सन् 1572 में महाराणा प्रताप सिंह जी मेवाड़ के महाराणा हुए। इस समय महाराणा के पास न तो पुरानी राजधानी ही थी न पुराना सैन्य दल और न कोष ही था। महाराणा प्रताप सिंह रात दिन इसी चिन्ता में रहने लगे कि चितौड़ का उद्धार किस तरह किया जाय। ये इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि सम्राट अकबर की सेना और शक्ति के सामने हमारी शक्ति कुछ भी नहीं है। चारण और भाटों के मुख से अपने पूर्वजों की कीर्ति और वीरता सुनकर प्रताप के हृदय में देशोद्धार और स्वाभिमान ने पूरा स्थान पा लिया था। मेवाड़ के सभी सरदारों ने महाराणा की उच्च अभिलाषा का हृदय से समर्थन किया। अकबर ने मेवाड़ के सब सरदारों को धन दौलत और राज्य का लोभ देकर अपनी ओर मिलाने की चेष्टा की, परन्तु चण्ड, जयमल और फत्ता के वंशधरों ने किसी भी लोभ में पड़कर महाराणा का साथ नहीं छोड़ा। अकबर ने भी स्वयं महाराणा को कई बार लिखा कि यदि आप मेरे दरबार में एक बार आकर मुझे भारतेश्वर कह कर पुकारों तो में अपने राज्य-सिंहासन की दाहिनी ओर आपको स्थान देने के लिये तैयार हूं परन्तु महाराणा प्रताप सिंह ने किसी भी प्रलोभन में आकर अपना प्राचीन गौरव न घटाया। वे सदा कहा करते थे कि बापा रावल का वंशज मुगलों के आगे सिर नहीं कुका सकता। एक दिन अपने सरदारों के साथ बेठे हुए महाराणा ने इस बात की प्रतिज्ञा कराई कि जब तकमेवाड़ का गौरवोद्वार न हो तब तक मेवाड़-सन्तान सोने चाँदी के थालों में भोजन न कर पेड के पत्तो पर किया करे, कोमल शय्या के स्थान से घास पर सोया जाये, महलों की जगह घास ओर पत्तों की कुटियों में निवास किया जाये, राजपूत अपनी दाढ़ी मूँछों पर छुरा न चलवायें ओर रण-डंका फौज के पीछे बजा करे। वीरवर प्रताप सदा कहा करते थे कि मेरे दादा ओर मेरे बीच में यदि मेरे पिता उदय सिंहजी न हुए होते तो चित्तौड़ का सिंहासन शिसोदिया कुल से न जाता। महाराणा ने सबसे प्रतिज्ञा कराई और स्वयं भी इस प्रतिज्ञा का पालन करने लगे।
महाराणा प्रताप का इतिहास हिन्दी में
मुग़ल-सेना के विरुद्ध लड़नें के लिये महाराणा प्रताप सिंह ने एक उपाय सोच निकाला। उन्होंने राज्य में आज्ञा निकाली कि मेवाड़ की सारी प्रजा, बस्ती ओर नगरों को छोड़कर परिवार सहित अरावली पर्वतों के बीच रहने लगे। जो इस आज्ञा का पालन न करेगा वह शत्रु समझा जायगा और उसे प्राण-दंड मिलेगा। इस आज्ञा का पालन उन्होंने बड़ी कठोरता से किया। जिसने आज्ञा“ पालन न की, वही मार डाला गया। एक चरवाहे को भी प्राण-दंड भोगना पडा था। सामन्तों ने धन संग्रह का एक और मार्ग निश्चित किया। उन दिनों सूरत बंदरगाह से होकर सारे भारत को मेवाड से व्यापार सामग्री जाया करती थी। सरदारों ने दल बांधकर वह सामग्री ओर खजाने लूटने शुरू कर दिये। इस लूट से महाराणा के पास बहुत सा धन आ गया। अकबर ने जब महाराणा प्रताप सिंह की सब बातें सुनी तो वह बड़ा क्रोधित हुआ और अपनी सारी सेना सजाकर अजमेर के पास डेरा डाल बैठा। अकबर के पास कई लाख सेना थी। मारवाड़ के राव मालदेव ने जब अकबर की इस चढ़ाई का हाल सुना तो उसने अपने बड़े बेटे उदयसिंह को अकबर के पास भेज दिया। अजमेर में उदयसिंह ने अकबर से सन्धि कर ली और उसी दिन से मारवाड़ के राजाओं को अकबर की दी हुई ‘राजा’ उपाधि