महाराणा सांगा का इतिहास जानने से पहले तत्कालीन परिस्थिति जान ले जरूरी है:– अजमेर के चौहानों, कन्नौज के गहरवालों और गुजरात के सोलंकियों का पतन होते ही मेवाड़ में गुहिलोत और मारवाड़ में राठोड़ हिन्दुस्तान के राजनैतिक गगन पर चमकने लगे। इनके चमकने से सारी राजपूत जाति में पुनः नवजीवन का संचार होने लगा। इधर दिल्ली में अफगानों की शक्ति दिन प्रति दिन घटने लगी। राजपूतों की उन्नति और अफगानों की अवनति से देश के अन्दर ऐसे चिन्ह दृष्टिगोचर होने लगे कि अब वह समय दूर नहीं है, जब हिन्दू लोग पुनः अपना नष्ट साम्राज्य प्राप्त कर लें।
महाराणा सांगा का इतिहास और जीवन परिचय
ऐसे अवसर पर पैतृक धन को पुन: प्राप्त करने के लियेहिन्दुस्तान के रंग मंच पर महाराणा सांगा प्रकट हुए। तत्काल ही वे सारी हिन्दू जाति के नेता बन गये। उनका देश प्रेम और कर्तव्य पालन, उनके उच्च विचार और उदारता, उनकी वीरता और महान मन- स्विता और हिन्दुस्तान के सब से अधिक शक्तिशाली राज्य के स्वामी होने के परिणाम स्वरूप उनकी स्थिति ने उन्हें इस उच्च स्थान को ग्रहण करने के योग्य सिद्ध किया। सुप्रसिद्ध इतिहास लेखक हरबिलास शारदा लिखते हैं. कि “साँगा भारत के वे अन्तिम सम्राट थे कि जिनकी अधीनता में समस्त राजपूत जातियाँ विदेशी आक्रमणकारियों को निकालकर बाहर करने के लिये एकत्रित हुई।” परवर्ती काल में यद्यपि कई नेताओं का उत्थान हुआ, और कई वीरों ने अद्वितीय साहस के कार्य सम्पादन किये। महान युद्ध भी किये। अपने समय की सबसे अधिक बलशाली शक्तियों का मुकाबला भी किया। परन्तु राणा सांगा के पश्चात् कभी किसी ऐसे राजपूत का उत्थान न हुआ जिसमे समस्त राजपूत जाति की हार्दिक शक्ति और सम्मान पर आधिपत्य प्राप्त किया हो तथा जिसने भारत के मुकुट के लिये मध्य एशिया के उन आक्रमणकारियों से-जिनके भाई बन्धुओं ने दक्षिणी युरोप को तहस नहस कर डाला था। लड़ने के लिये भिन्न भिन्न राजपूत जातियों को सम्मिलित कर उनका नेतृत्व ग्रहण किया हो। साँगा के समय में भारत का राजनेतिक गगन बहुत मेघाच्छन हो रहा था। कई आपत्तियाँ भारत के सर पर मंडरा रही थीं। साम्राज्य छिन्न भिन्न हो रहा था। एक ओर मुसलमान आक्रमणकारियों की धूम थी दूसरी ओर राजपूत ही आपस में लड़कर कट रहे थे।पारस्परिक द्वेष की अग्नि खम्ताज में धाँय धांय करके जल रही थी। ऐसे कठिन समय में राणा संग्रामसिंह ( साँगा ) अवतीर्ण हुए। उन्होंने अपनी बुद्धिमानी और पराक्रम के जोर पर सारे साम्राज्य को फिर श्रृंखलाबद्ध कर दिया और वह समय बहुत ही अनकरीब रह गया था, जब वे दिल्ली में इब्राहिम लोदी के सिंहासन पर आरूढ़ होते; पर यह आशा देव दुर्वियोग से कहिये या हिन्दुओं के चरित्र की उन नाशकारी त्रुटियों के कारण कहिये-जों उनके सामाजिक और धार्मिक अन्ध विश्वासों के कारण उत्पन्न हुई थीं, शीघ्र ही निराशा में परिणत हो गई। विजय का प्याला जो होठों तक पहुँच चुका था, प्रथ्वी पर गिरा दिया गया। हिन्दू साम्राज्य के स्थान पर, हिन्दुओं ही की सहायता से मुग़ल साम्राज्य की नींव पड़ी।
जुल्म और राज्यारोहण
