महाराणा प्रताप की वीरता और साहस की कहानी

महाराणा प्रताप

“जिस राज़पूत ने मुगल के हाथ में अपनी बहन को दिया है, उस मुगल के साथ उसने भोजन भी किया होगा, सूर्यवंशीय बप्पा रावल का वंशधर उसके साथ भोजन नहीं कर सकता।” ये शब्द थे राजा मान सिंह को महाराणा प्रताप के। राजा मान इस अपमान को सहन नहीं कर सके। वे तुरन्तदिल्ली की ओर चल पड़े और उन्होंने बादशाह अकबर से महाराणा प्रताप द्वारा किये गये दुर्व्यवहार का वर्णन प्रस्तुत किया।

महाराणा प्रताप मेवाड़ के राजा उदयसिह के पुत्र थे। इस समय हिन्दुस्तान का मुगल बादशाह अकबर था। अकबर एक सफल
कूटनीतिज्ञ शासक था, उसने अपनी कूटनीति से सभी राजाओं को अपने आधीन कर रखा था। कई कायर राजपूतों ने मुगल शासक को प्रसन्न करने के लिए तथा उसका कृपा-पात्र बनने के लिये अपनी लड़कियों, बहनों आदि का विवाह उसके साथ कर दिया। किन्तु मात्र-भूमि के सच्चे सपूत ने अंतिम समय तक कठिन यातनाओं को सहते हुए भी अकबर के समक्ष अपना सिर नहीं झुकाया। वह आजादी का दीवाना था। मरना जानता था, झुकना नहीं। इसी कारण महाराणा प्रताप का प्रताप हमेशा बादशाह अकबर की आंखों में खटकता रहता था।

महाराणा प्रताप की वीरता और साहस की कहानी

अपमान का बदला लेने के लिए राजा मानसिंह ने बादशाह अकबर अर्थात अपने बहनोई को महाराणा प्रताप के विरुद्ध काफी भड़काया। अकबर इसी प्रतीक्षा में बैठा था कि राणा से युद्ध कर उसे नीचा दिखाया जाये। अकबर की सेना का प्रतिनिधित्व उसका शाहजादा सलीम कर रहा था। एक विशाल सेना के साथ राजा मानसिंह और सलीम मेवाड़ भूमि की ओर आगे बढ़ते हुये आ रहे थे। इधर वीर केशरी महाराणा प्रताप के पास 22000 (बाईस हजार ) राजपूत और वीर भील भी उसके सहायक थे। परन्तु इन सबसे अधिक सहायक उनके हृदय का प्रचंड उत्साह था। इस सहायता के आधार पर ही महाराणा प्रताप ने मुगलों की महान सेना का मुकाबला पूर्ण दृढ़ता व वीरता के साथ किया।

महाराणा प्रताप के 22000 वीर राजपूत सैनिक अकबर की 9 लाख मुगल सेना पर बाज की तरह टूट पड़े। यद्यपि राजपुत सेना कम थी परन्तु युद्ध कौशल और साहस में यवनों से काफी बढ़ी चढ़ी थी। राणाजी स्वयं एक वीर सैनिक के रूप में मुगल सेना पर भयंकर आक्रमण कर रहे थे, बेचारे यवन उनके आते ही भाग जाते थे, बहुत कम थे जो उनका मुकाबला करने का साहस करते । इधर पहाड़ी घाटियों में वीर भील वाणों से यवन-सेना को तितर- बितर कर रहे थे।

महाराणा प्रताप
महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप अपने प्रचंड शत्रु मानसिंह की खोज कर रहे थे।
इसी मध्य उन्होंने हिंदू बैरी बादशाह अकबर के बड़े पुत्र शहजादा सलीम को अपने सम्मुख देखा तो उनका उत्साह और साहस दूना हो गया। उन्होंने भयंकर भाला उठाया और अपने प्यारे घोड़े चेतक को सलीम की ओर चलाया। उनका प्यारा घोड़ा चेतक एक वीर योद्धा से कम न था, प्रताप का इशारा पाकर वह सलीम के हाथी पर भी चढ़ गया। महाराणा प्रताप के भीषण वार से महावत व शरीर रक्षक गण मारे गये तथा भाग्यवश सलीम हाथ से बच गया। महावत के गिरते हो निरंकुश होकर हाथी शहजादा सलीम को संग्राम से लेकर भागा। शहजादा सलीम भागा परन्तु प्रताप सिंह ने भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। यवनों की अगिनत सेना शाहजादे को बेचाने के लिये अगिनत वार करने लगी। इधर निडर और कठोर राजपूत गण भी प्रताप के प्रताप की रक्षा करने के लिये तथा मुगल सेना का घमण्ड चूर करने के लिये भीषणं युद्ध करने लगे।