भोगने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जिन राजाओं के वंशधर मेवाड़ की विपत्ति के समय महाराणाओं की सहायता किया करते थे, वे ही मेवाड़ को दासत्व के बन्धन में डालने के लिये अकबर का साथ देने को तैयार हो गये। उनके साथ देने का एक और भी कारण था। जब सारे राजपूतों ने अपनी कन्याएँ अकबर को दे दीं तो मेवाड़ के शिसोदियो ने उन राजाओं से अपना सम्बन्ध त्याग दिया। मानसिंह ने थाल पर बैठकर कुछ आस नेवेद्य के लिये निकाले ओर वे भोजन किये बिना ही उठ गये। उन्होंने कहा कि यदि मेरे यहाँ चले आने पर भी हम लोगों का मनोमालिन्य दूर न हुआ तो आपको भी भयानक परिणाम का सामना करना पड़ेगा। मानसिंह को उस समय क्रोध आ गया ओर उन्होंने घोड़े पर सवार होकर कहा कि यदि मैंने तुम्हारा यह अभिमान चूर न किया तो मेरा नाम मानसिंह नहीं। महाराणा प्रताप सिंह भी मानसिंह की ये बातें सुन उत्तेजित होकर बोले कि अब रण-स्थल में ही हम दोनों की मुलाकात होगी। महाराणा के एक सरदार ने ताना मारकर कहा कि युद्ध में आते समय अपने बहनोई को भी साथ लेते आना। जिन पात्रों में मानसिंह के लिये भोजन बनाया गया था, वे सब तोड़ कर फेंक दिये गये। जिन लोगों ने भोजन बनाया या मानसिंह का स्पर्श किया था, उन सब ने कपड़े बदले। जिस स्थान पर मानसिंह ने भोजन किया था, उस स्थान की मिट्टी खोदकर मेवाड़ के बाहर फेंकी गई और गंगाजल से वह स्थान पवित्र किया गया। राजा मानसिंह उदयपुर से प्रस्थान कर अकबर के पास पहुँचे और उन्होंने अपने अपमान की सारी बातें उनसे कहीं। बादशाह बड़ा क्रुद्ध हुआ और कई लाख सेना सजाकर मानसिंह को उनके भानजे सलीम और सगरजी के पुत्र मुहब्बतखाँ को साथ देकर महाराणा प्रताप के विरुद्ध चढवाई कर दी। मुहब्बतखाँ सगरजी का पुत्र था जो महाराणा प्रताप के भाई थे। वह किसी मुसलमान स्त्री के प्रेम में फँसकर मुसलमान हो गया था। जब महाराणा पर चढ़ाई करने के लिये घर का भेदी भेजा गया तो उसने अपने देशद्रोह का पूरा परिचय दिया। वह गिरि-मार्गों से परिचित था।
उदयपुर के पश्चिम कई कोस के मैदान में बादशाही सेना ने डेरा डाला। महाराणा प्रताप सिंह युद्ध की तैयारी की बात पहले से ही सुन चुके थे। इसलिये 22 हज़ार राजपूत और कुछ भीलों को पहाड़ों के चारों ओर रख दिया गया और शत्रुओं पर बरसाने के लिये पत्थर भी एकत्र कर लिये गये।
हल्दीघाटी का युद्ध
सन् 1576 के जुलाई मास में हल्दीघाटी के मैदान में दोनों
दल वाले भिड़े। महाराणा अपने सामन्तों को साथ ले मुग़ल सेना में घुस पड़े। पहले आक्रमण से ही मुगल सेना के छक्के छूट गये; वह छिन्न भिन्न हो गई। महाराणा ने पुकार कर कहा कि राजपूत कुल-कलंक मानसिंह कहाँ है ? परन्तु उन्हें कोई उत्तर न मिला। महाराणा अपने चेतक घोड़े पर सवार हो कर सलीम के पास पहुँचे । शत्रु को सामने देखते ही महाराणा प्रताप सिंह का उत्साह दूना हो गया। उन्होंने चेतक की लगाम खींची और चेतक ने उन्हें लेकर अपने दोनों पाँव हाथी के सिर पर जमा दिये। महाराणा ने अपना भाला उठाया, जिसे देखकर सलीम घबरा गया ओर उसने हाथ जोड़ कर क्षमा माँगी। महाराणा ने अपना घोड़ा वापस लौटा लिया और नीचे उतर कर उन्होंने कहा कि शरणागत शत्रु पर हिन्दू आक्रमण नहीं किया करते। महाराणा ने सलीम के होदे