महाराणा सांगा ( संग्रामसिंह ) मेवाड़ के प्रसिद्ध राणा कुम्भा के पौत्र और राणा रायमल के पुत्र थे। राणा रायमल के ग्यारह रानियों थीं, जिनसे उनको चौदह पुत्र और दो कन्याएं उत्पन्न हुईं। सबसे ज्येष्ठ पुत्र का नाम प्रथ्वीराज था। ये बड़े ही वीर और तेजस्वी थे। बदनोर के राव सुल्तान की इतिहास प्रसिद्ध कन्या ताराबाई इन्हीं की महिषी थीं। इन्होंने कई ऐसे बहादुरी के कार्य किये जो आज भी इतिहास के अन्दर प्रसिद्ध हैं। अप्रासंगिक होने से उनका वर्णन यहाँ पर करना व्यर्थ है। पृथ्वीराज को उनके बहनोई जयपाल ने धोखे से विष देकर मार डाला। वीर रमणी तारा अपने पति के साथ सती हुई। पृथ्वीराज की मृत्यु के पश्चात् राणा संग्रामसिंह युवराज की जगह चुने गये। ये राणा रायमल के तीसरे पुत्र थे। वि० संवत् 1566 में राणा रायमल का देहान्त हो गया। उनके स्थान पर ज्येष्ठ सुदी 5 वि०सं० 1566 के दिन संग्रामसिंह सिंहासनारूढ़ हुए। सिंहासन पर बैठते ही राणा सांगा ने अपने राज्य की सीमा को बढ़ाना प्रारंभ किया। केवल पश्चिम को छोड़कर, जहाँ कि राठौड़ों का सितारा तेजी पर था–सांगा का राज्य दिल्ली, गुजरात और मालवा के मुसलमान राज्यों से घिरा हुआ था। राणा सांगा को इन तीनों राज्यों से युद्ध करना पड़ा। इन तीनों राज्यों ने एकत्रित होकर सम्मिलित शक्ति से एक ही स्थान पर राणा सांगा से युद्ध किया। परन्तु संग्रामसिंह ने अपने अपूर्व युद्ध-कौशल के बल से उस सम्मिलित शक्ति को परास्त कर दिया। उन्होंने शत्रु के कई प्रान्तों पर अधिकर भी कर लिया। संग्रामसिंह ने अपने कृत्यों से मेवाड़ के महत्त्व को इतना बढ़ा दिया कि उसकी समानता चौहान साम्राज्य के पतन के पश्चात कोई भी राज्य नहीं कर सकता। उन्होंने अपने वीर कार्यों से भारत में बहुत शासन प्राप्त किया। एसकिन ने लिखा है–“उस समय समस्त भारत वासियों के हृदय में ये तरंगे उठने लगीं कि अब बहुत शीघ्र राज्य परिवर्तन होने वाला है, और इस आशा द्वारा वे प्रसन्नता से भारत में स्वदेशी राज्य की स्थापना का स्वागत करने को तैयार हो उठे।” 16 मार्च सन् 1527 ई० को यदि खानवा के मैदान में एक दुर्घटना न हुई होती तो निश्चय था कि भारत का शाही मुकुट एक हिन्दू के मस्तक पर विराजमान होता और प्रभुत्व की पताका इंद्रप्रस्थ को छोड़कर चित्तौड़ की बुर्जों पर लहराती।
महाराणा संग्रामसिंह को अपने जीवन-काल में कितने ही युद्ध करने पड़े। जिनमें से सुलतान इब्राहीम लोदी के साथ का युद्ध, सुलतान मुहम्मद खिलजी के साथ का युद्ध, गुजरात का आक्रमण ओर मुज़फ्फर शाह का मेवाड़ पर आक्रमण विशेष मशहूर है। इन सब युद्धों में राणा संग्रामसिंह विजयी होते रहे। एक युद्ध में उनका बांयाँ हाथ बिलकुल कट गया ओर एक पैर लंगड़ा हो गया। एकाक्षी तो वे पहले ही हो गये थे, इस प्रकार इन युद्धों की वजह से महाराणा सांगा एक आँख व एक हाथ से बिलकुल वंचित और एक पैर से अर्द्ध वंचित हो गये।
स्वेच्छा से राज छोड़ने की घोषणा