सैकड़ों मुगल वीर महाराणा प्रताप जी के हाथ से मारे गये। परन्तु
यवन सेना के सम्मुख बहुत कम संख्या में वीर राजपूत सेना कब तक लोहा लेती, फिर भी यवनों को राजपूतों के भीषण वारों से छठी कादूध याद आ गया था, वे महाराणा प्रताप के नाममात्र से घबरा रहे थे। धीरे धीरे महाराणा की सेना का पक्ष निर्बल होने लगा। राजपूत-कुल-कलंक राजा मानसिंह की खोज करते करते महाराणा प्रताप शत्रु सेना में विचरण करने लगे। परन्तु मस्तक पर मेवाड़ राजछत्र- लगा हुआ था, उसको देख कर मुगल सेना ने इनको घेर लिया। महाराणा प्रताप इस समय विशेष संकट में थे। आसपास में इनकी सहायता के लिये कोई सामन्त या सरदार न था। परन्तु थोड़े ही समय में “जय महाराणा प्रताप की जय” ! का घोष जोरों से सुनाई दिया। इस जयनाद के साथ ही वीरवर भालांपति मन्नाजी झपटते हुये सेना सहित प्रताप के निकट आ पहुंचे, मन्नाजी ने महाराजा से ऐसे संकट के समय राजचिन्ह देकर वहां से निकल जाने की प्रार्थना की। महाराणा ने कहा ” मन्नाजी ! रण में पीठ दिखाना राजपूत का काम नहीं। यह कायरता पूर्ण कार्य मैं नहीं कर सकता। मात्रभूमि की रक्षा के लिए में अन्तिम श्वास तक लड़ता रहूंगा। आप मुझे यह क्या सलाह दे रहे हैं।

मन्नाजी ने कहा “महाराज यह समय विलम्ब करने का नहीं। हिन्दुओं की रक्षा के लिए, मेवाड भूमि को स्वतन्त्र कराने के लिए, मेवाड में घुसे हुए विदेशियों को निकालने के लिए यह आवश्यक है कि आप प्राणों की बलि न दें, हम आपको रण से नहीं हटा रहे वरन्‌ निरन्तर मुगलों (विदेशियों ) से युद्ध करने के लिए यहां से इस समय अलग कर रहे हैं।

मन्नाजी की बातों का महाराणा प्रताप जी पर असर हुआ, उन्होंने राजपूत सरदारों के परामर्श का पालन किया तथा वहां से अलग हो गये। राणा ने अपना छतर और झण्डा झालाजी को दे दिया। इधर वीरवर मन्नाजी को ही राणा समझ कर मुगल सैनिक उन पर टूट पड़े। मन्नाजी ने प्रचएंड युद्ध कौशल दिखाया परंतु, विशाल सेना का मुकाबला न कर सके ओर कई यवनों को मार कर स्वयं भी मातृभूमि की गोद में हमेशा के लिए सो गये।

महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक विश्वासपात्र, मनुष्यों के सम्मान
बुद्धि रखने वाला, इशारा पाते ही हवा से बातें करने लगा। हजारों
लोगों ने महाराणा को रोकने के लिए,उन पर आक्रमण करने के लिए चेतक पर तीर, बरहछे, फेंके परन्तु वह जख्मी होकर भी अपने प्रिय राजा को लेकर मुगल सेना के बीचोंबीच होकर चला जा रहा था। दो पठान सरदारों ने महाराणा का पीछा किया और उन्होंने भी अपने घोड़े दौडा दिये।