में बड़े ज़ोर से अपना भाला मारा जिससे होदा फट गया और मसहावत मर गया। हाथी बड़े वेग से सलीम को लेकर भागा। इधर महाराणा को नीचे उतरा देख मुगल सेना ने उन्हें घेर लिया। राजपूतों ने बड़े उत्साह के साथ महाराणा प्रताप सिंह की रक्षा के लिये प्राण त्याग दिये परन्तु महाराणा की सेना कम होने के कारण उनका बल घटने लगा। महाराणा प्रताप सिंह के शरीर में इस समय तक एक गोली लगने के सिवा तलवार के तीन और भाले के तीन घाव हो चुके थे।
महाराणा प्रताप सिंह
महाराणा ने सब स्थानों को खूब कस कर बाँधा ओर बड़े उत्साह से लड़ने लगे। उन्हें यह बात मालूम हो चुकी थी कि यह युद्ध बहुत देर तक न चल सकेगा परन्तु क्षत्रिय वीर ने एक समय भी युद्ध स्थल छोडकर भागनेका प्रयन्त न किया। इसी समय थोड़ी ही दूर पर मेवाड की जय ओर महाराणा प्रताप की जय सुनाई पड़ी, जिसे सुन कर महाराणा और भी ज़ोर से गरजने लगे। कालापति मन्नाजी ने जब यह देखा कि महाराणा के सिर पर मेवाड़ के छत्र चँवर तथा अन्य सारे राज्य चिन्ह हैं, इसी से मुगल अपनी सारी शक्ति उन्हीं के विरुद्ध लगाये हुए हैं तो उन्होंने वहाँ पहुँच कर महाराणा से कहा कि ये सारे चिन्ह मुझे दे कर आप चले जाइये। परन्तु महाराणा ने कहा कि प्रताप जीवित रहता हुआ रण-स्थल नहीं छोड़ सकता। मन्नाजी को जब कोई उपाय न सूझा तो उन्होंने महाराणा का मुकुट और छत्र छीनकर अपने सिर पर रखा ओर चेतक घोड़े की पूँछ काट दी। चेतक महाराणा को लेकर युद्ध-स्थल से निकल गया। मुगल, मन्नाजी को महाराणा समझ उनपर ही आक्रमण करने लगे और थोडी ही देर बाद बीर भाला पति ने अपूर्व स्वामिभक्ति दिखाकर प्राण त्यागे। उनकी इसी स्वामी भक्ति के कारण उनके वंशजों को महाराणा की ओर से बहुत सी जागीर मिली और सरदारों में सर्वोच्च पद मिला। वे राजा के नाम से पुकारे गये ओर उनके नगाड़े महाराणा के भवन के द्वार तक बज सकते थे। महाराणा की वीरता और आत्म त्याग को देख कर राजपूत उनके चले जाने पर भी बहुत देर तक उत्साह पूर्वक लड़े परन्तु मुगल सेना की संख्या अधिक होने के कारण कोई फल न हुआ। मुग़ल सेना के पास तोप, बन्दूक और गोलाबारी का पूरा सामान था, परन्तु महाराणा की सेना भाला, तलवार और तीर कमान से ही लड़ती थी। संध्या के बाद जब युद्ध समाप्त हुआ तो 22 हज़ार राजपूतों में से केवल 8 हजार वापस लोटे। महाराणा के कई सौ घनिष्ट सम्बन्धी युद्ध-स्थल में काम आये। जब चेतक घोड़ा महाराणा प्रताप सिंह को लेकर भागा तो दो मुसलमान ओर एक राजपूत ने उनका पीछा किया। पहाड़ों के बीच होता हुआ एक नदी को पारकर चेतक दूसरी तरफ चला गया, परन्तु उसका पीछा करने वाले नदी पार न कर सके। पीछे से बन्दूक का शब्द सुनाई दिया। किसी ने आवाज़ भी दी। महाराणा ने देखा कि दोनों मुग़ल सैनिक मार डाले गये हैं और उनके भाई शक्तिसिंह आ रहे हैं । शक्तिसिंह एक दिन महाराणा से लड़ कर जन्मभूमि का मोह त्याग अकबर से जा मिले थे। उनकी इच्छा थी कि महाराणा का नाश कर मेवाड़ की गद्दी प्राप्त की जाये और इसी उद्देश्य से अकबर के साथ उन्होंने महाराणा पर चढ़ाई की। जब उन्होंने अकबर की सेना के व्यूह के बीच खड़े होकर महाराणा का अपू्र्व त्याग और देश-रक्षा का दृढ़ व्रत और शरीर के घावों से निकलता हुआ रुधिर देखा तो शक्तिसिंह