मानव की खोज किसने की थी – चार्ल्स डार्विन कौन थे

चार्ल्स डार्विन मानव की खोज करने वाले महान वैज्ञानिक

लंदन की ‘लीनियन सोसायटी ‘ में जब चार्ल्स डार्विन ने अपने वे निष्कर्ष पढ़ कर सुनाये, जो विगत 27 वर्षों की उनकी खोज के परिणाम थे, तो श्रौता चौंक उठे!! ‘यह क्या! ऐसा कैसे हो सकता है ? असम्भव! ” कुछ लोगों ने तो डारविन को सिरफिरा समझ लिया। पर डारविन ने विरोधो की परवाह न कर अपनी बात पूरी
की और अकाट्य प्रमाण उपस्थित किए और तब कट्टर से कट्टर विरोधी का भी मुंह बंद हो गया। चार्ल्स डार्विन के यह निष्कर्ष मानव की खोज पर आधारित थे।

चार्ल्स डार्विन कौन थे – मानव की खोज किसने की

चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन एक अंग्रेजी प्रकृतिवादी, भूविज्ञानी और जीवविज्ञानी थे, जिन्हें विकासवादी जीव विज्ञान में उनके योगदान के लिए जाना जाता है। जिन्होंने मानव पूर्वजों की खोज की उनका यह प्रस्ताव कि जीवन की सभी प्रजातियां सामान्य पूर्वजों से उत्पन्न हुई हैं, अब व्यापक रूप से स्वीकार की जाती हैं और विज्ञान में एक मौलिक अवधारणा मानी जाती हैं

यह घटना सन्‌ 1858 की है। इससे एक वर्ष बाद जब उनका ‘ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज’ (origin of species) नाम की किताब प्रकाशित हुई, तो सही अर्थों में सारे संसार में तहलका मच गया। डार्विन ने अपने से पहले की जीव-जगत संबंधी सारी मान्यताओं को शीशे की तरह चूर-चूर कर दिया था। ऐसा नही है कि डार्विन से पहले किसी ने सारे जड-चेतन पदार्थ के एक ही मूल के बारे में विचार नहीं किया था। पर दुर्भाग्यवश उन्हें पूरी सफलता नही मिली थी, जब कि डारविन विकास के मूल-सूत्र को पकड़ने में सफल हो गये और विकास संबंधी उस धुंधले से विचार को ज्वलंत सत्य करार दिया।

विकासवाद के इस प्रवर्तक (Exponent) चार्ल्स डार्विन का जन्म सन्‌ 1809 में हुआ था। जितना रोचक उनका सिद्धांत था, उतना ही रोचंक था उनका अपना जीवन भी। जब वे स्कूल में पढ़ते थे, तभी गिलबर्ट व्हाइट की एक किताब पढ़ कर वे रोमांचित हो उठे। उन्होने स्वयं से प्रश्न किया “हर व्यक्ति एक पक्षी-वैज्ञानिक क्‍यों नहीं बन जाता?

चार्ल्स डार्विन मानव की खोज करने वाले महान वैज्ञानिक
चार्ल्स डार्विन मानव की खोज करने वाले महान वैज्ञानिक

उनके पिता राबर्ट डार्विन ने, जो गृजबरी के एक संभ्रातचिकित्सक थे, पहले उन्हें सप्रसिद्ध डाक्टर बटलर के स्कूल में पढ़ने भेजा वहा उन्होंने सेब चूराये पक्षियों के अडे इकट्ठे किए, मछली का शिकार किया लेकिन वर्जिल तथा होमर की कविताए भूलते गए। एक बार उन्होंने डाक्टर बटलर से इसलिए झिडकी भी खाई कि वे अपने बडे भाई के साथ, घर के बगीचे के पीछे छिप कर रासायनिक प्रयोग कर रहे थे। सन॒ 1825 मे, जब वे 16 वर्ष के हुए, तब उन्हें डाक्टरी पढ़ने के लिए एडिनवरा भेजा गया। परन्तु उन्हें डाक्टरी लेक्चरों के समय झपकी आती और आपरेशन टेबल के पास जाने में उन्हें डर लगता। उनका मन लगता महान अमरीकी पक्षी-चित्रकार आडविन के वर्नेरियन सोसायटी में होने वाले भाषणों को सुनने में। घंटों चट्टानी सोतों की जाच पडताल में घमने और मछुआरों के साथ जाल डालने में।