अंगहीन होने के कुछ दिनों के पश्चात् हकीमों की चिकित्सा से महाराणा सांगा जब आराम हो गये तो इसके उपलक्ष में उत्सव मनाने के निमित्त उन्होंने सब सरदारों और उमरावों को आमंत्रित किया। महाराणा इस बड़े दरबार में आये, और उनका उचित सत्कार भी हुआ, पर सदा के रिवाज की तरह उन्होंने दोनों हाथ छाती तक न उठा कर केवल दाहिना हाथ सिर तक उठाया। इस प्रकार सब॒ लोगों के अभिवादन का जवाब दिया। इसके पश्चात् हमेशा की तरह राज्य सिंहासन पर न बैठ कर वे एक साधारण सरदार को तरह जमीन पर ही बैठ गये। इस घटना से तमाम दरबारी आश्चर्य निमग्न हो गये। वे आपस में कानाफूसी करने लगे । इस पर महाराणा सांगा ने स्वयं ही खड़े होकर ऊँची आवाज से कहा– “भारत का यह प्राचीन और दृढ़ नियम है कि जब कोई मूर्ति टूट जाये या उसका कोई हिस्सा खण्डित हो जाय तो फिर वह पूजा के योग्य नहीं रहती। उसके स्थान पर दूसरी मूर्ति स्थापित की जाती है। इसी प्रकार राज्य-सिंहासन– जो कि प्रजा की दृष्टि में पूजनीय है- पर बेठने वाला व्यक्ति भी ऐसा होना चाहिये जो सर्वांग हो और राज्य की सेवा करने के पूर्ण योग्य हो। मेरी एक आँख के सिवाय एक भुजा और एक पैर भी निकम्मा हो गया है। ऐसी हालत में में अपने आपको कदापि इस योग्य नहीं समझता। इसलिये इस पवित्र स्थान पर आप सब लोग जिसे उचित समझें, बिठलाये और मुझे अपने निर्वाह के लिये कुछ दें दें जिससे में भी अन्य सामन्तों की तरह अपनी हैसियत के अनुसार राज्य की
सेवा कर सकूं।”
महाराणा सांगाइस पर सब दरबारियों ने कहा कि महाराणा की अंगहानि रणक्षेत्र में हुईं है, इसलिये यह हानि राज्य-सिंहासन के गौरव को घटाने की अपेक्षा वद्धित ही अधिक करेगी। यह कह कर सब लोगों ने महाराणा सांगा का हाथ पकड़ कर उन्हें राज्य-सिंहासन पर आरूढ़ कर दिया। घटना बहुत साधारण है। पर हिन्दुओं की राज्य कल्पना के वास्तविक उद्देशों को बतलाने वाली है। यह घटना बतलाती है कि हिन्दुओं की राज्य कल्पना का आर्दश यह नहीं था कि राजा प्रजा को अपनी इच्छानुकूल चलावे, और देश का शासन भी अपनी व्यक्तिगत इच्छा के अनुसार करे। बल्कि वह आर्दश यह था कि राजा प्रजा का मुख्य कर्मचारी है और उसका शारीरिक सुख, आकांक्षाएँ और व्यवसाय प्रजा की भलाई के नीचे हैं।उसका कर्तव्य शासन करना है न कि अधिकार। यदि प्रजा की सेवा करने योग्य गुणों की उसमें न्यूनता हो तो उसे सिंहासन-त्याग के निमित्त हमेशा प्रम्तुत रहना चाहिये।
भारत पर मुगलों का आक्रमण
जिस समय भारत के अन्दर पठानों की ताकत लड़्खड़ा कर गिरने
वाली थी, उस समय काबुल में एक असाधारण योग्यता वाले पुरुष का आविर्भव हुआ। इस व्यक्ति का नाम जहिरुद्वीन मुहम्मद बाबर था। 15 फरवरी सन् 1483 में फरगाना नामक छोटी सी रियासत के राजा उमरशेख के घर बाबर का जन्म हुआ। 11 वर्ष की उमर होने पर बाबर के पिता का देहान्त हो गया और उसी दिन से वह अपने बाप की रियासत का मालिक हुआ। बाबर बचपन से ही नेपोलियन की तरह महत्वाकांक्षी था ओर इन्हीं ऊँची महत्त्वाकांक्षाओं के कारण उसे ऐसी भयंकर विपत्तियों का सामना करना पड़ा कि कभी कभी तो उसके पास खाने को चने तक नहीं रहते थे। पर उत्साही बाबर के हृदय पर इन विपत्तियों का विशेष प्रभाव न पड़ा। इन विपत्तियों के आने से उसकी महत्त्वाकांक्षाओं को अधिकाधिक बल मिलता गया।