का हृदय पिघल गया और भाई का उद्धार करने के लिये वे उनके पीछे रवाना हो गये। मार्ग में जब और दो मुग़लों को उनका पीछा करते देखा तो बन्दूक से उन्हें मार डाला। महाराणा ने सोचा कि शायद शक्तिसिंह बदला लेने आ रहा है, इसलिये वे तलवार लेकर खड़े हो गये। परन्तु शक्तिसिंह पास पहुँच कर उनके चरणों में गिर पड़े और अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगने लगे। इसी समय महाराणा प्रताप सिंह के प्यारे घोड़े ने प्राण त्याग दिये। महाराणा ने उस स्थान पर एक स्मारक बनवाया जो आज भी चेतक का चबूतरा कहलाता है।
शक्तिसिंह ने अपना घोड़ा महाराणा को दिया और सलीम के सन्देह से बचने के लिये वे वहाँ से चल पड़े। शक्तिसिंह की आकृति और उनके विलम्ब को देखकर सलीम को सन्देह हो गया और जब शक्तिसिंह ने यह कहा कि दोनों मुगल महाराणा के हाथ से मारे गये, तो सन्देह और भी बढ़ गया। सलीम ने कहा कि यदि तुम सब बातें सच सच कह दोगे तो में तुम्हारा कसूर माफ कर दूँगा। शक्तिसिंह रो कर बोले कि मेरे भाई के सिर पर मेवाड़ सरीखे बड़े राज्य का भार है; हजारों आदमियों का सुख दुःख उन्हीं पर निभर है। ऐसी विपत्ति के समय में उनकी सहायता न करता तो क्या करता। सलीम ने और कुछ न कहकर अपनी सेना से उन्हें अलग कर दिया। शक्तिसिंह हल्दीघाटी के मैदान से लौटकर जिस समय उदयपुर आ रहे थे तो भीम-सरोवर किला, जो अकबर के हाथ में था, जीतने में समर्थ हुए और अपने भाई को उदयपुर में इस किले की भेंट दी।
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद क्या हुआ
नकली विजय का आनन्द मनाता हुआ सलीम हल्दीघाटी के पहाड़ी स्थानों को त्याग कर चला गया, क्योंकि वर्षाऋतु के कारण नदियाँ उमड़ पड़ी थीं और पहाड़ी स्थान दुर्गम हो गये थे। महाराणा का पीछा नहीं किया जा सकता था। महाराणा को इस बीच विश्राम लेने का समय मिल गया। परन्तु 1577 के जनवरी मास में मुग़ल सेना ने उदयपुर पर फिर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में भी महाराणा अपनी थोड़ी सी सेना लेकर मुगलों के साथ बडी वीरता से लड़े। अन्त में वे उदयपुर छोडकर कुंभलमेर चले गये। अकबर के सेनापति शहबाज खाँ ने कुम्भलमेर को भी जा घेरा। बहुत देर तक महाराणा प्रताप सिंह इस किले में रह कर मुग़ल सेना का सामना करते रहे परंतु उस मुगल सेनापति के साथ मेवाड़ का जो देशद्रोही राजपूत देवराज था उसने महाराणा से कुंभलमेर भी छुड़ा दिया देवराज को यह बात मालूम थी कि कुंभलमेर में एक ही कुआं है जिसका पानी सब पीते हैं, इसलिये उसने कुए में कुछ मरे हुए जहरीले साँप डलवा दिये थे। पानी खराब हो जाने के कारण महाराणा की अपना आश्रय स्थान त्याग देना पड़ा। महाराणा चोंडू नामक पहाड़ी किले में चले गये। मुग॒लों ने यह स्थान भी जा घेरा। भयानक युद्ध के बाद सरदार भानुसिंह ओर मेवाड़ के लोग इतने उत्तेजित हो चुके थे कि वे जहां कहीं किसी मुसलमान को पाते थे, मार डालते थे।
जिन दिनों महाराणा कुंभलमेर के किले में बन्द थे, मानसिंह ने