उनका यह रुख देख कर उनके पिता को बड़ी निराशा हुई और डार्विन को केम्ब्रिज के क्राइस्ट कालेज में पादरी की उच्च शिक्षा पाने के लिए भेज दिया गया किसी तरह वहा डिग्री लेने के बाद वे अपने घर गूजबरी पहुंचे और कुछ दिनों के उपरांत उन्हें केम्बिज के गणित के प्रोफसर पीकाक का एक पत्र मिला। पीकाक को नक्‍शो के सर्वेक्षण हेतु पृथ्वी की परिक्रमा हेतु जाने वाले जहाज ‘बीगल (Beagel) के साथ जाने के इच्छुक कुछ प्रकृति- वैज्ञानिकों का नामों सुझाने का काम सौंपा गया था। अतः उन्होंने पूछा कि क्या डार्विन उस जहाज में जाने को तैयार हैं? चार्ल्स डार्विन ने यह प्रस्ताव अपने पिता के समक्ष रखा, पर उन्होंने अनुमति न दी। चार्ल्स हताश हो गए और प्रो. पीकाक को उन्होने अस्वीकृति का पत्र डाल दिया। जब चार्ल्स के चाचा ने यह बात सूनी तो वे राबर्ट डार्विन के पास गए और उन्हे परामर्श दिया कि चार्ल्स का ‘बीगल’ की सैर मे सम्मिलित हो जाना ही अच्छा हैं । इस बार राबर्ट बेटे की विश्व-परिक्रमा के लिए राजी हो गए।

चार्ल्स डार्विन समूंद्री यात्रा
चार्ल्स डार्विन समूंद्री यात्रा

चार्ल्स 21 दिसम्बर, सन्‌ 1831 को प्लाइमाउथ से ”बीगल के साथ रवाना हुए और 8 अक्तूबर, सन्‌ 1836 को वापस इंग्लैंड लौटे। अब वे बेहद गंभीर हो गए थे, उनकी नोटबुक तथ्यों से भरी थी। मस्तिष्क में विचारों के हुजूम मंडरा रहे थे और बक्से इस लबी यात्रा के दौरान इकट्ठे किए गए नमूनो से लवालब थे। दक्षिण अमेरिका में मिले आदिम-चतुप्पादों के कंकालों ने मानव के पूर्वजो के संबंध में उनके मन मे शंका उत्पन्न कर दी थी। चट्टानो की परतों में जीवन की संयोजना पूरे विश्वास से अभ्यदय और पतन की कहानी कह रही थी। उनके मस्तिप्क में शनै-शनै यह बात उतर रही थी कि नाना रूपों मे पृथ्वी पर जो जीवन प्रस्फुटित है, वह सहज विकास का ही परिणाम है। चट्‌टानो की प्राचीनता में उन्हें यह बोध हुआ कि जीव-जंतु, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि जीवन की विभिन्‍न किसमें मूल मे एक ही अविच्छिन्न प्रवाह से जुड़ी हैं, जो स्वय॑ ब्रह्मांड-व्यापी परिवर्तन-चक्र से शासित हो रहा है।

मानव की खोज कैसे हुई तथा मानव पूर्वजों की खोज किसने की

जहाज-यात्रा का उनका अनुभव बडा तीखा रहा। समुद्री बीमारिया उन्हे घेरे रहतीं। पर उस हालत मे भी वे डेक पर घंटों खडे रह कर जलाशय के भीतर तैरते जीवो को देखते रहते। पेशागोनिया मे उन्होंने धरती की तह से ‘मेगाथिरम’ जैसे दानवी जंतुओ को निकाला, जो हिम युग के थे और जो अपने पिछले दो पैरों के बल पर पत्ते-टहनिया खाने के लिए वृक्ष के शिखर तक उठ सकते थे। टीरा के सघन जंगल में उन्होने एक मादा वनमानुष को अपने बच्चे को दूध पिलाते देखा। उन दोनो के नगे बदनों पर ओले गिर-गिर कर गल रहे थे। इस दृश्य ने उन्हें आश्वस्त कर दिया कि मनुष्य पशुओं से अधिक दूर नही है। फिर जब एंडीज मे 13,000 फुट की ऊचाई पर उन्होने घोघे देखे, तो जान लिया कि समुद्र की सतह से इतनी ऊचाई पर वे कैसे पहुंचे थे?