मतलब यह कि अनेक स्थानों पर भ्रमण करते करते अन्त में बाबर
को एक बुढ़िया के द्वारा हिन्दुस्तान की शम्य श्यामला भूमि का पता लगा। भारत भूमि की इतनी प्रशंसा सुनते ही उसके मुँह में पानी भर आया। महत्वाकांक्षी तो वह था ही, भावी विपत्तियों की रंचमात्र भी पर्वाह न कर वह 12000 सैनिकों को साथ लेकर भारत विजय के निमित्त चल पड़ा। रास्ते में और भी बहुत से लोग आ आकर उसकी फौज में मिलने लगे। सबसे पहले पानीपत के मशहूर रणक्षेत्र में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी से उसका मुकाबला हुआ। यहाँ आते आते बाबर की सेना 70000 के लगभग हो गई थी। 19 अप्रैल 1526 के दिन यह इतिहास प्रसिद्ध भयंकर युद्ध हुआ। जिसमें इब्राहीम लोदी की फौज पराजित हुईं, और विजयमाला बाबर के गले में पड़ी। इसके एक ही सप्ताह पश्चात् दिल्ली का शाही ताज बाबर के मस्तक पर मंडित हुआ और उसी दिन से भारत हमेशा के लिए सूत्ररूप से गुलाम हो गया। इब्राहीम लोदी से विजय पाने पर भी बाबर निश्चिन्त न हुआ। वह भली प्रकार जानता था कि हिन्दुस्तान में उसका प्रधान शत्रु इब्राहीम लोदी नहीं है, प्रत्युत राणा संग्रामसिंह है, ओर इसलिये वह महाराणा सांगा ( संग्रामसिंह ) पर विजय प्राप्त करने के साधन इकट्टे करने लगा।
महाराणा सांगा और बाबर
इस स्थान पर प्रसंगवशात् हम राणा सांगा और बाबर के जीवन पर एक तुलनात्मक दृष्टि डालना उचित समझते हैं। क्योंकि हमारे खयाल से इन दोनों महापुरुषों के जीवन में बहुत कुछ साम्य है। राणा सांगा और बाबर ये दोनों ही भारत में अपने समय के प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। जिस प्रकार राणा सांगा एक साधारण राजपूत न थे, उसी प्रकार बाबर भी साधारण व्यक्ति न था। दोनों एक ही ढंग के और एक ही अवस्था के थे। राणा सांगा का जन्म 1482 में ओर बाबर का 1483 में हुआ था। दोनों वीर थे ओर दोनों ही ने मुसीबत के मदरसों में तालीम पायी थी। बाबर का पूर्व जीवन दुःख निराशा और पराजय में व्यतीत हुआ था। फिर भी उसमें अदम्य उत्साह, भारी महत्त्वाकांक्षा कर्म शीलता ओर निजी वीरता का काफ़ी समावेश था। विपरीत परिस्थितियों के धक्के खा खाकर इतना मज़बूत हो गया था कि कठिन से कठिन विपत्ति के समय में भी उसका धैर्य विचलित न होता था। उसका जीवन उत्तर की जंगली जातियों और तुर्किस्तान तथा ट्रान्स आक्सियाना की क्रूर, उपद्रवी और विश्वासघाती जातियों में व्यतीत हुआ था। इसके बलवान शरीर, अदम्य साहस और बेशकिमती तजुरबे ने ही मनुष्यता और सभ्यता में उन्नत राजपूत जाति का मुकाबला करने में सहायता की। बाबर का आचरण शुद्ध था, वह एक सच्चा सुसलमान था, हमेशा हँस मुख ओर प्रसन्न रहा करता था। राजनैतिक मामलों को छोंडकर दूसरी बातों में वह उदार भी था । व्यक्तिगत योग्यता और नेतृत्व की दृष्टि से वह उन तमाम सरदारों और नेताओं से-जो उसके पूर्व भारत में आ चुके थे—अधिक बुद्धिमान और शक्तिशाली था। साहस, दृढ़ता और शारीरिक पराक्रम में वह महाराणा के समान ही था। पर शुरता, वीरता, उद्धारता