धर्मती और गोगंंब नामक किले जीत लिये। मुहब्बत खाँ नेउदयपुर पर अधिकार जमाया। अमीशाह नामक एक दूसरे मुसलमान सेनापति ने अपनी सेना को चोंड और अगुशणपांडोर के बीच के मैदान में अड़ा दिया जिससे महाराणा का भीलों से सम्बन्ध टूट गया। फ़रीद खाँ चप्पन को घेरकर चौंड़ तक बढ़ा। महाराणा का आश्रय स्थान चारों ओर से घिर गया। यद्यपि मुगलों ने महाराणा के रहने के लिये कोई स्थान न छोड़ा, मुगल सेना पहाड़ की प्रत्येक गुफ़ा में उन्हें पकड़ने के लिये ढूंढ़ने लगी तथापि प्रतापसिंह को कोई न पकड़ सका। जब कभी वे मुगल सेना को असावधान पाते, उस पर टूट पड़ते। कुछ ही दिनों में उन्होंने फरीद खां को उसकी सारी सेना सहित काट डाला। दूसरी, तीसरी और चौथी वर्षा-ऋतु इसी तरह निकल गई। वर्षा-ऋतु में महाराणा को विश्राम का कुछ समय मिल जाता था, बाकी समय में वे मुगलों का सामना ही करते रहते थे।
कई वर्ष बीतने पर भी महाराणा प्रताप सिंह की विपत्ति कम न हुई। उन्हें किसी तरह भी न छोड़ा गया। महाराणा के स्थान एक एक कर मुग़लों के हाथ जाने लगे। अन्त में उन्हें अपने परिवार की रक्षा करना भी कठिन दिखाई दिया। एक समय वे सपरिवार शत्रुओं के हाथ पड़ ही चुके थे कि गिहलोत कुल के भीलों ने उनका उद्धार किया। महाराणा भीलों के साथ दूसरे मार्ग से चले गये। उनके परिवार को टोकरों में रख कर भीलों ने खदानों में छिपा दिया। पचासों बार भीलों को मुगलों के हाथ से रक्षा करने के लिये महारानी कुमार अमरसिंह ओर राजकुमारी को वृक्षों में लटकना पड़ा। आज तक भी उन स्थानों में बहुत से कड़े और बड़ी बड़ी कीलें गड़ी हुई दिखाई देती हैं। जिस महारानी और राजकुमारी ने कभी महलों के बाहर पैर तक न रखा था वे ही पवित्र स्वाधीनता और कुल गौरव के लिये सन्यासी महाराणा के साथ भूखे प्यासे काँटों के जंगलों और नोकीले पत्थरों के बीच घूमने लगीं। महाराणा प्रताप सिंहकी इस वीरता, त्याग और सहनशीलता का समाचार जब अकबर ने सुना तो उसने अपना एक विश्वासी गुप्तचर भेजकर महाराणा की वास्तविक अवस्था जाननी चाही। उसने लौटकर जब अकबर के दरबार में कहा–मैंने अपनी आँखों से देखा दे कि प्रतापसिंह अब भी पहाड़ों और जंगलों में पेड़ों के नीचे बैठ कर अपने सरदारों को दौना बाँटते हैं। उसी समय अकबर के चरणों में आत्म-समर्पण करने वाले राजपूत भी महाराणा के गुणों का वर्णन करने लगे। खान खाना ने बड़े महत्वपूर्ण शब्दों में महाराणा प्रताप सिंह की प्रशंसा की।
एक दिन महाराणा ने कई दिन भूखे रहने के बाद घास के बीज एकत्र कर कुछ रोटियाँ बनाई, आधी आधी रोटी कुमार और कुमारी को देकर बाकी आधी आधी रोटी दूसरे दिन के लिये उनके खाने को रख दी। महाराणा भी कुछ रोटी खाकर एक वृक्ष के नीचे लेटे हुए थे कि एक बन-बिलाव कुमारी के हाथ से घास की रोटी छीनकर भागा। कुमारी बड़े जोर से रोने लगी। महाराणा ने देखा कि बालिका रोटी के लिये रो रही है महारानी की आँखों में भी आँसू निकल रहे हैं तो, उनका हृदय विदीर्ण हो गया। मेवाडाधिपति की कन्या घास की रोटी के लिये रो रही है यह बात महाराणा के लिये असह्य हो गई । जिस महाराणा प्रताप सिंह का हृदय रण-स्थल में सहस्यों वीरों की शैय्या देखकर विहल न हुआ था, वह कन्या के आत्तेनाद से शांकातुर हो गया। महाराणा अधीर होकर बोले कि इस प्रकार की पीड़ा सहकर राज मर्यादा की रक्षा करना असंभव मालूम होता है। थोड़ी देर बाद उन्होंने अकबर के पास संधि का प्रस्ताव भेज दिया। महाराणा का संधि प्रस्ताव जब अकबर के पास पहुँचा तो उसके हृदय में ‘हिन्दूपति’ कहलाने की इच्छा फिर जाग्रत हो गई। सारे शहर में रोशनी कराई गई। घर घर गाना बजाना होने लगा और दिल्ली में कई दिन तक बड़ी धूम रही। सलीम और बीकानेर राजा के छोटे भाई पृथ्वीराज को महाराणा का पत्र दिखाया गया। इस पत्र को अकबर ने उपयुक्त दोनों व्यक्तियों को कई कारणों से दिखाया था। सलीम अकबर को