महाराणा प्रताप सिंह का छोटा भाई शक्ति सिंह जो इस समय
अकबर की सेना में नायक का काम कर रहा था ? सबकुछ देख
रहा था। राणा के प्राणों को संकट में देख कर ममत्व जाग पडा।
अतः भाई को रक्षार्थ उसने पठान सैनिकों का पीछा किया और उन सैनिकों को अपनी गोली का शिकार बनाया। शक्तिसिंह ने अपने भैया प्रताप को रुकने के लिए कहा किन्तु उन्होंने एक नहीं सुनी और नदी पार करने तक घोड़े पर दौड़ते रहें। जब नदी पार करली तो घोड़ा थक चुका था वे घोड़े से उतर पड़े और पीछे घूम कर देखा तो भाई शक्तिसिंह खड़ा था। महाराणा प्रताप ने कहा “भाई शक्ति ! तुम अब भी मेरे प्राणों के पीछे पड़े हो ! लो आज अपने हाथों से ही इस प्रताप का अन्त कर दो, सारा मेवाड़ उजड़ चुका है और आँखें उजड हुए मेवाड़ को नहीं देखता चाहती” शक्तिसिंह घोड़े से उतर कर महाराणा के चरणों में गिरकर बच्चों की तरह बिलख बिलख कर रोने लगे और कहने लगे कि “भैया ! मेरा अपराध क्षमा कर दो, मुझ दोषी को माफ कर दो। महाराणा प्रताप के नेत्रों में भी आंसू थे। यह था अनूठा: मिलन।

महाराणा प्रताप ने अपने घोड़े की ओर देखा, वह अपनी करुण आंखों से विदाई मांग रहा था। देखते देखते प्यारे चेतक के प्राण-पखेरू उड़ गये। महाराणा का एकमात्र सहारा, युद्ध-स्थल में विश्वास पात्र साथी अंगरक्षक, आज वह भी चल बसा-हमेशा के लिये। महाराणा प्रताप फूट- फूट कर रोने लगे। चेतक की विदाई उनके लिये हृदय विदारक थी। शक्तिसिंह ने उनेको सानतवना दिलाई और अपना घोड़ा राणा-को दे दिया।

इस युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप को अपने देश के लिये,
स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए, मेवाड़-भूमि की मुक्त करवाने के लिये
अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। हिन्दुओं के
तिलक, स्वतन्त्रता के महान पुजारी, प्रात: स्मरणीय महाराणा प्रताप को बारह वर्ष एक सैनिक की भांति भूखे प्यासे रहकर जंगलों और अरावलियों की पहाड़ियों में छिप छिप कर दिन व्यतीत करने पड़े। ऐसी विषम परिस्थिति में भी महाराणा को कभी-कभी अकबर की सेना का मुकाबला करना पड़ता था। उनके साथ छोटे छोटे बच्चे व महारानी भी थी। जीवन पूर्ण कष्टमय था । बादशाह अकबर राणा को पकड़ने की ताक में था। उसने कई प्रयत्न किये परन्तु असफल रहा।

महाराणा प्रताप अपनी स्त्री और बच्चों के साथ बीहड़ जंगलों में घास की रोटी खाकर जीवन निर्वाह करते थे। उन रोटियों को भी कभी कभी वन के बिलांव बच्छों से छीनकर ले जाते, बच्चे रो पड़ते, कितना करुण दृश्य था। परन्तु राणा अपने प्रण से कभी विचलित नहीं हुये। उनको चिन्ता थी केवल मेवाड़ भूमि को बंधनों से मुक्त करने की। हर समय इसी विषय पर चिन्तन रहता था। अन्त में स्वाघीनता के पुजारी, मातृभूमि के सच्चे सपूत की प्रार्थना भगवान ने सुन ली और मेवाड़ भूमि के सच्चे सेवक “भामाशाह ने अपना असंख्य द्रव्य राजाजी के चरणों में अर्पित कर दिया। धन्य है मातृभूमि के लाड़ले भामाशाह को जिसने देशहितअपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। राणाजी के हृदय में पुन: साहस की लहर दौड़ पड़ी और सेना का संगठन कर अपने पौरुष से कई किलो पर अधिकार कर लिया।

परन्तु वे अपने प्रिय चित्तौड़ के किले को मुक्त न करा सके। उससे पूर्व ही उनका स्वास्थ्य गिरता गया और उनको मृत्यु शैय्या पर सोना पड़ा। उन्होंने अपने पुत्र और वीर सामंतों को बुला कर कहा वीर सपूतों दृढ़ संकल्प करो कि मेरे मरने के बाद मेरी प्रतिज्ञा को पूर्ण करोगे। और सम्पूर्ण मेवाड़ की भूमि को स्वतन्त्र कराओगे। सभी उपस्थित वीर सामंतों ने और महाराणा प्रताप के वीर पुत्र अमरसिंह ने मरते दम तक यवनों से स्वतंत्रता संग्राम जारी रखने की दृढ़ प्रतिज्ञा की। इन शब्दों से वीर महाराणा प्रताप की आत्मा को शांति मिली और सदा के लिए मातृभूमि की गोद में सो गए।

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