिया कि जब तक चित्तौड़ न चलोगी हम अन्न जल न छुऐंगे। अन्त को मीराबाई हार मान कर और वेकल हो कर रणछोड़ जी से विदा होने के बहाने उनके मंदिर में गई और कहते हैं कि मूरत में अलोप हो गई, केवल उनके वस्त्र का एक छोर मूरत के मुंह से पहिचान के लिये निकला रह गया। मीराबाई के मुख से अंतिम दो पद जिनको गाकर वह रणछोड़ जी में समाई यह कहे जाते हैं:–
हरि तुम हरो जन की भीर।।टेक।।
द्रोपदी की लाज राख्यो तुम बढायो चीर।
भक्त कारन रूप नरहरि धरयो आप सरीर।।
हिरण्यकश्यप मारि लीन्हो धरयो नाहिंन धीर।
दास मीरा लाल गिरधर दुख जहां तहॅं पीर।।
साजन सुध ज्यों जानै त्यौ लीजे हो।
तुम बिन मेरे और न कोई कृपा रावरी कीजे हो।।
दिवस न भूख न रैन नहिं निंद्रा तो तन पल पल छीजे हो।
मीरा कइ प्रभु गिरधर नागर मिलि बिछुरन नाहिंन कीजै हो।।
मीराबाई के पद जैसे कोमल मधुर और प्रेम रस में पगे हैं वह देखने ही से सम्बन्ध रखते हैं, परतु उनकी वाणी में लोगों ने उनके पीछे जितनी मिलौनी की है और उनके नाम से अंट संट पद गढ़ लिये है उतनी सिवाय कबीरदास साहिब के दूसरे की वाणी की दुर्दशा नहीं की है, फरक इतना है कि कबीरदास साहिब के नाम के क्षेपक भजन उन पर कोई भारी दोष नहीं लाते परन्तु मीराबाई के अनजान प्रशंसकों ने अपनी अनसमझता से जो पद मीराबाई के नाम से बनाये हैं उनसे पूरा कलंक मीराबाई पर लगता है, क्योंकि मीराबाई के पति कुँवर भोजराज कभी राजगद्दी पर नहीं बैठे वरन अपने पिता महाराणा सांगा जी के सामने ही शरीर छोड़ा और सांगा जी के बाद मीराबाई के तीन देवर एक के बाद एक गद्दी पर बैठे। इससे विदित है कि मीराबाई राणा की स्त्री नहीं कहीजा सकतीं और यह असंभव है कि खुद मीराबाई जी ने अपने पदों में अपने को राणा जी की स्त्री करके लिखा हो, तो ऐसे पदों का गढ़ना जिन में राणा को उनका पति बनाया है और उसके लिये मीरा जी के मुख में कटुवचन रखे हैं, मीराबाई को स्पष्ट गाली देना और पतिद्रोही बनाना है। इस बात के मानने के लिए प्रमाण हैं कि मीराबाई अपने पति कुँवर भोजराज के जीवन समय में उनके साथ बड़े प्यार के साथ रहीं और उनको कभी अप्र॒सन्न नहीं किया, यह सब रगड़े झगड़े तो जब मचे जब कि मीराबाई विधवा होकर साधु सेवा और भक्ति भाव में खुल खेली, तो कैसे माना जा सकता है कि उन्होंने अपने पति को निरापराध कटु वचन कहा होगा। उदाहरण के लिये कुछ ऐसी छेपक कड़ियां लिखी जाती हैं–
मीर महल सू उतरी राणा पकरयो हाथ।
हथलेवा के सायने म्होंरे और न दूजी बात॥
म्हारी कहो थे मानो राणा बरजै मीराबाई।
जै तुम हाथ म्हारो पकरो खबरदार मन माहीं।।
दैस्यू स्राप सांचे मन सो जल बल भस्म होइ जाई।
जन्म जन्म को पति परमेसुर थारी नाहि लुगाई।।
थारो म्हारो झूठों सनेसो गावै मीराबाई।।
हमको इस प्रकार के और दूसरे मलौनी पदों के छांट कर निकालने में कठिनता हुई है। और फिर भी हम पूरे विश्वास से नहीं कह सकते जो कुछ चुन कर हम लिख रहे हैं, वह स्वच्छ वाणी मीराबाई की है। आशा है कि प्रेमी और रसिक जन हमारी भूलों को क्षमा की दृष्टि से देखेंगे। यहां इस बात को जता देने की आवश्यकता है कि मीराबाई संस्कृत भी जानती थी और देश देशांतर के साधुओं से ब्रजभाषा और पूरबी बोलीं भी अच्छी तरह समझ और लिख पढ़ सकती थी। इसलिए उनके कोई कोई शब्द जो उन बोलियों में है, उन्हें केवल इसी कारण से क्षेपक न मान लेना चाहिए।
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