सदा ताना मारा करता था कि महाराणा प्रताप के रहते हुए आप ‘हिन्दूपति’ की उपाधि नहीं पा सकते। सलीम भगवानदास की कन्या का पुत्र था। सलीम की माता जब कभी सपने पितृ-गृह जाया करती थीं तो वे अपनी बहिन से जो उदयपुर ब्याही हुई थीं मिला करती थीं। उदयपुर ब्याही हुई बहिन अकबर से ब्याही जाने वाली अपनी बहिन के साथ भोजन नहीं करती थीं, यहाँ तक कि उनके पीने के लिये उदयपुर से पानी जाया करता था। अकबर की स्त्री को यह बात बड़ी बुरी लगा करती थी और वह सदा अकबर से कहा करती थी कि महाराणा के रहते हुए आप “हिन्दूपति’ नहीं कहे जा सकते। सलीम भी माता के कथनानुसार ताना मारा करता था। सलीम ने अकबर से यह भी कह दिया कि में रण-क्षेत्र में महाराणा से प्राण मिक्षा मांगकर लौटा हूँ इसलिये उनसे लड़ने के लिये अब न जाऊँगा। वह वास्तव में कभी महाराणा के विरुद्ध लड़ने को गया भी नहीं। बीकानेर-नरेश के भाई पृथ्बीराज अकबर के यहाँ कैद थे। वे इस बात पर विश्वास करने के लिये तैयार न हुए कि महाराणा ने सन्धि-पत्र भेजा है।
पृथ्वीराज का विवाह महाराणा प्रताप के छोटे भाई सक्ता जी की लड़की से हुआ था । जब बीकानेर-नरेश ने अपनी लड़की अकबर को दी तो पृथ्वीराज ने उनका तीन प्रतिवाद किया और वे लड़ने के लिये तैयार हो गये। इस पर वे कैद कर लिये गये। उनकी स्त्री जितनी सुन्दरी थीं उतनी ही वीर भी थीं। उन्हें अपने पितृ-गृह का बड़ा भारी अभिमान था। अकबर दिल्ली में हर साल एक मेला लगवाया करता था जिसका नाम नौरोज या खुशरोज था। इस मेले में एक बहुत बड़ा बाज़ार महलों के पीछे लगाया जाता था। राजपूतों की स्त्रियाँ और लड़कियाँ इस बाज़ार में चीज़े बेचने जाया करती थीं।अकबर उनके बीच रूपलावश्य का आनन्द लूटने के लिये घूमा करता था। वहाँ किसी पुरुष को जाने की आज्ञा न थी। पृथ्वीराज की स्त्रि पर उसकी आँख बहुत दिनों से लगी हुईं थी; क्योंकि एक तो वे अत्यन्त सुन्दरी थीं और दूसरे उदयपुर के शिसोदिया वंश की थीं। जब बह एक दिन नौरोज़ के मेले में आई हुई थीं तो उनके लौटने पर अकबर ने और सब मार्ग तो बन्द करा दिये केवल अपने महल का मार्ग खुला रखा। उस खुले हुए द्वार से जब वह जाने लगी तो राह में ही दुराचारी अकबर ने उन्हें घेर लिया। कामोन्मत्त होकर उसने राजपूत-बाला को अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये। उसकी यह धुणित चेष्टा देख वीर महिला ने तत्काल ही अपनी बगल से छुरी निकाली और बोली कि यदि मुँह से एक भी शब्द निकाला तो यह छुरी तेरे कलेजे के पार हो जायगी। अकबर यह देखकर स्तम्भित हो गया। जिस पृथ्वीराज की रानी ने अकबर को ऐसा बदला दिया, उन्हीं के भाई बीकानेर के राजा