दक्षिण अमेरिका की पुरानी चट्टानों में उन्हें जीवन का कुछ ऐसा ताना-बाना दिखाई पडा कि क्रॉमिक परिवर्तन की कडियां उनके आगे स्पष्ट होने लगी। ‘बीगल’ के गालापेगास दीपों के निकट पहुंचने पर उनके मन में यह धारणा दृढ हो गई कि क्रमिक परिवर्तन विकास जीवित पदार्थों मे हुआ था और मानव-वंश के पूर्वज उन परिवर्तन-रत जीवित जातियों से ही पैदा हुए थे। इन द्वीपों की गौरैयों कछुओ छिपकलियों और पेड-पौधो के बीच उनकी इस धारणा को और भी बल मिला।

मानव की खोज
मानव की खोज

अब उन्होंने मानव विकास सिद्धांत पर लिखना प्रारंभ किया। वे सिर्फ अकाट्य प्रमाणों के ढेर लगाते गाए। अकस्मात्‌ सन॒ 1858 में जैसे डार्विन पर विजली-सी गिरी। माले द्वीप से आईं डाक में जब उन्होंने अपने एक साथी वैज्ञानिक अल्फ्रेड रसेल वैलेस का लिखा निबंध पढ़ा, तो वे स्तव्ध रह गए। वह तो उन्हीं के अनेक
वर्षो के परिश्रम से पृष्ट किए गए विकास के सिद्धांतों का सार था। पर एक बात थी कि वैलेस के निबंध में सशक्त प्रमाणो का अभाव था। फिर भी वे वैलेस की ख्याति का दुश्मन नही बनना चाहते थे, अतः उन्होंने वैलेस के निबंध को अपने से पहले प्रकाशित करने की स्वीकृति दे दी। तभी लेल और हूकर बीच मे पड़े और उन्होने डारविन तथा वैलेस की मान्यताएं ‘लीनियन सोसायटी’ के सामने पढवायीं। उसी दिन, आज से सौ वर्ष पहले विकासवाद की सच्चे अर्थों में नींव पड़ी। दोनों के निबंध एक साथ ‘लीनियन सोसायटी’ के मुख पत्र में प्रकाशित हुए। फिर 13 महीने के अंदर ही डारविन ने अपना युगांतकारी ग्रंथ ‘ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज’ प्रकाशित किया। 14 नवबर, सन्‌ 1859 को यह ग्रंथ प्रकाशित हुआ और उसकी कल छपी 1250 प्रतियां उसी दिन बिक गयी। अल्फ्रेड न्यूटन इसी से प्रभावित होकर तत्काल विकासवाद मे दीक्षित हो गए और थामस हक्सले डारबिन के प्रमुख शिप्य बन गए।

स्वाभाविक था कि डारविन के सिद्धांतों ने सर्वत्र तहलका मचा दिया। लोग एक बार अपने पहले के सिद्धांतों पर पुनर्विचार करने को बाध्य हुए, पर डारबिन का विरोध भी कम नहीं हुआ। यह विरोध धीरे-धीरे उग्रतर होता गया और ऑक्सफोर्ड में विज्ञान-अकादमी के सन्‌ 1860 के अधिवेशन में उत्साही पादरी
विल्बरकोर्स ने डारविन के सिद्धांतों का आमूल खंडन करने की घोषणा की। डारविन उस समय वहां उपस्थित नहीं थे। आधा घंटे तक पादरी लगातार बोलते रहे और फिर हक्सले की ओर मुड कर उन्होंने प्रश्न किया-‘“डारबिन की तरह क्या आपके बाप-दादा भी बंदर ही थे?” हक्सले का दृढ उत्तर मिला-”मैं जोर देकर कहूगा कि पाखड का आतक फैलाने वाले और पाडित्य का दुरुपयोग करने वाले मनृष्यों की अपेक्षा बंदर को अपना पितामह स्वीकार करने में शर्म की कोई बात नही है। ” यह सुनने के बाद फिर पादरी से कोई ब्यंग्य करते न बना। आगे चलकर विरोध की उग्रता भी, तथ्यों पर आधारित न होने के कारण लगभग सर्वत्र ठंडी पडने लगी और डारविन का “विकासवाद प्रायः संपूर्ण संसार की स्वीकृति पा
गया।

सचमूच इस ससार को डारविन की देन बहुत बड़ी है। उन्होंने सिद्ध किया कि जो प्राणी और वनस्पतियां हम देखते हैं, उन्हें यह रूप प्राप्त करने के लिए वर्षो निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ा है। डारविन के शब्दों में ”यह विकास बिना किसी दैवी हस्तक्षेप के प्राकृतिक चुनाव की धीमी क्रिया के रूप मे हुआ है।