आदि गुणों में वह महाराणा संग्रामसिंह से कम था, पर इसके साथ ही स्थिति के अनुभव में, सहन शीलता और धैर्य में वह महाराणा सांगा से बढ़कर भी था। लगातार की पराजय और क्रमागत दुखों की लड़ी ने बाबर को धैर्यवान, स्थिति-परीक्षक और धूर्त बना दिया। भयंकर संकटो की अग्नि में पड़ कर उसकी विचार शक्ति तप्तसुवर्ण की तरह शुद्ध हो गई थी और इस कारण वह मानवीय हृदय और मनुष्य के मानसिक विकारों के परखने में निपुण हो गया था। पर इसके विरुद्ध महाराणा सांगा में लगातार सफलता के मिलते रहने से और विपत्तियों की बौछार न पड़ने से इन गुणों का समावेश न हो पाया। लगातार की विजय से उनके हृदय में आत्म विश्वास, साहस और आशावाद का संचार हो गया। जिसके कारण वे परिस्थिति का रहस्य समझने में और लोगों के मनोभावों के परखने में कुछ कमजोर रह गये ओर इन्हीं गुणों की कमी के कारण शायद उनकी यह इतिहास-विख्यात पराजय हुई। महाराणा सांगा महावीर और शूर नेता थे; तो बाबर अधिक राजनीतिज्ञ,अधिक चतुर और कुशल सेनापति था। सांगा की ओर प्रतिष्ठा, वीरता, साहस और सेना की संख्या अधिक थी; तो बाबर की ओर युद्ध नीति, चतुरता और धार्मिक उत्साह का आधिक्य था। मतलब यह कि भारत के तत्कालीन इतिहास में ये दोनों ही व्यक्ति महापुरुष थे।
खानवा का युद्ध – महाराणा सांगा और बाबर के बीच लड़ई
हम पहले ही लिख आये हैं कि बाबर को जितना डर महाराणा सांगा का था, उतना किसी का भी नहीं था। इसलिये वह राणा को पराजित करने के लिये कई दिलों से तैयारी कर रहा था। अन्त में ११ फ़रवरी सन् 1527 के दिन बाबर, राणा सांगा से मुकाबला करने के लिये आगरा से रवाना हुआ। कुछ दिनों तक वह शहर के बाहर ठहर कर अपनी फौज ओर तोपखाने को ठीक करने लगा। उसने आलमखाँ को ग्वालियर एवं मकन, कासिमबेग, हमीद और मोहम्मद जैतून को ‘संबल भेजा और वह स्वयं मेढाकुर होता हुआ फतहपुर सीकरी पहुँचा। यहां आकर वह अपनी मोर्च बंदी करने लगा।
इधर महाराणा सांगा भी बाबर का मुकाबला करने के लिये चित्तौड़ पहुँचे। इब्राहीम लोदी के खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने की इच्छा से उनका भाई मुहम्मद लोदी भी राणा की शरण में आ गया था। इसके अतिरिक्त और कई अफगान सरदारों से– जो कि बाबर को हिन्दुस्तान से निकालना चाहते थे, राणा सांगा को सहायता मिली थी। राणा सांगा की फौज के रणथम्भौर पहुंचने का समाचार जब बाबर को मिला तो वह बहुत डर गया। क्योंकि राणा सांगा के बल और विक्रम से वह पूर्ण परिचित था। वह अपनी दिनचर्यामें भी लिखता है कि “ सांगा बड़ा शक्तिशाली राजा था और जो बड़ा गौरव उसको प्राप्त था, वह उसकी वीरता और तलवार के बल से ही था।” अस्तु, जब उसने सुना कि राणा सांगा बढ़ते चले आ रहे हैं तो उसने तोमर राजा सिलहदी के द्वारा संधि का प्रस्ताव भेजा, पर राणा ने उसे स्वीकार नहीं किया और कंदर के मज़बूत किले पर अधिकार करते हुए वे बयाना की ओर आगे बढ़ने लगे। रास्ते में हसनखाँ मेवाती नामक अफ़गान भी 10000 सवारों के साथ महाराणा सांगा की सेना में आ मिला। बाबर अपनी दिनचर्या में लिखता है:— “ जब उसकी सेना में यह खबर पहुँची कि राणा सांगा अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ शीघ्रता से आ रहा है तो हमारे गुप्तचर न तो बयाने के किले में पहुँच सके और न वहां की कुछ खबर ही वे पहुँचा सके। बयाने की सेना कुछ दूर तक बाहर निकल आईं। शत्रु उस पर टूट पड़ा और वह भाग निकली। तब महाराणा सांगा ने बयाना पर अधिकार कर लिया।