रायसिंह की स्त्री अकबर के दिये हुए लालच में फँस गई और उन्होंने अपना अमूल्य सतीत अकबर के हाथ बेच डाला। पृथ्वीराज ने अपने भाई से इस घटना का वृत्तान्त बड़े मर्मभेदी शब्दों में कहा था। जब पृथ्वीराज ने महाराणा प्रताप सिंह के पतन को देखा तो उन्होंने अकबर से कहा कि में महाराणा को अच्छी तरह जानता हूँ ओर उनके हस्ताक्षर भी पहचानता हूँ। में दावे के साथ यह बात कह सकता हूँ कि यह पत्र उनका लिखा नहीं है। यदि आप अपना राजमुकुट भी उनके सिर पर रख दें तो भी वे आपके सामने सर नहीं झुका सकते। पृथ्वीराज ने राणा को एक पत्र लिखा ओर एक दूत उनके पास भेजा। पृथ्वीराज के इस पत्रको पढ़कर वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप सिंह बड़े उत्साहित हुए। उन्होंने पत्र ले आने वाले दूत से कह दिया कि वह मेरा पत्र न था। में मुग़लों के सामने सिर झुकाना अपमान ही नहीं, घोर पाप समझता हूं। दूत को रवाना करने के बाद महाराणा मुगल सेना पर टूट पड़े और सारी सेना काट डाली। दिल्ली खबर पहुँचते ही वहाँ से बहुत सी सेना भेज दी गई और फिर महाराणा का पीछा किया गया। महाराणा प्रताप सिंह फिर छिप छिप कर आक्रमण करने लगे। जिन जंगलों में महाराणा रहते थे उनके वृक्षों के फल-फूल खतम हो गये और पानी की कमी से घास भी पैदा न हुईं। जिन चीजों को खाकर वीर अपने प्राण की रक्षा किये हुए थे, उनका भी अभाव हो गया। इस विपत्ति के समय राणाजी ने अपने सरदारों के साथ बैठकर निश्चय किया कि अब इस स्थान में गुजारा नहीं हो सकता। इसलिये यहाँ से चलकर सिन्धु नदी के तट पर रहना चाहिये। यात्रा की तैयारी हुईं, जीवन-मरण का साथ देने वाले सरदार अपने परिवार सहित उनके पास पहुँच गये। जब महाराणा अपनी प्यारी जन्भूमि को त्यागकर पहाड़ों के नीचे उतरे तो उनकी
आँखों से आँसू निकल पड़े जिसे देखकर मेवाड़-राज्य के प्रधान कोषाध्यक्ष भामाशाह नामक ओसवाल सेठ ने कहा कि महाराज, मुझे छोड़कर कहाँ जायगे ? ठहरिये, में भी आपके साथ चलने के लिये आ रहा हूँ। अपनी स्त्री बिदा माँग आऊँ। भामाशाह अपने घर आये और अपने स्त्री पुत्र को बुलाकर कहा कि जिस राज्य की बदौलत हम लोगों ने लाखों करोड़ों की सम्पत्ति पाई है, उसी देश के प्राण महाराणा प्रताप सिंह आज धन के बिना मेवाड़ की इस दीनावस्था में देश कों मुसलमानों के हाथ में छोड़कर जाना चाहते हैं। हमारे धन का सदुपयोग इस समय से बढ़कर नहीं हो सकता।यदि देश अपने पास बना रहेगा तो धन-सम्पत्ति फिर हो जायगी। यह कहकर भामाशाह ने अपनी स्त्री और पुत्र को एक एक वस्त्र पहनाया। महाराणा प्रताप सिंह के पास आकर सारी की सारी सम्पत्ति उनके चरणों मे डाल दी। इतिहासकारों ने लिखा है कि यह सम्पत्ति दस बारह वर्ष तक 20-25 हज़ार सैनिकों के भरण-
पोषण के लिये पर्याप्त थी। इस विपुल धन को पाकर महाराणा ने स्वाधीनता की लीला-भूमि मेवाड़ को त्यागने का विचार छोड़ दिया। सरदारगण और महाराणा प्रताप सिंह जी के हृदय में उत्साह की कमी तो थी ही नहीं, केवल कुछ अवलम्बन की आवश्यकता थी जिसे वेश्य शिरोमणि राजभक्त भामाशाह ने पूरा किया। महाराणा ने नयी सेना एकत्र की ओर मुगल सेना के अधिपति शहबाज खाँ पर टूट पड़े। देवीर में भयानक युद्ध हुआ, जिसमें शहबाज खां ओर उसकी सारी सेना काम आई।
महाराणा ने इसके बाद अमैत नामक दुर्ग पर धावा किया, जहाँ पर