वैयक्तिक नसस्लों की किस्मे, जो जीवन की स्थितियों के अनुकूल थीं, बची रही और जो प्रतिकूल थीं, वे विनप्ट हो गई-इसी को मैंने “प्राकृतिक चुनाव” (National selection) या “योग्यतम के अस्तित्व” (Survival for the fittest) के नाम से
अभिव्यक्त किया है। हमें यह जानकार आश्चर्य हुआ कि हमारा परिवार कितना बड़ा है। अपने को सृप्टि की एक अलग महत्वपूर्ण इकाई मान कर हम वस्तृत: प्रकृति के नियमों के प्रति घोर अन्याय कर रहे थे।

आज डारविन के विकासवाद के प्रति लगभग सर्वत्र आशा का रुख है। आनुवशिकी (Genetic) भ्रूण-विज्ञान (Embryology) और जीवाश्मिकी (Paleontology) आदि की खोजो ने विकासवाद के सिद्धांत मे और भी प्रौढ़ता ला दी है। अब यह एक निर्विवाद तथ्य है कि जीवन अपने आरंभ काल मे जड-तत्व से ही प्रस्फुटित हुआ था। इस प्रकार मनुष्य सहित प्रकृति के संपूर्ण विस्तार का पैतृक आधार एक ही हैं।

डार्विन ने इस बात पर सदा जोर दिया कि प्राकृतिक चुनाव का उन स्थितियों से घनिष्ठ संबंध है, जिनमे कि वह होता है। प्रयोग बताते हैं कि जब हरे टिड्डे को पीली घास में रख दिया जाता है तो चिडियां उसे खा डालती हैं। परंतु हरी घास में रख दिए जाने पर वह सुरक्षित रहता है।

आधुनिक काल में वैज्ञानिकों ने विकासवाद की लगभग प्रत्येक कठिनाई को हल कर दिया है। डाबझांस्की ने वातावरण और प्राकृतिक चुनाव के बीच के संबंध पॉलीजीन्स और प्लीआद्रसिज्म’ के सिद्धांतों द्वारा स्पष्ट कर दिए हैं। दूसरी ओर
फिरार सेवाल राइट फोर्ड और हाल्डेन ने हेकेल और लामार्क द्वारा प्रस्तुत विकासवाद की व्याख्याओं में आवश्यक सुधार कर दिए हैं। लेकेल ने विकासवाद को ‘रिकेपिट्युलेशन’ के सिद्धात द्वारा जो दार्शनिक रंग दिया था, वह वानवीर के ऑटोजेनेसिस’ के सिद्धांत के विपरीत था, क्योंकि उसके अनुसार सृष्टि कोई
बानगी’ के रूप मे नहीं थी, बल्कि उसके विकास का निहित भाव उत्तरोत्तर उत्तमता का था।

इन सबके अतिरिक्त विकासवाद को समझने में सबसे बड़ी सहायता मेडेल के नियमो और उस पर हुई शोधों से प्राप्त हुईं। उनके उल्लेख के बिना तो विकास-सिद्धांत के सौ वर्ष के इतिहास की कडी टूट जाएगी। मेंडेल ने अपने बाग के मटर के पौधो का अध्ययन करके रोचक नतीजे निकाले थे। यों शुरू में मेंडेल के ही ढग पर बेतासां और डिक्वाई ने भी प्रयोग किए थे। पर उनसे प्राकृतिक चुनाव की सत्यता के प्रति ही भारी संदेह उत्पन्न हो गया और यह स्थिति तब तक बनी रही, जब तक मॉर्गन ने मेंडेल के वंशानुक्रम के आधारों-क्रोमोसोमों
(Chromosome) (वीर्यरज के जीवाणुओं की केवल सतानोत्पादन के लिए सुरक्षित इकाइयां) और पैतृक जीवाणुओं को ढूढ़ नहीं निकाला।

डारविन का अनुमान था कि माता-पिता के पैतृक चरित्र उनकी सतानों में दूध और पानी की भाति मिल जाते हैं। पर इसका फल तो यह होता हैं कि विभिन्‍नता की जगह सृप्टि के अनंत सदस्यों में एकरूपता आ जाती है। अतः यदि वंशानुक्रम में मेंडेल दी विशिष्ट नियम लागू नही होते, तो सचमुच विकास संभव ही नही होता।

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