”
इसके पश्चात् महाराणा की सेना और आगे बढ़ी और 21 फरवरी 1527 को उसने बाबर की आगे वाली सेना को बिलकुल नष्ठ कर दिया। यह समाचार बाबर को मालूम हुआ तो वह विजय की ओर से पूरा निराश हो गया ओर आत्मरक्षा के लिये मोर्च बन्दी करने लगा।
एर्सकिन साहब लिखते हैं कि मुग़लों के साथ राजपूतों की गहरी
मुठभेड़ हुईं, जिसमें मुगल अच्छी तरह पीटे गये। इस पराजय ने उन्हें अपने लिये शत्रु की प्रतिष्ठा करना सिखाया। कुछ दिन पूर्व मुग़ल सेना की एक टुकड़ी असावधानी से किले से निकल कर बहुत दूर चली आई। उसे देखते ही राजपूत उस पर टूट पढ़े और उसे वापस किले में भगा दिया। उन्होंने वहाँ जाकर अपनी सेना में राजपूतों के वीरत्व की बड़ी प्रशंसा की जिस से मुगल लोग और सी भयभीत हो गये। उत्साही, शूर, योद्धे ओर रक्तपात के प्रेमी राजपूत जातीय भाव से प्रेरित होकर अपने वीर नेता की अध्यक्षता में शत्रु के बढ़े से बड़े योद्धा का सामना करने को तैयार थे और अपनी आत्म प्रतिष्ठा के लिये जीवन विसर्जन करने को हमेशा प्रस्तुत रहते थे। स्टेनली लेनपूल लिखते हैं कि “राजपूतों की शूरवीरता और प्रतिष्ठा के उच्चभाव उन्हें साहस और बलिदान के लिये इतना उत्तेजित करते थे जितना कि बाबर के अर्द्धसभ्य सिपाहियों के ध्यान में भी आना कठिन था। बाबर के अग्रभाग के सेनापति मीर अब्दुल अजीज ने सात आठ मील तक आगे बढ़कर चौकियाँ कायम की थीं पर राजपूतों की सेना ने उन्हें नष्ट कर दिया।
इस तरह राजपूतों की निरन्तर सफलता, उनके उत्साह, उनकी
आशातीत सफलता ओर उनकी सेना की विशालता-जो क़रीब सवा लाख होगी, को देखकर बाबर की सेना में समष्टिरूप से निराशा का दौर दौरा हो गया। इससे बाबर को फिर एक बार सुलह की बात छेड़ना पड़ी। इस अवसर में उसने अपनी मोर्चे बन्दी को और भी मजबूत किया। इतने में काबुल से चला हुआ 500 स्वयं सेवकों का एक दल उसकी सेना में आ मिला, पर बाब॒र की निराशा और बैचेनी बढ़ती ही गई। तब उसने अपने गत जीवन पर दृष्टि डालकर उन पापों को जानना चाहा, जिनके फल स्वरूप उसे यह् दु:ख उठाना पड़ रहा था। अन्त में उसे प्रतीत होने लगा कि उसने नित्य मदिरापान का स्वभाव डालकर अपने धर्म के एक मुख्य सिद्धान्त को कुचल डाला है। उसने उसी समय इस संकट से बचने के लिये इस पाप के को तिलांजलि देने का विचार किया। उसने मदिरापान की कसम ली ओर शराब पीने के सोने चाँदी के गिलासों और सुराहियों को उसने तुड़वा कर उनके टुकड़ों को गरीबों में बंटवा दिया। इसके अतिरिक्त मुसलमानी धर्म के अनुसार उसने दाढ़ी न मुडवाने की प्रतिज्ञा की।
पर इन कामों से सब लोगों की निराशा घटने के बदले अधिकाधिक बढ़ती ही गई। वह अपनी दिनचर्या में लिखता है:—