बहुत सी मुसलमान सेना थी। वह किला भी उन्हें मिल गया। मुग़ल सेना काट डाली गई। थोडे से बचे हुए सैनिक कुंभलमेर चले गये। विजयोन्मत्त राजपूत वीरों ने शीघ्र ही कुंभलमेर पर चढ़ाई कर दी ओर मुगल सेनापति अब्दुल्ला तथा समस्त सेना को मार डाला। यद्यपि मुगलों की तुलना में राजपूत सेना कुछ भी न थी तो भी स्वदेशोद्धार की दृढ़ प्रतिज्ञा मुगलों की सेना की संख्या से कहीं अधिक शक्तिवान थी। थोड़े ही दिनों बाद चित्तौड़, अजमेर ओर माण्डलगढ़ को छोड़कर सारा मेवाड़ मुसलमानों के हाथ से छीन लिया गया। अकबर बहुत से घरेलू झगड़ों में पड़ गया तथा वह महाराणा की वीरता पर मुग्ध भी हो गया। इसलिये उदयपुर राज्य पर कोई चढ़ाई न की गई। चितौड़ को शत्रुओं के पास देख महाराणा सदा दुःखी रहा करते थे। जब वे किले के उच्च शिखर से चित्तौड़ के जय स्तम्भो को देखते तभी कहा करते थे कि जब तक चित्तौड़ का उद्धार न होगा तब तक किसी भी प्रकार की वीरता का गौरव करना निर्थक है।
महाराणा प्रताप की मृत्यु कैसे हुई
कष्ट झेलने के कारण प्रौढ़ावस्था में ही महाराणा प्रताप सिंह वृद्ध दिखाई देने लगे थे। चित्तौड़ के उद्धार की चिन्ता से उनके पुराने घाव फिर हरे हो गये।अन्तिम बार उन्होंने अम्बर-पति मानसिंह को देश-द्रोह से बदला देना चाहा इसलिये अम्बर पर चढ़ाई कर दी। यह नहीं कहा जा सकता कि मानसिंह स्वयं लड़े या नहीं, परन्तु कछवाहों ने बड़ी सेना सजाकर महाराणा से युद्ध किया। महाराणा प्रताप सिंह इस युद्ध में विजय प्राप्त कर मालपुर आदि कई गांव लूट कर वापस लौटे। लूट का बहुत सा धन सरदार और सैनिकों को बाँटा गया। पिछोला सरोवर के किनारे महाराणा ने अपने रहने के लिये कई झोपडियां बसाई। एक दिन जब अमरसिंह इन झोंपडियों में प्रवेश करने लगे तो किसी बाँस से अटक कर उनकी पगड़ी गिर गई। उन्होंने फोरन तलवार से उस बॉस को काट डाला और झोंपड़ी बनाने वालों को धमकाया कि इतनी नीची झोंपड़ी क्यों बनाई गई। महाराणा यह देखकर बड़े दुःखी हुए। उनका स्वास्थ्य उस समय अच्छा न था इसलिये वे कुछ न बोले। महाराणा प्रताप सिंह इस बीमारी से अच्छे होकर फिर न उठे। काल ने हिन्दू सूर्य को आस लिया। महाराणा प्रताप सिंह के अंतिम समय में जब सारे सरदार उनकी शेय्या के पास बैठे हुए थे तो महाराणा जी ने बड़ी लम्बी आह निकाली। सारे सरदार रोने लगे। सलुम्बर के अधिपति ने पूँछा महाराज, किस दारुण चिन्ता ने आपकी पवित्र आत्मा को दुखी कर रखा है; आपकी शान्ति क्यों भंग हो रही है? महाराणा ने उत्तर दिया “सरदारजी, अब तक भी प्राण नहीं निकलते। केवल आपकी एक शान्तिमय बाणी की
प्रतीक्षा में हूँ। आप लोग शपथ खाकर कहें कि जीवित रहते मातृभूमि की स्वाधीनता किसी तरह भी दूसरों के हाथ अर्पण न करेंगे। अमरसिंह पर मुझे विश्वास नहीं। वह मेवाड़ के गौरव की रक्षा न कर सकेगा। जिस स्वाधीनता की रक्षा मैंने अपना और अपने सहस्त्र सरदारों का रक्त बहाकर की है, वह ऐश आराम के बदले बेच दी जायगी, इन कुटियों के बदले आराम के महल बनेंगे। अमरसिंह विलासी है उससे इस कठोर व्रत का पालन न होगा।” महाराणा जी की बात सुनकर सब सरदारों ने मिलकर शपथ खाई कि दम मेवाड़ के गौरव और सम्मान की रक्षा करने में कोई बात उठा न रखेंगे। अपने सरदारों के इन धैर्ययुक्त वचनों से महाराणा प्रताप सिंह जी को बड़ी तसल्ली मिली और शान्ति के साथ उन्होंने देह-त्याग किया।
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