इस समय पहले की घटनाओं से क्या छोटे ओर क्या बड़े सब ही
भयभीत हो रहे थे। एक भी आदमी ऐसा नहीं था, जो बहादुरी की बातें करके साहस वर्द्धित करता हो। वजीर जिनका फर्ज ही नेक सलाह देने का था, और अमीर जो राज्य की सम्पत्ति को भोगते आ रहे थे, कोई भी वीरता से न बोलता था, और न उनकी सलाह ही दृढ़ मनुष्यों के योग्य थी। अन्त में अपनी फौज में साहस और वीरता का पूर्ण अभाव देखकर मैंने सब अमीरों ओर सरदारों को बुलाकर कहा— सरदारों और सिपाहियों ! प्रत्येक मनुष्य जो इस संसार में आता है, वह अवश्य मरता है। जब हम यहाँ से चले जायगे तब एक निराकार ईश्वर ही बाकी रह जायगा। जो कोई जीवन का भोग करेगा, उसे जरूर ही मौत का प्याला पीना पड़ेगा। जो इस दुनियां में मौत की सराय के अन्दर आकर ठहरता है, उसे एक दिन जरूर बिना भूले इस घर से विदा लेनी होगी। इसलिये अप्रतिष्ठा के साथ जीते रहने की अपेक्षा प्रतिष्ठा के साथ मरना कहीं उत्तम है। परमात्मा हम पर प्रसन्न हैं, उसने हमें ऐसी स्थिति में ला रखा है कि यदि हम लड़ाई में मारे जाये तो शहीद होंगे ओर यदि जीते रहे तो विजय प्राप्त करेंगे। इसलिये हम सबको मिलकर एक स्वर से इस बात की शपथ लेना चाहिये कि देह में प्राण रहते कोई भी लडाई से मुँह न मोड़ेगा और न युद्ध अथवा मारकाट में पीठ दिखावेगा।
इस भाषण से उत्साहित होकर क़रीब 20000 वीरों ने कुरान हाथ
में ले लेकर कसम खाई। पर बाबर को इस पर भी विश्वास न हुआ और उसने सिलहिदी को सुलह का पैग़ाम लेकर फिर राणा के पास भेजा। बाबर ने इस शर्त पर महाराणा सांगा को कर देना स्वीकार किया कि वह दिल्ली ओर उसके अधीनस्थ प्रान्त का स्वामी बना रहे। पर महाराणा सांगा ने इसको भी स्वीकार न किया । इससे सिलहिद्दी बहुत अप्रसन्न हुआ और उसने भविष्य में महाराणा के साथ किस प्रकार विश्वासघात कर इसका बदला लिया यह आगे जाकर मालूम होगा। अस्तु !
जब बाबर संधि से बिलकुल निराश हो गया तो अन्त में उसने जी
तोड़ कर लड़ाई करना ही निश्चित किया। यदि इसी अवसर पर महाराणासुस्ती न करके उस पर आक्रमण कर देते तो मुग़ल वंश कभी दिल्ली के सिंहासन पर प्रतिष्ठित न होता और आज भारत के इतिहास का रूप ही दुसरा नजर आता। पर जब दैव ही अनुकूल में हो तो सब का किया हो ही क्या सकता है। हाँ, भारत के भाग्य में गुलाम होना बदा था।
बाबर ने सब प्रोग्राम निश्चित कर अपने पड़ाव को वहाँ से हटा कर
दो मील आगे वाले मोर्चे पर जमाया। 12 मार्च को बाबर ने अपनी सेना ओर तोपखाने का इन्तिजाम किया और उसने चारों ओर घुमकर सब लोगों को दिलासा दे दे कर उत्तेजित किया। प्रातकाल साढ़े नौ बजे युद्ध आरंभ हुआ। राजपूतों ने बाबर की सेना के दाहिने और मध्य भाग पर तीन आक्रमण किये। जिसके प्रभाव से वे मैदान छोड़ कर भागने लगे। इस पर अलग रखी हुई सेना उसकी मदद के लिये भेजी गई और राजपूतों के रिसालों पर तोपें दागना प्रारंभ हुई, पर बीर राजपूत इससे भी विचलित न हुए । वे उसी बहादुरी के साथ युद्ध करते रहे। इतने ही में दगाबाज सिलदहिद्दी अपने 35000 सवारों को लेकर सांगा का साथ छोड़ बाबर से जा मिला। पर इसका भी राजपूत-सैन्य पर कुछ विशेष प्रभाव न पड़ा, वह पूर्ववत ही लड़ती रही। इन सब घटनाओं के साथ ही एक घटना और हो गई, जिसने सारे युद्ध के ढंग को ही बदल दिया। वह समय बहुत ही निकट आ चुका था कि जब बाबर की फौज भागने लगती, पर इसी बीच किसी मुगल सैनिक का चलाया हुआ तीर महाराणा सांगा के मस्तक पद इतने ज़ोर से लगा कि जिससे वे बेसुध हो गये। बस, इस समय में महाराणा का बेसुध,हो जाना ही हिन्दुस्तान के दुर्भाग्य का कारण हो गया।यद्यपि कुछ लोगों ने चतुराई के साथ उनके रिक्तस्थान पर सरदार आज्जाजी को बिठा दिया, पर ज्यों ही राजपूत सेना में महाराणा सांगा के घायल होने का समाचार फैला त्योंही वह निराश हो गई, ओर उसके पैर उखड़ने लगे। इधर अवसर देखकर मुग़लों ने ज़ोरशोर से आक्रमण कर दिया, फल वही हुआ जो भारत के भाग्य में लिखा था। राजपूत सेना भाग निकली और सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध सरदार मारे गये।
राजपूतों की इस हार पर गंभीरतापूर्वक मनन करने से यही फल निकलता है कि उनके इस पराजय का कारण उनकी वीरता की कमी न थी, परन्तु इसका कारण हमारी सैनिक कायदों की वह कमजोरी थी, जिसने कई बार हमको पहले भी धोखा दिया। इसी सैनिक पद्धति से सिंध के राजा दाद्दिर की–जो किसी भी प्रकार मुहम्मद कासिम से कम न था–पराजय हुई। इसी पद्धति के कारण पंजाब के शक्तिशाली राजा आनन्दपाल के भाग्य का निपटारा हुआ। आनन्दपाल भी महमूद गजनवी से किसी प्रकार कम न था पर सन् 1008 के पेशावर वाले युद्ध में उनका हाथी बेकाबू होकर भाग गया और इसी के कारण उनकी पराजय हुईं। इसी नाशकारी पद्धति के कारण प्रसिद्ध राणा संग्रामसिह की भी यह पराजय भारत को देखनी पड़ी।
मूर्च्छित महाराणा सांगा को ले जाने वाले लोग जब ‘बसवा’ नामक ग्राम में पहुँचे तब महाराणा को चेत हुआ। उन्होंने जब सब लोगों से अपने इस प्रकार लाये जाने की बात सुनी तो उन्हें बड़ा क्रोध और खेद हुआ। उसी समय उन्होंने प्रतिज्ञा की कि बिना बाबर को पराजित किये जीते जी चित्तौड़ ने जाऊंगा। इसके पश्चात् स्वस्थ होने के निमित्त कुछ समय तक महाराणा सांगारणथम्भौर में रहे। इस स्थान पर टोडरमल चाँचल्या नामक एक व्यक्ति ने एक ओजपूर्वक कविता सुनाकर महाराणा को प्रोत्साहित किया। जिससे वे फिर युद्ध के लिये तेयार हो गये। उन्हें युद्ध के लिये इस प्रकार प्रस्तुत देख उनके विश्वास घातक मंत्रियों ने जो कि अब युद्ध करना न चाहते थे, उन्हें विष दे दिया। इस कारण संवत् 1584 के वैशाख में महाराणा सांगा देहान्त हो गया। मृत्यु-समय उनकी देह पर करीब 80 जख्म थे। राणा संग्रामसिंह के साथ ही साथ भारत के राजनितिक रंगमंच पर हिन्दू साम्राज्य का अन्तिम दृश्य भी पूर्ण हो गया। यहीं से हिन्दू साम्राज्य के नाटक की यवनिका का पतन हो गया। जिस देश के अन्दर आज़ादी के निमित्त युद्ध करने वाले बहादुर देश सेवक को विष दे दिया जाये, जिस देश में सिलहिद्दी के समान विश्वासघातक उत्पन्न हो जाये, वह देश यदि चिरकाल के लिये गुलाम हो जाये तो क्या आश्चर्य?
हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—